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Tuesday, February 18, 2014

दिल्ली का गार्डन टूरिज्म फेस्टिवल -- बसंत बहार !


दिल्ली के महरौली  क्षेत्र में महरौली  बदरपुर सड़क पर साकेत मेट्रो स्टेशन के पास स्थित एक  गांव में बना है गार्डन ऑफ़ फ़ाईव सेंसिज।  यहाँ प्रति वर्ष मध्य फ़रवरी में दिल्ली टूरिज्म की ओर से गार्डन टूरिज्म फेस्टिवल मनाया जाता है जिसमे बसंत ऋतु में खिलने वाले रंग बिरंगे खूबसूरत फूलों की प्रदर्शनी लगाई जाती है।  साथ ही विभिन्न लोक नृत्य और गीतों की प्रस्तुति भी आयोजित होती है जो इसे एक मेले के रूप में जनता के लिए आकृषण का केंद्र बनाता है।

यहाँ तक पहुंचने के लिए बहुत मशक्कत करनी पड़ सकती है क्योंकि गांव की कच्ची पक्की टूटी फूटी सड़क और कीचड़ में लथपथ होती हुई आपकी गाड़ी ट्रैफिक जाम में फंसने से आपकी ड्राइविंग स्किल की चरम सीमा तक परीक्षा ले लेती है।  उस पर पार्किंग का कोई विशेष प्रबंध न होने से आपको अपनी प्रिय कार बेगानी सी सड़क किनारे या जंगली क्षेत्र में छोड़नी पड़ती है।  लेकिन ऐसा करने वाले आप अकेले नहीं होते , इसलिए घबराने की कोई बात नहीं होती।  


मुख्य द्वार से प्रवेश करते ही फूलों से बनी विभिन्न आकृतियां बरबस सबको अपनी और खींच लेती हैं।  लोग शौक से पोज मारकर फोटो खिंचवाते हैं।  लेकिन किसके कैमरे में कौन कैद हो रहा है , यह उस वक्त कोई नहीं देखता।  सभी फोटो खींचने में ही व्यस्त होते हैं।




बड़ी मुश्किल से इस फोटो को मानव रहित रखने में कामयाबी मिली।




एक पेड़ के चारों ओर खाली स्थान रखना आवश्यक होता है ताकि पेड़ साँस ले सके।  लेकिन यदि इसे फूलों से सजा दिया जाये तो पेड़ भी निश्चित ही मन ही मन बहुत खुश होता होगा।  




ढेरों डेहलिया एक साथ।




इकेबाना।




धूप छाँव के बीच फूलों की क्यारी।





फूल गली।





ये पौधे तो सबने अवश्य देखे होंगे।  लेकिन यहाँ बहुत ही खूबसूरत लग रहे थे।



दिल्ली जल बोर्ड की तरफ से बनाई गई एक झांकी।

गार्डन ऑफ़ फाइव सेंसिज के एक तरफ गांव है और दूसरी ओर कुछ जंगली सा क्षेत्र है।  इस पहाड़ी क्षेत्र में झाड़ी नुमा पेड़ पौधे हैं जिनमे पशु पक्षी नहीं बल्कि युवा लड़के लड़कियां विचरण करते नज़र आते हैं।  शहरी युवाओं के इस विशेष आचरण के लिए एक बार फिर जंगल ही आश्रय प्रदान करता है।  



यहाँ ऐसी अनेक मूर्तियां बनी हैं जिनका औचित्य समझ नहीं आया।




पहाड़ी की चोटी से दूर क़ुतुब मीनार नज़र आती है।




एक और कलाकृति।

कुल मिलाकर यहाँ एक मेले का वातावरण नज़र आता है।  हालाँकि बाकि दिनों में क्या होता होगा , यह कहना मुश्किल है।  लेकिन फ़िलहाल तो यह जगह पारिवारिक पिकनिक के लिए बहुत बढ़िया जगह लगी।


फूलों की कुछ चुनिंदा तस्वीरें :





















जैसे बुझने से पहले दीया खूब टिमटिमाता है , उसी तरह गार्डन फेस्टिवल बसंत ऋतु की बहार की चरम सीमा को दर्शाता है।  इस समय के बाद इन फूलों का मौसम समाप्त होने लगता है।  और हम स्वयं को तैयार करने लगते हैं , गर्मी के मौसम की जिसमे फूल तो क्या बिजली और पानी ही मिलता रहे तो गनीमत होती है। इसीलिए कहते हैं जब तक बहार है , उसका आनंद लिया जाये क्योंकि न जाने कब ये फूल मुर्झा जाएँ  और हम खाली सूखी टहनियों को देखते रह जाएँ।


Saturday, February 8, 2014

शहर की शादियों में संवेदनहीनता ---


अभी तक हमें यही अहसास परेशान कर रहा था कि आजकल लोग शादी का कार्ड तो कुरियर से भेज देते हैं लेकिन स्वयं व्यक्तिगत रूप से आमंत्रित नहीं करते।  ऐसे में मेहमान के लिए बड़ी मुश्किल हो जाती है यह निर्णय लेने में कि जाया जाये या नहीं। लेकिन हाल ही में एक ऐसा  अनुभव हुआ जिसे देख कर शादियों के बारे में गम्भीरता से सोचने पर मज़बूर होना पड़ा।

हुआ यूँ कि एक मित्र सपत्नीक निमंत्रण देने आए और जोर देकर शामिल होने का आग्रह किया।  साथ में एक डिब्बा तथाकथित मिठाई भी दे गए। पुराने मित्र थे , इसलिए न जाने का कोई कारण ही नहीं था। हालाँकि घर से दूर था लेकिन समय बहुत उपयुक्त लगा।  पूरा  विवरण कुछ इस प्रकार रहा :

कार्ड पर लिखा था :

बारात असेम्बली -- शाम ६ बजे
विवाहस्थल के लिए प्रस्थान --- ७ बजे
दूरी --- २०० मीटर

घर से दूरी ---- २५ -३० किलोमीटर शहर के बीच
समय लगा --- २ घंटे
असेम्बली पॉइंट --- पौने दस बजे -- कोई नहीं मिला
विवाहस्थल पर --- रात दस बजे -- न दूल्हा , न घरवाले
साढ़े दस बजे -- दूल्हा गेट पर
रात ग्यारह बजे -- दूल्हा प्रवेश

रात ग्यारह बजे दूल्हे के प्रवेश के साथ खाना खोल दिया गया।  इस बीच मेट्रो से आने वाले बाराती प्रस्थान कर चुके थे , चाट पकोड़ी खाकर।  ज़ाहिर है , लिफाफा भी उनकी ज़ेब में ही रह गया।  अब हो सकता है कि अगले दिन घर जाकर देना पड़े।  हमने भी कुछ छुट पुट खाकर ठंडा पीया और इंतज़ार करते रहे कि कोई घरवाला दिखे तो लिफाफा सौंपें और घर का रास्ता नापें जिसमे फिर एक घंटा लगना निश्चित था और अगले दिन फिर ऑफिस जाना भी आवश्यक था।  आखिर मित्र के बेटे की शादी की ख़ुशी में सरकारी अवकाश होने की सम्भावना तो निश्चित ही नहीं थी।

बारात तो सारी की सारी पहले ही अंदर थी।  दुल्हे के साथ थी तो बस एक घोड़ी , दो चार रिश्तेदार और बाकि बैंड वाले।  लेकिन इन्ही चार रिश्तेदारों ने सड़क पर चक्का जाम कर सब का खाना ख़राब कर रखा था।  सर्दी में भी पसीना बहाते हुए ये जाँबाज़ गेट के बाहर ही आधे घंटे तक ऐसे डटे रहे जैसे लोंगोवाल की लड़ाई में हमारे रण बांकुरे अपनी जान की परवाह किये बगैर जमे रहे थे। हमने भी मित्र को उस भीड़ में ढूंढ निकाला और बड़ी आत्मीयता से बधाई देने लगे।  लेकिन मित्र न जाने किस पिनक में थे कि लगा जैसे पहचाना ही न हो।  वैसे भी हमें तो नाचने का शौक कभी नहीं रहा , इसलिए वहां से हटकर मिष्ठान खाने के लिए आगे बढ़ लिए।

लेकिन इस रिहाई से पहले एक अत्यंत आवश्यक काम भी करना था , लिफाफा सौंपने का।  अक्सर यह काम हमें सबसे कठिन काम लगता है।  एक तो वैसे ही लिफाफा देते हुए अज़ीब सा लगता है।  ऊपर से लेते हुए मेज़बान के  नखरे देखकर तो ऐसा महसूस होता है जैसे हम कोई गुनाह कर रहे हों। लेकिन इस महत्त्वपूर्ण कार्य करने के बाद ऐसा रिलीफ मिलता है जैसे सर से कोई बोझ उतर गया हो।  फिर भी हमने देखा है कि अक्सर लिफाफा देने वालों की भीड़ सी लग जाती है और पहले मैं पहले मैं की  नौबत सी आ जाती है।

आखिर उस दिन भी सफलतापूर्वक लिफाफा विसर्जन के बाद जब हमने प्रस्थान करने की सोची तो पत्नी श्री की फरमाइश आई कि अरे हमने दूल्हा दुल्हन को तो देखा ही नहीं। हमने श्रीमती जी को लगभग खींचते हुए अपनी एक कविता सुनाते हुए गाडी में बिठाया और ड्राइवर को कहा कि चलो , हो गई शादी :

इस भीड़ भाड़ में कौन है अपना कौन पराया
किसने निमंत्रण स्वीकारा,  कौन नहीं आया !

दूल्हा कैसा दिखता है, दुल्हन की कैसी सूरत है
यह न कोई देखता है , न देखने की ज़रुरत है !

आजकल मेहमानों को दूल्हा दुल्हन से प्यारा होता है खाना
और मेज़बानों को सम्बन्धियों से ज्यादा प्यारा नाच गाना !

इसी अफ़साने की शिकार प्रेम संबंधीं की ख्वाहिश हो गई है ,
और शादियां आजकल काले धन की बेख़ौफ़ नुमाइश हो गई हैं !