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Wednesday, December 5, 2018

सुबह सुबह , आँखों देखी ---


पूर्वी दिल्ली की दो आवासीय कॉलोनियों के बीच बहते नाले को ढककर बनाई गई सड़क के बनने से इस क्षेत्र में आना जाना काफी आसान हो गया है। सुबह जब पहली रैड लाइट पर रुकना पड़ा और नज़र सड़क के पार गई तो देखा कि दूसरी ओर की स्लिप रोड़ को स्कूल की बाउंड्री होने के कारण एक ओर से बंद कर दिया गया था जिससे कि कोई वाहन उधर न जा सके। इसका फायदा उठाते हुए स्थानीय निवासियों ने इस जगह को धर्म पुण्य के कार्यों के लिए इस्तेमाल करते हुए कबूतरों को दाना डालने की जगह के रूप में इस्तेमाल करना शुरू कर दिया। एक सूटेड बूटेड व्यक्ति गाड़ी सड़क किनारे पार्क करके अपने बैग से सामान निकालकर सड़क पर डाले जा रहा था। जब पॉलीथिन की थैली खाली हो गई तो उसने उसको वहीँ सड़क पर फेंक दिया। अभी हम उसकी धार्मिक मानसिकता का विश्लेषण कर ही रहे थे कि तभी हमने देखा कि वह सड़क से थैली उठा रहा था।  यह देखकर हमें पर्यावरण के प्रति उसकी जागरूकता और कर्तव्यपरायणता     पर ख़ुशी का अहसास हुआ। लेकिन तभी देखा कि उसने थैली उठाकर थोड़ा सा और आगे बाउंड्री के पास फेंक दी। अब तो हमें उसकी अक्ल पर हंसी भी आ रही थी और तरस भी।

तभी एक और व्यक्ति आया और उसी जगह पर खड़ा होकर बाउंड्री की दिवार पर मूत्र वित्सर्जन करने लगा और पहले व्यक्ति के किये पुण्य पर पानी फेर दिया। बेचारा जाने कब से रोके हुए था क्योंकि इतना बहाया कि कबूतरों के लिए सड़क पर पड़े दाने भी भीग गए। अब तक दो तीन और दानी व्यक्ति भी दाने बिखेरने में लग चुके थे इस प्रक्रिया से अनभिज्ञ। दान और महादान का यह संगम अद्भुत था। पता नहीं रोजाना कितने लोग यहाँ से पुण्य कमाकर जाते हैं लेकिन चौराहे पर सड़क किनारे का यह दृश्य हमें स्वयं को विकसित कहलाने से निश्चित ही रोकता है।     

Tuesday, November 27, 2018

जब मृत्यु के द्वार से वापस लौट आते हैं तो कैसा महसूस होता है --


एक समाचार से पता चला है कि न्यूयॉर्क के स्टोनी ब्रूक यूनिवर्सिटी स्कूल ऑफ़ मेडिसिन में किये गए शोध कार्य से पता चला है कि मनुष्य की मृत्यु के बाद व्यक्ति विशेष को कुछ समय तक अपनी मृत्यु के बारे में अहसास रहता है कि वह मर गया है। इसका कारण यह है कि हृदयगति रुकने पर डॉक्टर तो रोगी को मृत घोषित कर देते हैं लेकिन रक्त संचार बंद होने के बाद भी मनुष्य का मस्तिष्क कुछ समय के लिए कार्यशील रहता है।  इससे डॉक्टरों द्वारा मृत घोषित करने के बाद भी मनुष्य कुछ समय तक देख, सुन और समझ सकता है। यानि उसे मृत्यु के कुछ समय बाद भी जब तक डॉक्टर्स उसे पुनर्जीवित करने में प्रयासरत रहते हैं , रोगी को अपने आस पास घटित होने वाली घटनाओं का पता चलता रहता है। यहाँ तक कि पुनर्जीवन की प्रक्रिया के दौरान डॉक्टर्स और नर्सें क्या बातें करते हैं , यह भी उसे सुनाई और दिखाई देता है और समझ में आता है। ये बातें उन लोगों से पता चली हैं जो हृदयगति बंद होने के बाद डॉक्टरों के प्रयास से पुनर्जीवित हुए थे।

लेकिन इस शोध में बताई गई कुछ बातें सही नहीं लगती। केवल हृदयगति बंद होने पर डॉक्टर्स किसी भी रोगी को मृत घोषित नहीं करते।  मृत घोषित तभी किया जाता है जब मस्तिष्क काम करना बंद कर देता है जिसे डॉक्टर्स कुछ टैस्ट्स द्वारा तय करते हैं। हृदयगति बंद होने पर सी पी आर द्वारा रोगी का हृदय दोबारा चालू करने का प्रयास किया जाता है जो अक्सर सफल रहता है और रोगी ठीक हो जाता है। इस बीच निश्चित ही रोगी को सब अहसास रह सकता है। लेकिन हृदय के साथ जब मस्तिष्क भी काम करना बंद कर देता है , तब मृत्यु घोषित की जाती है जो कम से कम १० मिनट या उससे भी ज्यादा तक पुनर्जीवन प्रक्रिया के प्रयास के बाद किया जाता है।  ऐसे में निश्चित ही रोगी के अहसासों के बारे में किसी को पता नहीं चल सकता। 

यहाँ यह बात भी महत्त्वपूर्ण है कि पुनर्जीवन प्रक्रिया के दौरान क्योंकि रोगी को सब अहसास होता रहता है , इसलिए यह  आवश्यक है कि इस दौरान डॉक्टर्स या नर्सें अपना सारा ध्यान रोगी को पुनर्जीवित करने में ही लगाएं और कोई भी ऐसी बात मुँह से न निकालें जो तर्कसंगत न हो या रोगी की दृष्टि से अशोभनीय हो। साथ ही डॉक्टर्स द्वारा पुनर्जीवित करने का भरपूर प्रयास किया जाना भी आवश्यक है क्योंकि जब तक मस्तिष्क काम करता है , तब तक पुनर्जीवन निश्चित ही संभव है।  लेकिन ब्रेन डेड होने के बाद हृदयगति का आना न सिर्फ निष्फल और निरुपयोगी है, बल्कि रोगी और उसके घरवालों के लिए भी एक असहनीय और लंबित पीड़ा साबित होती है।         
लेकिन मृत्यु शैया पर निश्चेतन या अर्धचेतन अवस्था में लेटे हुए व्यक्ति को वास्तविक रूप से मृत्यु होने तक और
मृत्यु के बाद क्या क्या अनुभव और अहसास होते हैं, यह एक रहस्य ही बना रहेगा।


Saturday, November 24, 2018

२१ वीं सदी में भी पाषाण युग की तरह आदिमानव बनकर रहना कितना उचित है ! एक सवाल, एक विचार --


अंडमान द्वीप समूह में रहने वाले सेंटीनेलिज आदिवासियों के बारे में मिले समाचार से पता चलता है कि देश के एक हिसे में २१ वीं सदी में भी कुछ जनजाति ऐसी हैं जो आधुनिक सभ्यता से पूर्णतया अनभिज्ञ है।  सरकार भी इन्हे इनके मूल स्वरुप में बचाये रखने के लिए भरसक प्रयास कर रही है।  इसीलिए इन द्वीप समूहों मे आधुनिक मानवों का प्रवेश और मिलना जुलना वर्जित है।  इसके पीछे यह सोच है कि ये मनुष्य आधुनिक सभ्यता से दूर होने के कारण आधुनिक जीवन शैली से दुष्प्रभावित हो सकते हैं जिससे ये विभिन्न रोगों के शिकार हो सकते हैं और इनकी प्रजाति लुप्त हो सकती है। इनमे रोगों से लड़ने की क्षमता न के बराबर होती है।  इनका खान पान आदिमानव की तरह है जो कंदमूल, मछली और वन्य जीवों का शिकार कर अपना पेट भरते हैं। इन्हे भी बहरी मानवों से मिलना जुलना बिलकुल पसंद नहीं, इसलिए यदि कोई इनके क्षेत्र में प्रवेश करने का प्रयास करता है तो वे अपने तीरों से भेद कर उसे मार डालते हैं जैसा कि एक अमेरिकी क्रिश्चियन मिसिनेरी युवक के साथ हुआ।

लेकिन प्रश्न यह उठता है कि इन्हे आधुनिक सभ्यता से दूर रखा ही क्यों जाये ! भले ही ये स्वयं अपना क्षेत्र, जीवन शैली और खान पान न छोड़ना चाहते हों, लेकिन विकसित होने का अधिकार इनको भी होना चाहिए। यह तो सरकार को देखना चाहिए कि ये लोग मुख्य धारा में सम्मलित होकर आधुनिकता का लाभ उठा सकें।
देश के बाकि हिस्सों में भी तो हम पिछड़ी जातियों, जनजातियों तथा अन्य पिछड़े वर्ग के उत्थान के लिए कार्य करते हुए उन्हें विकास का लाभ उपलब्ध कराते ही हैं। फिर इन्हे इनके मूल रूप में सभ्यता के पिछड़े स्वरुप में रहकर जीवन यापन करा कर हम क्या हासिल कर रहे हैं, यह समझ से परे है।  पुराने स्मारक हमारी ऐतिहासिक धरोहर हो सकते हैं, लेकिन जीते जागते पिछड़े वर्ग के लोगों को पिछड़े ही रखना क्या उनके प्रति अन्याय नहीं है ! ज़रा सोचना अवश्य चाहिए।     

Friday, October 26, 2018

हमको तो दीवाली की सफाई मार गई ---



किसी को तो धर्म की लड़ाई मार गई ,
किसी को गौ धर्म की दुहाई मार गई।
किसी को प्याज की महंगाई मार गई ,
हमको तो दीवाली की सफाई मार गई !

तीन तीन नौकरों की मेहनत लगी थी ,
साथ में मशीनों की मशक्कत लगी थी ।
वक्त की पाबन्दी की दिक्कत सच्ची थी ,
नौकरों को भी भागने की जल्दी मची थी।

नकली फूलों से धूल की धुलाई मार गई,
कई फालतू सामान की फेंकाई मार गई।
खाली खड़े खड़े टांगों की थकाई मार गई,
ऐसे में अपनी कामवाली बाई भाग गई।

वैसे तो हम मोदी जी के भक्त बड़े थे ,
स्वच्छता अभियान के भी पीछे पड़े थे।
पॉलिटिक्स में 'आप' के ना साथ कड़े थे,
लेकिन लेकर हाथ में हम झाडू खड़े थे।

डर डर करते लाइट्स की सफाई मार गई,
गमलों में सूखे पौधों की छंटाई मार गई।
घर भर के साफ पर्दों की धुलाई मार गई ,
नौकर बनाके हमें आपकी भौजाई मार गई।

किताबों पे देखा कि काफी धूल चढ़ी थी,
मिली वो चीज़ें जो अर्से से खोई पड़ी थी।
क्या रखें क्या फेंकें ये मुसीबत बड़ी थी ,
उस पर डंडा लेकर हाथ में बीवी खड़ी थी।

वाट्सएप के लेखों की लंबाई मार गई,
आभासी संदेशों की बधाई मार गई ।
दोस्तों के फोन्स की बेरुखाई मार गई ,
जूए में हारे हज़ारों की बुराई मार गई।

दफ्तर में जब हम बड़े अफ़सर होते थे ,
दीवाली पर कमाई के अवसर होते थे ।
जाने अनजाने लोग गिफ्ट्स लाते थे ,
हम भी बॉस और मंत्री जी के घर जाते थे ।

पीछे छूटे गिफ्ट्स की लुटाई मार गई ,
दफ्तर में होते जश्न की जुदाई मार गई।
लोगों से बिछड़े ग़म की तन्हाई मार गई ,
रिटायर होकर दफ्तर से विदाई मार गई।

किसी को तो धर्म की लड़ाई मार गई ,
किसी को गौ धर्म की दुहाई मार गई।
किसी को प्याज की महंगाई मार गई ,
हमको बस दीवाली की सफाई मार गई !

Saturday, October 20, 2018

रावण -- एक विचार ...


जलते हए रावण ने
जलाते हुए बन्दों से कहा ,
अरे आधुनिक भक्तो
हर साल मुझे जिलाते हो ,
फिर जिन्दा ही जलाते हो !
ऐसी क्या थी मेरी खता
जो इतने मुझसे हो खफा !
अधूरा सा ही तो था गुनाह
फिर क्यों करते हो मेरा दाह !
देखो अपने आस पास
कितने क़ुरावण रहते हैं !
हरण होती हैं रोज सीतायें
जिनके निशाँ तक मिट जाते हैं !
जाओ पहले किसी ऐसे एक
असुर को सज़ा दिलाकर दिखाओ !
तब ऐ कलयुगी भक्तों तुम मुझे जलाओ !

# एक विचार #

Wednesday, October 17, 2018

मी टू --

जिस तरह ''मी टू'' अभियान के अंतर्गत एक के बाद एक आरोप लगाए जा रहे हैं, यह कोई हैरानी की बात नहीं बल्कि एक ऐसी हकीकत है जो ''टिप ऑफ़ द आइसबर्ग'' की तरह है। समाज में यौन शोषण केवल बच्चियों और महिलाओं का ही नहीं होता बल्कि लड़कों का भी होता आया है। ऐसा पाया गया है कि १८ साल की उम्र तक १५-२० % लड़के यौन शोषण का शिकार हो चुके होते हैं।  एक सर्वेक्षण के अनुसार ३०% बच्चों के यौन शोषण में जान पहचान वाले या रिश्तेदारों का ही हाथ होता है। निसंदेह इसे रोकने के लिए इस विषय को उजागर करना अत्यंत आवश्यक है।

अब सरकार ने कार्यस्थल पर महिलाओं के साथ यौनाचार पर रोक लगाने के लिए आवश्यक अधिनियम लागु किया हुआ है जिसके अंतर्गत कोई भी महिला अपने साथ हुए यौन दुर्व्यवहार के बारे में गठित समिति से शिकायत कर दोषी के विरुद्ध कार्रवाई करा सकती है। लेकिन निजी क्षेत्र में विशेषकर सिनेमा जैसे आकर्षक व्यवसाय में महिलाओं की सुरक्षा के कोई पुख्ता उपाय न होने और कलाकारों का व्यक्तिगत रूप से निर्देशक आदि पर निर्भर होने के कारण महिला कलाकारों का यौन शोषण सदा ही होता आया है। यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है। हालाँकि ताली एक हाथ से नहीं बजती और अक्सर कहीं न कहीं महिलाएं भी इसके लिए जिम्मेदार हो सकती हैं।  लेकिन समाज में महिलाओं की सुरक्षा का उत्तरदायित्त्व सभी पर है और कर्तव्य भी है। इस दिशा में कानून को भी सख्ताई से पेश आना चाहिए।         

Thursday, October 11, 2018

गूगल महाराज की जय --




कुछ ढूंढते ढूंढते हमने देखा कि गूगल सर्च में कुछ भी सर्च करो तो फ़ौरन सारी जानकारी आसानी से मिल जाती 
है।  बस हमने यूँ ही उत्सुकतावश पूछ लिया कि -- Who is Dr T S Daral ? क्लिक करते ही गूगल ने बताया कि 
इसकी जानकारी ११,९०,००० pages में समायी है।  हमने कुछ को खोलकर देखा तो ऐसी ऐसी जानकारियां मिली 
जिनकी जानकारी हमें खुद भी नहीं थी। एक तरह से जब से देश ने कंप्यूटर पर काम करना शुरू किया है, तब 
से अब तक की सारी बातें , कुछ सच्ची , कुछ झूठी , गूगल ने बता डाली। अब एक बात तो तय है कि मनुष्य 
विशेष रहे या न रहे, जब तक सूरज चाँद और गूगल रहेगा, तब तक इंसान तेरा नाम रहेगा। यह फोटो भी हमें 
गूगल से ही मिली      

Thursday, October 4, 2018

एक दिल , कई अफ़साने :


दिल धड़कता है तो समझो,
जीवन का संचार है।

दिल जोर से धड़कता है तो समझो,
किसी से हुआ प्यार है।

दिल फड़फड़ाता है तो समझो, 

बंदा दिल का बीमार है।

दिल धड़कना बंद कर दे तो 

बाय बाय नश्वर संसार है।

दिल बड़ा नाज़ुक होता है ,

ये सदा टूटने को तैयार है।

दिल का रखो पूरा ध्यान, 

यही तो जीवन का आधार है।

Saturday, September 22, 2018

सरकारी अस्पताल --


सरकारी अस्पतालों में क्षमता से ज्यादा रोगियों के आने से सारी व्यवस्था चरमरा जाती है। ओ पी डी में एक डॉक्टर को एक रोगी को देखने के लिए औसतन मुश्किल से डेढ़ मिनट का ही समय मिलता है। वार्डस में एक बेड पर दो या तीन मरीज़ों को भर्ती किया जाना आम बात है।  हमने डेंगू के समय एक बेड पर चार रोगियों को भर्ती होते देखा है। बच्चों के अस्पताल में एक बेड पर जब तीन बच्चे होते हैं तो माँओं को मिलाकर यह संख्या ६ हो जाती है। उस पर डॉक्टर्स और अन्य कर्मचारियों की सीमित संख्या के साथ साथ जगह की भी कमी महसूस होती है क्योंकि अधिकांश बड़े अस्पताल वर्षों पहले बनाये गए थे और तब किसी ने भविष्य में मरीज़ों की संख्या के बारे में अनुमान नहीं लगाया होगा।

ऐसे में सवाल यह उठता है कि किस तरह सरकारी अस्पतालों की व्यवस्था को सुधारा जाये ताकि अस्पताल में आने वाले रोगियों को उपचार में ज्यादा इंतज़ार न करना पड़े और उन्हें संतुष्टि भी हो। सैद्धांतिक हल तो बहुत हैं लेकिन कोई व्यावहारिक/ वास्तविक हल सुझाईये जिसे कार्यान्वित कर हम भी अपने अस्पताल में स्वास्थयकर्मियों और रोगियों, दोनों को कुछ राहत प्रदान कर सकें।   

Wednesday, September 12, 2018

ओ स्त्री कल आना --


ओ स्त्री कल आना :

मध्यप्रदश के एक ऐतिहासिक कस्बे चंदेरी की पृष्ठभूमि में फिल्माई गई हिंदी फिल्म "स्त्री" एक हॉर्रर कॉमेडी फिल्म है जिसे देखते हुए लोगों की चीख और हंसी एक साथ फूट पड़ती है। एक महिला पर हुए अत्याचार के कारण महिला की मृत्यु और उसका भूत बनकर गांव / कस्बे के मर्दों को अँधेरी रात में नाम से बुलाकर उनके कपडे उतारकर गायब करने की कहानी के दृश्य अँधेरी सूनी गलियों में बड़ी खूबसूरती से फिल्माए गए हैं। अंधकार में सुनसान जंगली रास्तों पर तीन दोस्तों में से एक का अपहरण और बैकग्राऊंड में अचानक आती तेज आवाज़ दर्शकों को डराने में सफल रहती है। राजकुमार राव का अभिनय एक बार फिर ज़बरदस्त रहा।  फिल्म में एक सस्पेंसफुल भूमिका में श्रद्धा कपूर का रोल और उपस्थिति मनमोहक लगी। अन्य कलाकारों का अभिनय भी सराहनीय है। 

भूत को दूर रखने के लिए अधिकांश घरों के बाहर लाल पेंट से "ओ स्त्री कल आना" लिखा होता है ताकि भूतनी उसे पढ़कर वापस चली जाये। जहाँ नहीं लिखा होता या यदि लिखे हुए को मिटा दिया गया तो वहीँ भूतनी आकर अपना काम कर जाती है। फिल्म को देखकर आनंद तो आता ही है, साथ ही एक बार फिर भूत प्रेतों की दुनिया के बारे में सोचने पर मज़बूर होना पड़ता है। हालाँकि भूत प्रेतों की कहानियां कपोल कल्पित ही होती हैं जिन पर देहाती लोगों का अंधविश्वास उन्हें मानने के लिए मज़बूर कर देता है। लेकिन इस फिल्म को देखकर महिला के तथाकथित भूत से सहानुभूति और नायक की दृष्टि से प्यार सा होने लगता है। एक बारगी तो लगने लगता है कि काश भूत महिला सदा के लिए ही लड़की के भेष में जिन्दा रह जाती।     

Wednesday, September 5, 2018

हमें शिकायत है :

हमें शिकायत है ,
"उन दोस्तों से जो वाट्सएप्प पर हमें हर सन्डे को 'हैप्पी सन्डे' का मेसेज भेजते हैं लेकिन मंडे से सैटरडे तक हमें हमारे हाल पर छोड़ देते हैं !
ये भी नहीं सोचते कि शुभकामनाओं के बगैर हमारे बाकि दिन कैसे गुजरेंगे !!!!"

हमें शिकायत है,
"उन मित्रों से जो मंगलवार के दिन ना नॉन वेज खाते हैं, ना शराब पीते हैं, और ना ही बाल कटवाते हैं !
ये भी नहीं सोचते कि दो दिन तक जाने कितने दुकानदारों के गल्ले (काले) धन से कैसे भरेंगें ! 
आखिर सोमवार को तो दुकाने वैसे ही बंद होती हैं। फिर मंगल को भी अमंगल !"

हमें शिकायत है,
"उन फेसबुक मित्रों ( महिलाएं और पुरुष , दोनों  ) से जिनसे किसी कार्यक्रम में मुलाकात होने से पहले ही वे सेलेब्रिटी बन गए । अब उनके दुर्लभ दर्शन कैसे सुलभ हो पाएंगे, ये सोच सोच कर ही खाते पीते हुए भी हम दुबले हुए जा रहे हैं !"

हमें शिकायत है,
"उन पत्नियों से जो बोल बोल कर पति की बोलती बंद कर देती हैं, फिर पति से बोलती हैं कि वे कुछ बोलते क्यों नहीं !"  

हमें शिकायत है,
"उन सरकारी अफसरों से जो किसी सरकारी मीटिंग में लंच के लिए खाने की ऐसी थाली मंगवाते हैं जिसे न खाया जाये न छोड़ा जाये !
शाही पनीर , दाल मक्खनी , मिक्स वेज , रायता , चावल / पुलाव और दो लच्छा परांठा , साथ में सलाद और अंत में एक मिठाई !
माना कि सरकारी अफसरों को 'खाने' की आदत होती है।  पर लंच में इतना खाकर तो सिर्फ सोया ही जा सकता है! कोई हैरानी नहीं कि सरकारी काम बहुत धीरे धीरे होते हैं !"


हमें शिकायत है,
"उन लोगों से जो हमारे देश को गरीब बताते हैं। अरे जितना हम खाते हैं, उससे ज्यादा तो हम फेंक देते हैं !"

नोट : पता चला है कि हमारे देश में अन्न की पैदावार ज़रुरत से ज्यादा ही होती है। लेकिन हमारे पास स्टोर करने के लिए सिर्फ ३५ % की ही क्षमता है। लगभग ४० % अन्न नष्ट हो जाता है। यानि बाकि बचे २५ % में हम न सिर्फ अपना गुजारा करते हैं , बल्कि दूसरों को भी खिला देते हैं , एक्सपोर्ट करके। है कोई हम जैसा दानवीर !

Thursday, August 23, 2018

बारौठी , एक हरियाणवी रिवाज़ जो अब लुप्त हो गई है ---


बारौठी :

शहर और हरियाणवी गांवों की शादियों में बहुत अंतर होता है। हालाँकि अब शहरों में रहने वाले हरियाणवी लोग भी गांव की रीति रिवाज़ों को छोड़ कर शहरी ढंग से शादियां करने लगे हैं। लेकिन यू एस से आये लड़के के परिवार को सांकेतिक रूप में सब रीति रिवाजों को निभाने की इच्छा थी।  इसलिए शहर के परिवेश में पारम्परिक रूप से सभी रस्में निभाई गईं।  फिर भी एक रिवाज़ रह गई जिसे बारौठी कहते हैं क्योंकि इसके लिए गुंजाईश ही नहीं थी। आइये बताते हैं कि बारौठी क्या होती थी :

पुराने ज़माने में लड़का और लड़की शादी से पहले ना तो एक दूसरे से मिल पाते थे , और ना ही देख पाते थे।  जो घर के बड़ों ने तय कर दिया, वही मंज़ूर होता था। लेकिन शादी के दिन बारात आने के बाद सबसे पहला काम यही होता था कि लड़का लड़की एक दूसरे को देख लें और स्वीकृति प्रदान कर दें।  हालाँकि यह भी केवल सांकेतिक रूप में और औपचारिकता निभाने के लिए ही होता था क्योंकि आज तक हमने कभी नहीं सुना कि किसी ने किसी को शादी वाले दिन देखकर नापसंद किया हो।  दूल्हा बैंड बाजे के साथ दुल्हन के घर जाता था , जहाँ उसे द्वार पर रोक दिया जाता था।  सामने दुल्हन के घर की सभी महिलाएं स्वागत में खड़ी होती थी और दूल्हे के पीछे एक चादर तान दी जाती थी ताकि बाकि सब लोग न देख पाएं।  इसी बीच अचानक चुपके से दुल्हन आकर एक झलक दूल्हे की देख लेती थी।  अक्सर दूल्हे को पता भी नहीं चलता था कि लड़की कब देखकर चली गई।  लड़की दूल्हे पर चावल के कुछ दाने फेंककर घर के अंदर चली जाती थी।  इसका मतलब यह होता था कि दुल्हन ने अपनी स्वीकृति प्रदान कर दी।  इसके बाद दूल्हा घर में प्रवेश करता था जहाँ उसे एक चारपाई पर बिठाकर घर की औरतें मिठाई खिलाकर दूल्हे का मुंह मीठा कराती।  इस तरह स्वीकृति के बाद बाकि सब रस्में बाद में निभाई जाती थी।

लेकिन शहरों में यह रिवाज़ निभाना संभव ही नहीं हो सकता क्योंकि पंडाल के द्वार पर घर के सब लोग बारात और दूल्हे का स्वागत करते हैं और दूल्हा सीधा स्टेज पर पहुँच जाता है जहाँ थोड़ी देर बाद दुल्हन भी पहुँच जाती है। वैसे भी आजकल या तो लड़का लड़की पहले से ही एक दूसरे को जानते हैं या आयोजित (अरेंजड मैरिज) में भी प्रेमालाप (कोर्टशिप) से अच्छी जान पहचान हो जाती है। अब तो शादी से पहले लड़का लड़की मिलकर अपनी विवाह पूर्व (प्री मेरीज) फिल्म भी बनवाने लगे हैं। इसलिए सभी हो हल्ले के बीच एक यही रिवाज़ है जो अब देखने में नहीं आती।   

Thursday, August 16, 2018

हम और तुम --


जिंदगी भर जीते रहे ,
जिन्हे जिंदगी देने,
सजाने और संवारने में।
अब जब ,
वे नभ में उड़ चले,
और व्यस्त हैं ,
स्वच्छंद जिंदगी बनाने में।
तब एक बार फिर
बस हम और तुम हैं ,
तीसरा नहीं कोई हमारे बीच।
बस 'तू' रहे और तेरा साथ ,
डाले हाथों में हाथ,
यूँ ही साथ साथ।
चलो एक बार फिर से खोज लें ,
हम और तुम, दोनों, अपने आप को।

Thursday, August 9, 2018

हमारी धार्मिक आस्था के नाम पर अराजकता फ़ैलाने पर रोक लगनी चाहिए --


सावन के उमस भरे महीने में कंधे पर गंगा जल से भरे लोटे का भार उठाये हुए, पैरों में पड़े छालों की परवाह किये बिना, नंगे पांव २५० किलोमीटर पैदल चलते हुए, अपनी मंज़िल तक पहुंचना, सचमुच दिल की गहराइयों में बसी शिव भक्ति और श्रद्धा भावना का प्रतीक है। यह देखकर कांवड़ियों के प्रति प्रेम और सहानुभूति की मिली जुली भावना मन में आना स्वाभाविक है। कुछ युवक तो साल दर साल इस यात्रा में सम्मिलित होकर गर्वान्वित मह्सूस करते हैं। यह और बात है कि इस बेहद कष्टदायक प्रक्रिया को पूर्ण करने से व्यक्ति विशेष को सिवाय मन की आंतरिक प्रसन्नता के कुछ और हासिल नहीं होता।

लेकिन शिव भक्ति की आड़ में कुछ असामाजिक तत्त्व समाज और कानून की धज्जियाँ उड़ाते हुए अपनी मनमानी करते नज़र आते हैं। यह समस्या दिन प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही है। ज़रा सोचिये,
* ट्रकों पर हज़ारों वाट का म्यूजिक सिस्टम लगाकर, शराब पीकर, रास्ते में भांगड़ा करते १२ साल से लेकर २०-२२ साल तक की आयु के युवा क्या कहलायेंगे !
* या फिर एक बाइक या स्कूटर पर गेरुआ टी शर्ट और कच्छा पहनकर, हाथों में बेसबॉल बैट पकड़े, बिना हेलमेट के  तीन तीन युवा बैठकर सडकों के बीचों
  बीच सीधी उलटी दिशा में बेधड़क ड्राईव करते हुए क्या शिव भक्त कहलायेंगे ! 
* कानून भी ऐसे में धार्मिक आस्था के नाम पर मनमानी करने के लिए खुली छूट दे देता है।
* इसी कारण इन दिनों में दिल्ली की सडकों पर कोई भी गेरुए वस्त्र पहनकर बाइक पर बिना हेलमेट मस्ती करता हुआ घूम सकता है क्योंकि उसे विश्वास होता
  है कि कोई ट्रैफिक पुलिस वाला उसका चालान नहीं काट पायेगा। 
*  देखा जाये तो यह धार्मिक सहिष्णुता का दुरूपयोग है जिसका दुष्परिणाम आम जनता को भुगतना पड़ता है।     
कुछ लोग इसे विभिन्न धर्मों से जोड़कर दलील देते हैं कि जब अन्य धर्मों के लोग धर्म का दुरूपयोग करते हैं, तब कोई शोर नहीं मचता। धर्म चाहे कोई भी हो , कोई भी धर्म अनुयायियों को गलत रास्ते पर चलने का निर्देश नहीं देता, न ही बाध्य करता है। एक दूसरे को देखकर गलतियाँ करते रहना धर्म का ही विनाश है। धर्म हमारा सही रास्ते पर चलने का मार्गदर्शन करता है। इसलिए धर्म और धार्मिक आस्था की आड़ में अमानवीय व्यवहार सहन नहीं किया जाना चाहिए और इसे रोकने के लिए प्रशासन को ठोस और कठोर कदम उठाने चाहिए।         

Friday, July 20, 2018

फिर न होगा कोई ऐसा -- श्री गोपाल दास नीरज -- श्रद्धांजलि --






श्री गोपाल दास नीरज से हमारी पहली और अंतिम मुलाकात ८ साल पहले दिल्ली के हिंदी भवन में हुई थी जब हमें उनका एकल कविता पाठ सुनने का सुअवसर मिला था। लगभग दो घंटे तक अकेले ही श्रोताओं से खचाखच भरे हॉल को नई और पुरानी कवितायेँ और गीत सुनाकर उन्होंने ऐसा समां बांधा कि सब मंत्रमुग्ध हो गए। उनकी सुनाई कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार थीं :

तन से भारी सांस है , इसे जान लो खूब
मुर्दा जल में तैरता , जिन्दा जाता डूब ।

ज्ञानी हो फिर भी न कर , दुर्जन संग निवास
सर्प सर्प है भले ही , मणि हो उसके पास ।


जितना कम सामान रहेगा
उतना सफ़र आसान रहेगा
जितना भारी बक्सा होगा
उतना तू हैरान रहेगा ।

आज भले ही नीरज जी हमारे बीच नहीं रहे , लेकिन उनके सर्वप्रिय गीतों और कविताओं में वे सदा जिन्दा रहेंगे। नमन ... विनम्र श्रद्धांजलि ...

Thursday, July 19, 2018

संजू -- एक बड़े लेकिन शरीफ बाप के बिगड़े बेटे की दर्दभरी कहानी ---

पहले हमने सोचा कि ये फिल्म पहले ही बहुत कमा चुकी है, इसलिए क्या फर्क पड़ता है !  फिर ना ना करते देख ही ली।  हालाँकि देखकर अच्छा भी लगा और कुछ बुरा भी। फिल्म के पहले भाग में संजय दत्त की जिंदगी की डार्क साइड दिखाई गई है जिसे देखकर बहुत दुःख होता है कि किस तरह अच्छे घरों और बड़े मां बाप के बेटे बिगड़ जाते हैं। हालाँकि इसमें अक्सर उनका कोई कसूर नहीं होता। लेकिन दूसरे भाग में बेटे का पिता के प्रति प्यार और मान सम्मान देखकर अच्छा लगा ( यदि कहानी में सत्य पर ध्यान दिया गया है तो निश्चित ही यह सराहनीय है।) जेल के दृश्य वास्तव में विचलित करते हैं।  संजय दत्त को विदेश में फटेहाल भीख मांगते देखकर बहुत अफ़सोस हुआ।   

लेकिन फिल्म में रणबीर कपूर का अभिनय और मेकअप दोनों ही गज़ब के हैं। दोनों का कद लगभग एक जैसा होने और चेहरे में समानता होने से और आवाज़ को भी मिला देने से बहुत बढ़िया इफेक्ट आया है। साथ ही फिल्म में दोस्त की भूमिका में विक्की कौशल का सहनायक के रूप में रोल भी बहुत जमा और हास्य का पुट आया जिसने फिल्म को बोझिल होने से बचा लिया। फिल्म में दसियों जाने माने कलाकार हैं जिनमे सभी का रोल बढ़िया रहा। 

कुल मिलाकर यही महसूस हुआ कि सुनील दत्त जैसी जेंटलमेन व्यक्ति के लिए कितना मुश्किल हुआ होगा परिस्थितियों से जूझना, जब एक ओर पत्नी कैंसर से लड़ रही थी, और दूसरी ओर इकलौता बेटा बर्बादी की राह पर जा रहा था।  किसी भी बाप के लिए इससे ज्यादा कष्टदायक और कुछ नहीं हो सकता। निश्चित ही औलाद का ग़म ऐसा ही होता है।    

Wednesday, July 11, 2018

टाइम बैंक -- बुजुर्गों का साथी :



देश में बुजुर्गों की संख्या निरंतर बढ़ती जा रही है। विशेषकर शिक्षित परिवारों में बुजुर्गों के एकाकीपन की समस्या और भी गंभीर होती जा रही है क्योंकि अक्सर बच्चे पढ़ लिख कर घर, शहर या देश ही छोड़ देते हैं और मात पिता अकेले रह जाते हैं। अक्सर ऐसे में बुजुर्गों को सँभालने वाला कोई नहीं रहता जो उनकी रोजमर्रा की ज़रूरतों को पूरा करने में सहायता कर सके।

पता चला है कि स्विट्ज़रलैंड में सरकार द्वारा ऐसे टाइम बैंक स्थापित किये गए हैं जिनमे आपका समाज सेवा का लेखा जोखा रखा जाता है। वहां युवा वर्ग और शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ लोग अपने फालतू समय में समाज के बुजुर्गों के लिए काम करते हैं और जितने घंटे काम किया , उतने घंटे उनके खाते में जमा हो जाते हैं। यह कार्य स्वैच्छिक और सुविधानुसार होता है जिसे वे तब तक करते हैं जब तक स्वयं समर्थ होते हैं। जब वे स्वयं असमर्थ हो जाते हैं, तब अपने टाइम बैंक के खाते से घंटे निकाल लेते हैं।  यानि बैंक उनकी सहायता के लिए किसी और को घर भेज देता है जो सहायता करता है।  इस तरह यह क्रम चलता रहता है। आपके खाते में जितने घंटे जमा हुए , उतने घंटों की सेवा आप प्राप्त कर सकते हैं। इसलिए किसी बुजुर्ग को न तो अकेलापन महसूस होता है और न ही उन्हें वृद्ध आश्रम में जाकर रहना पड़ता है।

यदि इस तरह की कोई योजना यहाँ भी बनाई जाये तो शायद बुढ़ापे में बहुत से लोगों को राहत मिल सकती है। लेकिन हमारे देश और स्विट्ज़रलैंड में बहुत अंतर है।  वहां आबादी कम है और संसाधन ज्यादा।  लोग भी मेहनती , निष्ठावान और कर्मयोगी होते हैं।  वे अपने देश से प्रेम करते हैं और नियमों का पालन करते हैं।  लेकिन हमारे यहाँ अत्यधिक आबादी , भ्रष्टाचार , कामचोरी , हेरा फेरी और धोखाधड़ी का बोलबाला है।  ऐसे में यह योजना सफल होना तो दूर, कोई इसके बारे में सोच भी नहीं सकता। ज़ाहिर है , पहले हमें अपनी बुनियादी समस्याओं से सुलझना होगा।  तभी हम विकसित देशों के रास्ते पर चल पाएंगे। 

  

Thursday, July 5, 2018

न जाने क्यों ---


जाने क्यों ,
बारिश का मौसम है , पर बरखा नहीं आती !
बदल तो आते हैं पर , काली घटा नहीं आती।

जाने क्यों ,
आंधियां चलती हैं पर , अब पुरवाई नहीं चलती,
मौसम बदलता है पर , अब तबियत नहीं मचलती।  

जाने क्यों ,
आसमान दिखता है पर , अब नीला नज़र नहीं आता।
जंगल है ये कंक्रीट का , यहाँ कोई मोर नज़र नहीं आता।     

जाने क्यों ,
लाखों की भीड़ है , पर इंसान अकेला है।
मकां तो शानदार है , पर घर इक तबेला है।

जाने क्यों ,
विकास तो हुआ है , पर हम विकसित नहीं हुए।
स्कूल कॉलेज अनेक हैं , पर हम शिक्षित नहीं हुए।
  
जाने क्यों ,
धर्म के चक्कर में , हम अधर्मी हो गए।
इंसानियत को भूले , और हठधर्मी हो गए।  

जाने क्यों ,
हम समझदार तो हैं , पर ये बात समझ नहीं पाते।
एक दिन खाली हाथ ही जाना है, छोड़ के धन दौलत और रिश्ते नाते। 

फिर भी जाने क्यों ,
हम व्यस्त हैं,  अस्त व्यस्त होने में।
और मस्त हैं ,  मोह माया का बोझ ढोने में। 
जाने क्यों , जाने क्यों !




Saturday, June 23, 2018

कुछ बातें इतिहास के पन्नों में दब कर गुम हो जाती हैं --



देश के इतिहास में १९७५ -७७ का समय एक काला धब्बा माना जाता है जब तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी ने देश में एमरजेंसी लागु कर दी थी। इसी दौरान इंदिरा गाँधी के उत्तराधिकारी माने जाने वाले उनके छोटे सुपुत्र श्री संजय गाँधी भी फैमिली प्लानिंग योजना को लागु करने में हुए कुप्रबंध और कुशासन के कारण बहुत बदनाम हुए थे। लेकिन यदि ध्यान से सोचा जाये तो हम पाते हैं कि संजय गाँधी एक बहुत ही साहसी और दूरगामी दृष्टि वाले नेता थे।  देश के इतिहास में अभी तक सिर्फ संजय गाँधी ने ही देश की अनियंत्रित बढ़ती आबादी के बारे में सोचा।  उससे पहले और उसके बाद आज तक किसी भी नेता या प्रधानमंत्री ने देश की इस सबसे बड़ी समस्या का हल निकालने के लिए कोई कदम उठाने की हिम्मत नहीं की। फैमिली प्लानिंग प्रोग्राम को बदनाम  कराने वाले भी वो सरकारी नौकर ही थे जिन्हे नसबंदी को प्रोत्साहन देने के लिए ५ - ५ केस कराने की जिम्मेदारी दी गई थी लेकिन कुछ लोगों ने मेहनत करने के बजाय हेरा फेरी करते हुए नाबालिग बच्चों को पकड़कर जबरन नसबंदी करा डाली। हालाँकि इसमें डॉक्टर्स का रोल भी गैर जिम्मेदाराना ही माना जायेगा। परिणामस्वरूप न सिर्फ यह प्रोग्राम फेल हुआ बल्कि आज तक फिर किसी ने नसबंदी का नाम लेने की हिम्मत नहीं की।

आज पुरुष नसबंदी स्वैच्छिक रूप से की जाती है लेकिन स्वेच्छा से नसबंदी कराने के लिए बहुत ही कम पुरुष सामने आते हैं। नतीजा सामने है , कुछ ही वर्ष में आबादी के मामले में हम विश्व के नंबर एक देश बन जायेंगे। जहाँ चीन ने एक बच्चे की सीमा निर्धारित कर अपनी बढ़ती जनसँख्या पर नियंत्रण पा लिया , वहीँ आज भी हम   ४ - ६ बच्चे धड़ल्ले से पैदा किया जा रहे हैं। इसमें किसी धर्म विशेष को दोष न दें, क्योंकि बढ़ती जनसँख्या का कारण धार्मिक विश्वास ही नहीं बल्कि अशिक्षा , गरीबी और अज्ञानता ज्यादा है। लगता है कि अब समय आ गया है जब सरकार को चीन की तरह एकल बाल परिवार योजना लागु कर देनी चाहिए।  तभी अगले तीस सालों में हम अपनी बढ़ती जनसँख्या को स्थिर कर पाएंगे। लेकिन ऐसा करने के लिए सरकार को वोट की राजनीति से ऊपर उठना होगा , तभी इस नियम को सख्ताई से लागु कर पाएंगे।   

Monday, June 18, 2018

देश को कैसे विकास की राह पर आगे ले जाएँ ---


हमारे देश की सबसे बड़ी और जन्मदाता समस्या है जनसँख्या। १३० + करोड़ की जनसँख्या में जिस तरह निरंतर वृद्धि हो रही है, उससे यह निश्चित लगता है कि अगले ५ वर्षों में हम चीन को पछाड़ कर विश्व के नंबर एक देश हो जायेंगे। लेकिन जिस तरह के हालात हमारे देश में हैं, उससे बढ़ती जनसँख्या अन्य समस्याओं की जन्मदाता बन जाती है। महंगाई , बेरोजगारी , संसाधनों की कमी , प्रदुषण और भ्रष्टाचार इसी की अवैध संतानें हैं। लेकिन सवाल यह उठता है कि इसके लिए जिम्मेदार कौन है। हालाँकि निसंदेह देश का विकास सरकार के हाथ में है, लेकिन सिर्फ सरकार को दोष देना सर्वथा अनुचित है। जब तक देश के लोग अपना कर्तव्य नहीं समझेंगे और उसका पालन नहीं करेंगे , तब तक हालात बद से बदतर ही होते जायेंगे।

१. जनसँख्या :  १९८० के बाद जनसँख्या वृद्धि दर भले ही २.०  से घटकर 1.२ हो गई हो , लेकिन तथ्य बताते हैं कि पिछले ४० सालों में जनसँख्या लगभग दोगुनी हो गई है। २१वीं सदी में लगभग ३० % जनसँख्या बढ़ी है। इतनी स्पीड से कोई देश नहीं बढ़ रहा। ज़ाहिर है, बढ़ती जनसँख्या में गरीबों की संख्या ही ज्यादा बढ़ रही है।  आज देश में ८०% लोगों की आय न्यूनतम वेतन के बराबर या उससे भी कम है।  भले ही हमारे देश में करोड़पति और अरबपति लोगों की संख्या भी बहुत है, लेकिन आर्थिक दृष्टि से तो हम नीचे और नीचे ही जा रहे हैं।

२. भ्रष्टाचार :  इस मामले में भी हम दूसरे देशों की अपेक्षा काफी आगे हैं। सरकारी दफ्तरों में भ्रष्टाचार ऊपर से लेकर नीचे तक व्याप्त है। निजी संस्थानों और उपक्रमों में भी पैसा कमाना ही उद्देश्य रह गया है। नेता हों या ब्यूरोक्रेसी , अफसर हो या चपरासी , सभी अपना दांव लगाते रहते हैं।  कोई भी विभाग भ्रष्टाचार से मुक्त नहीं है। सरकारी नौकरी हो या कोई  हो , पैसा या सिफारिश लगाकर काम कराना लोगों की आदत सी बन गई है।

३. कर चोरी : किसी भी देश या राज्य में अनंत काल से राजा या सरकारें जनता के लिए कार्य करने हेतु जनता से कर वसूलते आये हैं। यदि कर की राशि जनहित में खर्च की जाये तो इसमें कोई बुराई भी नहीं, बल्कि एक आवश्यक प्रक्रिया है। लेकिन हमारे देश में कर की चोरी करना एक आम बात है।  ऐसा लगता है कि सरकारी नौकरों को छोड़कर जिनका कर श्रोत पर ही काट लिया जाता है , कोई भी व्यक्ति ईमानदारी से कर नहीं चुकाता।  भले ही आयकर हो या  बिक्री कर या फिर संपत्ति कर , कर चोरी एक आम बात है। बिना कर चुकाए सरकार से विकास की उम्मीद रखना भी एक बेमानी है। यहाँ सरकार का भी कर्तव्य है कि जनता से लिया गया कर देश के कार्यों में इस्तेमाल किया जाये न कि नेताओं और बाबुओं की जेब भरने के काम आये।     

४. नैतिकता : किसी भी देश में पूर्ण विकास तब तक नहीं हो सकता जब तक उस देश के नागरिक नैतिक रूप से सशक्त ना हों। अक्सर हम बहुत सी समस्याओं को सरकार के भरोसे छोड़ देते हैं। जब तक सरकारी काम को भी हम अपना काम समझकर नहीं करेंगे, तब तक विकास में बढ़ाएं उत्पन्न होती रहेंगी।

५. अनुशासन : आज हमारे देश में अनुशासन की सबसे ज्यादा कमी है। घर हो या बाहर , सडकों पर , दफ्तरों में और अन्य सार्वजानिक स्थानों पर हमारा व्यवहार अत्यंत खेदपूर्ण रहता है।  सडकों पर थूकना , कहीं भी पान की पिचकारी मारना , खुले में पेशाब करना , गंदगी फैलाना , यातायात के नियमों का पालन न करना आदि ऐसे कार्य हैं जो हमें सम्पन्न होते हुए भी अविकसित देश की श्रेणी की ओर धका रहे हैं।   

६. अपराध : जनसँख्या अत्यधिक होने से अपराध भी बढ़ते हैं। लेकिन इसमें ज्यादा दोष है न्यायिक प्रणाली में ढील होना।  इंसान डर से ही डरता है।  डर सजा का या फिर जुर्माने का।  यदि डर ही न हो तो कोई भी इंसान बेईमान और हैवान बन सकता है।  विदेशों में कानून का सख्ताई से पालन किया जाता है।  इसलिए वहां कानून का उल्लंघन करने वालों की संख्या कम रहती है। लेकिन यहाँ चोरी , डकैती , लूटपाट , हत्या , बलात्कार और अपहरण जैसी वारदातें करते हुए अपराधी लोग ज़रा भी नहीं डरते। जांच पड़ताल में खामियां और न्याय में देरी  से बहुत से अपराधी साफ बरी हो जाते हैं जिससे अपराधियों का हौंसला और बढ़ जाता है।   

ज़ाहिर है, यदि हमें अपने देश को विकास की राह पर अग्रसर रखना है तो हमें सरकार पर पूर्णतया निर्भर न रहते हुए अपने फ़र्ज़ का पालन करते हुए विकास में अपना योगदान देना होगा।  तभी हमारा देश विकास की रह पर आगे बढ़ सकता है। वर्ना अमीर और अमीर होते जायेंगे और गरीब बहुत गरीब।  यह बिगड़ती हुई  सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था कभी भी विनाश की जड़ बन सकती है।    
    

Thursday, June 7, 2018

डर है तो इंसान है , वर्ना हैवान है ...

हम भारतीय अपने देश में जितना चाहे अराजकता फैला लें , लेकिन विदेश जाकर सभ्य इंसानों की तरह व्यवहार करना शुरू कर देते हैं।  इसका कारण है वहां नियमों और कानून का सख्ताई से पालन किया जाना। यानि कोई नियम या कानून तोड़ने पर आपको भारी जुर्माना भरना पड़ सकता है। उस दशा में ना कोई चाचा ( सिफारिश ) काम आता है न ही धन दौलत ( रिश्वत )। इसका साक्षात उदाहरण हमने देखा अपने यूरोप टूर पर। आईये देखते हैं , कैसे :

१. सीट बेल्ट :

यूरोप में बस की सभी सीटों पर बैल्ट लगी होती हैं और हर यात्री को सीट बैल्ट बांध कर रखनी पड़ती है। टूर मैनेजर ने बताया कि हाईवे पर कहीं भी कभी भी अचानक पुलिस सामने आ जाती है और गाड़ी की चेकिंग करती है।  यदि कोई बिना सीट बैल्ट बांधे पकड़ा गया तो जुर्माना सीधे १५० यूरो होता है। ज़ाहिर है , सभी ने तुरंत हिसाब लगा लिया कि १२००० रूपये का जुर्माना ! फिर तो सभी बैठते ही बैल्ट बांध लेते थे।

२. बाथरूम को गीला करना :

यह जानकर आपको अजीब लगेगा कि वहां बाथरूम में ड्रेनेज नहीं होता। नहाने के लिए टब बने होते हैं जिसमे पर्दा या स्क्रीन का पार्टीशन होता है जिससे कि पानी बाहर ना आये। इसलिए यदि वॉशबेसिन में हाथ धोते हुए आपने पानी बिखेर दिया तो उसे निकलने की जगह ही नहीं मिलेगी। मैनेजर ने बताया कि ऐसा होने पर चेक आउट के समय आपसे बड़ी रकम हरज़ाने के रूप में वसूल की जा सकती है।  एक बार एक मेहमान को २०० यूरो (१६००० रूपये) भरने पड़ गए थे। हो सकता है यह बात सिर्फ डराने के लिए कही गई हो, लेकिन इसका परिणाम यह हुआ कि सभी बाथरूम का इस तरह ध्यान रखते थे जैसे वो बाथरूम नहीं बल्कि घर का मंदिर हो।

३. समय का पाबंद होना :

पैकेज टूर में यात्रा कार्यक्रम पहले से बना होता है और समय की बड़ी पाबन्दी होती है। इसलिए सभी यात्रियों का समय पर तैयार होना और बस में बैठना आवश्यक होता है।  हमारी मैनेजर बार बार यही ध्यान दिलाती थी कि यदि समय पर नहीं पहुंचे तो बस छोड़कर चली जाएगी , किसी का इंतज़ार नहीं करेगी।  फिर आना खुद टैक्सी पकड़कर।  साथ ही वह बड़ी गंभीरता से अगले गंतव्य का पता और रुट भी बता देती थी। अब यह सुनकर सभी को सोचने पर मज़बूर होना पड़ता था कि अनजान शहर में टैक्सी पकड़कर कैसे पहुंचेंगे।  इसी से सभी ने समय का ध्यान रखा और नियमितता का पालन किया।

उपरोक्त बातें छोटी छोटी सी हैं और हम सब जानते हैं।  लेकिन अपने देश में न तो पालन करने की आवश्यकता मह्सूस करते हैं और न ही किसी का डर होता है।  लेकिन विदेशों में भारी जुर्माने के डर से हम भीगी बिल्ली बन जाते हैं और अनुशासित रूप में व्यवहार करने लगते हैं।  ज़ाहिर है, इंसान डर से ही डरता है।  डर चाहे वो जुर्माने का हो, या सज़ा का। डर नहीं तो इंसान इंसान नहीं रहता। पता नहीं हमारे देश में यह डर कब पैदा होगा और कब हम भी इंसान बनेंगे !  

Sunday, May 27, 2018

कुदरत की देन को संभालना तो खुद ही पड़ता है - यूरोप , एक सैर ....


पिछले १७ -१८ दिन से हम आपको यूरोप की मुफ्त सैर करा रहे हैं।  अच्छी अच्छी फोटोज दिखा रहे हैं , लुभा रहे हैं , चिड़ा रहे हैं और शायद जला भी रहे हैं। लेकिन अब समय है सभी मानवीय भावनाओं को अलग रखकर कुछ आत्मनिरीक्षण करने का। आईये देखते हैं क्या अंतर है यूरोपियन देशों और हमारे देश में और इसके लिए कौन और कैसे जिम्मेदार है।

यूरोप की ख़ूबसूरती :

१. बेहतरीन मौसम : जहाँ गर्मी में भी पल पल बदलता मौसम , कभी धूप कभी बादल और बिना गरज के छींटे , वातावरण को खुशगवार बनाते हुए।  बेशक यह कुदरत की देन है।  लेकिन कुदरत के इस तोहफे को यूरोपियन्स ने बड़ी ही समझदारी से भुनाया है।

२. जनसँख्या : उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि है जनसँख्या पर नियंत्रण।  लगभग सभी यूरोपियन देशों में जनसँख्या वृद्धि की दर शून्य के करीब है।  कुछ देशों में तो यह माइनस में है।  यानि वहां बढ़ती जनसँख्या की कोई चिंता ही नहीं है।

३.सक्रीयता :  इसका एक परिणाम यह है कि वहां वरिष्ठ नागरिकों की संख्या बढ़ती जा रही है। लेकिन इसकी आपूर्ति वे लोग ८० -८५ वर्ष की आयु तक भी काम करके पूरी करते हैं।  यह देखकर बड़ी हैरानी होती है कि एक बड़े से स्टोर में एक अकेली बुढ़िया अपने पोपले मुँह से मुस्कारते हुए आपको सामान बेच रही होती है। लेकिन देखने में वह ५०-६० की ही लग रही होती है। वहां काम के मामले में कोई छोटा बड़ा नहीं होता।  कोई नौकर और मालिक नहीं होता।  रेस्टोरेंट का मैनेजर भी ज़रुरत पड़ने पर सर्विस देने लगता है। बंद करने के समय मैनेजर भी झाड़ू लगाता नज़र आएगा। 

४. कर्तव्यपरायणता :  स्विट्ज़रलैंड को आसानी से विश्व का सबसे खूबसूरत देश कहा जा सकता है क्योंकि वहां एक ही नज़र में मीलों तक फैले हरे भरे मैदान,  मैनिक्यूर्ड लॉन्स और लहलहाते हरियाली भरे खेत नज़र आते हैं।  लेकिन इसको हरा भरा बनाये रखने के लिए वे सरकार पर निर्भर नहीं रहते।  हर गांववाला अपने खेतों,  क्षेत्र और जायदाद को हरा भरा रखने के लिए खुद जिम्मेदार होता है।  सरकारी ज़मींन को भी गांववाले बारी बारी से घास काटने और मेन्टेन करने का काम करते हैं।

५. सफाई : कोई भी शहर तभी सुन्दर दिख सकता है जब वहां सफाई का विशेष ध्यान रखा जाये। वहां सभी शहरों की गलियां , सड़कें और अन्य सार्वजानिक स्थान एकदम स्पॉटलेसली क्लीन नज़र आते हैं। बार बार होती बारिश निश्चित ही इसमें सहायक सिद्ध होती है लेकिन उनका कचरा नियंत्रण बेहतरीन है।  साथ ही जनता में सफाई के प्रति बेहद जागरूकता है , कोई भी कुछ भी सड़क पर नहीं फेंकता , बल्कि जगह जगह बने कूड़ादान में ही डालते हैं।

६. सड़कें : वहां की सड़कें बहुत कम चौड़ी हैं और दो ही लेन की होती हैं।  लेकिन इसके बावजूद सडकों पर वाहन बहुत ही अनुशासित रूप से चलते हैं , लाल बत्ती पर रुकते हैं , लेन में चलते हैं , कभी हॉर्न नहीं बजाते और कभी ओवरटेक नहीं करते। सड़कें भी एकदम चिकनी , साफ और समतल जिस पर गाड़ी के चलने का पता भी नहीं चलता। 

७. पब्लिक टॉयलेट्स : टूरिस्ट्स को अक्सर कठिनाई का सामना करना पड़ सकता है क्योंकि वहां कहीं भी खुले में अपनी मर्ज़ी से लघु शंका का निवारण नहीं कर सकते। हालाँकि अधिकांश रेस्टोरेंट्स , मॉल्स , होटल्स में टॉयलेट्स उपलब्ध होते हैं लेकिन कई जगह ये पेड होते हैं। एक बार का खर्चा ५० से १०० रूपये तक हो सकता है। लेकिन सफाई की कुछ कीमत तो होती है ना।   

८. मौज मस्ती : अधिकांश दुकानें ६ बजे बंद हो जाती हैं।  यानि उसके बाद सभी मौज मस्ती करते हैं। रेस्टोरेंट्स के बाहर फुटपाथ पर टेबल चेयर लगी रहती हैं जिन पर अक्सर लोग बैठे बियर पी रहे होते हैं।  शुक्रवार को लॉन्ग वीकएंड शुरू हो जाता है और अक्सर शुक्रवार को पब्स के बाहर बीयर मेला सा लगा नज़र आता है।  ज़ाहिर है , सप्ताह भर की मेहनत के बाद यह एन्जॉय करने का समय होता है। 

९. टूरिज्म : पूरे यूरोप के देशों में हर देश में जितनी आबादी है , उसके तीन गुना टूरिस्ट हर समय मौजूद रहते हैं।  ज़ाहिर है , सिर्फ टूरिज्म से ही उनकी बेइंतहा कमाई होती रहती है।  यूरोप महंगा भी बहुत है , फिर भी भारत और चीन से सबसे ज्यादा टूरिस्ट्स वहां जाते हैं।  और एक यूरो के बदले ८२ रूपये खर्च करते हैं। 

१०. इतिहास : सभी यूरोपियन शहर ऐतिहासिक रूप से प्रभवशाली हैं।  हर एक शहर की अपनी शैली है , मकानों और इमारतों की शैली एक पूरा इतिहास दर्शाती है।  सैंकड़ों , हज़ारों साल पहले बने ये भवन आज भी मज़बूती के साथ खड़े हैं और देखने वालों की आँखें फ़ैल जाती हैं उनकी भव्यता देखकर। 

अब इन दस पॉइंट्स पर खुद को रखकर देखिये और जानिए कि क्यों हम अभी तक पिछड़े पड़े हैं और एक विकासशील देश बनकर रह गए हैं।  विकास , जो कभी पूरा होने का नाम ही नहीं ले रहा। बेशक हमारा इतिहास भी पूर्णतया गौरवशाली रहा है और हमारे संस्कार सर्वोत्तम माने जाते हैं।  लेकिन इस तेजी से बदलते समय में हम कब तक दम घुटते संस्कारों की दुहाई देते हुए पिछड़ेपन का शिकार बने रहेंगे !  जागो देशवासियो जागो।   


 

Monday, April 16, 2018

अध्यक्ष के चुनाव में फूलवालों की होड़ ...

सभा समाप्त होते ही :

नव निर्वाचित अध्यक्ष पर फूल मालाओं की जो लगी झड़ी।
सारे श्रोताओं में फोटो खिंचवाने की जैसे होड़ सी लग पड़ी।

देखते देखते श्रोताओं से सारा मंच खचाखच भर गया ,
मैं तो ये प्रेमासक्त अद्भुत नज़ारा देखकर ही डर गया।

एक श्रोता दूसरे श्रोताको धकाकर आगे बढ़ रहा था।
दूसरा फोटो के लिए तीसरे के काँधे पर ही चढ़ रहा था।

भीड़ अध्यक्ष के अगल बगल जब तक एक कतार लगाती ,
तब तक पहली कतार के आगे एक और कतार लग जाती।

एक बार हम भी छलांग मार करीब जाने में सफल हो गए। 
पर तभी एक जोरदार धक्का खाकर गिरे और विफल हो गए।

आलम ये थे कि इधर धड़ाधड़ फोटो खींचे जा रहे थे,
उधर हम कभी दाएं कभी बाएं धकियाये जा रहे थे।

और लोग तो जंगल में हिरणों की तरह कुलांचे मारते रहे ,
हम बस शेर की तरह शिकार को हाथ से जाते देखते रहे।

फोटोग्राफर भी बेचारा दे दनादन फोटो उतार रहा था ,
हमें तो पूरा शक था कि पट्ठा खाली फलैश मार रहा था।

वैसे फोटो खिंचवाने को हम भी १5 बार ट्राई मार चुके थे,
पर मायूस से खड़े थे क्योंकि आखिरी ट्राई भी हार चुके थे।

हमें संघर्ष करते देख एक सज्जन की नज़र हम पर पड़ गई ,
पर कुछ लम्बूओं के सामने हमारी तो हाईट ही कम पड़ गई।

तभी हमें महमूद ग़ज़नवी का इतिहास याद आया ,
और १७ वीं बार प्रहार करने का प्रयास याद आया।

आखिरकार १७वीं बार में हम भी कामयाब हो गए ,
और अध्यक्ष जी के साथ कैमरे में आबाद हो गए। 

Saturday, April 7, 2018

वाट्स अप जिंदगी ---


आंधी वर्षा से नरमाई रैन की ,

शीतल सुहानी भोर में अपार्टमेंट की,

बालकॉनी में बैठ चाय की चुस्कियां लेते,

दूर क्षितिज में छितरे बादलों की खिड़की से

शरमाये सकुचाये से सूरज को

ताक झांक करते देखकर हमें सोचना पड़ा।


कि कंक्रीट के इस जंगल में ,

ऊंचे अपार्टमेंट्स की ऊँचाईयों में ,

क्षितिज भी सिकुड़ सा गया है ऐसे ,

जैसे संसार को कर लिया है कैद मुट्ठी में,

हमने, एक स्मार्ट फोन के ज़रिये।


कुछ ही तो वर्ष पहले की बात है जब ,

घर हो या दफ्तर , घरवाले हों या मित्र ,

सब एक साथ बैठकर गपियाते थे ,

उन्मुक्त हँसते मुस्कराते थे ,

व्यस्त होकर भी मिल जाती थी फुर्सत,

आँखों में आँखें डालकर बतियाने की।


देखते देखते ये समां कैसे बदल गया !

अब अंदर हों या बाहर ,

घर हो या दफ्तर , या हो मैट्रो का सफर ,

जिसे देखो वही ,

सज़दे में सर झुकाये नज़र आता है।

न ढंग से खाता है न सोता है ,

बस अपने आप में गुम सा नज़र आता है।


अब नहीं करते पति पत्नी प्यार की बातें ,

नहीं चह्चहाते चिड़ियों से,  बच्चे गले लगकर ।

अब कोई नहीं करता बातें नज़रों से नज़रें मिलाकर ,

नहीं आती कानों में दोस्तों की मधुर आवाज़।

लेकिन आती हैं रोजाना ढेरों शुभकामनायें ,

फूल पत्तियों में लिपटी हुई प्रभात की ''सुप्रभात" ।

आते है नित नए सैंकड़ों सन्देश ,

कॉपी पेस्ट किये हुए, यहाँ से वहां से, जिनके

न जन्मदिन का पता होता है न जन्मदाता का।


यंत्रवत ये जिंदगी बस आभासी बनकर रह गई है।

वाट्सएप्प ने जैसे जिंदगी को गुलाम बना लिया है।

हार्डवेयर ने सरकारी सॉफ्टवेयर को किया था क्रैश ,

परन्तु स्मार्ट फोन के सॉफ्टवेयर ने,

जिंदगी के हार्डवेयर को ही क्रैक कर दिया है।

रोज सुबह होते ही वाट्सएप्प पूछता है,

''वाट्स अप'' जिंदगी !



Tuesday, April 3, 2018

हमारे रंग देख कर तो गिरगिट क्या नेता भी जलते हैं --




एक हास्य कवि ने चुनाव में नामांकरण पत्र भर दिया,
एक पत्रकार ने मंच पर ही कवि जी को धर लिया।

बोला, ज़नाब आप तो कवि हैं, फिर आप जनता को क्या दे पाएंगे !
कवि बोला, हम हंसा हंसा कर देश को एक स्वस्थ भारत बनाएंगे।

पत्रकार ने पूछा, अच्छा एक बात बतलायेंगे ,
क्या आप विरोधी पक्ष के लोगों को भी हंसाएंगे !

कवि बोला भैया, कवियों का कोई पक्ष विपक्ष होता है।
हमारा तो बस जनता को हंसाने का ही लक्ष होता है।

श्रोताओं का मन भांप कर बनाते हैं सुनाने का मन ,
और कितना सुनाना है, ये तय करता है लिफाफे का वज़न।

भक्तों की भीड़ देखी तो मोदी का गुणगान कर दिया ,
विरोधियों के जलसे में जुमलों का व्याख्यान कर दिया।

बसपा ने बुलाया तो मायावती को बहन बना लिया ,
किया ग़र मुशायरा तो ग़ालिब को चचा बता दिया।

हम कवि भी हवा का रुख देखकर ही रंग बदलते हैं ,
हमारे रंग देख कर तो गिरगिट क्या नेता भी जलते हैं।

बस एक बार चुनाव जीत जाऊं तो मंत्री भी बन जाऊँगा ,
फिर सभी हास्य कवियों को उनके अधिकार दिलवाऊंगा। 

अरे मंच पर सारी तालियां तो ओज के कवि बटोर ले जाते हैं ,
एक ही पंक्ति को दस बार दोहराकर शायर वाह वाह करवाते हैं।  

हास्य कवि सम्मलेन में भी पाकिस्तान की धज्जियाँ उड़ाते हैं ,
और हास्य कवियों को बस ऐसा वैसा चुटकलेबाज बतलाते हैं। 

कभी किसी को चुटकले पर आशीर्वाद मांगते देखा है,
या हास्य कवि को ठहाकों की फरियाद करते देखा है

माना कि हास्य कवि नहीं कोई साहित्यकार होते हैं ,
लेकिन वे भी देश और समाज सेवा के ठेकेदार होते हैं। 

क्योंकि जब लोग हँसते हैं तो अपना तनाव हटाते हैं ,
जो लोग हंसाते हैं , वे दूसरों के तनाव भगाते हैं। 
हँसाना भी एक परोपकारी काम है दुनिया में। 
इसलिए हम तो सदा हंसी की ही दवा पिलाते हैं।