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Wednesday, December 27, 2017

स्वास्थ्य रुपी द्रोपदी के पांच पांडव ---


हमारी सेहत द्रोपदी जैसी है जिसकी सुरक्षा पांच पांडवों के हाथों में है।  लेकिन जिस तरह पांडवों की उपस्थिति में भी कौरवों ने द्रोपदी का चीर हरण किया था , और तब श्रीकृष्ण जी ने आकर उसे बचाया था, उसी तरह सेहत के पांच पांडव भी फेल हो सकते हैं , यदि किस्मत रुपी कृष्ण साथ न दे। ये पांच पांडव हैं :
१)  युधिष्ठर -- मेडिटेशन ( ध्यान ) 
२ ) अर्जुन ----योग 
३ ) भीम ------मस्कुलर एक्सरसाइज़ 
४ ) नकुल --- एरोबिक एक्सरसाइज़ 
५ ) सहदेव -- लाफ्टर ( तनाव रहित जीवन )  

आइये देखते हैं इन पांच प्रक्रियाओं का हमारे शरीर पर प्रभाव : 

* मेडिटेशन से हमारा चलायमान चित शांत होकर एकाग्र और तनाव रहित होता है। हमारी सोच में सुधार होता है और हम सात्विक जीवन की ओर अग्रसर होते हैं।  
* योग हमें शारीरिक और मानसिक रूप से अनुशासित बनाता है।  योग द्वारा हम अपनी गतिविधियों को नियंत्रित कर सकते हैं जिससे हमारी कार्यक्षमता पर अच्छा प्रभाव पड़ता है। 
* मस्कुलर एक्सरसाइज़ जैसे जिम या घर में ही उठक बैठक आदि लगाना एक मेहनत का काम है जिसमे बहुत पसीना बहाना पड़ता है।  लेकिन स्वास्थ्य के लिए यह अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। मस्कुलर एक्सरसाइज़ से हमारे शरीर में कई एंडोर्फिन्स का श्राव होता है जो शरीर पर सकारात्मक प्रभाव डालते हैं।  
* एरोबिक एक्सरसाइज़ जैसे दौड़ना , साइक्लिंग , तैरना , सीढ़ियां चढ़ना आदि ऐसी कसरतें हैं जिससे हमारा कार्डिओ रेस्पिरेटरी सिस्टम मज़बूत होता है।  स्टेमिना बढ़ता है , साँस फूलना बंद होता है , दिल की धड़कन पर काबू होता है और कोई भी भारी काम आसानी से कर सकते हैं।  
* लाफ्टर यानि हंसना हँसाना जिंदगी का एक अहम् हिस्सा है जो हमें तनाव मुक्त रखता है और स्वास्थ्य पर सकारात्मक प्रभाव डालता है।  

इन पांच कार्य कलापों से आप अपना स्वास्थ्य निश्चित ही बेहतर रख सकते हैं।  लेकिन फिर भी आप सदा निरोग ही रहें , इस बात की गारंटी नहीं दी जा सकती क्योंकि हमारा शरीर पूर्णतया हमारे वश में नहीं है।  यदि किस्मत ख़राब हो तो कभी कभी कुछ लोगों को ऐसी बीमारी लग जाती है जिसका कोई इलाज नहीं होता और कोई कारण भी नहीं होता, जैसे कैंसर।  यदि किस्मत से आप ऐसे रोगों से बचे रहे तो बाकि पांच पांडव रुपी गतिविधियां आपको सदा स्वस्थ रख सकती हैं।  बस इसके लिए चाहिए मन में दृढ निश्चय , लगन , मेहनत का ज़ज़्बा और विश्वास।  

मस्कुलर एक्सरसाइज़ : 

सदियों से शरीर को मज़बूत बनाने के लिए शारीरिक श्रम और कसरत का सहारा लिया जाता रहा है।  जब आधुनिक सुविधाएँ  उपलब्ध नहीं थीं तब अखाड़े , दंगल , कुश्ती आदि के लिए दंड बैठक और मुद्गल जैसी कसरतें ही काम आती थीं।  लेकिन आजकल जिम में तरह तरह के उपकरण उपलब्ध होते हैं जिनसे शरीर की एक एक मांसपेशी की कसरत की जा सकती है।  
मस्कुलर एक्सरसाइज़ सिर्फ मसल्स बनाने के लिए ही काम नहीं आती , बल्कि इससे हमारे शरीर पर और कई तरह से सकारात्मक प्रभाव पड़ता है।  आइये देखते हैं कि अच्छी मस्कुलर एक्सरसाइज़ से क्या होता है :

* करीब आधे घंटे की कड़ी एक्सरसाइज़ के बाद हमारे शरीर में न्यूरोट्रांसमिटर्स का स्राव बढ़ जाता है जिन्हे एंडोर्फिन्स कहते हैं।  यह रसायन एक दर्द निवारक का काम करता है।  इससे तनाव भी कम होता है और आप अच्छा महसूस करते हैं।  यह एंटी डिप्रेसेंट भी है यानि इससे अवसाद ख़त्म होता है और मूड एलिवेट होता है यानि आप खुश महसूस करते हैं।  
* केटाकोलअमीन्स जिसमे एड्रिनलिन और नॉरएड्रिनलिन शामिल हैं , के श्राव से शरीर में उत्साह और चुस्ती स्फूर्ति आती है। इससे शरीर के हर एक अंग की गतिविधि में तेजी आती है।  
* टेस्टोस्टिरॉन एक मेल हॉर्मोन है लेकिन मेल और फीमेल दोनों में पाया जाता है।  इससे शरीर में ताकत , चुस्ती स्फूर्ति , साहस और पुरुषत्त्व का आभास होता है।  टेस्टोस्टिरॉन के बढ़ने से मर्दाना ताकत में वृद्धि होती है तथा स्तंभन दोष ठीक होता है। यह बालों के लिए भी एक टॉनिक का काम करता है।  

इस तरह कुल मिलाकर फिजिकल एक्सरसाइज़ से तन और मन दोनों में चुस्ती स्फूर्ति महसूस होती है और आप सदा जवान बने रहते हैं। कई तरह के लाइफ स्टाइल से सम्बंधित रोग जैसे डायबिटीज , बी पी , कॉलेस्ट्रॉल आदि  स्वत: ठीक हो जाते हैं या इनमे बहुत लाभ होता है।  इसके लिए कोई आयु सीमा भी नहीं है।  हर आयु का मनुष्य , स्त्री या पुरुष , एक्सरसाइज़ करके स्वस्थ रह सकता है।    
    


Saturday, December 23, 2017

दिल तो अभी बच्चा है जी ...

जिंदगी के तीन पड़ाव -- पूर्वव्यापी।

१) बचपन :

ये दिल तो बच्चा है जी।
दिल तो अभी बच्चा है जी।
जो काम कभी नहीं किये ,
उन्हें करने की इच्छा है जी।

किसी बगिया से आम तोड़ कर लाएं ,
कभी पेड़ से चढ़ अमरुद तोड़ कर खाएं।
गन्ने के खेत से गन्ना चुराकर चूसें ,
कोल्हू के गन्ने का ताज़ा रस पी जाएँ।

पर गांव की नदी में कूदने में गच्चा है जी ,
क्योंकि अपुन तैरने में अभी कच्चा है जी।

२) जवानी :

कभी पब , बार और डिस्को में जाते ,
किसी हसींना को देख सीटी बजाते ।
कभी रात रात भर घर से गायब रहते ,
लेट क्लास का घर में बहाना बनाते ।

काहे अपनी सच्चाई पर इतना गुमान है ,
नेकी छोड़ यार , दिल तो अभी जवान है।

३ ) बुढ़ापा  :

ना किसी से बैर , ना ही किसी से यारी ,
धर्म कर्म करने की उम्र हो गई हमारी।
मोह माया के जाल से मुक्त हो जाएँ ,
ख़त्म हो जाये जब सारी जिम्मेदारी ।

दिल को संभालें वरना, टूटना पक्का है जी ,
दिल ना अब जवान है , न ये बच्चा है जी।

Monday, December 11, 2017

दोष डॉक्टर्स का नहीं , अस्पतालों का है ---


यह कहावत तो आपने सुनी ही होगी। कुछ ऐसी ही हालत हो गई है आजकल मेडिकल प्रॉफ़ेशन की।  नोबल प्रॉफ़ेशन कहलाये जाने वाले चिकित्सा जगत में डॉक्टर्स को कभी भगवान माना जाता था।  लेकिन अब नहीं , बल्कि अब तो डॉक्टर्स पर आए दिन हमले और दुर्व्यवहार होते जा रहे हैं। इसका मुख्य कारण है आम जनता के लिए समुचित चिकित्सा सम्बन्धी सेवाओं का उपलब्ध न होना। हमारे देश में मुख्य रूप से चिकित्सा सेवाएं दो तरह से प्रदान की जा रही हैं।  एक सरकारी अस्पताल और डिस्पेंसरीज।  दूसरे प्राइवेट अस्पताल , नर्सिंग होम्स और क्लिनिक्स।  लेकिन जब से निजी अस्पतालों पर कॉर्पोरेट का कब्ज़ा हुआ है तब से न सिर्फ छोटे नर्सिंग होम्स बंद हो गए हैं या बंद होने की कगार पर हैं , बल्कि इन फाइव स्टार अस्पतालों का एक छत्र राज होता जा रहा है।  अधिकांश प्राइवेट अस्पताल बड़े बिजनेस घरानों द्वारा चलाये जा रहे हैं।  उनका मुख्य उद्देश्य पैसा कमाना होता है।  बेशक , बड़ी इन्वेस्टमेंट द्वारा ये अस्पताल सब तरह के आधुनिक उपकरण और सुविधाएँ मुहैया कराने में सफल रहते हैं , लेकिन यहाँ इलाज कराना इतना महंगा पड़ता है कि या तो यह आम आदमी की पहुँच से बाहर होता है या फिर वे अपना पेट काटकर इलाज कराते हैं।

लेकिन अपनी हैसियत से ज्यादा खर्च कर के भी जब या तो रोगी की मृत्यु हो जाती है या ज़रुरत से ज्यादा और अपेक्षित रूप से ज्यादा बड़ा बिल सामने आता है तो रोगी के सम्बन्धी दुर्व्यवहार पर उतर आते हैं।  हालाँकि लोगों को इस तरह स्वास्थ्यकर्मियों के साथ दुर्व्यवहार करने का कोई अधिकार नहीं है , और मार पीट तथा तोड़ फोड़ तो निश्चित ही गैर कानूनी है।  लेकिन अक्सर भावनाओं में बहकर लोग यह धृष्टता कर बैठते हैं। रोगियों के रिश्तेदारों की इन प्रतिक्रियाओं को किसी भी रूप में सही नहीं ठहराया जा सकता और न्यायालय द्वारा उन पर यथोचित कानूनी कार्यवाई करने का प्रावधान है। लेकिन इस के बावजूद कभी कभी तोड़ फोड़ की बड़ी घटनाएं घट जाती हैं जो निंदनीय हैं।

जहाँ जनता को भी यह समझना होगा कि वास्तव में डॉक्टर्स भगवान नहीं होते।  वे केवल उपचार करते हैं और सही उपचार से अधिकांश रोगी रोगमुक्त भी हो जाते हैं।  लेकिन डॉक्टर्स किसी को भी अमर नहीं कर सकते।  डॉक्टर क्या भगवान भी किसी को अमर नहीं बनाता।  यदि ऐसा होता तो दुनिया में किसी की मृत्यु ही नहीं होती। एक डॉक्टर केवल रोग का उपचार करता है , दर्द का निवारण करता है और गंभीर रोगों का भी दवा या शल्य चिकित्सा द्वारा उपचार कर रोगी को रोगमुक्त करता है।  लेकिन जितनी आयु विधाता ने निश्चित कर दी , उस से एक दिन ज्यादा भी कोई नहीं जिन्दा रख सकता।  यह बात जनता को समझानी पड़ेगी और उन्हें समझनी पड़ेगी।

तथापि चिकित्सा जगत को भी अपनी कार्यप्रणाली में कुछ सुधार लाना आवश्यक हैं। अति आधुनिक कॉर्पोरेट अस्पतालों को सिर्फ अपने आर्थिक लाभ के बारे में न सोचकर , अपने सामाजिक उत्तरदायित्त्व के बारे में भी सोचना होगा। यदि पैसा ही कमाना है तो और बहुत से व्यवसाय हैं।  कम से कम चिकित्सा को धंधा और अस्पतालों को पैसा कमाने की मशीन तो न बनाया जाये। यहाँ यह समझना आवश्यक है कि कोई भी डॉक्टर जान बूझ कर कभी किसी रोगी के साथ लापरवाही नहीं बरतता।  बल्कि सरकारी हो या प्राइवेट , हर डॉक्टर के लिए सबसे ज्यादा आवश्यक और सुखद अनुभव होता है जब उसका रोगी उसके उपचार से ठीक हो जाता है। रोगी का सही उपचार करना सभी डॉक्टर्स के लिए एक चुनौती होती है जिसे स्वीकार करना एक डॉक्टर का पेशा ही नहीं बल्कि धर्म होता है और हर डॉक्टर उसे बखूबी निभाने की कोशिश करता है।

यहाँ सरकार की भी बहुत बड़ी जिम्मेदारी है। भले ही आम आदमी के लिए सरकारी अस्पतालों में मुफ्त चिकित्सा सुविधा उपलब्ध है , लेकिन एक ओर रोगियों की बढ़ती संख्या और दूसरी ओर स्टाफ और सुविधाओं की कमी , सरकारी अस्पतालों में उपचार में बाधा उत्पन्न करते हैं। यदि सरकारी अस्पतालों में डॉक्टर्स और अन्य कर्मियों की संख्या समुचित हो तो किसी को भी उपचार से वंचित न होना पड़े।  दूसरी ओर प्राइवेट अस्पतालों में इलाज बहुत महंगा पड़ता है।  हालाँकि , अधिकांश बड़े प्राइवेट अस्पतालों को सरकार से भूमि कम दाम पर उपलब्ध कराई गई है , ताकि वे गरीबों का इलाज नियमनुसार निशुल्क कर सकें , लेकिन सरकार इस नियम को लागु करने में लगभग विफल रही है। इसलिए सभी अस्प्तालों में २५ % बाह्य विभाग और १०% बेड्स गरीबों के लिए उपलब्ध होने का प्रावधान होने के बावजूद , बहुत कम रोगी ही इसका लाभ प्राप्त करने में सफल रहते हैं। 

इस मामले में मीडिया का रोल भी बहुत महत्त्वपूर्ण रहता है।  अक्सर मीडिया एक छोटी सी घटना को बहुत बड़ी दुर्घटना का रूप देकर सनसनी फ़ैलाने का प्रयास करता है।  यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है। मीडिया को अपना उत्तरदायित्त्व समझते हुए जिम्मेदारी से काम करना चाहिए। लेकिन ऐसा लगता है कि प्रचंड प्रतिस्पर्धा के ज़माने में समाचारों को बढ़ चढ़ कर दिखाना जैसे उनकी मज़बूरी सी बन गई है।   

कहते हैं शराब ख़राब नहीं होती , खराबी पीने वाले में होती है।  यदि कोई पीकर उधम मचाये या नाली में गिरा मिले तो यह पीने वाले की कमी है।  इसी तरह चिकित्सा जगत में अक्सर डॉक्टर्स का कोई कसूर नहीं होता। जहाँ सरकारी डॉक्टर्स को अत्यधिक रोगियों की संख्या का सामना करना पड़ता है , वहीँ प्राइवेट अस्पतालों में डॉक्टर्स को प्रबंधन की अनुचित मांगों को मानते हुए विवशतापूर्ण वातावरण में काम करना पड़ता है। इसीलिए अक्सर सरकारी अस्प्तालों में इलाज में कमी और प्राइवेट अस्पतालों में अनावश्यक टैस्ट्स और ओवर ट्रीटमेंट का आरोप लगाया जाता है। लेकिन यदि कहीं कमी रहती है तो वो क्रमश: सरकार और कॉर्पोरेट में मालिकों के प्रबंधन और कार्य प्रणाली में होती है। इसलिए किसी भी दुर्घटना या इलाज में कौताही के आरोप पर डॉक्टर्स के विरुद्ध आँख बंद कर कार्यवाई करना अनुचित और दुर्भाग्यपूर्ण लगता है। डॉक्टर्स समाज का सबसे ज्यादा शिक्षित और प्रशिक्षित हिस्सा है।  इन्हे यूँ बदनाम न किया जाये और जीवन भर के कठिन परिश्रम का ऐसा इनाम न दिया जाये कि उन्हें समाज में लज़्ज़ित होना पड़े।

यहाँ यह कहना सर्वथा अनुचित नहीं होगा कि डॉक्टर्स को भी हिप्पोक्रेटिक ओथ के अंतर्गत अपने कर्तव्य का पालन करते हुए समाज और रोगियों की सेवा में तत्पर रहते हुए ईमानदारी और श्रद्धापूर्वक अपना काम करना चाहिए।  

Wednesday, November 29, 2017

दिल्ली , जहाँ ट्रैफिक में रोंग इज राइट ---


प्रस्तुत है , दिल्लीवालों की यातायात सम्बंधित अनुशासनहीनता पर एक हास्य व्यंग कविता :


चौराहे पर जब लाल बत्ती हुई हरी ,

एक कार चालक ने कार स्टार्ट करी।

दूसरी ओर दूसरे ने बाइक पर किक लगाई ,

तीसरे ने तीसरी ओर से स्कूटी आगे बढाई ।


पहला अभी चला भी नहीं था ,

कि रोंग साइड से दूसरा और तीसरा।

दोनों चौराहे के बीच आ गए ,

और आपस में टकरा गए।


दूसरा बोला -- अबे दिखता नहीं है ,

मैं रैड लाइट जम्प कर रहा हूँ।

तीसरा गुर्राया -- चुप साले ,

मैं भी तो वही काम कर रहा हूँ।


देखते देखते दोनों में झगड़ा सरे आम हो गया ,

और इसी गर्मागर्मी में ट्रैफिक जाम हो गया।

मौका देख दोनों दुपहिया चालक तो खिसक गए ,

पर सही होकर भी कार वाले महाशय फंस गए।


तभी ट्रैफिक पुलिस वाले ने पुकार लगाई ,

अरै तू साइड में आ ज्या भाई।

ज़नाब लाइसेंस और गाड़ी की आर सी दिखाना ,

रैड लाइट जम्प करने पर भरना पड़ेगा जुर्माना।


इस तरह लाइट जम्प करने वाले तो ख़ुशी से जम्प करते हुए फ़रार हो गए ,

और नियमों का पालन करके भी बेचारे कार वाले महाशय गुनेहगार हो गए।


नोट : दिल्ली में लाल बत्ती हरी होते ही पहले चारों ओर से दोपहिया वाहन चालक रैड लाइट जम्प करना अपना अधिकार समझते हैं।

Sunday, November 12, 2017

दिल्ली का प्रदुषण ---


दिल जीवन भर धड़कता है ,
साँस जिंदगी भर चलती है ,
पर कभी अहसास नहीं होता ,
दिल के धड़कने का, साँसों के चलने का।
ग़र होने लगे अहसास,
दिल की धड़कन का ,
या साँस के चलने का ,
तो जिंदगी के इम्तिहान में ,
दिल और साँस, दोनों फेल हो जाते हैं।
ग़र नहीं चाहते अहसास ,
दिल की धड़कन का , साँसों की रफ़्तार का ,
तो पर्यावरण को बचाओ ,
गंदगी और प्रदूषण से, वरना
ना साँस चलेगी , ना रहेगी जिंदगी की आस।   

Saturday, November 4, 2017

लेह से पैंगोंग लेक -- लेह लद्दाख यात्रा का अंतिम पड़ाव :

लेह से १४० किलोमीटर दूर भारत चीन सीमा पर है विश्व की सबसे ऊँचाई पर बनी प्राकृतिक झील , पैंगोंग लेक। यहाँ जाने के लिए लेह मनाली हाइवे से होकर जाना पड़ता है। पैंगोंग जाने के लिए सुबह जल्दी निकलना पड़ेगा ताकि आप आराम से शाम तक वापस आ सकें। हाइवे को छोड़ने के बाद आप उबड़ खाबड रास्ते से होते हुए पहुँचते हैं १८००० फ़ीट पर स्थित चांगला पास जो विश्व का दूसरा सबसे ऊँचाई पर बना वाहन लायक सड़क है।  यह पूरे वर्ष खुला रहता है और अपेक्षाकृत आसान रास्ता है।  यहाँ इस रास्ते पर पहली बार बर्फ मिलेगी।  





चांगला पास :


चांगला पास पर खारदुंगला पास की तरह न तो भीड़ भाड़ थी और न ही तेज हवा।  हालाँकि बाहर का तापमान  -- ४ डिग्री था ।  यहाँ से निकलने के बाद ढलान शुरू हो जाती है।  रास्ते में कई गांव पड़ते हैं जिनमे सक्ती गांव बहुत हरा भरा और संपन्न गांव दिखाई दिया।





लगभग सुनसान सड़क से होकर आखिर आप पहुँच जाते हैं पैंगोंग लेक जो दूर से भी दिखाई देने लगती है। पास के बाद रास्ता अच्छा है और दृश्य बहुत सुन्दर।  अलग अलग रंग रूप के पहाड़ मन मोह लेते हैं । लेकिन पास पहुंचकर लेक की असली सुंदरता के दर्शन होते हैं।  गहरे नीले रंग का पानी कई रंगों में नज़र आता है।  आस पास के पहाड़ बेहद खूबसूरत दिखाई देते हैं।





लेक का पानी इतना साफ है कि किनारे से काफी दूर तक तल के पत्थर साफ नज़र आते हैं।  दिल करता है कि दौड़ कर पानी में घुस जाओ और दौड़ते चले जाओ।





विभिन्न भागों में पानी का रंग विभिन्न रंगों में नज़र आता है।  यह पानी में पहाड़ और आसमान की झलकती छवि के कारण होता है।





झील के किनारे अनेक रेस्ट्रां हैं जहाँ झटपट खाद्य पदार्थ और पेय आसानी से मिल जाते हैं।  झील किनारे बैठकर गर्मागर्म चाय पीने का मज़ा ही कुछ और है।





आम तौर पर सैलानी झील के शुरू में ही रुक कर झील का आनंद लेते  हैं।  यहीं पर सारी गतिविधियां भी हैं जैसे थ्री इडियट्स वाला करीना कपूर का स्कूटर जिस पर बैठकर लोग शौक से फोटो खिंचवाते हैं। लेकिन आप आगे लगभग ७ किलोमीटर तक जा सकते हैं।  आगे झील का पाट थोड़ा चौड़ा है।  यहाँ से दोनों ओर का नज़ारा भी बहुत सुन्दर है।   झील के आस पास कई टैंटों वाले कैम्प हैं जहाँ रात को रुका जा सकता है।  हालाँकि रात में हवा तेज चलती है और टैंट में ठण्ड लग सकती है।  फिर भी यहाँ एक रात रुकना अपने आप में एक बढ़िया अनुभव हो सकता है।


रेंचो स्कूल : करीब दो घंटे रुकने के बाद हम वापस चल पड़ते हैं लेह की ओर।  लेह पहुँचने से पहले फिल्म थ्री इडियट्स में दिखाया गया रैंचो स्कूल देखना न भूलें। यह पांच बजे तक  जनता के लिए खुला रहता है जिसमे कोई प्रवेश शुल्क नहीं है।  एक गाइड आपको उस दीवार तक ले जाएगी जहाँ फिल्म की शूटिंग हुई थी।


द्वार के पास ही बना है यह सुन्दर कैफे , हालाँकि कॉफी बनाने में बहुत समय लगता है।  इसलिए हम तो बिना पीये ही आ गए।





फिर भी एक फोटो तो ले ही लिया।





और ये है वो दीवार जिसका दृश्य आपको याद आ ही गया होगा।




लेह से वापसी का हवाई सफ़र बहुत शानदार है। पूरी पर्वतमाला बहुत पास नज़र आती है।



और पहाड़ों पर गिरी बर्फ ऐसे दिखाई देती है जैसे बर्फ का समुन्द्र हो। बस आपकी सीट खिड़की के पास होनी चाहिए जो आपके कहने से आसानी से मिल सकती है।  अंत में हम लौट आते हैं एक बेहद शानदार सफ़र से वापस घर की ओर।   

Saturday, October 21, 2017

वर्तमान परिवेश में हमारे पर्व --


दिवाली के अवसर पर हिन्दुओं के पंचपर्व की श्रंखला में आज अंतिम पर्व है , भैया दूज।  यह महज़ एक संयोग हो सकता है कि हिन्दुओं के सभी त्यौहार तीज के बाद आरम्भ होकर मार्च में होली पर जाकर समाप्त होते हैं।  फिर ५ महीने के अंतराल के बाद पुन: तीज पर आरम्भ होते हैं। निश्चित ही इसके सामाजिक , आर्थिक , भूगोलिक  और मौसमी कारण भी हो सकते हैं।  मार्च के बाद गर्मियां आरम्भ हो जाती हैं जो देश में किसानों के लिए फसल काटने और धनोपार्जन का समय होता है। साथ ही गर्मी और बरसात का मौसम भौतिक सुविधाओं के अभाव में गांवों में रहने वाले लोगों के लिए अत्यंत कष्टदायक रहता था। इसलिए सावन की रिमझिम फुहारों के साथ जब मौसम सुहाना होने लगता है , और किसानों की मेहनत की कमाई भी फसल के रूप में घर आ जाती है , तब आराम के दिनों में तीज त्यौहारों को मनाने का  आनंद आता है।शायद यही कारण आगे चलकर सम्पूर्ण देश में पर्वों का कैलेंडर बनाने में सहायक सिद्ध हुआ होगा।

समय के साथ देश में हुए विकास के कारण निश्चित ही देशवासियों के रहन सहन , दिनचर्या और सामर्थ्य में परिवर्तन आया है।  आज यहाँ भी किसी भी विकसित देश में मिलने वाली सभी सुविधाएँ उपलब्ध हैं। बदले हुए परिवेश में हमारी जीवन शैली बदलना स्वाभाविक है। पर्वों के स्वरुप भी बदल रहे हैं। आज आवश्यकता है कि हम वर्तमान परिवेश अनुसार अपनी सोच को भी बदलें। आदिकाल से चले आये पर्वों की कालग्रस्त परमपराओं और कुरीतियों को त्याग कर सिर्फ अच्छी बातों को ही अपनाएं। जो रीति रिवाज़ सदियों पहले तर्कसंगत रही होंगी , वे अब अर्थहीन हो गई हों तो उन्हें छोड़ना और तोडना ही अच्छा है।  

त्यौहार हमारे जीवन में माधुर्य प्रदान करते हैं।  यह सामाजिक , पारिवारिक और व्यक्तिगत संबंधों को सुदृढ़ बनाने का अच्छा अवसर भी होता है। इसलिए पर्व पर सभी आपसी मन मुटाव भुलाकर सभी को एक होकर मर्व मनाना चाहिए।  भले ही विभिन्न धर्मों के पर्व भिन्न होते हैं , लेकिन सभी धर्मों के पर्वों का सम्मान करते हुए दूसरे धर्मों के पर्वों में भी यथानुसार अपने निकटतम सहयोगी और मित्रों को बधाई अवश्य देनी चाहिए। तभी समाज और देश में पारस्परिक सौहार्द बनाये रखा जा सकता है।   

Friday, October 13, 2017

लेह से नुब्रा , विश्व के सबसे ऊंचे खरदुंगला पास से होकर , एक रोमांचक सफ़र ---


लेह में दो दिन के स्थानीय आवास और विश्राम के बाद आप पूर्णतया स्वस्थ और अभ्यस्त हो जाते हैं।  अगले दिन आप निकल पड़ते हैं दो दिन के नुब्रा वैली टूर पर।  नुब्रा वैली लेह से करीब १४० किलोमीटर दूर है जहाँ विश्व की सबसे ऊंची वाहन योग्य सड़क द्वारा खरदुंगला पास से होकर पहुंचा जा सकता है। सुबह नाश्ते के बाद ९ बजे चलकर आप २ या ३ बजे तक आराम से नुब्रा पहुँच सकते हैं। 



लेह से खररदुंगला पास की दूरी ३९ किलोमीटर है जो एक ही पहाड़ पर चलकर आता है। यहाँ तक का रास्ता आसान ही है , हालाँकि जगह जगह सड़क को चौड़ा करने का काम चल रहा था , लेकिन ड्राइव करने में कोई विशेष दिक्कत का सामना नहीं करना पड़ रहा था। हमारे साथ तो ड्राइवर था लेकिन बहुत से लोग अपनी गाड़ी द्वारा भी लेह घूमने आते हैं।  फोटो में दूर लेह वैली नज़र आ रही है और पृष्ठभूमि में बर्फ से ढकी पहाड़ों की चोटियां जो कोणकरम पर्वतमाला है।   





खरदुंगला पास से ठीक पहले ये पहाड़ दूर से ही नज़र आ रहे थे लेकिन पास से इनकी खूबसूरती और भी निखर आई।




पास के पार बर्फ और भी ज्यादा थी। ज़ाहिर है , यह बची खुची बर्फ ही थी जो अभी तक पिघली नहीं थी।  सर्दियों में तो सारा ही पहाड़ बर्फ से ढका रहता है और बर्फ को काटकर रास्ता बनाना पड़ता है। यह काम सेना करती है।   





खारदुंगला पास की ऊँचाई १८३८० फ़ीट है और यह विश्व का सबसे ऊंचा स्थान है जहाँ वाहन योग्य सड़क है। इस स्थान पर फोटो खिंचवाने के लिए लाइन में लगना पड़ता है। लेकिन निश्चित ही यह भी एक उपलब्धि ही लगती है। 




बीच में सड़क और चारों ओर छोटी छोटी पहाड़ियां देखकर नहीं लगता कि हम इतनी ऊँचाई पर हैं जहाँ ठण्ड और ऑक्सीजन की मात्रा कम होने से कई लोगों को उल्टी आ जाती है। खरदुंगला पास की मन में कुछ ऐसी तस्वीर थी कि कोई बहुत संकरा सा बर्फ से ढका दुर्गम रास्ता होगा जिसे बड़ी मुश्किल से ही पार कर पाते होंगे। ऐसा इसलिए भी था क्योंकि अभी तक हमने रोहतांग पास ही देखा था जहाँ गर्मियों में भी बर्फ के बीच से संकरी सी सड़क से होकर जाना पड़ता है।  लेकिन यहाँ ऐसा कुछ नहीं था , बल्कि लग ही नहीं रहा था कि हम इतनी ऊँचाई पर खड़े हैं।  बस हवा की रफ़्तार कुछ ज्यादा थी जो चेहरे को चीरती हुई जा रही थी। 





ठन्डे मौसम में सकूं देते हैं यहाँ बने कई ढाबे जहाँ गर्मागर्म चाय और कॉफी पीकर तन और मन को गरमाहट मिलती है।  पास को पार करने पर ढलान शुरू हो जाती है।




पास के बाद सड़क बिलकुल नई बनाई गई थी और मक्खन मलाई जैसी लग रही थी। निरंतर ढलान के साथ यहां आपके साथ जलधारा भी बहने लगती है जो कि बर्फीले पहाड़ों से निरंतर पिघलती बर्फ से बनती है।  कुछ दूर जाने पर खरदुंग गांव आता है जो इस दिशा में नुब्रा वैली का पहला गांव है।  चारों ओर सूखे , नंगे , भूरे रंग के पहाड़ों के बीच में हरा भरा गांव देखकर मन प्रसन्न हो जाता है।  गांव को पार करने के बाद जो पहाड़ दिखाई देते हैं उनको देखकर ऐसा लगता है जैसे किसी चित्रकार ने कैनवास पर खूबसूरत चित्रकारी की हो। यहाँ पहाड़ों पर पत्थर नज़र नहीं आते।  ऐसा लगता है मानो सारा पहाड़ एक ही पत्थर से बना है।  उनकी सतह भी एकदम साफ और चिकनी सी नज़र आती है।  लेकिन पूरे पहाड़ पर सैंकड़ों हज़ारों नालियां सी नज़र आती हैं जिसे देखकर ऐसा लगता है जैसे किसी ने कुल्हाड़ी से काटकर बनाया हो।  यह बर्फ के पिघलकर बहने के कारण होता है जो सदियों से होता चला आया होगा।  पानी की काट ही ऐसी होती है कि पत्थर को भी काटकर आकार दे देती है। 





खरदुंग गांव के बाद जल्दी ही आप पहुँच जाते हैं श्योक नदी के पास जिसके साथ साथ चलते हुए हम आ जाते हैं नुब्रा वैली के अंदर। यहाँ नदी के दो भाग हो जाते हैं।  एक नदी नुब्रा कहलाती है और दूसरी श्योक नदी। अब हम श्योक नदी के साथ साथ आगे बढ़ते हुए अंतत : पहुँच जाते हैं दिस्कित गांव जहाँ हमारा कैम्प है।   



दोनों नदियों के संगम के पास काफी चौड़ा पाट है जो रेतीला समतल स्थान है।  यहाँ वापसी में हमने डेजर्ट स्कूटर चलाने का भी आनंद लिया।  यहाँ दो गांव हैं , पहला दिस्कित और दूसरा करीब १० किलोमीटर दूर हुन्डर गांव। नुब्रा में रात में रुकने के लिए बहुत से कैम्प लगाए गए हैं जो ज्यादातर इन्ही दो गांवों में पड़ते हैं।  इन कैम्पों में टेंट में रहने की सुविधा होती है जिसमे सभी आवशयक सुविधाएँ जुटाई गई हैं।  नहाने के लिए गर्म पानी और टॉयलेट के साथ डबल बैड और बरामदा जिसमे बैठ कर आप प्रकृति को निहार सकते हैं। खाने के लिए डाइनिंग रूम जिसमे स्वादिष्ट बुफे आयोजित किया जाता है।  यहाँ आपके आराम का पूरा ख्याल रखा जाता है। 



कैम्प के चारों ओर के पहाड़ बहुत खूबसूरत दिखाई देते हैं और धूप छाँव का अद्भुत मिश्रण सुबह मन मोह लेता है। कैम्प को भी बड़े दिलचस्प अंदाज़ में बनाया सजाया गया है। 




शाम के समय हुन्डर गांव में जाकर सूर्यास्त के समय ऊँट की सवारी बहुत दिलकश लगती है।  यहाँ दो कूबड़ वाले ऊँट होते हैं जिनपर बैठना बड़ा आनंददायक लगता है।




ऊँट पर बैठकर ऊंटों का काफिला चल देता है सैंड ड्यून्स की ओर। २०० रूपये प्रति व्यक्ति के हिसाब से  करीब १५ मिनट की डेजर्ट सफ़ारी कोई घाटे का सौदा नहीं है। लेकिन टोकन नंबर का कोई विशेष महत्त्व नहीं रहता , लोग बिना नंबर के भी घुस जाते हैं और यदि आपने ध्यान नहीं दिया तो आप खड़े ही रह जायेंगे और बाद में आने वाले आपसे पहले सवारी कर चुके होंगे।  इसलिए अपने नंबर के लिए सतर्क रहना ज़रूरी है। 





दिस्कित गांव अपने आप में एक छोटा सा शहर है।  यहाँ दुकानें , पोस्ट ऑफिस , अस्पताल , विधालय, बिजली , पानी ,टेलिफ़ोन और इंटरनेट आदि सभी आम नागरिक सुविधाएँ हैं। सुदूर पहाड़ों में ये सभी सुविधाएँ देखकर आश्चर्यमिश्रित प्रसन्नता होती है। सुबह वापसी में हम जाते हैं गांव के पास ही एक पहाड़ी पर बने इस ५०० वर्ष गोम्पा को देखने जहाँ सैंकड़ों मोंक्स भी रहते हैं।  यहाँ से घाटी का नज़ारा बेहद सुन्दर दिखाई देता है। 





गोम्पा के साथ ही है ये मोनास्ट्री जो थिकसे मोनास्ट्री का ही भाग है।




ये चार पहियों वाला स्कूटर वास्तव में बड़ा मज़ेदार लगा।  इसको चलाने के लिए बस एक लीवर है जिसे दबाते ही यह दौड़ने लगता है।  उसी से स्पीड कंट्रोल कर सकते हैं और छोड़ने पर यह रुक जाता है। गाइड ने साथ बैठकर जो एक टीले से नीचे डाइव करवाया तो ऐसा लगा जैसे सैंकड़ों फ़ीट से नीचे कूद गए हों।  एक तरह से यह रेगिस्तान का राफ्टिंग जैसा है। 




नुब्रा से सुबह ९ बजे चलकर आप २ बजे तक लेह पहुँच जाते हैं।  लंच के बाद आराम करने के बाद शाम को लेह बाजार के साथ ही बना लेह पैलेस पैदल ही पहुंचा जा सकता है , हालाँकि गाड़ी से जाने के लिए सड़क भी बनी है। लेह पैलेस लकड़ी और मिटटी से बना हुआ है और नौ मंज़िला है।  यहाँ से एक ओर पूरा लेह शहर नज़र आता है। 




वहीँ दूसरी ओर लेह घाटी और इसमें बने नए बहुमंज़िला होटल्स दिखाई देते हैं।  यह क्षेत्र नया लेह है।





लेह पैलेस की आठवीं मंज़िल तक जाया जा सकता है।  पीछे एक पहाड़ी पर बनी एक और मोनास्ट्री शाम के समय बहुत सुन्दर दृश्य प्रस्तुत करती है।  सूरज ढलने के साथ ही हम नीचे उतर आते हैं बाजार की ओर , हालाँकि रास्ता बड़ा टेढ़ा मेढा और कई जगह संकरा भी है लेकिन पैदल के लिए सही है , बशर्ते कि आपके घुटने सही सलामत हैं।



Tuesday, October 10, 2017

अभी से सचेत जाइये , वरना फिर आप ही कहेंगे , ये डॉक्टर बहुत लूटते हैं ---

दो सत्य लघु कथाएं :   
१ )
कॉलेज के दिनों में हमें भी धूम्रपान की आदत लग गई थी। दिसंबर १९८३ में मारुती गाड़ियां आने के बाद दिल्ली में वाहनों की संख्या तेजी से बढ़ने लगी।  १९९० में जब हमारी पहली गाड़ी मारुती ८०० आई तब तक दिल्ली में लगभग दस लाख वाहन हो चुके थे और उत्सर्जन पर कोई भी नियंत्रण न होने के कारण दिल्ली में लगातार बढ़ता हुआ वायु प्रदुषण चरम सीमा पर पहुँच गया था। तब न PUC होते थे और न ही गाड़ियों में उत्सर्जन मानक। ऐसे में अक्सर शाम के समय दिल्ली के मुख्य चौराहों पर धुंए का बादल सा छा जाता था।  ऐसे ही एक दिन जब हमने दिल्ली के सबसे ज्यादा व्यस्त चौराहों  में से एक ITO पर रैड लाइट होने पर स्कूटर रोका तो देखा कि धुआं इतना ज्यादा था कि अपनी ही साँस कड़वी सी लग रही थी।  तभी हमने देखा कि एक और स्कूटरवाला आकर रुका और रुकते ही उसने तुरंत जेब से निकाल कर सिगरेट जलाई।  यह देखकर हमें लगा कि यह कैसा बंदा है , बाहर का धुआं कम था जो यह सिगरेट का धुआं भी फेफड़ों में भर रहा है ! तभी हमें दिव्य ज्ञान प्राप्त हुआ और उसके बाद हमने फिर कभी धूम्रपान नहीं किया।  अभी इतवार को जब हमने अपना PFT कराया तो बिलकुल नॉर्मल निकला। 
२ )
एक बार गौतम बुद्ध कहीं जा रहे थे थे।  रास्ते में डाकू उंगलीमाल आ गया।  वह लोगों को लूट कर उनकी एक उंगली काट कर अपने गले में माला बनाकर पहनता था। जैसे ही उसने बुद्ध को देखा तो जोर से बोला -- ठहर जा।  बुद्ध ने कहा -- मैं तो ठहर गया , तू कब ठहरेगा ! अंत में जब गौतम बुद्ध ने उसे बात का मर्म समझाया तो वह सदा के लिए लूटपाट को छोड़कर शरीफ इंसान बन कर रहने लगा ।

आज दिल्ली में उस समय की दस गुना यानि करीब एक करोड़ गाड़ियाँ हैं।  कई कारणों से दिल्ली में प्रदुषण दशहरे के बाद ही बढ़ने लगता है।  इस भयंकर वायु प्रदुषण से बदलते मौसम में लाखों लोगों को स्वास रोग होने लगते हैं।  कृपया सिर्फ एक मिनट साँस रोककर देखिये कि आपको कैसा लगता है। हम जीवन भर साँस लेते रहते हैं लेकिन कभी उसका पता नहीं चलता।  जिसे दमा जैसी साँस की बीमारी होती है , उसे एक एक साँस के लिए न सिर्फ अथक प्रयास करना पड़ता है बल्कि घोर कष्ट भी उठाना पड़ता है।  स्वास रोग न जात पात देखता है , न धर्म। आपकी क्षणिक मिथ्या ख़ुशी दूसरों के लिए जीवन भर का रोग न बने , इतना प्रयास तो हम कर ही सकते हैं। अभी से सचेत जाइये , वरना फिर आप ही कहेंगे , ये डॉक्टर बहुत लूटते हैं।       

Monday, October 9, 2017

लेह दर्शन -- दूसरा दिन :

लेह पहुँचने पर पहला दिन आराम करते हुए ही बिताना चाहिए ताकि आप अपने शरीर को जलवायु अनुसार ढाल सकें। इससे आपको ऊँचाई के कारण होने वाली कठिनाइयों का सामना नहीं करना पड़ेगा। दूसरे दिन नाश्ते के बाद आप निकल पड़ते हैं लेह के स्थानीय स्थलों के दर्शन के लिए।



लेह शहर लेह घाटी में बसा हुआ है। इसके चारों ओर हलके भूरे रंग के नंगे पहाड़ दिखाई देते हैं।




लेकिन घाटी और शहर में हरियाली है। शहर में होटलों की बहुतायत है और हर बजट के लोगों के लिए यहाँ आवास उपलब्ध है। 




लेह बाज़ार :  यहाँ जितनी साफ़ सफाई नज़र आई , इतनी किसी और हिल स्टेशन पर कभी नहीं दिखी। बीच में पक्का फर्श और बैठने के लिए बेंच बने हैं जिसके दोनों ओर दुकानों की कतारें हैं जिनमे लगभग हर तरह का सामान मिलता है।  हालाँकि सारा सामान श्रीनगर या दिल्ली आदि से ही आता है। इसलिए सामान्य से ज़रा ज्यादा दाम पर ही मिलेगा। यहीं पर एक गुरुद्वारा , मस्जिद , पोस्ट ऑफिस , बैंक और पर्यटन सूचना केंद्र भी हैं।   



पहले दिन के टूर के आरम्भ में सबसे पहले आप पहुंचते हैं , लेह श्रीनगर राजमार्ग पर बने सेना द्वारा नियंत्रित 'हॉल ऑफ़ फेम' जो वास्तव में इस क्षेत्र में शहीद हुए सैनिकों का स्मृति स्थल है।  यहाँ एक म्यूजियम है जहाँ सेना की चौकसी से सम्बंधित सभी उपकरण प्रदर्शित किये गए हैं और ऐतिहासिक घटनाओं का विवरण दिया गया है।




बाहर खुले अहाते में शहीद स्मारक और शहीदों की याद में पत्थर भी लगाए गए हैं। आप स्वयं ही शहीदों की याद में नतमस्तक हो जाते हैं। यहाँ ८० रूपये का एंट्री टिकट है।



चारों और खूबसूरत पहाड़ियों से घिरा यह स्थल बेहद मनोहारी दृश्य प्रस्तुत करता है।





लेह से २५ मील दूर इसी हाइवे पर बना है गुरुद्वारा पत्थर साहब।  कहते हैं यहाँ गुरु नानक जी ने तपस्या की थी लेकिन एक राक्षस लोगों को बहुत तंग करता था। एक बार उसने एक बहुत बड़ा पत्थर लुढ़का कर नानक जी को मारने का प्रयास किया लेकिन उनके प्रताप से पत्थर पिघल कर मोम जैसा नर्म हो गया। राक्षस ने जब पैर मारा तो उसका पैर पत्थर में धंस गया जो आज भी वहां मौजूद है।   




यहाँ से थोड़ा सा आगे जाने पर एक जगह आती है जिसे मेग्नेटिक हिल कहते हैं। ऐसा माना जाता है कि यहाँ सड़क पर एक सुनिश्चित जगह पर गाड़ी न्यूट्रल में खड़ी करने पर वह अपने आप ऊपर की ओर चलने लगती है।  हालाँकि ऐसा लगा नहीं क्योंकि उस स्थान के दोनों ओर ढलान नज़र आ रही थी और गाड़ियां भी स्थिर ही थीं। 





आगे जाकर सैम वैली के रास्ते में आता है जंस्कार और इंडस ( इन्दु ) नदियों का संगम जो ऊँचाई से बहुत खूबसूरत दिखाई देता है। यहाँ राफ्टिंग भी कराई जाती है और चाय पानी का इंतज़ाम है। 





वापसी में लेह एयरपोर्ट के पास है स्पितुक मोनास्ट्री जिसकी ऊँचाई से चारों घाटी और पहाड़ों का अद्भुत दृश्य नज़र आता है।  यहीं पर काली माता का मंदिर भी है जिसमे लोग तेल की बोतल , जूस आदि चढ़ाते हैं।  हालाँकि यहाँ कोई पंडित या संरक्षक नज़र नहीं आया। तेल की बोतलों के भंडार देखकर बड़ा अजीब लगा लेकिन स्थानीय लोगों की मान्यताओं के आगे नतमस्तक होना ही पड़ता है।   सामने लेह एयरपोर्ट नज़र आ रहा है।




दोपहर तक वापस आकर होटल में खाना खाकर धूप में बैठने का भी अपना ही आनंद था।



शाम के समय सूर्यास्त से पहले ८ किलोमीटर की दूरी पर एक पहाड़ी पर बने स्पितुक गोम्पा अवश्य जाना चाहिए।  यहाँ से चारों ओर की पहाड़ियों पर पड़ती सूर्य की किरणें और उनसे बदलता रंग बेहद खूबसूरत लगता है।  साथ ही इंडस रिवर और घाटी की हरियाली देखकर मन प्रसन्न हो जाता है।

इसके अलावा लेह बाजार के छोर पर बस्ती की गलियों से होकर एक रास्ता जाता है लेह पैलेस के लिए जो एक ऊंची पहाड़ी पर बना ९ मंज़िला भवन है जिसे लकड़ी से बनाया गया है और दीवारों पर मिटटी का लेप है।  यहाँ से भी घाटी का दृश्य बहुत सुन्दर और मनभावन होता है। रात में स्वादिष्ट खाने के बाद आराम कर हम तैयार हो जाते हैं नुब्रा वैली के लिए प्रस्थान करने के लिए। 



Thursday, October 5, 2017

एक अलग सा अनुभव -- लेह लद्दाख यात्रा ---






देश भ्रमण में पर्वतीय भ्रमण सर्वोत्तम होता है क्योंकि पहाड़ों की शुद्ध और ताज़ा हवा हमारे तन और मन को तरो ताज़गी से भर देती है। दिल्ली जैसे प्रदूषित शहर में रहने वालों के लिए यह अत्यंत आवश्यक है कि वर्ष में एक या दो बार पहाड़ों की सैर पर निकल जाएँ ताकि फेफड़ों को कुछ राहत मिल सके। हमारे देश में जहाँ सभी पर्वतीय भ्रमण स्थल लगभग एक जैसे हरे भरे लेकिन कम ऊँचाई पर हैं , वहीँ एकमात्र लद्दाख क्षेत्र ऐसा पर्वतीय स्थल है जहाँ पहाड़ एकदम सूखे , नंगे , वृक्षरहित और ऊंचे हैं। इसीलिए लद्दाख के दुर्गम लेह शहर में हर वर्ष लाखों सैलानी यात्रा करने जाते हैं और कई तरह की कठिनाइयां उठाते हुए भी आनंदित महसूस करते हैं। 

लेह जाने के लिए सबसे बढ़िया मौसम मई जून से लेकर मध्य अक्टूबर तक रहता है।  इसके बाद बर्फ़बारी और सर्दियाँ बहुत बढ़ जाती हैं और लगभग सभी होटल्स और अन्य सुविधाएँ बंद हो जाती हैं। यहाँ जाने के लिए दो रास्ते हैं -- हवाई यात्रा या सड़क द्वारा।  सड़क से दो जगहों से जाया जा सकता है -- एक मनाली से और दूसरा श्रीनगर से।  दोनों ही दशाओं में एक रात रास्ते में रुकना पड़ता है।  लेकिन हवाई ज़हाज़ से मात्र सवा घंटे में लेह पहुँच जाते हैं। सड़क द्वारा यात्रा का एक लाभ यह रहता है कि आप रास्ते भर एक से एक सुन्दर पहाड़ और घाटियां देख पाते हैं जबकि हवाई यात्रा में आपको आसमान से बर्फ से ढके पहाड़ अपनी पूरी सुंदरता में दिखाई देते हैं। इसलिए सबसे बढ़िया है कि आप सड़क द्वारा जाएँ और हवाई ज़हाज़ से वापस आएं। इससे आपको जलवायु-अनुकूलन में भी सहायता मिलेगी और पर्वत दर्शन भी बेहतर होगा। 

लेह शहर की ऊँचाई ११००० -१२००० फुट के करीब है।  यानि यह आम हिल स्टेशंस की अपेक्षा दुगनी ऊँचाई पर है। इसलिए यहाँ जाने से पहले कुछ बातों का विशेष ख्याल रखना पड़ता है। यहाँ सबसे ज्यादा कठिनाई होती है ऊँचाई के कारण होने वाली ऑक्सीजन की कमी। ऑक्सीजन की कमी के कारण आप भयंकर रूप से बीमार पड़ सकते हैं और कभी कभी तो यह जानलेवा भी हो सकता है।  इसे हाई ऑल्टीट्यूड सिकनेस कहते हैं।  यह तीन प्रकार से हो सकती है :
१ )   हाई ऑल्टीट्यूड सिकनेस -- यह आम तौर पर बहुत से लोगों को पहाड़ों पर जाने से हो जाता है।  इसमें लक्षण हलके ही होते हैं जैसे सर दर्द होना , जी मिचलाना , उलटी , भूख न लगना और नींद न आना। अक्सर यह एक दिन में ठीक भी हो जाता है।
२ ) पल्मोनेरी इडीमा ( pulmonary edema ) -- इसमें ऑक्सीजन की कमी के कारण साँस फूलने लगता है और साँस लेने में कठिनाई भी हो सकती है। यह फेफड़ों में पानी भरने के कारण होता है।  इसलिए ऑक्सीजन की कमी होते ही तुरंत कृत्रिम ऑक्सीजन साँस के साथ लेना आवशयक हो जाता है।  इसके लिए सभी होटलों में ऑक्सीजन सिलेंडर मिलते हैं।  लेकिन ज्यादा होने पर अस्पताल में भर्ती भी होना पड़ सकता है जहाँ हाइपरबारिक ऑक्सीजन से इलाज किया जाता है। कभी कभी आराम न होने पर हेलीकॉप्टर द्वारा ऐसे रोगी को निचले क्षेत्र में भी भेजना पड़ जाता है।  इसके लिए सेना की सहायता लेनी पड़ती है लेकिन कम ऊँचाई पर आते ही यह रोग स्वत: ठीक हो जाता है। हालाँकि आपका घूमने का प्रोग्राम तो खराब हो ही जाता है।
३ ) सेरिब्रल इडिमा ( cerebral edema ) -- यह सबसे खतरनाक हालात होती है।  इसमें व्यक्ति को दिमाग में सूजन आने से बेहोशी होने लगती है और एक बार बेहोश हुए तो करीब ५० % लोगों को दोबरा होश नहीं आता। इसलिए तुरंत चिकित्सीय सहायता से दिमाग की सूजन को ठीक करने का प्रयास करना पड़ता है।      

ऑक्सीजन की कमी से बचने के उपाय :
* यदि संभव हो तो आप सड़क यात्रा करते हुए लेह जाएँ।  इससे आपको जलवायु का अभ्यस्त होने में सहायता मिलेगी।
* diamox २५० mg की एक गोली सुबह शाम यात्रा से दो दिन पहले शुरू कर दें और २-३ दिन बाद तक और खाएं। इससे इस रोग के लक्षण काफी हद तक नियंत्रण में रहते हैं। हालाँकि यह कैसे काम करती है , यह साफ़ नहीं है।  लेकिन निश्चित ही प्रभावशाली है। 
* लेह पहुँच कर पहले दिन सिर्फ आराम करें और कोई भी थकाने वाला काम न करें।
* पानी पीते रहें लेकिन बहुत ज्यादा भी न पीयें।
* उचित मात्रा में खाना भी अवश्य खाएं , हालाँकि आपको भूख का अहसास नहीं होगा।
* सिगरेट , शराब आदि का सेवन बिलकुल न करें।
ऐसा करने से आने वाले दिनों में आप स्वस्थ रहेंगे और लेह दर्शन का भरपूर आनंद उठा पाएंगे।

लेह में सुविधाएँ :

लेह पहुंचकर भले भी आपको सब कुछ सूखा सूखा सा लगे लेकिन यहाँ शहर में सब सुख सुविधाएँ उचित दाम पर उपलब्ध हैं।  अच्छे साफ सुथरे होटल्स , उत्तर भारतीय स्वादिष्ट खाना , नहाने के लिए प्रचुर मात्रा में गर्म पानी और मार्किट में सभी वस्तुएं मिल जाती हैं।  यहाँ के लोग मूलत: बौद्ध धर्म के अनुयायी हैं और बहुत शांतिप्रिय हैं। प्रसन्नचित्त , सहयतापरक और ईमानदार लोगों से आपको कोई कठिनाई महसूस नहीं होगी। अधिकांश अच्छे होटल्स पुराने लेह रोड पर बने हैं जो मेन बाजार के बहुत करीब हैं जहाँ आप शाम के समय अच्छा समय बिता सकते हैं।

लेह लद्दाख दर्शन अगली पोस्ट्स में।     

Friday, September 1, 2017

वैवाहिक बलात्कार :


हमारे देश में विवाह की संवैधानिक न्यूनतम आयु सीमा लड़कियों के लिए १८ वर्ष और लड़कों के लिए २१ वर्ष निर्धारित की गई है। लेकिन यौन संबंधों के लिए सहमति की आयु सीमा अविवाहित युवतियों के लिए १८ वर्ष और विवाहित के लिए १५ वर्ष रखी गई है। देखा जाये तो ये दोनों तथ्य पारस्परिक विरोधी हैं। यदि  १८ वर्ष से पहले शादी ही गैर कानूनी है तो यौन सम्बंधों को कैसे मान्यता दी जा सकती है। वैसे भी १८ वर्ष तक ही लड़कियां शारीरिक और मानसिक रूप से परिपक्व होती हैं। लेकिन सरकार का इस विषय पर रवैया हमें समझ में नहीं आ रहा।

होना तो यह चाहिए कि यदि विभिन्न रीति रिवाज़ों के कारण सरकार बाल विवाह को रोक नहीं पाती तो कम से कम जनता में यह चेतना जागरूक करनी चाहिए कि १८ वर्ष की होने से पहले लड़की को ससुराल न भेजा जाये और यौन सम्बन्ध स्थापित न किये जाएँ।  साथ ही विवाहित महिलाओं में भी महिलाओं को अपनी इच्छानुसार ही यौन प्रक्रिया का प्रावधान होना चाहिए। विवाहित होने की आड़ में पति को यह अधिकार नहीं होना चाहिए कि वह जब चाहे , जैसा चाहे , पत्नी को यौन प्रताड़ित कर सके , जैसा कि अक्सर देखा जाता है। भले ही शादी प्रजनन के लिए आवश्यक यौन प्रक्रिया का एक संवैधानिक साधन है , लेकिन इस बहाने पत्नी को पति के ज़ुल्मों से बचाया जाना हर पत्नी का अधिकार होना चाहिए।

निश्चित ही , आज वैवाहिक बलात्कार पर विचार विमर्श कर किसी सकारात्मक परिणाम तक पहुँचने की अत्यंत आवश्यकता है।               

Thursday, August 24, 2017

पर्दा प्रथा, महिलाओं पर एक अत्याचार ---


आदि मानव से लेकर आधुनिक समय तक मनुष्य समाज सदा पुरुष प्रधान ही रहा है।  विश्व भर में महिलाएं समान अधिकार और शोषण के मामले में सदैव पीड़ित रही हैं।  लेकिन जहाँ विकसित देशों में स्थिति में काफी सुधार आया है , वहीँ हमारे देश में अभी भी महिलाएं पुरुषों की अपेक्षा उपेक्षित ही रही हैं। इसका एक ज्वलंत उदाहरण है पर्दा प्रथा। जहाँ मुस्लिम समाज में महिलाओं को नकाब में रहना पड़ता है , वहीँ देश के एक बड़े भाग में हिन्दु महिलाओं को पर्दे में रहना पड़ता है। मूलतया यह उत्तर भारत में देखने को मिलता है , विशेषकर राजस्थान , हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में।

इनमे सबसे ज्यादा ख़राब स्थिति हरियाणा की लगती है। वहां आज भी गांवों में रहने वाली महिलाएं बिना घूंघट किये घर से बाहर नहीं निकल पाती।  घर में भी बड़े बूढ़ों के सामने उन्हें घूंघट करना पड़ता है। घर के सारे कामों से लेकर खेत खलियान और पशुओं की देखभाल तक महिलाओं को ही करनी पड़ती है। उस पर मूंह खोलकर सांस भी न ले पाना , एक तरह से महिलाओं पर एक तरह का अत्यचार ही है।

उत्तर भारत में पर्दा करने की प्रथा मूल रूप से मुग़लों के राज में आरम्भ हुई थी जो अंग्रेज़ों के ज़माने तक चलती रही।  इसका कारण था मुग़ल राजाओं और सैनिकों से महिलाओं की सुरक्षा। बताया जाता है कि जब भी कोई मुग़ल राजा किसी क्षेत्र से गुजरता था , तो वो रास्ते में आने वाले गांवों के खेतों में काम करती हुई महिलाओं और लड़कियों में से सुन्दर दिखने वाली महिलाओं को जबरन उठा ले जाते थे। सेना के आगे निरीह गांव वाले लाचार और असहाय महसूस करते और कुछ भी नहीं कर पाते थे। इस अत्याचार से बचने के लिए महिलाओं को पर्दा करने की रिवाज़ पैदा हुई।

लेकिन अब जब देश को स्वतंत्र हुए ७० वर्ष हो चुके हैं , तब भी पर्दा प्रथा का कायम रहना कहीं न कहीं विकास की कमी को ही दर्शाता है। हालाँकि आज का शिक्षित युवा वर्ग इस प्रथा से उबर कर बाहर आ रहा है , लेकिन पुरानी पीढ़ी की औरतें और अशिक्षित , गरीब परिवारों की ग्रामीण महिलाएं अभी भी इस कुप्रथा की शिकार हैं।  ज़ाहिर है , इस से बाहर निकलने के लिए शिक्षा और जागरूकता की अत्यंत आवश्यकता है।  समाज की सोच और रवैये को बदलना होगा , तभी देश में महिलाएं सुख चैन की साँस ले पाएंगी और पुरुषों के साथ कंधे से कन्धा मिलाकर देश के विकास में योगदान दे पाएंगी।               

Friday, August 18, 2017

कितना आसाँ है आसाराम बन जाना ---



मेरा मेरा करती है दुनिया सारी,
मोहमाया से मुक्ति पाओ , तो जाने ।

कितना आसाँ है आसाराम बन जाना ,
राम बनकर दिखलाओ , तो जाने।

दावत तो फाइव स्टार थी लेकिन,
भूखे को रोटी खिलाओ , तो जाने ।

राह जो दिखाई है ज्ञानी बनकर,
खुद भी चलकर दिखाओ , तो जाने ।

देवी देवता बसते हैं करोड़ों यहाँ,
इंसान बन कर दिखलाओ , तो जाने ।

रुलाने वाले तो लाखों मिल जायेंगे,
किसी रोते को हंसाओ, तो जाने ।

फेसबुक पे तो रोज़ लिखते हो 'यार'',
कभी साथ बैठ गपियाओ , तो जाने।




Sunday, August 13, 2017

लापरवाही किस की --


अस्पताल में संस्थान के प्रमुख का काम , चाहे वो मेडिकल सुपरिन्टेन्डेन्ट हों , या डायरेक्टर या फिर मेडिकल कॉलेज के प्रिंसिपल , बहुत जिम्मेदारी वाला होता है। हालाँकि किसी भी सरकारी संस्थान के प्रशासन में सहायतार्थ अधिकारियों की पूरी टीम होती है , लेकिन अंतत: जिम्मेदारी मुखिया की ही होती है। सरकारी अस्पतालों में सभी स्तर के अधिकारियों का काम बंटा होता है जिसके लिए व्यक्ति विशेष जिम्मेदार होता है। यहाँ निजी संस्थानों की तरह पावर कल्चर नहीं होता बल्कि रोल कल्चर होता है जिसमे पदानुक्रमिक रूप से कार्य होता है।  लेकिन जब भी कोई दुर्घटना होती है तब जिम्मेदार मुखिया को ही ठहराया जाता है।  इसलिए मुखिया के सर पर तलवार सदा लटकती रहती है।

एक बड़े अस्पताल में ऑक्सीजन आपूर्ति के लिए एक ऑक्सीजन टैंक होता है जिसकी क्षमता १०००० लीटर होती है। इसके अलावा रिजर्व में ऑक्सीजन सिलेंडर्स का इंतज़ाम होता है जिसे मेनीफोल्ड कहते हैं।  इसमें १२ - १२ सिलेंडर्स के दो रिजर्व सेक्शन होते हैं।  यानि यदि टैंक में ऑक्सीजन ख़त्म भी हो जाये तो पहले एक सिलेंडर्स ग्रुप से काम चलता है , उसके ख़त्म होने पर दूसरा संग्रह शुरू हो जाता है।  किसी भी संभावित परिस्थिति के लिए दो दो सिलेंडर्स का एक और रिजर्व संग्रह होता है जो अंत में काम आता है। इसलिए जब तक पाइप लाइन में रुकावट या गड़बड़ न हो जाये , ऑक्सीजन के आकस्मिक रूप से ख़त्म होने की सम्भावना लगभग न के बराबर होती है।  ऐसे में दो घंटे तक ऑक्सीजन उपलब्ध न होना अत्यंत विस्मयकारी लगता है जो प्रशासनिक दक्षता और कार्यक्षमता पर सवालिया निशान खड़े करता है।

लेकिन यहाँ यह भी सवाल आता है कि भले ही ऑक्सीजन सप्लायर को पेमेंट नहीं हुई थी , लेकिन कोई भी सप्लायर जो सरकारी संस्थानों को कोई भी सेवा प्रदान करता है , अचानक सेवा समाप्त नहीं कर सकता। यह अनुबंध में भी शामिल होता है।  इसलिए सप्लायर का यूँ ऑक्सीजन सप्लाई रोकना भी  मानवीय और शायद कानूनन भी एक अपराध है। जहाँ तक पेमेंट की बात है , यह सरकारी संस्थानों में एक पेचीदा सवाल है क्योंकि अधिकारी नियमों से कई बार ऐसे बंधे होते हैं कि अक्सर पेमेंट लेट हो जाती है।  यह बात सभी सप्लायर्स जानते हैं और सहन भी करते हैं।  हालाँकि , निश्चित ही इस दिशा में सुधार अवश्य होना चाहिए। भले ही सरकारी संस्थान सरकारी नियमों और विनियमों के तहत काम करते हुए निजी संस्थानों की तरह तत्परता से भुगतान करने की स्थिति में नहीं हो सकते , लेकिन प्रशासनिक कार्यों में कार्यक्षमता और निपुणता बढाकर सुधार तो किया ही जा सकता है ।    

अक्सर देखा गया है कि जब भी कोई ऐसी भयंकर विपदा सामने आती है , इसे तुरंत राजनीतिक रूप दे दिया जाता है। विशेषकर विपक्ष सदा ही इसे राजनितिक लाभ के लिए भुनाने को तत्पर रहता है। यह प्रजातंत्र का शायद सबसे बड़ा दुष्प्रभाव है। किसी का इस्तीफ़ा मांगने या देने से समस्या का समाधान नहीं निकलता। ऐसे में आवश्यकता है कि भविष्य में ऐसी दुर्घटनाओं को रोकने के लिए सभी पक्ष अपने विचार रखते हुए सकारात्मक रूप से अपना योगदान देकर समस्या का निवारण करें। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि जान बूझ कर कोई ऐसा दुष्कर्म नहीं करता।  लापरवाही हमारी कार्य प्रणाली में दोष को दर्शाती है जिसे जब तक दूर नहीं किया जायेगा , इस तरह की दुर्घटनाएं होती रहेंगी।  इसलिए आरोप प्रत्यारोप को छोड़कर हमें सभी संस्थानों में आवश्यक सुविधाएँ उपलब्ध कराने की दिशा में विचार विमर्श कर कार्यान्वित करना चाहिए।

सच क्या है , यह तो यथोचित उच्चस्तरीय जाँच से ही पता चलेगा , लेकिन इतने सारे मासूम बच्चों की यूँ अकाल मृत्यु मन को झझकोड़ जाती है और उन परिवारों के प्रति अन्याय का अहसास दिलाती है। सरकार को जल्दी ही इस पर विचार कर दोषियों को सज़ा दिलानी चाहिए और भविष्य में बचाव के लिए ठोस कदम उठाने चाहिए।       
   

Friday, August 4, 2017

पत्नी पर लिखी हास्य कविता पत्नी को कभी न सुनाएँ ---



एक दिन एक महिला ने फ़रमाया ,
आप पत्नी पर हास्य कविता क्यों नहीं सुनाते हैं !
हमने कहा , हम लिखते तो हैं , पर सुनाने से घबराते हैं।
एक बार पत्नी पर लिखी कविता पत्नी को सुनाई थी ,
गलती ये थी कि अपनी को सुनाई थी।
उस दिन ऐसी भयंकर मुसीबत आई,
कि हमें घर छोड़कर जाना पड़ा ,
और रात का खाना खुद ही बनाना पड़ा।
अब हम पत्नी विषय पर कविता तो लिखते हैं ,
लेकिन खुद की नहीं ,
दूसरों की पत्नियों को ही सुनाते हैं।
तभी सकूंन से सुबह शाम दो रोटी खा पाते हैं।


Tuesday, July 25, 2017

जिंदगी की दौड़ एक मृगमरीचिका है ---


तंग गलियारों में ही गुजरती रही ,
ये जिंदगी भी कितनी तन्हा सी रही।

खोलो कभी मन के बंद दरवाज़ों को,
मिलकर बैठो और बतियाओ तो सही।

जिंदगी गुजर जाती है ये सोचते सोचते,
तू अपनी जगह सही मैं अपनी जगह सही।

क्यों दौड़ते हो धन दौलत के पीछे बेइंतहा,
ये बेवफा कभी मेरी कभी तेरी होकर रही।

इज़्ज़त , सौहरत , दौलत तो बहुत कमाई ,
मन का सुख चैन पर कभी मिला ही नहीं।

जिंदगी की दौड़ मृगमरीचिका है 'दोस्त',
भला इसे कोई कभी पकड़ पाया है कहीं ।  

Monday, July 17, 2017

एक कविता ऐसी भी ---


घर में ऐ सी , दफ्तर में ऐ सी ,
गाड़ी भी ऐ सी।
ऐ सी ने कर दी , 'डी'  की ऐसी की तैसी !

चाय का पैसा , पानी का पैसा ,
चाय पानी का पैसा।
जब सब कुछ पैसा , तो ईमान कैसा !

ना जान , ना पहचान ,
बस जान पहचान।
जब यही समाधान , तो कैसा इम्तिहान !

वधु बिन शादी , शादी बिन प्यार ,
बिन शादी के लिव इन यार।
जब ऐसा व्यवहार , तो व्यर्थ संस्कार !

यार मतलब के , मतलब की यारी ,
बिन मतलब के रिश्ते भी भारी।
मतलब ने मति मारी, विमुख दुनिया सारी !  

भ्रष्ट इंसान , रुष्ट भगवान ,
तो बलिष्ठ तूफ़ान।
फिर ध्वस्त मकान , नष्ट सुन्दर ज़हान !

हिन्दू , सिख , ईसाई,  ना मुसलमान ,
बनो इंसान , रखो ईमान।  
फिर जीवन आसान , बने देश महान !  

Friday, July 7, 2017

जब टाइमिंग ख़राब हो तो टाइम भी ख़राब आ जाता है ---


कहते हैं , मनुष्य का टाइम ( समय ) खराब चल रहा हो तो सब गलत ही गलत होता है।  लेकिन हमें लगता है कि यदि आपकी टाइमिंग ( समय-निर्धारण ) ख़राब हो तो भी सब गलत ही होता है। अब देखिये एक दिन डिनर करते समय हमने सोचा कि श्रीमती जी को अक्सर शिकायत रहती है कि हम उनके बनाये खाने की तारीफ़ कभी नहीं करते। क्योंकि उस दिन दोनों का मूड अच्छा था तो हमने सोचा कि चलो आज बीवी को मक्खन लगाया जाये।
यह सोचकर खाते खाते हमने कहा -- भई वाह ! क्या बात है , आज तो सब्ज़ी बड़ी टेस्टी बनी है।
पत्नी ने बिना कोई भाव भंगिमा दिखाए कहा -- अच्छा !
हमने कहा -- हाँ भई , और दाल की तो बात ही क्या है , बहुत ही विशेष स्वाद आ रहा है। जी चाहता है , आपके हाथ चूम लूँ।
अब तक पत्नी के सब्र का बांध जैसे टूट सा गया था।  तुनक कर बोली -- क्या बात है , आज बड़ी तारीफें हो रही हैं ! इससे पहले तो आपने कभी खाने की तारीफ नहीं की।
हमने कहा -- भई हमने सोचा है कि आप जब भी अच्छा खाना बनाया करेंगी , हम तारीफ ज़रूर किया करेंगे।
अब पत्नी बिफर कर बोली -- तारीफ़ गई भाड़ में । दाल सब्ज़ी मैंने नहीं , नौकरानी ने बनाई हैं।
यह सुनकर हमारे तो होश उड़ गए।
हमने खींसें निपोरते हुए कहा -- ओह सॉरी डार्लिंग। हमने सोचा कि चलो आपकी शिकायत दूर कर दें कि हम कभी तारीफ़ नहीं करते।  लेकिन हमें क्या पता था !  शायद तारीफ करने की टाइमिंग गलत हो गई। वैसे ऐसा कुछ नहीं है आज के खाने में , बस सो सो है। बल्कि कुछ टेस्ट है ही नहीं , बकवास बना है। वो तो मैं तुम्हे खुश करने के लिए कह रहा था।
हमने सोचा कि शायद पलटी मारने से काम चल जाये।
लेकिन तभी पत्नी दहाड़ी --   मैं जानती हूँ , आप मेरे खाने की तारीफ कभी नहीं करेंगे। मैं ही बेवक़ूफ़ हूँ जो रोज रोज खाना बनाने में खटती रहती हूँ।  आपको मेरा बनाया खाना क्या , मैं ही अच्छी नहीं लगती।  मैं जा रही हूँ मायके।
और अब कान खोल कर सुन लो , आज का खाना भी मैंने ही बनाया था।
हमारे तो पैरों के नीचे से जैसे धरती ही खिसक गई और सोचा -- लगता है , टाइमिंग ही नहीं, ये तो टाइम ही खराब चल रहा है।      

   

Saturday, July 1, 2017

ब्लॉग दिवस पर ब्लॉग्स पर ब्लॉगर्स की वापसी पर सभी को बधाई ---


हमने ब्लॉगिंग की शुरुआत की थी १ जनवरी २००९ को जब नव वर्ष की शुभकामनाओं पर पहली पोस्ट लिखी थी एक कविता के रूप में। फिर ५ -६ वर्ष तक जम कर ब्लॉगिंग की और ५०० से ज्यादा पोस्ट्स डाली।  लेकिन फिर फेसबुक ने कब्ज़ा कर लिया और सब ब्लॉगर्स फेसबुक पर आ गए और ब्लॉग्स सूने हो गए। इस बीच हमने भी अपने चिकित्सीय जीवन के ३५ वर्ष पूरे किये और अंतत: ३० अप्रैल २०१६ को सरकारी सेवा से सेवानिवृत हो गए। उस समय तो कुछ यूँ महसूस हुआ कि --

एक बात हमको बिलकुल भी नहीं भाती है,
कि आजकल ६० की उम्र इतनी जल्दी आ जाती है !

लेकिन फिर यह भी महसूस हुआ कि ---

मोह जब टूटा तो हमने ये जाना ,
कितना कम सामान चाहिए , जीने के लिए।

लेकिन बहुत से लोग ऐसे हैं जो जिंदगी भर चिपटे रहते हैं पैसे कमाने की होड़ से।  उनको देखकर ज़ेहन में ये पंक्तियाँ आती हैं --

भरी जवानी में धर्म कर्म करने लगे हैं ,
मियां जाने किस जुर्म से डरने लगे हैं।
साथ लेकर जायेंगे जैसे जो था कमाया ,
बक्सों में सारा ऐसे सामान भरने लगे हैं।

लेकिन हमने तो यही देखा है कि रिटायर होने के बाद इंसान की आवश्यकताएं एकदम से कम हो जाती हैं।

तन पर वस्त्र हों और खाने के लिए दो रोटी ,
फिर बस नीम्बू पानी चाहिए पीने के लिए।

लेकिन फिर एक प्रॉब्लम अवश्य सामने आने लगती है।  होता ये हैं कि अब जब भी हम घर से बाहर निकलते हैं और कोई मिलता है तो एक ही सवाल पूछता है --  आजकल क्या कर रहे हो ? आरम्भ में तो हम कहते रहे कि भई बहुत काम किया , अब थोड़ा आराम किया जाये।  लेकिन धीरे धीरे यह सवाल हमें भी खटकने लगा।  इसलिए हमने भर से बाहर निकलना ही बंद कर दिया।  लेकिन फिर एक और मुसीबत आ गई।  अब पत्नी शाम को घर आते ही पूछने लगी
कि बताइये , आज दिन भर क्या किया। अब यह तो हमारी स्वतंत्रता और पुरुषत्व दोनों पर आघात सा लगता था।  इसलिए हमने एक दिन जिम ज्वाइन कर लिया।  अब जब पत्नी पूछती है तो हम कहते हैं -- देखिये आपके जाने के एक घंटे बाद हम जिम गए , दो घंटे जिम में लगाए , फिर घर आकर एक घंटे बाद नहाकर खाना खाया और तीन घंटे के लिए सो गए। इस तरह बज गए शाम के चार और दिन पूरा।  लेकिन पत्नी तो पत्नी होती है।  अब उनका अगला सवाल होता है कि बताओ , कितनी मसल्स बनी ।  अब हम उन्हें कैसे समझाएं कि रोम एक दिन में नहीं बसा था। अरे भई भूतपूर्व जवान की मसल्स हैं , सोचते समझते धीरे धीरे ही बनेंगी।

वैसे जिम का नज़ारा भी बड़ा अजीब होता है। युवा लड़के , लड़कियां , गृहणियां , कुछ मोटे पेट वाले थुलथुल अधेड़ आयु के लोग , सब किस्म के प्राणी मिल जायेंगे बिगड़ी हुई फिगर को संवारने में जुटे हुए। अधिकतर लड़कियां तो ऐसा लगता है कि टाइम पास करने ही आती हैं। लेकिन युवक अवश्य मेहनत करते हुए मसल्स बनाने में गंभीर नज़र आते हैं। सबसे ज्यादा अजीब लगता है ट्रेनर्स को देखकर।  बेचारे ३० तक की गिनती इंग्लिश में सीख कर सारे दिन दोहराते रहते हैं जैसे स्कूल में पहली दूसरी क्लास में रटाया जाता था। कई बार दिलचस्प दृश्य भी देखने में आ जाते हैं। जैसे --  

सुन्दर मुखड़ा देखकर ज़िम ट्रेनर के चेहरे पर चमक आ गई ,
पहली बार आई लड़की की भोली सूरत उसके मन को भा गई।
उसने अपने हाथों से पकड़ कर उसको एक घंटा कसरत कराई ,
पर दिल टूट गया जब जाते जाते अपने पति का पता बता गई !

खैर अब हम दोस्तों को तो यही सुनाते हैं --

एक मित्र मिले बोले भैया , आजकल किस चक्कर में रहते हो ,
इस महंगाई में बिना जॉब के , कैसे गुजर बसर करते हो !
क्या रखा है बेवज़ह घूमने में , कुछ तो काम काज करो ,
कब तक खाली घर बैठोगे , कुछ तो शर्म लिहाज़ करो ।
हम बोले किया काम ताउम्र , अब तो पूर्ण विराम करो ,
इस दौड़ धूप में क्या रखा है , आराम करो आराम करो।

बचपन से लेकर जवानी , गृहस्थी , सरकारी नौकरी का कार्यकाल , सब पूरे हुए। अब वानप्रस्थ आश्रम में आकर वन के लिए तो प्रस्थान नहीं करना है , लेकिन मुक्त और स्वच्छंद भाव से विभिन्न कार्यकलापों द्वारा जनमानस के हित में कार्य करते रहने का संकल्प लिया है जिसे पूरा करना है। अपना तो यही कहँ अहइ कि --- हँसते रहो , हंसाते रहो।  क्योंकि ---

जो लोग हँसते हैं , वे अपना तनाव भगाते हैं ,
जो लोग हंसाते हैं , वे दूसरों के तनाव हटाते हैं।
हँसाना भी एक परोपकारी काम है दुनिया में ,
इसलिए हम तो सदा हंसी की ही दवा पिलाते हैं।

सभी को ब्लॉग दिवस , डॉक्टर्स डे , CA डे , GST और कनाडा में रहले वाले दोस्तों को कनाडा डे की बहुत बहुत बधाई।  


      

Tuesday, June 20, 2017

आप --


'आप' ने झाड़ू को कचरे से उठाकर गली गली में पहुंचा दिया ,
झाड़ू हाथ में लेकर दिल्ली को 'हाथ' के हाथ से झटका लिया।

मोदी जी को भी जब झाड़ू के चमत्कार का अहसास हो गया ,
तो भ्रष्टाचारी गंदगी पर झाड़ू लगाने का प्रस्ताव पास हो गया।

नेता , अफसर , मंत्री , संतरी , सब के हाथों में झाड़ू आ गई ,
हाथ में झाड़ू की महिमा तो योगी जी के मन को भी भा गई।

अब देश के कुंवारे नेता तो हाथ में झाड़ू लेकर राज चलाते हैं ,
जिस कुंवारे ने झाड़ू नहीं उठाई वे अब अपना सर खुजलाते हैं।

लेकिन देश के काबिल कुंवारों को भी झाड़ू उठाना होगा ,
क्योंकि अब शादी से पहले हर लड़की लड़के से पूछती है ,
आपको खाना बनाना और झाड़ू लगाना तो आता होगा !  

Wednesday, May 24, 2017

लहंगा है महंगा मेरा ---


योगी के हाथ में झाड़ू देख कर पत्नी बोली ,
अज़ी इस मुए फेसबुक से नज़रें हटाओ।
यू पी को योगी और देश को मोदी जी संभाल लेंगे ,
आज कामवाली बाई नहीं आएगी,
आप तो आज घर में झाड़ू लगाओ।
हमने कहा प्रिये ज़रा ध्यान से देखो ,
योगी जी कहाँ अकेले हैं !
दाएं बाएं देखो, हाथ में झाड़ू पकड़े कितने चेले हैं !
अब आप भी अपना पत्नी धर्म निभाओ ,
और हमारे संग सफाई अभियान में लग जाओ।
पत्नी बोली साथ तो हम जीवन भर निभाएंगे ,
पर पहले ये बताइये ,
क्या हमें प्रियंका चोपड़ा जैसा लहंगा दिलवाएंगे !
जिसे पहन कर हमें लेह लद्दाख घूमने जाना है ,
खरदुंगला पास पर खड़े होकर एक सेल्फी खिंचवाना है।
हमने कहा भाग्यवान ,
लहंगा नहीं वो तो तो दस गज का पंगा था ,
बीस इंच को छोड़कर बाकि बदन तो नंगा था !
दस गज का घाघरा तो ,
हमारी दादी धारण किया करती थी।
और बीस किलो का दामण पहन कर भी ,
चालीस किलो का वज़न उठा लिया करती थी !
अब बेटियों की पोशाक देख, बड़े बूढ़े शरमाते हैं ,
पहले घर में बड़े बूढ़ों के आगे ,
बहु बेटियां नज़रें नीची रखा करती थीं।


Friday, May 19, 2017

सिगरेट और शराब में कौन ज्यादा ख़राब --

हमने फेसबुक पर एक पोस्ट लिखकर लोगों से सिगरेट और शराब में कौन ज्यादा ख़राब विषय पर सबका जवाब माँगा था।  अधिकांश लोगों ने सिगरेट को ज्यादा ख़राब बताया , हालाँकि जैसा कि अपेक्षित था, कई महिला मित्रों ने शराब को ज्यादा ख़राब बताया।  आइये देखते हैं क्यों सिगरेट ज्यादा ख़राब है।

* लत : सिगरेट और शराब , दोनों की ही लत बहुत ख़राब होती है।  लेकिन जहाँ सिगरेट की लत बहुत आसानी से लग जाती है , वहीँ शराब की लत हज़ारों में किसी एक को लगती है। दोनों की शुरुआत अक्सर कॉलेज की दिनों में यार दोस्तों के साथ होती है।  लेकिन यदि एक बार आपने सिगरेट पीना सीख लिया , यानि इन्हेल करना आ गया , तो उसका नशा भले ही हल्का सा होता है , लेकिन ऐसी आदत पड़ जाती है कि फिर छोड़ना बहुत मुश्किल होता है। किसी ने कहा है -- it is very easy to stop smoking , and I have done it so many times .

* स्वास्थ्य प्रभाव :  सिगरेट के धुंए में सैकड़ों ऐसे केमिकल्स होते हैं जो हानिकारक होते हैं।  इसमें सबसे ज्यादा है निकोटीन जो नशे का कारण बनती है जिससे हमारे दिल की धड़कन तेज होती है , बी पी बढ़ता है और हृदय पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। इसके अलावा तार जैसे अनेक हानिकारक पदार्थ होते हैं जिनसे कैंसर जैसी भयंकर बीमारी हो सकती है।  धूम्रपान से फेफड़े ख़राब होते हैं जिससे आपको टी बी , ब्रोंकाइटिस , दमा और कैंसर जैसे रोग हो सकते हैं।  धूम्रपान असमय मृत्य का दूसरा सबसे बड़ा कारण होता है। लेकिन संयत मात्रा में शराब का कोई विपरीत प्रभाव नहीं होता , बल्कि फायदेमंद भी हो सकता है।  विशेषकर रैड वाइन को हृदय के लिए अच्छा माना गया है। सिर्फ क्रोनिक एल्कोहोलिज्म में लीवर ख़राब होने की सम्भावना होती है।

* सामाजिक प्रभाव  : सिगरेट पीने से २५ % धुआं आस पास खड़े या बैठे लोगों को प्रभावित करता है , जिसे पैसिव स्मोकिंग कहते हैं।  लेकिन शराब में ऐसा कोई दोष नहीं है। जो लोग शराब पीकर नालियों में पड़े रहते हैं , या घर आकर पत्नी के साथ मार पीट करते हैं , या पक्के शराबी होकर घर को बर्बाद कर देते हैं , उनका अपना व्यक्तित्व ही ख़राब होता है , इसमें शराब का दोष नहीं होता।

* यह बड़े अफ़सोस की बात है कि हमारे समाज में धूम्रपान को आज भी सहजता से लिया जाता है , बल्कि गांवों में तो इसे इज़्ज़त का प्रतीक माना जाता है।  जबकि शराब को हीन भावना और नीची नज़र से देखा जाता है और शराब पीने वालों को विलेन की तरह देखा जाता है। सच तो यह है कि खराबी शराब में नहीं , बल्कि पीने वाले में होती है यदि शराब पीकर वह कोई हुड़दंग करता है।

अंत में यही कहेंगे कि यदि आप धूम्रपान करते हैं तो आज ही छोड़ दीजिये , क्योंकि जैसा कि एक कार्डिओलॉजिस्ट फ्रेंड ने लिखा , एक एक सिगरेट भी स्वास्थ्य को हानि पाहुंचाती है।  और यदि शराब नहीं पीते तो मत पीजिये , लेकिन यदि पीते हैं तो संयम से ही पीयें।      


Tuesday, May 9, 2017

अब डॉक्टर्स ताइकोंडो द्वारा मुकाबला करेंगे उपद्रवी तत्वों का ---


जब हम नए नए डॉक्टर बने थे , और हमारा शारीरिक व्यायाम का शौक पुनर्जीवित हुआ , तब हमने जे एन यू में देश में पहली बार आयोजित होने वाली ताइकोंडो ट्रेनिंग में भाग लेना शुरू कर दिया। करीब दो महीने तक बन्दर की तरह हा हू करते हुए बड़ा अच्छा लगने लगा था और हम खुद को ब्रूस ली का छोटा भाई समझने लगे थे। लेकिन इस बीच वहां छात्रों की हड़ताल हो गई और हमारा ट्रेनिंग प्रोग्राम बंद हो गया। हालाँकि इस बीच देश में पहली बार दिल्ली के तालकटोरा स्टेडियम में अखिल भारतीय ताइकोंडो चैम्पियनशिप का आयोजन हुआ जिसमे हमने बतौर डॉक्टर ड्यूटी की थी।

पता चला है कि आजकल डॉक्टरों पर रोजाना होने वाले हमलों से परेशांन होकर AIIMS ने अपने रेजिडेंट डॉक्टर्स को ताइकोंडो की ट्रेनिंग देना का विचार बना लिया है। अच्छा है , और कुछ नहीं तो इससे डॉक्टर्स का स्वास्थ्य भी सही रहेगा और उनमे आत्मविश्वास भी बढ़ेगा। हालाँकि यह रोगियों के रिश्तेदारों के साथ होने वाले झगड़ों से कैसे बचायेगा , यह समझ में नहीं आ रहा। क्या अब डॉक्टर्स झगड़ा करने वाले रिश्तेदारों को मार्शल आर्ट्स द्वारा धूल चटाया करेंगे !

इस समस्या का समाधान इतना आसान नहीं है। सुरक्षा की दृष्टि से यदि बाउंसर्स रखे जाएँ तो बेहतर होगा , क्योंकि उनकी उपस्थिति ही उपद्रवी लोगों को हतोत्साहित करेगी। मार पीट की नौबत ही नहीं आएगी। आखिर , कानून को कोई भी अपने हाथ में नहीं ले सकता। लेकिन इसके साथ साथ जनता को भी जागरूक करना होगा। यह समझाना होगा कि डॉक्टर्स भगवान नहीं होते। वे आपका बुखार उतार सकते हैं , आपका दर्द ठीक कर सकते हैं , किसी गंभीर बीमारी से दवाओं या ऑप्रेशन द्वारा निज़ात दिला सकते हैं , लेकिन विधाता ने जितने दिन आपके लिए लिखे हैं , उन्हें नहीं बढ़ा सकते। यदि ऐसा कर सकते तो दुनिया में किसी की मृत्यु ही नहीं होती। इसलिए रोगी की मृत्यु के लिए डॉक्टर्स को दोषी मानना सर्वथा अनुचित है।

दूसरी ऒर डॉक्टर्स को भी अपने व्यवहार में सावधानी बरतनी चाहिए। हमने जो अपने सीनियर्स से सीखा , वही हम अपने जूनियर्स को सदा बताते थे कि एक अच्छा डॉक्टर बनने के लिए तीन गुणों का होना अत्यंत आवश्यक है :
१. Availability -- यानि आप अपने मरीज़ों के लिए हमेशा उपलब्ध रहें , विशेषकर जब उन्हें आपकी आवश्यकता सबसे ज्यादा हो जैसे एमरजेंसी में।
 २. Affability --- यानि मृदु व्यवहार। यदि आप रोगी से प्यार और सहानुभूति से बात करेंगे तो उसका आधा रोग तो तभी ठीक हो जायेगा।
 ३. Ability --- यानि योग्यता। बेशक एक डॉक्टर को अपने काम में निपुण और सुशिक्षित होना चाहिए । इस व्यवसाय में लापरवाही और अज्ञानता के लिए कोई जगह नहीं।
 यदि हमारे डॉक्टर्स इन तीन बातों का ध्यान रखें तो ये रोजाना होने वाली दुर्भाग्यपूर्ण घटनाएं स्वात: ही बंद हो जाएँगी।

Saturday, May 6, 2017

हमारे सुन्दर शहर के गंदे नाले , कितने दूषित कितने बदबू वाले ---


कितने गंदे होते हैं शहर मे बहने वाले गंदे नाले !
जाने कैसे रहते हैं नाले के पडोस मे रहने वाले !!
इक अजीब सी दुर्गंध छाई रहती है फिजाओं मे ,
जाने कौन सी गैस समाई रहती है हवाओं मे !!!.

यह बहुत ही दुःख की बात है कि एक विकासशील देश होने के बाद भी हमारे शहरों में अभी भी घरों और व्यवसायिक भवनों का का सारा सीवेज खुले नालों में बहता है। खुले बहने वाले नाले न सिर्फ देखने में एक अवांछित दृश्य प्रस्तुत करते हैं , बल्कि दुष्प्रबंधन के कारण  स्वास्थ्य पर भी दुष्प्रभाव डालते हैं।  इनसे निकलने वाली गैसें दुर्गन्ध तो फैलाती ही हैं , हमारे फेफड़ों पर दुष्प्रभाव डालकर हमें बीमार भी कर सकती हैं।  

सीवर गैसों में मुख्यतया हाइड्रोजन सल्फाइड होती है जिसके कारण सड़े अंडे जैसी दुर्गन्ध आती है। इसके अलावा अमोनिआ , मीथेन , कार्बोन, सल्फर और नाइट्रोजन के ऑक्साइड भी होते हैं लेकिन ये सभी गंधरहित होती हैं। सिर्फ अमोनिआ में तेज गंध होती है लेकिन इसकी मात्रा बहुत कम होती है।

ये गैस सीवेज में ऑक्सीजन के अभाव में एनारोबिक जीवाणुओं द्वारा सीवेज में मौजूद सल्फेट अणुओं पर पानी की रिएक्शन से बनती है। यह ताजे पानी में नहीं बनती लेकिन ठहरे हुए या धीरे बहाव वाले पानी में जहाँ पानी सड़ने लगे , वहां बनती है। इसलिए नालों में जहाँ पानी के बहाव में रुकावट होती है , वहां ज्यादा बनती है।  नालों में पड़े कूड़ा करकट , पॉलीथिन की थैलियां आदि रुकावट पैदा करती हैं। यदि नाला साफ हो , उसमे कोई रुकावट न हो और नाले के किनारों पर घास और पौधों से हरियाली हो तो पानी में प्रचुर मात्रा में ऑक्सीजन मिल सकती है।  ऐसे में ये गैस नहीं बनती।

लेकिन यह हमारा दुर्भाग्य है कि एक तो सरकार ने खुले नाले बना रखे हैं , दूसरे हमारे देश की जनता भी मूर्ख और अनपढों जैसी हरकतें करती है।  सभी नालों में सिर्फ सीवेज का पानी ही नहीं बहता , बल्कि शहर का बहुत सा कूड़ा करकट , विशेषकर पॉलीथिन की थैलियां भी भरा रहता है।  इससे न सिर्फ पानी के बहाव में रुकावट पैदा होती है , बल्कि ऑक्सीजन भी पैदा नहीं हो पाती। परिणाम होता है शहर की आबो हवा में दूषित गैसों का प्रदुषण। ज़ाहिर है , जैसा कर्म हम करते हैं , वैसा ही भरते हैं।

विश्व में शायद ही कोई विकसित देश हो जहाँ नाले खुले में बहते हों।  क्या यह प्रणाली इतनी मुश्किल है कि हम इसे नहीं अपना सकते। आखिर एक शहर में कितने नाले होते हैं जिन्हे ढका जाये तो इस समस्या से छुटकारा पाया जा सकता है। हालाँकि इसमें नागरिकों को भी जागरूक होना पड़ेगा ताकि नालों में कोई भी बाहरी वस्तु न डाली जाये।  नालों को प्रदूषित करना भी एक दंडनीय अपराध घोषित कर देना चाहिए। तभी हम विकास की दिशा में अग्रसर हो पाएंगे।   

Saturday, April 22, 2017

नारी की सुरक्षा में ही मानव जाति की सुरक्षा है ---


यह मानव जाति का दुर्भाग्य ही है कि एक ओर जहाँ लगभग आधी शताब्दी पूर्व मानव चरण चाँद पर पड़े थे , मंगल गृह पर यान उतर चुके हैं और अंतरिक्ष में भी मनुष्य तैरकर , चलकर , उड़कर वापस धरती पर सफलतापूर्वक उतर चुका है , वहीँ दूसरी ओर आज भी हमारे देश में विवाहित महिलाओं पर न सिर्फ दहेज़ के नाम पर अत्याचार किये जा रहे हैं , बल्कि उन्हें आग में झोंक दिया जाता है। यह अमानवीय व्यवहार किसी भी तरह क्षमा के योग्य नहीं है। इन कुकृत्यों के अपराधियों की  सज़ा कारावास से बढाकर फांसी कर देना चाहिए। शायद तभी ये शैतान रुपी लालची मनुष्य इंसान बन पाएंगे।

शिक्षा : लेकिन यहाँ यह सवाल भी उठता है कि कोई लड़की क्यों वर्षों तक ससुराल वालों के अत्याचार सहन करे। इसके मूल कारण हैं लड़कियों का अपने पैरों पर खड़े होने की सामर्थ्य न होना। जब तक हमारी बेटियां सुशिक्षित होकर स्वयं सक्षम न होकर दूसरों पर निर्भर रहेंगी , तब तक इस समस्या का सामाजिक समाधान नहीं निकल सकता। इसके लिए सबसे पहला काम है बेटियों को पढ़ाना और उन्हें आत्मनिर्भर बनाना। जब अपने बलबूते पर जीवन जीने का आत्मविश्वास होगा , तभी महिलाओं में इन शैतानों से लड़ने का साहस आ पायेगा।  

तलाक : हमारे देश में आज भी पति पत्नी का साथ सात जन्मों का माना जाता है , जबकि विकसित देशों में कभी कभी एक ही जन्म मे महिलाएं सात शादियां कर डालती हैं। इसका कारण है सहनशीलता के नाम पर अत्याचार सहते हुए साथ रहना जो एक मज़बूरी सी होती है।  लेकिन यदि महिला आर्थिक और शैक्षिक रूप से सक्षम हो तो इस आवश्यकता से अधिक सहनशीलता की आवश्यकता नहीं होती।  यदि सभी प्रयासों के बावजूद आपसी सामंजस्य नहीं बैठ पा रहा तो पति पत्नी का अलग होना ही दोनों के लिए हितकारी है। निसंदेह , तलाक के बाद सबसे ज्यादा विपरीत प्रभाव बच्चों पर पड़ता है और अक्सर बच्चों के कारण पति पत्नी तलाक के बारे में नहीं सोच पाते , लेकिन बच्चों को प्रतिदिन के पति पत्नी के झगड़ों का सामना करना पड़े , इससे बेहतर तो दोनों का अलग होना ही है।
समाज को भी तलाकशुदा पति पत्नी की ओर अपना रवैया बदलना होगा।  आखिर यह दो इंसानों के बीच का आपस का मामला है जिसमे किसी भी अन्य व्यक्ति का हस्तक्षेप सही नहीं।

कानून और समाज  : शादियों में दहेज़ मांगना तो एक अपराध होना ही चाहिए , साथ ही दहेज़ देने को भी हतोत्साहित करना चाहिए।  अक्सर पैसे वाले लोग अपनी शान शौकत दिखाने के लिए शादियों में करोड़ों रूपये तक खर्च कर डालते हैं , जो अन्य व्यक्तियों के लिए एक गलत सन्देश पहुंचाता है। लोगों को इस दिखावे और झूठी शान का मोह छोड़ना होगा।  लेकिन ऐसा संभव नहीं लगता , इसलिए सरकार को ही ऐसा कानून बनाना चाहिए जिसमे शादियों पर होने वाले खर्च की सीमा निर्धारित हो।  हालाँकि यह काम सामाजिक संस्थायें बेहतर कर सकती हैं। सादगी और सरलता में जो बात है वह बनावटी चमक धमक में कहाँ !

किसी भी रूढ़िवादी परम्परा को बदलने में समय लगता है।  लेकिन समय के साथ साथ परिवर्तन भी अवश्यम्भावी है। बस हम थोड़ा सा प्रयास सक्रीय होकर करें तो शायद हमारे आपके समय में ही यह सामाजिक परिवर्तन आ सकता है जो मानव जाति के हित में होगा। नारी की सुरक्षा में ही मानव जाति की सुरक्षा है।  

   

Saturday, April 15, 2017

बाघ जो देखन मैं चला, बाघ मिला ना कोय ---

बाघ जो देखन मैं चला, बाघ मिला ना कोय,
जो तुमको देखा प्रिये , याद आया न कोय ।

जिन लोगों के पास फालतु पैसा होता है , वो शादी की सालगिरह पर विदेश जाते हैं या जश्न मनाने कम से कम फाइव स्टार होटल में जाते हैं । जिनके पास काम ज्यादा और पैसा कम होता है , उनके लिए सालगिरह भी बस एक और दिन ही होता है।  हमारे पास फालतु पैसा तो कभी नही रहा लेकिन वक्त की कमी कभी नहीं रही।  इसलिए हम हर साल सालगिरह पर बाहर ज़रूर जाते हैं। लेकिन लगभग पिछले दस सालों से हम सिर्फ जंगलों में ही जाते हैं। हालाँकि इसका वानप्रस्थ आश्रम से कोई सम्बन्ध नहीं है।

इस बार भी जाना हुआ जिम कॉर्बेट के जंगल में बसा एक गाँव मरचुला जहाँ बना है स्टर्लिंग रिजॉर्ट्स।


 उत्तराखंड के रामनगर शहर से करीब ३२ किलोमीटर की दूरी पर चारों ओर हरे भरे पहाड़ों से घिरा यह रिजॉर्ट दो साल पहले ही बना है और हम तभी से यहाँ जाने का कार्यक्रम बना रहे थे। इसके ठीक सामने बहती है रामगंगा नदी जिसका सम्बन्ध रामायण काल से जुड़ा है। सुना है यहीं कहीं कभी सीता मैया भी रही थीं। शहर से दूर एकदम शांत , सुन्दर , स्वच्छ वातावरण लेकिन सभी सुविधाओं से परिपूर्ण यह स्थान मन को मोह लेता है।  यहाँ गाड़ियों का शोर और प्रदुषण नहीं होता बल्कि सुबह शाम चिड़ियों की चहचाहट , रंग बिरंगी चिड़ियाँ जो शहर में कभी देखने को नहीं मिलती , नदी के बहते पानी की कर्णप्रिय कलकल करती आवाज़ और एक ठहरा हुआ सा समय , मानो जिंदगी स्थिर सी हो गई हो।  सब मिलकर तनावग्रस्त तन और मन को पूर्ण रूप से विषमुक्त कर देते हैं। सिर्फ दो दिन का वास ही मन को हर्ष और उल्लास से भर देता है।  




मरचुला गाँव , यहाँ तक आने के लिए रामगंगा नदी पर एक पुल बनाया गया है।  पुल से बलखाती नदी का एक दृश्य।    




मरचुला गाँव की हरी भरी वादियों के बीच बहती नदी किनारे यह एक नंगी पहाड़ी भी दिखी जिससे कई बार भूस्खलन हुआ लगता है।  इसके ठीक नीचे बने एक रिजॉर्ट को देखकर लगा मानो बहुत खतरनाक जगह है।  लेकिन बताया गया कि यह ज़रा हटकर है , इसलिए रिजॉर्ट को कोई खतरा नहीं है।




गाँव की सड़क पर बनी यह दुकान देखने में शराब की दुकान जैसी लगी।  लेकिन पास जाकर देखा तो पाया कि कोल्ड ड्रिंक्स की बोतलों को बड़े करीने से सजाया गया था जिससे यह एक बार जैसी दिख रही थी। यहाँ बैठकर चाय पीना भी एक सुखद अहसास था।  




स्टर्लिंग रिजॉर्ट के सामने सड़क से नीचे उतरकर करीब आधा किलोमीटर की दूरी पर नदी का पानी कलकल करता बहता नज़र आता है। यहाँ नदी किनारे कई और रिजॉर्ट्स भी बने हैं।  हालाँकि यह क्षेत्र अभी विकसित हो रहा है।  इसलिए एक गाँव जैसा मह्सूस होता है।




चारों ओर पहाड़ और बीच में बहती नदी हो । नदी का किनारा हो , अपना कोई पास हो , और दिन कोई खास हो , तो वातावरण स्वयं ही रोमांचित हो जाता है।




नदी का कलकल करता बहता पानी , शांत वातावरण में जिसे संगीत सा घोल देता है।




सभी सुविधाओं से सुसज्जित इस रिजॉर्ट में स्विमिंग पूल भी है , जिससे यहाँ की खूबसूरती में चार चाँद लग जाते हैं।

यदि संभव हो तो शादी की सालगिरह पर सभी को एक दो दिन के लिए घर से बाहर कहीं दूर निकल जाना चाहिए। शहर के कंक्रीट जंगल से दूर किसी प्राकृतिक जंगल में रहकर आप गुजरे साल के सारे गिले शिकवे ( यदि कोई हों तो ) भूल जायेंगे और अगले एक साल तक के लिए तन मन में एक मीठा मीठा सा अहसास भर जायेगा जब आप होंगे , आपकी खास होगी और तीसरा कोई पास नहीं होगा।