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Tuesday, December 27, 2016

ग़म भुलाने के लिए ---


जो लोग नोटबंदी से अत्यंत दुखी हैं , उनका ग़म भुलाने के लिए एक दर्द भरा गीत ( पैरोडी ) :

भाग एक :

जाने वो कैसे, लोग हैं जिनको, चौबीस हज़ार मिला ,
हमने तो जब , बस दस मांगे तो , दो ही हज़ार मिला।

बैंकों की राहें ढूंढी तो , लम्बी कतारें मिली ,
अपना जब नंबर आया तो, खिड़की बंद मिली।
जेब को खाली कर गया ,  अगला, दिन इतवार मिला ------

मुकर गया हर साथी देकर , खाली वादों का जाल ,
किसको फुरसत है जो समझे , हम दीनों का हाल।
हमको अपना दोस्त भी अक्सर , बीच कतार मिला -----

ये जीना भी कोई जीना है भैया , क्या खायें पीयेंगे ,
बिन पैसों के शाम को कैसे ठेका जायेंगे।
काले धन से घबराना कैसा , पांच सौ ना हज़ार मिला -----

भाग दो :

जाने वो कैसे हैं लोग जो कहते , दो ही हज़ार मिला , 
हमने तो जब छापा मारा , धन का भण्डार मिला।  

नोटों की गड्डी ढूंढी तो , बोरियां भर के मिली ,
तन के उजले थे , पर मन पर , काली गर्त मिली।
जनता का पैसा हज़्म कर गया, हमदर्द जो यार मिला ----

बिगड़ गया हर नेता लेकर , नोटों की सौगात ,
किसको चाहत है जो खाये , शैतानों से मात ।
जिसको समझा अपना वो ही , अक्सर बेजार मिला----

ना खाऊंगा ना खाने दूंगा , खाता हूँ ये कसम ,
अब चाहे जो भी हो जाये , होगा ना ही रहम ।
विरोधों से घबराना कैसा , जब जनता का प्यार मिला -----


Monday, December 19, 2016

परिवर्तन तो अवश्यम्भावी है ---


सोच बदल रही है , देश बदल रहा है , आप माने या ना माने। हम यह जानते थे और रोज देखते थे कि कैसे हमारे देखते देखते युवा वर्ग की सोच बदल रही है।देश की लगभग आधी आबादी युवा वर्ग से बनती है। हम चाहे जितना मर्ज़ी जोर लगा लें , सोशल मीडिया पर बहस करते रहें , मोदी जी समेत नेताओं को भला बुरा कहते रहें, लेकिन यह सच है कि देश का भविष्य तो यह युवा वर्ग ही निर्धारित करेगा। और हिंदुस्तान टाइम्स के एक सर्वेक्षण ने यह साबित भी कर दिया।

इस सर्वेक्षण के अनुसार  :
* आधे से ज्यादा युवा देश में रहना नहीं चाहते क्योंकि उनको अपना भविष्य विदेशों में ज्यादा उज्जवल नज़र आता है।
* आधे से ज्यादा युवा शादी के प्रति प्रतिबद्ध नहीं हैं। इसीलिए शिक्षित वर्ग में शादी की औसत आयु बढ़ती जा रही है।
* आधे से ज्यादा युवा सोचते हैं कि यदि शादी कर भी लें तो पुरानी पीढ़ी की तरह अंत तक चलने वाली नहीं लगती।
* आधे से ज्यादा युवा शादी से पहले यौन सम्बन्ध रखने में कोई बुराई नहीं समझते।
* आधे से ज्यादा युवा लिव इन रिलेशशिप में कोई बुराई नहीं समझते।
* आधे से ज्यादा अपने पार्टनर के प्रति फेथफुल रहना नहीं चाहते हैं।
* जबकि आधे से कुछ ही कम समलैंगिकता को बुरा नहीं समझते।
* आधे से कुछ ही कम अंतर्जातीय विवाह का अनुमोदन करते हैं।

यह सोच हमारे शहरी, सुशिक्षित , सभ्य समाज में रहने वाले उपरिगामी गतिशील युवा वर्ग की सोच है। और निश्चित ही इस सोच को बदला नहीं जा सकता। क्योंकि जिस तरह कोरे कागज़ पर तो रंग चढ़ा सकते हैं लेकिन रंगीन पर नहीं। कुम्हार कच्ची मिट्टी से ही मनचाहे बर्तन बना सकता है , आग में पकने के बाद नहीं। इसी तरह सांस्कारिक शिक्षा मासूम बच्चों को ही दी जा सकती है , शिक्षित युवाओं को नहीं। अब हमें इसी सोच के साथ जीना होगा , स्वीकार करना होगा और देश को बदलते देखना होगा।

वधु बिन शादी , शादी बिन प्यार ,
बिन शादी के लिव इन यार !
इस व्यवहार ने कर दी ,
संस्कार की , ऐसी की तैसी !    
     

Friday, December 16, 2016

नोटबंदी के दौर में श्री कृष्ण उवाच --


गीतानुसार दुनिया में तीन तरह की प्रवृति के लोग होते हैं -- सात्विक , राजसी और तामसी। यदि नोटबंदी के दौर में पैसे की दृष्टि से देखा जाये तो पैसे वाले अमीरों को इस तरह से परिभाषित किया जा सकता है :

१ ) सात्विक : व्यक्ति वे होते हैं जो अपने मेहनत से गुजर बसर करने के लिए पैसा कमाते हैं और सरकार को निर्धारित कर अदा कर देश निर्माण कार्य में योगदान कर अपना फ़र्ज़ अदा करते हैं। आवश्यकताएं पूर्ण होने के बाद ये संतुष्टि का जीवन यापन करते हैं। लेकिन ऐसे अमीर योगी दुनिया में विरले ही होते हैं। गरीबों के पास तो पैसा ही नहीं होता , इसलिए उनको वर्गीकृत नहीं किया जा सकता।

२ ) राजसी : ये दो तरह के होते हैं। एक वो जो पैसा तो मेहनत और ईमानदारी से कमाते हैं लेकिन सरकार को कर न देकर कर की चोरी करते हैं। इस श्रेणी में अधिकांश व्यापारी वर्ग के लोग आते हैं जो कमाते तो लाखों करोड़ों हैं लेकिन आय कर , बिक्री कर और वैट आदि भरने से बचते हैं। दूसरे राजसी लोग वे होते हैं जो पैसा सही गलत किसी भी ढंग से कमाकर अपनी तिजोरियां भरते रहते हैं। इस श्रेणी में वे लोग आते हैं जो रिस्वत या किकबैक से करोड़ों कमा लेते हैं या अचल संपत्ति बेचकर कैश को दबाये रहते हैं। ये लोग अपराधी किस्म के नहीं होते लेकिन वस्तुत: अपराध ही करते हैं , गैर कानूनी ढंग से पैसा कमाकर। इनमे मुख्यतया सरकारी अफ़सर , कुछ नेता लोग , प्रोपर्टी डीलर्स या पहुँच वाले सफेदपोश ज्यादा होते हैं।
दोनों ही किस्म के लोग लालची और स्वार्थी होते हैं क्योंकि इन्हें सिर्फ अपने पैसे से मतलब होता है , ये देश या किसी और के बारे में नहीं सोचते।

३ ) तामसी : प्रवृति के लोग आपराधिक प्रवृति के होते हैं जैसे चोर , डाकू , अपहरणकर्त्ता , तस्कर , जालसाज़ , सट्टेबाज़ , ड्रग्स स्मगलर्स , प्रोफेशनल हत्यारे आदि जो अपराध की दुनिया में रहकर पैसा तो कमा लेते हैं लेकिन उसका सुख कभी नहीं भोग पाते क्योंकि ये सदा कानून से भागते रहते हैं। इसलिए इनकी जिंदगी भी क्षणिक होती है और असमय ही ख़त्म हो जाती है।
लेकिन हमारे देश में एक बहुत बड़ा वर्ग ऐसा है जिन्हें आम आदमी कहा जाता है। वे न तो अपराधी होते हैं , न अफसर , नेता या पहुँच वाले , न व्यवसायी और न ही इतना कमा पाते हैं कि उनके पास कभी ज़रुरत से ज्यादा पैसा हो। इन लोगों की जिंदगी अक्सर २ और ३ श्रेणी के लोगों द्वारा नियंत्रित और प्रभावित रहती है, एक कोल्हू के बैल की तरह। अक्सर यही वर्ग महंगाई से प्रभावित होता है । लेकिन शायद नोटबंदी से नहीं।


Tuesday, December 6, 2016

फोन पर नक्कालों से सावधान ---

यूँ ही बैठे ठाले , एक फोन के बाद :

मोबाईल पर जानी पहचानी रिंग टोन के बाद -- हैलो !
"हेल्लो , टी एस द -- र --ल जी बोल रहे हैं ? "
-- जी।
"जी मैं स्टेट बैंक से बोल रहा हूँ।"
यह सुनते ही कान खड़े हो गए , मन में बिजली सी कौंधी और हम चौकन्ने हो गये।  फिर शरारत सूझी तो हमने कहा -- हाँ भैया , का होयो ।
"जी स्टेट बैंक में आपका अकाउंट है ?"
--- जे तै पतौ ना भैया। पण गोरमेंट पिल्सण तौ भेजै है खात्ते में।
"आप डेबिट कार्ड इस्तेमाल करते हैं ? "
--- यो घिट पिट का होवै है भैया ? मोहे तौ पतौ ना।
"जी डेबिट कार्ड , जिससे ऐ टी एम मशीन से पैसे निकलते हैं।"
--- अच्छा अच्छा वो पिलास्टिक की पतरी। हाँ वो तौ लौंडा ले जा है अर मसीन में डालतै ई नोट बऱसण लग ज्यां। पण ईब तौ चलै ई ना।
"देखिये , आपका कार्ड ब्लॉक हो गया है।  आप जल्दी से उसे बदलवा लीजिये वरना बहुत पेनल्टी लग जाएगी। आप अपना कार्ड नंबर और पासवर्ड हमें बताइये , हम उसे अभी चालू कर देंगे।"
--- भैया ईब इस बुढ़ापा में तै अपणी बुढ़िया का नाम भी याद ना रहै , फिर कारड का लम्बर कैसे याद रह सकै। तू ठहर , मैं लौंडा कु बुला कै मंगवाऊँ हूँ। पण तू न्यू बता के तू कौण है अर कहाँ सू बोल रह्या है।  
"जी मैं स्टेट बैंक से बोल रहा हूँ।"
--- भैया रे , देस में तौ २९ इस्टेट हैंगे। तेरा कौण सौ इस्टेट बैंक है , न्यू बता ।
"जी , स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया।"
--- रै तू मनै बावला मति बणावै । इंडिया भारत नै ही तो कहैं हैं ना। आच्छा , ईब न्यू बता , तेरो नाम का है अर बैंक का पता का है ।
"जी मेरा नाम ----"
-- अरै रुक ज्या ससुर के नाती , न्यू याद न रहैगो , कागच पै लिखणा पड़ैगो।  अरै पप्पू , भैया मेरी कलम दवात तै दीज्यो।
पप्पू -- दद्दू , कलम तो ये रही लेकिन दवात में स्याही नहीं है।  वो मां ने नील समझ कर कपड़ों में डाल दी धोते समय।
--- अरै नासपिट्टे , तम उज्जड के उज्जड ही रहियो।  चल वो नई ल्या जै कल ल्यायो हौ।
"दद्दू , उसे तो पापा बैंक ले गये। लोगों की उंगली पर लगाने के लिए। "
--- सत्यानास हो थारा ,  कदी तौ दिमाग का इस्तेमाल कर लिया करो। ईब मैं काय से लिखूं , दिखै ना है बैंक सौ साब का फोन आयो है। अच्छा भैया , तम ऐसौ करो , तम नाम पतौ बोलो , हम फोन में ही रिकॉर्ड कर लेंग्गे। इरै कहौं है इसकौ रिकॉर्ड बटन।
उधर से तुरंत फोन कट।

नोट : जनहित में जारी।  

Thursday, November 17, 2016

इंसान का जीवन चक्र :


इंसान यदि गरीब घर में पैदा होता है तो इस बात की अत्यधिक सम्भावना रहती है कि वह जिंदगी भर रोजी रोटी कमाने में ही लगा रहेगा। यदि अमीर व्यवसायी घर में पैदा होता है तो इस बात की सम्भावना होती है कि वह जिंदगी भर कुछ न करते हुए भी ऐशो आराम में जिंदगी काटता रहेगा। लेकिन यदि आप आम मिडल क्लास फेमिली में पैदा हुए हैं तो आपके सामने एक मंज़िल होती है , पढ़ लिख कर अच्छी नौकरी करके , आम से खास बनने की।
ऐसे में आप पहले स्वयं अच्छी शिक्षा ग्रहण करते हैं , मेहनत करके किसी अच्छे प्रॉफेशन में प्रवेश कर अपना कॅरियर बनाते हैं और एक दिन ऊंचे मुकाम पर पहुँच जाते हैं। इस बीच आप शादी भी कर लेते हैं , बच्चे पैदा कर उनका लालन पालन और भी अच्छे से करते हैं। साथ ही घर में सभी आधुनिक सुविधाएँ जुटा पाने में समर्थ और सफल होते हैं।
अंत में यदि रिटायर होने से पहले आपने शहर में अपना अच्छा सा घर बना लिया है , बच्चे पढ़ लिख कर अपने पैरों पर खड़े हो गए हैं , उनकी शादी कर आपने अपनी जिम्मेदारियां भी निपटा दी हैं , तो इसके बाद आपने जो भी धन जोड़ रखा है , वह फालतू और बेमतलब सा लगने लगता है। लेकिन भले ही खाने की भूख लगे या न लगे , फिर भी इंसान की पैसे की भूख नहीं मिटती। काले धन की बस यही कहानी है।
दफ़्तर जाना जब छूटा तो हमने ये जाना ,
कितना कम सामां चाहिए जीने के लिए !
तन पर दो वस्त्र हों और खाने को दो रोटी ,
फिर बस नीम्बू पानी चाहिए पीने के लिए !
नोटः काले धन पर पोस्ट्स की इतिश्री ! सभी को शुभकामनायें।

Monday, November 7, 2016

क्या भगवान भी दिल्ली वालों को किसी बात की सजा दे रहा है ...


एक बेहद ख़तरनाक़ यात्रा वृतांत :

यह इत्तेफ़ाक़ ही रहा कि दिल्ली में सबसे ज्यादा प्रदुषण वाले दिन हमें किसी काम से चंडीगढ़ / मोहाली जाना पड़ा। यूँ तो हमें लॉन्ग ड्राइव पर जाना सदा ही पसंद रहा है और गए हुए भी डेढ़ साल हो गया था।  लेकिन दिल्ली और हाइवेज पर फैली धुएं की चादर को देखकर हाइवे पर जाना बेहद खतरनाक हो सकता है , इसका आभास कई दिनों से अख़बारों में आने वाली ख़बरों से हमें भलि भांति था।  लेकिन काम की अत्यावश्यकता को देखते हुए जाना भी मज़बूरी ही थी। हालाँकि सुबह जाकर शाम तक वापस आना , एक ही दिन में खुद करीब ६००  किलोमीटर ड्राइव करना कोई आसान काम नहीं लगता। कोहरे की वजह से दृश्यता बहुत कम हो जाती है , और ऐसे में हाइवे ड्राइविंग बेहद खतरनाक हो जाती है।

इसलिए ज्यादा जल्दी न कर हम सुबह ७ बजे ही घर से निकले।  जैसा कि अनुमान था , जी टी रोड पर दिल्ली हरियाणा बॉर्डर तक काफी धुंधलका था लेकिन ड्राइव करने में ज्यादा दिक्कत नहीं हो रही थी।  लेकिन बॉर्डर पार करते ही , जैसे ही खुले खेतों के दर्शन हुए , धीरे धीरे धुंध बढ़ने लगी।  अब स्मॉग की जगह शुद्ध धुंध ने ले ली थी ।  सभी गाड़ियों वाले हेड लाइट्स और डिस्ट्रेस  सिग्नल ऑन कर चलने लगे। स्पीड कम होने लगी और दृष्टि भी। धुंध के झोंके गाड़ी की  ओर ऐसे आ रहे थे जैसे बारिश की बौछार आती हैं। कुछ समय बाद धुंध इतनी गहरी हो गई कि गाड़ी के शीशे के आगे भी कुछ नहीं दिख रहा था। दायीं लेन में चलते हुए साइड में डिवाइडर ज़रा सा दिख रहा था , जिसके सहारे हम धीरे धीरे गाड़ी चला पा रहे थे।  फिर एक के बाद एक एक्सीडेंट के नज़ारे दिखने लगे।

उस समय हमारी हालत बिलकुल उस पॉयलेट जैसी हो गई थी जिसने कुछ दिन पहले ज़ीरो विजिबलिटी में विमान को सिर्फ अंदाज़े से हवाई पट्टी पर उतार दिया था और कोई नुकसान नहीं हुआ था।  अब तो हमें यह भी लगने लगा था कि ऐसा ही रहा तो वापस कैसे आएंगे।  रात होना तो निश्चित था , फिर अँधेरा और धुंध दोनों मिलकर कहर ढा देंगे।  खैर किसी तरह धीरे धीरे लगभग रेंगते हुए साढ़े तीन घंटे में जब करनाल पहुंचे तो कुछ कुछ दिखना शुरू हुआ।  लेकिन जो दिखाई दिया , वह तो और भी ज्यादा खतरनाक था। पूरे करनाल बाइपास पर जगह जगह एक्सीडेंट हुई गाड़ियां पड़ी थीं। अधिकांश बुरी तरह से टूटी फूटी हुई।  एक जगह तो करीब १०० मीटर तक गाड़ियों के पुर्जे बिखरे पड़े थे।  ऐसा लग रहा था , मानो वहां कोई रॉयट्स ( दंगे ) हुए हों। सिर्फ खून कहीं नहीं दिखा , यह देखकर हमने सोचा कि चलो शुक्र है कि शायद किसी को चोट तो नहीं लगी होगी।

करनाल के बाद वातावरण साफ होने लगा और अम्बाला तक जाते जाते बिलकुल साफ हो गया।  चंडीगढ़ और मोहाली तो ऐसे साफ चमक रहे थे जैसे वहां कभी कोहरा होता ही न हो। वहां कोई सोच नहीं सकता था कि हम कैसे रास्ते से निकल कर आये हैं। वापसी में फिर करनाल तक रास्ता साफ मिला।  लेकिन उसके बाद शाम भी ढल गई , अँधेरा बढ़ने लगा था और कोहरा भी।  लेकिन विजिबलिटी इतनी थी कि ड्राइविंग में कोई विशेष दिक्कत नहीं हुई। हमने भी श्रीमती जी को हाइवे पर ड्राइविंग का शौक पूरा करने का पूरा अवसर देते हुए दोनों ओर आधा रास्ता ड्राइव करने दिया। अंतत: रात के साढ़े आठ बजे हम घर पहुँच गए।

आज सुबह जब अख़बार खोला तो पता चला कि उन एक्सीडेंट्स में दस लोगों की मौत हो गई और ३०-४० लोग घायल हुए।  और इतनी ही गाड़ियां चकनाचूर हो गई थी। घंटों ट्रैफिक जैम भी रहा। बस शुक्र रहा कि हम बाल बाल बचते हुए सकुशल घर पहुँच गए। वापसी में रास्ते में अनेकों जगह खेतों में आग लगी देखी जिनसे निकलता हुआ धूंआं प्रदुषण फैला रहा था। यह साफ ज़ाहिर था कि पंजाब हरियाणा का यह धुआं हवा की दिशा के कारण दिल्ली की ओर ही आ रहा था , जबकि चंडीगढ़ और मोहाली का क्षेत्र साफ बचा हुआ था। क्या भगवान भी दिल्ली वालों को किसी बात की सजा दे रहा है ? ज़रा सोचिये ज़रूर।              

   

Friday, November 4, 2016

क्या सल्फास की बिक्री पर कोई नियंत्रण होना चाहिए ?


सल्फास ( celphos ) पॉइज़निंग :

एलुमिनियम फास्फाइड अनाज को कीड़ों और चूहों से बचाने के लिए इस्तेमाल की जाती हैं।  लेकिन यह आत्महत्या करने का सबसे सस्ता और आसान तरीका भी है। इसका कारण हैं आसानी से इसकी उपलब्धता।  शायद यही एक ऐसा ज़हर है जिसके लिए आपको न किसी डॉक्टर की प्रेस्क्रिप्शन चाहिए , न कोई लाइसेंस। गांवों में किसानों द्वारा सब घरों में इसका इस्तेमाल किया जाता है। बस यही सत्य विनाश का कारण भी बनता है।

सल्फास की गोलियां खाने के बाद यदि बहुत जल्दी मेडिकल उपचार नहीं मिला तो रोगी का बचना लगभग असंभव होता है। इसका एक कारण यह भी है कि इसका कोई एंटीडोट नहीं होता।  यानि ज़हर उतारने की कोई दवा नहीं होती। ऐसे रोगी को तुरंत अस्पताल में भर्ती करना चाहिए जहाँ उसका गैस्ट्रिक लेवाज ( पेट की सफाई ) कर ज़हर को बाहर निकाल दिया जाता है, तभी बचने की सम्भावना होती है।  यदि १-२ घंटे की देरी हो गई तो रोगी भी गया ही समझो।

ऐसे रोगी की साँस और मुँह से एक बड़ी अज़ीब और गन्दी सी दुर्गन्ध आती है जिसे न सिर्फ सहन करना मुश्किल होता है , बल्कि दूसरों को भी प्रभावित कर सकती है।  यह सल्फास के द्रव से मिलने से उत्पन्न हुई फ़ॉस्फ़ीन गैस के कारण होता है जो ज़हर का काम करती है।  इसलिए ऐसे रोगियों को हेंडल करते हुए भी सावधान रहना चाहिए , विशेषकर कपड़ों पर लगा ज़हर भी आपको प्रभावित कर सकता है।

क्या सल्फास की बिक्री पर कोई नियंत्रण होना चाहिए ?


Wednesday, November 2, 2016

दीवाली कैसे मनाएं ताकि प्रदुषण से बच पाएं ---


पिछले एक सप्ताह से हम दीवाली पर ही लिखे जा रहे हैं। बेशक दीवाली एक ऐसा हर्ष उल्लास का पर्व है जिसे छोटे बड़े , गरीब अमीर और हर जाति और धर्म के लोग बड़े शौक और चाव से मनाते हैं। दशहरा से लेकर दीवाली तक बाज़ारों की रौनक , घरों की साफ़ सफाई और लोगों का आपस में मिलना और मिलकर उपहारों का आदान प्रदान जीवन में एक नया उत्साह और स्फूर्ति भर देता है।
दीवाली पर सारा जहाँ रौशन हो जाता है और बहुत खूबसूरत लगता है , भले ही बिजली की लड़ियाँ चाइनीज ही क्यों न हों। आखिर रात भर रंग बिरंगी लाइट्स की रिम झिम देखते ही बनती है। दीये और मोमबत्ती तो पल दो पल की रौशनी देते हैं , फिर अमावस्य का घनघोर अंधकार। इसलिए बिजली से चलने वाली विद्युत शमा से रौशन जहान एक रात के लिए तो ज़न्नत सा ही लगने लगता है।
लेकिन कुछ सही नहीं है तो वो है पटाखों और बमों से होने वाला वायु और ध्वनि प्रदुषण। सब कुछ जानते हुए भी पढ़े लिखे लोग भी स्वार्थ के वशीभूत होकर भावनाओं में बहकर अच्छे बुरे के ज्ञान को भूल जाते हैं और इस धरा को विष धरा बनाने पर तुल जाते हैं। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि दशहरा की तरह हम दीवाली की आतिशबाज़ी भी निर्दिष्ट स्थान पर सामूहिक रूप से मनाएं। साथ ही इन सभी स्थलों पर बड़े बड़े एयर प्यूरीफायर लगा दें जिससे कि सारा प्रदुषण साथ साथ ही ख़त्म किया जा सके। इस तरह कम लागत में दीवाली पर शारीरिक और मानसिक दीवाला निकलने से बच पाएंगे हम।


Wednesday, October 26, 2016

हमको तो दीवाली की सफाई मार गई ---

किसी को तो धर्म की लड़ाई मार गई ,
किसी को गौ रक्षा की दुहाई मार गई।
किसी को प्याज की महंगाई मार गई ,
हमको तो दीवाली की सफाई मार गई !
हमको तो दीवाली की सफाई मार गई ! -----

तीन तीन नौकरों की मेहनत लगी थी ,
साथ में मशीनों की मशक्कत लगी थी ।
वक्त की पाबन्दी की दिक्कत सच्ची थी ,
नौकरों को भी भागने की जल्दी मची थी।
नौकरों को भी भागने की जल्दी मची थी। ----

नकली फूलों से धूल की धुलाई मार गई,
कई फालतू सामान की फेंकाई मार गई।
खाली खड़े खड़े टांगों की थकाई मार गई,
ऐसे में अपनी कामवाली बाई भाग गई।
ऐसे में अपनी कामवाली बाई भाग गई।----

वैसे तो हम मोदी जी के भक्त बड़े थे ,
स्वच्छता अभियान के भी पीछे पड़े थे।
पॉलिटिक्स में 'आप' के ना साथ कड़े थे,
लेकिन लेकर हाथ में हम झाडू खड़े थे।
लेकिन लेकर हाथ में हम झाडू खड़े थे।----

डर के करते लाइट्स की सफाई मार गई,
गमलों में सूखे पौधों की छंटाई मार गई।
घर भर के साफ पर्दों की धुलाई मार गई ,
अफसर को बनाके नौकर लुगाई मार गई।
अफसर को बनाके नौकर लुगाई मार गई।

किताबों पे देखा कि काफी धूल चढ़ी थी,
मिली वो चीज़ें जो अर्से से खोई पड़ी थी।
क्या रखें क्या फेंकें ये मुसीबत बड़ी थी ,
उस पर डंडा लेकर बीवी सर पर खड़ी थी।
उस पर डंडा लेकर बीवी सर पर खड़ी थी।

अपने लिखे नोट्स की लिखाई मार गई,
वो लव एन्ड बेल्ली की बिकाई मार गई।
अपनी ग्रेज एनेटॉमी से जुदाई मार गई ,
फिर कबाड़ी की तराज़ू की तुलाई मार गई।

बाजारों में नारियों की भीड़ बड़ी थी।
दुकानें भी सामानों से भरी पड़ी थी।
चीनी बहिष्कार की ये शुभ घड़ी थी।
मेड इन इंडिया चेपियों की लगी झड़ी थी।  

वाट्सएप के लेखों की लंबाई मार गई,
आभासी संदेशों की बधाई मार गई ।
दोस्तों के फोन्स की जुदाई मार गई ,
जूए में हारे लाखों की हराई मार गई।

दफ्तर में हम जब बड़े अफ़सर होते थे ,
दीवाली पर कमाई के अवसर होते थे ।
जाने अनजाने लोग गिफ्ट्स लाते थे ,
खुद बॉस और मंत्री जी के घर जाते थे ।

अब बिछड़े गिफ्ट्स की कमाई मार गई ,
दफ्तर में होते जश्न की जुदाई मार गई।  
लोगों से बिछड़े ग़म की तन्हाई मार गई ,
रिटायर होकर दफ्तर से विदाई मार गई।

किसी को तो धर्म की लड़ाई मार गई ,
किसी को गौ रक्षा की दुहाई मार गई।
किसी को प्याज की महंगाई मार गई ,
हमको बस दीवाली की सफाई मार गई !
हमको बस दीवाली की सफाई मार गई ! -----







Saturday, October 1, 2016

विश्व बुजुर्ग दिवस पर एक पेशकश ---


यह आधुनिक और विकसित जीवन की ही देन है जो बच्चे स्कूल की शिक्षा ख़त्म होते ही घर छोड़ने पर मज़बूर हो जाते हैं , और फिर कभी घर नहीं लौट पाते।
अक्सर सुशिक्षित समाज में मात पिता बुढ़ापे में अकेले ही रह जाते हैं। आज विश्व बुजुर्ग दिवस पर एक रचना , पिता का पत्र पुत्र के नाम :


जीवन के चमन मुर्झा जायें , और हर अंग शिथिल पड़ जायें ।
तुम मुझे सँभालने काम छोड़कर ,  कहीं रहो, पर आ जाना ----

दुनिया का दस्तूर है ये , आखिर घर छोड़ा जाता है ,
पर बिना बच्चों के भी ,  आँगन सूना हो जाता है ।
तुम घर का अहसास दिलाने , इक दिन सूरत दिखला जाना ----

मात पिता का सारा जीवन , पालन में निकल जाता है ,
सपने पूरे होने तक यौवन , हाथों से फिसल जाता है ।
तुम यौवन का संचार कराने , शक्ति बन कर आ जाना -------

जाने कितने व्रत रखे थे  , जाने कितनी मन्नत मांगी थी ,
तेरी खातिर तेरी माता भी , जाने कितनी रातें जागी थी ।
जीवन के अंतिम क्षण पर , तुम अपना फ़र्ज़ निभा जाना ------

जीवन के चमन मुर्झा जायें , और अंग शिथिल पड़ जायें ।
तुम मुझे सँभालने काम छोड़कर ,  कहीं रहो घर आ जाना ----


( जब आँचल रात का लहराये -- इस ग़ज़ल / गीत पर आधारित )

Tuesday, September 27, 2016

ये रेहड़ी और खोमचे वाले .....


शाम के समय लोकल मार्किट के सामने मेंन रोड के फुटपाथ पर खड़े रेहड़ी और खोमचे वाले तरह तरह के पकवान बनाये जाते हैं जिनकी खुशबु वहां से गुजरने वाले लोगों को बेहद आकर्षित करती है। विशेषकर घी में तलती टिक्कियां , पकौड़े और चाऊमीन देखकर ही मुँह में पानी आने लगता है।  खाने वाले भी बहुत मिल जाते हैं , इसलिए धंधा धड़ल्ले से चलता है।

लेकिन सड़क से उड़ती धूल और गाड़ियों का धुआँ देखकर लगता है कि हम हाईजीन के मामले में कितने पिछड़े हुए हैं। अक्सर ये खोमचे वाले नालियों के ऊपर बैठे होते हैं।  एक गंदे से पीपे या जार में पीने का पानी भरा होता है जिसे लोग आँख बंद कर पी जाते हैं।  कड़ाही में डीप फ्राई होते पकौड़े तो फिर कीटाणुरहित हो सकते हैं लेकिन कुलचे छोले वाला छोले तो घर से ही बनाकर लाता है।  और वो किसी फाइव स्टार में नहीं बल्कि किसी अनाधिकृत कॉलोनी में झुग्गी झोंपड़ी में रहता होगा जहाँ न टॉयलेट की सुविधा होगी और न पीने के पानी की।

लेकिन हम हिंदुस्तानी लक्कड़ हज़म पत्थर हज़म होते हैं क्योंकि ज़रा ज़रा सा संक्रमण हमारे शरीर में प्रतिरोधक क्षमता उत्पन्न कर देता है।  इसलिए छोटा मोटा संक्रमण हमें प्रभावित नहीं करता।  लेकिन विकसित देशों में रहने वाले लोगों में साफ सफाई होने के कारण एंटीबॉडीज न के बराबर होती हैं।  इसलिए उनको भारत जैसे देश में आते ही कुछ भी खाते ही दस्त लग जाते हैं , जिसे ट्रैवेलर्स डायरिया कहते हैं। लेकिन ऐसा ना समझें कि हम सुरक्षित हैं।  संक्रामक रोग सबसे ज्यादा हमारे जैसे देशों में ही होते हैं जिससे हर वर्ष लाखों लोग प्रभावित होते हैं।  आगे तो मर्ज़ी आपकी।    

Thursday, September 8, 2016

ताज़ -- कुछ बाहर से , कुछ अंदर से .....

किसी की पाक मोहब्बत की दास्ताँ है ये , या कुछ हट कर ख़ास कर दिखाने का ज़नून , यह हम नहीं जानते। लेकिन इतना ज़रूर जानते हैं कि विश्व के सात अज़ूबों में यूँ ही नहीं शामिल कर लिया गया है ताज़महल को। ताज़ का अनुपम सौन्दर्य  सिर्फ अंदर ही नहीं ,  बल्कि बाहर से भी देखने वालों को भाव विभोर कर देता है।

यमुना किनारे बना ताज़ , यदि आगरा फोर्ट से देखा जाये , जहाँ से सुना है कि शाहजहाँ कभी देखा करता था , आज भी बहुत खूबसूरत नज़र आता है।


शाहजहां के पास तो बस दूरबीन ही होती होगी देखने के लिए , लेकिन आजकल हाई ज़ूम वाले कैमरे से एक किलोमीटर दूर बने किले से भी ताज़ की खूबसूरती की एक एक लकीर आसानी से देखी जा सकती है।




पर्यटकों के लिए लगाई गई रेलिंग से ताज़ जैसे सामने ही दिखाई देता है।




ताज़ और फोर्ट के बीच यमुना के किनारे किनारे अच्छी और गहरी हरियाली न सिर्फ देखने में अच्छी लगती है बल्कि ताज़ की प्रदुषण से भी रक्षा करती है।




हालाँकि आस पास बस्ती भी नज़र आती है लेकिन पेड़ों की हरियाली उन्हें छुपा लेती है।




ताज़ के अहाते में प्रवेश करते ही यह नज़ारा सदियों से एक जैसा ही दिखाई देता है।  सैंकड़ों सैलानी ताज़ की खूबसूरती को आँखों और कैमरे में कैद करने में लगे रहते हैं।



ठीक सामने बने डायना बेंच पर बैठकर फोटो खिंचवाने के लिए तो जैसे लाइन ही लगी रहती है और आपका नंबर आने में घंटों में लग सकते हैं।



आजकल यहाँ मरम्मत का काम चल रहा है।



सूर्यास्त के साथ ही परिसर को खाली करने के लिए सुरक्षा गार्ड्स की सीटी बजने लगती है।




उधर यमुना के ऊपर सूर्यदेव पल पल रंग बदलते हुए नेपथ्य में विश्राम करने चले जाते हैं।




यही वो समय होता है जब आप सूर्य देव से आँख मिलाने का साहस कर सकते हैं।




धीरे धीरे सूर्य महाराज क्षितिज में पृथ्वी की गोद में समां जाते हैं , किसी और जहाँ को रौशन करने के लिए और हमें अगले एक और सुनहरे दिन का इंतज़ार करने हेतु छोड़ते हुए । और हम निकल पड़ते हैं , गार्ड की तेज होती सीटी के साथ निकास द्वार की ओर , मन में ताज़ और आस पास के वातावरण की मनमोहक छवि लिए हुए।


Thursday, July 28, 2016

मौसम की मार , डेंगू बुखार :


जब काली घटायें छाती हैं ,
और टिप टिप बारिश आती है।  

मौसम भीगा भीगा होता है ,
सब गीला गीला सा होता है।

जब भोर के उजाले होते हैं ,
कुछ नन्हे शेर निकलते हैं।  

जो नंगे हाथों की चमड़ी में ,
अपना तीखा डंक घुसेड़ते हैं।

फिर वो खून तुम्हारा पीते हैं ,
और गिफ्ट में वायरस देते हैं।

जब ये रक्त का दौरा करता है ,
तब सारा बदन कंपकपाता है।

आप बदन दर्द से कराहते हैं ,
इसी को डेंगू बुखार कहते हैं।    
 
ना कोई दुआ काम आती है ,
ना दवा ही असर दिखाती है।

ना खाने को मन करता है ,
दिन भर पसीना टपकता है।

फिर सारा फैट झड़ जाता है ,
जब डेंगू बुखार चढ़ जाता है।

मत होने दो जमा पानी को ,
यूज करो मच्छरदानी को ।

फुल स्लीव्ज के पहनो कपडे ,
फिर तो डेंगू कभी ना पकडे।

बस एक गोली पैरासिटामोल ,
और पीओ पानी नीम्बू घोल।

ले लो एक सप्ताह की छुट्टी ,
तभी हो पायेगी डेंगू से कुट्टी।  
   

Monday, July 18, 2016

सावन की फुहार और वायरल फीवर की मार ---


सावन का महीना यूँ तो बड़ा रोमांटिक होता है , सभी बारिश का इंतज़ार बड़ी बेसब्री से कर रहे होते हैं। छोटे छोटे जीव जंतुओं से लेकर , मेढक , मयूर यहाँ तक कि इंसानों का भी मन हिलोरें लेने लगता है। लेकिन दुनिया के सबसे सूक्ष्म जीव वायरस भी इन दिनों बहुत सक्रीय होकर मनुष्यों पर हल्ला बोलकर हमला कर देते हैं।  नतीजा होता है वायरल बुखार जिसका न कोई सर होता है न पैर , फिर भी सर से लेकर पैर तक आपके बदन को तोड़ मरोड़ कर , धोकर , निचोड़ डालता है। वैसे तो यह बुखार एक दिन में भी उतर सकता है लेकिन सब वायरस की मर्ज़ी पर निर्भर करता है कि उसे आपसे कितना प्यार है। वह चाहे तो सन्डे से सन्डे तक भी आपका मेहमान बना रहकर मुफ्त की रोटियां तोड़ सकता है , जबकि आप पूरे सप्ताह एक रोटी भी नहीं खा पाते।

इसकी एक खासियत यह भी है कि बुखार देने वाला वायरस डॉक्टर्स से भी नहीं डरता। इसलिए यह न जाने कितने डॉक्टर्स की इज़्ज़त दांव पर लगा देता है क्योंकि जब रोगी का बुखार उतरेगा ही नहीं तो डॉक्टर तो हो गया ना नाकाम। यदि एक सप्ताह चल गया तो आप कम से कम तीन डॉक्टर तो बदल ही लेंगे।  आखिर फ़तेह उस डॉक्टर की  होती है जो सातवें दिन देखता है। उस डॉक्टर की दवा तो जैसे रामबाण साबित होती है। हालाँकि यह घटना क्रम यूँ ही चलता रहता है और कभी एक डॉक्टर का नाम तो कभी दूसरे का नाम रौशन होता रहता है।

अब नज़र डालते हैं वायरस की कारिस्तानियों पर।  वायरस एक बार नाक या गले में आया नहीं कि महबूब की खुशबू की तरह सांसों में समा जाता है। फिर खांसी खुर्रा , नज़ला जुकाम , सर दर्द , बदन दर्द  और भी न जाने क्या क्या शारीरिक प्रतिक्रियाएं होने लगती हैं जो आपके बदन को हल्दीघाटी का मैदान समझ लेती हैं। वायरस की प्रजनन क्षमता भी ऐसी होती है कि हमारे देशवासियों की प्रजनन क्षमता भी शरमा जाये। २४ घंटे में एक से बढ़कर एक मिलियन होना इनका बाएं हाथ का खेल है। फिर रक्त स्नान करते हुए ये वायरस जब शरीर के हर अंग में प्रवेश करते हैं तब पूरा शरीर कंपकपाने लगता है , दांत किटकिटा कर तबला बजाते हैं , नाक सीटी बजाकर आने वाले आहार रहित स्टेशन के आने की सूचना देने लगते हैं।

एक सबसे बड़ी बात यह है कि इसमें डॉक्टर्स का भी कोई अस्त्र शस्त्र काम नहीं आता है।  बल्कि पैरासिटामोल के अलावा कोई और यंत्र है तो वो है सादे पानी में कपडा भिगोकर सारे शरीर को हौले हौले से सहलाते हुए पुचकारना। वायरस बस इसी अर्चना को पसंद करता है।  यदि गलती से भी आपने कोई और बाण चलाने की कोशिश की तो ये आपके खून को पानी पानी कर सकता है जिससे लाले की जान को ही लाले पड़ सकते हैं।  

लेकिन कहते हैं कि हर बुराई में भी अच्छाई होती है। एक बार वायरल फीवर आपको हो जाये , फिर चाहे वो एक दिन रहे या एक सप्ताह , अन्जाने में आपके कई काम कर जाता है। आप जो वर्षों से सोचते रहते हैं कि एक दिन डाईटिंग शुरू करेंगे , लेकिन निष्क्रिय रहते हुए खा खा कर वेट और पेट दोनों बढ़ा लेते हैं , वायरल होने पर आपके तन और मन दोनों की सारी एक्स्ट्रा चर्बी झड़ जाती है और आप तन से स्लिम, कोमल और मन से निर्मल सा महसूस करते हैं। अब यदि ७ दिन तक आप सिर्फ पानी , शरबत या सूप ही लेते रहेंगे तो आ गई ना आपको आर्ट ऑफ़ लिविंग।

कभी कभी हमें लगता था कि वायरस और डॉक्टर का रिश्ता थोड़ा सा अलग होता है।  इसलिए कम से कम एक डॉक्टर को तो स्टाफ समझकर ही सही , कुछ कन्सेशन मिलता होगा।  लेकिन इस महंगाई के ज़माने में अब वायरस ने डॉक्टर्स को ये रियायत देनी बंद कर दी है। ज़ाहिर है , अब वायरस ने डॉक्टर्स से डरना बंद कर दिया है।  वैसे भी ये कौन से बच्चे हैं जो सफ़ेद कोट या डॉक्टर की सूई से डर जायेंगे।      



   

Sunday, July 3, 2016

भारत पाक सुचेतगढ़ सीमा दर्शन -- एक विशिष्ठ अनुभूति।


जम्मू से करीब ३० -३५ किलोमीटर दूर सियालकोट पाकिस्तान को जाने वाली सड़क पर बना है सुचेतगढ़ बॉर्डर। यहाँ से सियालकोट मात्र ११ किलोमीटर दूर है। सुचेतगढ़ भारतीय सीमा में हमारा एक गांव है जो बिलकुल सीमा से लगा हुआ है और सैनिक दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण है क्योंकि जब भी भारत पाकिस्तान में इस सीमा पर कोई तनाव होता है तो सबसे पहले गोलाबारी इसी गांव पर होती है। यहाँ प्रतिदिन सैंकड़ों सैलानी बॉर्डर के दर्शन करने के लिए जम्मू से आते हैं। सप्ताहंत पर तो ५०० से १००० की भीड़ भी हो जाती है।  जबकि पाकिस्तान का शहर सियालकोट मात्र ११ किलोमीटर है , फिर भी कोई इक्का दुक्का ही यहाँ आता है। ज़ाहिर है , हमारे देश में लोग टूरिज्म का मज़ा लेते हैं जबकि पाकिस्तान के लोग रोजी रोटी कमाने में ही लगे रहते होंगे।    




 इस बॉर्डर की सुरक्षा सीमा सुरक्षा बल को सौंपी गई है।  सर्दी हो या गर्मी या बरसात , हमारे जवान बड़ी मुस्तैदी से सीमाओं की रक्षा में तैनात रहते हैं। साथ ही पब्लिक के लिए भी बॉर्डर के दर्शन कराने का काम बखूबी करते हैं।     




बॉर्डर से करीब १०० मीटर पहले यह प्रवेश द्वार बनाया गया है।  इसके दोनों ओर एक ऊंची मिट्टी की दीवार सी है जिसके आगे पानी से भरी खाई है।  दीवार से पहले तारों की ऊंची दोहरी बाड़ लगाई गई है ताकि कोई अवैध रूप से बॉर्डर पार न कर सके। हमारे सिपाही दिन रात सीमा के साथ साथ कवायद करते रहते हैं।




सड़क पर बैरियर के नीचे दो समानांतर रेखाओं के बीच और दो तीरों के निशान के बीच जो रेखा नज़र आ रही है , वही सीमा रेखा है।  इसके बाएं वाला पिलर पाकिस्तान में और दायीं ओर एक एक पिलर भारत और पाक की सीमा में पड़ते हैं। सीमा रेखा बैरियर से करीब एक डेढ़ फुट पाकिस्तान की ओर है।  यानि उस ओर से कोई भी व्यक्ति यदि बैरियर तक आता है तो वो भारतीय ज़मीन पर कदम रखता है , जबकि भारतीय ओर से कोई भी बैरियर को पार नहीं करता।

दोनों ओर एक एक गार्ड रूम बने हैं।  बाएं वाला कक्ष हमारा है जिस पर इंग्लिश में लिखा है -- वी आर प्राउड टू बी इंडियन।  दायीं ओर पाकिस्तानी कक्ष पर लिखा है -- मुस्लिम हैं हम, वतन है सारा जहाँ हमारा।  सोच अपनी अपनी।  दोनों पर अपने अपने देश के झंडे पेंट किये गए हैं। दायीं ओर ही दोनों देशों की अपनी अपनी सीमा में एक एक चबूतरा बना है जहाँ से जब भी आवश्यकता होती है , दोनों देशों के सैनिक अधिकारी खड़े होकर वार्तालाप या आपसी समझौता करते हैं।



यदि बैरियर से अपने देश की ओर देखें तो दूर प्रवेश द्वार नज़र आता है।  करीब ५० कदम दूर तारों की बाड़ लगी है।  आम तौर पर आगुंतकों को यहीं तक आने दिया जाता है।  लेकिन उस दिन लगभग खाली होने से और विशिष्ठ मेहमान के दर्ज़े से हमें बैरियर तक ले जाया गया और बहुत अच्छे से सीमा के बारे में बताया गया। दरअसल यहाँ आकर एक बड़ी अजीब सी फीलिंग आती है जिसमे देशभक्ति की भावना और मन में दुश्मन के प्रति शंका और संदेह की मिली जुली प्रतिक्रिया आने की सम्भावना रहती है।  इसलिए विशेषकर जब दोनों ओर से आगुंतक आमने सामने होते हैं तब किसी अनहोनी का ध्यान रखना पड़ता है।  इसलिए अधिकतर  लोगों को पीछे ही रोक दिया जाता है।  





हमसे पहले भारतियों का एक ७-८ हाई फाई लोगों का समूह था जिन्हे वहीँ से वापस कर दिया गया।  उधर पाकिस्तान से भी कोई एक युवा नेता विशिष्ठ मेहमान के रूप में आया हुआ था।  सच मानिये , किसी ने भी एक दूसरे से नज़र मिलाने का प्रयास नहीं किया। जब तक वो चले नहीं गए , एक अजीब सी ख़ामोशी वातावरण में छाई रही। उनके जाने के बाद हमने जमकर फोटोग्राफी की। हमारे साथ सीमा सुरक्षा बल के एक सब इन्स्पेक्टर गाइड के रूप में थे जिन्होंने बहुत अच्छे तरीके से सब जानकारी दी।     



सड़क के दोनों ओर तारों की बाड़ लगी है।  दोनों और खेत हैं जिनमे किसान खेती करते हैं।  वास्तविक सीमा एक काल्पनिक रेखा के रूप में है जिसकी पहचान हर १०० मीटर पर गाड़े गए और नम्बर किये गए पिल्लर्स से होती है।  पिल्लर्स के बीच में कोई निशानदेही नहीं है। अंतर्राष्ट्रीय नियमों के अनुसार सीमा के 100 मीटर तक किसी भी निर्माण कार्य की अनुमति नहीं है।  इसलिए सीमा भी एक काल्पनिक रेखा ही होती है। एक अजीब बात यह लगी कि पाकिस्तान साइड के खेत जोते गए थे जबकि हमारे खेत यूँ ही पड़े थे। हालाँकि जब भी किसान खेती बाड़ी का काम करते होंगे , तब निश्चित ही दोनों आमने सामने ही होते होंगे। दूसरी अजीब बात यह भी थी कि सारा इंतज़ाम हमारी साइड ही था जबकि उनकी ओर ऐसा कोई ताम झाम नहीं था। ज़ाहिर है , सीमा पार गुसपैठ की चिंता हमें ही सताती है। भूखे नंगों को किस बात की फ़िक्र !       



यदि गौर से देखें तो पाएंगे कि मिट्टी की दीवार में जगह जगह बंकर बनाए गए हैं जहाँ से विपक्ष की गतिविधियों पर नज़र रखी जा सकती है। ये बंकर बहुत मोटी दीवारों से बने होते हैं जिनपर छोटे मोटे गोले का कोई असर नहीं होता।  यहाँ से सिपाही दुश्मन पर गोली भी चला सकते हैं और शांति के समय आराम करने का भी प्रबंध होता है।

सीमा सुरक्षा का काम वास्तव में बड़ा साहस , धैर्य और समझ बूझ का काम है। यहाँ कब क्या हो जाये , कोई खबर नहीं होती। हालाँकि संयुक्त राष्ट्रसंघ द्वारा समय समय पर प्रेक्षक दल निरीक्षण के लिए भेजा जाता है, फिर भी तस्करी और आतंकवाद की समस्या को ध्यान में रखते हुए हमारे जवानों को सदैव मुस्तैद रहना पड़ता है।
कुल मिलाकर भारत पाकिस्तान बॉर्डर यात्रा एक विशेष अनुभव रहा जिसमे इतिहास और भूगोल को ध्यान में रखते हुए इंसानी रिश्तों पर रोमांच और भय मिश्रित गुदगुदाने वाली अनुभूति रही। अंत में सीमा सुरक्षा बल के सब इन्स्पेक्टर श्री राकेश धोबल जिन्होंने भयंकर गर्मी में बिजली न होते हुए भी हमारा विशेष ध्यान रखते हुए न सिर्फ हमें अच्छी तरह से बॉर्डर के दर्शन कराये , बल्कि सम्पूर्ण जानकारी देते हुए चाय पानी से भी हमारी आवभगत की, का आभार व्यक्त करते हैं। जवानों को शत शत नमन।        


Thursday, June 30, 2016

पटनीटॉप -- एक मिनी कश्मीर।


जब बात कश्मीर की आती है तो श्रीनगर की डल लेक , पहलगाम , और गुलमर्ग की खूबसूरती ही ज़ेहन में आती है। लेकिन जम्मू से मात्र १०० किलोमीटर दूर राष्ट्रीय राजमार्ग नंबर १ पर एक वर्णनातीत जगह है पटनीटॉप। विशेषकर सर्दियों में यह जगह बर्फ से ढकी होती है , इसलिए स्कीइंग और बर्फ में खेलने का आनंद लेने के लिए यह जगह बहुत उपयुक्त और पास है।
नेट पर ढूँढ़ने पर पटनीटॉप में होटल्स तो बहुत दिखाई देते हैं , लेकिन यदि कस्बे का नक्शा देखने लगें तो कुछ पता ही नहीं चलता कि इसका ख़ाका क्या है।  इसलिए जब यहाँ पहुंचे और टैक्सीवाले ने गाड़ी एक छोटी सी सड़क पर मोड़ी तो हमें लगा कि गलत  मुड़ गए हैं।  इसलिए वापस मुड़कर हाईवे पर थोड़ा और आगे जाकर जब रेलवे गैस्टहाऊस का बोर्ड नज़र आया तो लगा जैसे जंगल में पहुँच गए हैं। निश्चित ही यह जंगल जैसा ही था क्योंकि गैस्टहाऊस वहां से करीब दो किलोमीटर अंदर था और रास्ते में सिर्फ देवदार के पेड़ ही पेड़ दिखाई दे रहे थे। गैस्टहाऊस पहुंचकर भी ऐसा लगा जैसे जंगल के बीच मंगल मानाने आये हैं।

    
ऊंचे ऊंचे दरख़्तों के बीच लॉन के तीन तरफ एक घेरे में बने ये बंगले बहुत खूबसूरत दिखते हैं।


गेस्टहाऊस को आने वाली सड़क जब आगे जाती है तो सड़क के दोनों ओर बहुत पुराने देवदार के पेड़ों की कतार मन को मोह लेती है।  सड़क के एक ओर मकान बने हैं , दूसरी ओर घने पेड़ों से आच्छादित घाटी है। यहाँ सुबह सुबह पैदल वॉक करने में बड़ा मज़ा आया।  यही सड़क आगे जाकर हाईवे में ही जा मिलती है। यानि यह एक सर्कुलर रोड है। इस के किनारे किनारे बीच बीच में सरकारी ऑफिस और टूरिज्म विभाग की टूरिस्ट हट्स बनी हैं।  लेकिन अधिकांश होटल उस सड़क पर बने हैं जिस पर हम शुरू में आ गए थे और वापस मुड़ लिए थे। यह सड़क सर्कुलर रोड में आकर मिलती है। लेकिन यह देखकर बड़ा अफ़सोस हुआ कि जगह की कमी के कारण सभी होटल्स एक संकरी सी सड़क पर ही बने थे जिससे गाड़ियों के आने जाने में बड़ी दिक्कत हो रही थी।  हालाँकि हमारा गेस्ट हाऊस खुले में था और भीड़ भाड़ से दूर था।  



पटनीटॉप में घूमने के लिए दो ही जगह अच्छी लगी। हाईवे से करीब  ८-१० किलोमीटर दूर है नाथाटॉप। यह शायद यहाँ का सबसे ऊंचा स्थान है।  यहाँ से चारों ओर का ३६० डिग्री व्यू नज़र आता है। यहाँ एक टॉवर लगा है लेकिन टॉप तक जाने में कोई असुविधा नहीं होती।  आस पास गूजरों की एक दो  झोंपड़ी ही दिखी।  और कोई मकान नहीं था।



यहाँ का हाल मसूरी जैसा था।  यानि देखते देखते मौसम बदल गया और घनी धुंध ने हमें घेर लिया।  तेज हवा के साथ वाष्प युक्त बादल चारों ओर छा गए।  बड़ा अद्भुत दृश्य था।



यहाँ से करीब दस किलोमीटर आगे घास के मैदानों से होकर आप पहुँच जाते हैं एक और पिकनिक स्पॉट सनासर लेक। यहाँ एक बहुत बड़े मैदान के बीच एक प्राकृतिक झील बनी है।  इसके एक ओर पेड़ों के बीच सुन्दर ट्रेक है।  पास ही गॉल्फ कोर्स भी बना है।  यहाँ आप घुड़सवारी कर सकते हैं , बैलून राइड में लोटपोट हो सकते हैं या फिर पैराग्लाइडिंग भी कर सकते हैं।  यहाँ का नज़ारा वास्तव में बहुत खूबसूरत है।

नाथाटॉप और सनासर लेक के बीच का रास्ता ग्रीन मीडोज ( घास के मैदान ) से भरा पड़ा है।  इनकी स्लोप्स पर सर्दियों में जब बर्फ पड़ती है तो स्कीइंग का बड़ा मज़ा आता है।  इसलिए यदि बर्फ का आनंद लेना हो तो पटनीटॉप कश्मीर की उधमपुर डिस्ट्रिक्ट में एक अच्छी जगह है।  समुद्र तल से इसकी ऊँचाई करीब २००० मीटर है , इसलिए गर्मियों में भी मौसम सुहाना ही होता है।



पटनीटॉप का रेलवे गेस्ट हाऊस। अब रेलवे ने रेलवे कर्मचारियों के गेस्ट्स के लिए भी इसके द्वार खोल दिए हैं। इसलिए बाहर सस्ते में आपको एक शानदार जगह पर रहने का अवसर मिल जाता है। बहुत शांत और शीतल वातावरण में दो दिन रहना भी कायाकल्प कर देता है।




JKTDC की टूरिस्ट हट्स।  पटनीटॉप में एक यह ही ऐसी जगह है जहाँ खुले खुले मैदान हैं , चारों ओर हरियाली है और कई जंगल ट्रैक्स हैं जहाँ आप घोड़ों पर या पैदल ट्रेकिंग कर सकते हैं। दूसरे सभी होटलों के गेस्ट्स भी शाम को पिकनिक मनाने यहीं आते हैं।

पटनीटॉप एक छोटा सा लेकिन आरामदायक हिल स्टेशन है। पास होने के कारण यहाँ पंजाब और जम्मू से बहुत सैलानी घूमने के लिए आते हैं।  नाथाटॉप पर एक जश्न का सा माहौल होता है।  लोग गाड़ियों में ही खाने पीने का इंतज़ाम रखते हैं और कहीं भी बैठकर पिकनिक मनाने लगते हैं। फिर आप पंजाबी हों तो एक दो पैग के बाद पाँव तो स्वयं ही थिरकने लगते हैं। इस मामले में आजकल क्या लड़के और क्या लड़कियां , सभी मस्त हो जाते हैं।

हम तो यही कहेंगे कि आप आनंद अवश्य लीजिए , लेकिन पर्यावरण का ध्यान भी रखिये। अफ़सोस कि अधिकांश लोग मौज मस्ती के बाद जब जाते हैं तो अपने पीछे कूड़े कचरे का ढेर छोड़ जाते हैं।  उनका यह व्यवहार अक्षम्य अपराध लगता है।  साथ ही सरकार को भी ट्रैफिक पर कुछ प्रतिबन्ध लगाना चाहिए  ताकि इन खूबसूरत जगहों पर जाम न लगे और प्रदुषण से भी बचे रहें ।       




Tuesday, June 28, 2016

माता वैष्णो देवी यात्रा -- भाग २ :


माता वैष्णो देवी यात्रा पर सबसे पहले हम १९८१ में  गए थे। तब नए नए डॉक्टर बने थे और पूर्ण मस्ती में थे। उस समय १४ किलोमीटर का ट्रैक पैदल तय करना पड़ता था , हालाँकि पोनी तब भी उपलब्ध होते थे।  लेकिन रास्ते में अर्धक्वाँरी पर ही कुछ खाने पीने की दुकाने होती थी।  बाकि रास्ता लगभग सुनसान ही होता था। फिर दोबारा १९९५ में जाना हुआ।  तब तक रास्ता पक्का बन गया था और रास्ते भर तरह तरह की दुकाने खुल गई थी। यह वह दौर था जब गुलशन कुमार की टी सीरीज कंपनी ने माता और माता के भजनों को बहुत लोकप्रिय बना दिया था।  उस समय तक मंदिर का प्रबंधन भी निजी हाथों से लेकर सरकार ने बोर्ड बनाकर अपने हाथों में ले लिया था।      


उस समय जम्मू तक ट्रेन से और जम्मू से कटरा बस द्वारा जाया जाता था। लेकिन लगभग दो वर्ष पूर्व सरकार ने जम्मू से कटरा तक रेल की पटरी बिछाकर रेल सेवा उपलब्ध करा दी जो अपने आप में एक अद्भुत कार्य है। छोटे छोटे पहाड़ों से गुजरती ट्रेन कभी नदी नालों पर बने पुलों पर चलती है तो कभी पहाड़ों को काटकर बनाई गई सुरंगों से होकर बाहर आती है।  कुल मिलाकर तकनीक की अद्भुत मिसाल है जम्मू से कटरा रेलवे लाइन।  


इस बीच कटरा से माता वैष्णो देवी श्राइन ( सांझी छत ) जाने के लिए हेलीकॉप्टर सेवा भी आरम्भ हो गई।  आजकल हिमालय और ग्लोबल नाम की दो कंपनियों द्वारा हेलीकॉप्टर सेवा चलाई जा रही है जिसका एक ओर का किराया मात्र ११७० रूपये है। एक बार में ५ से ६ यात्री बैठकर जा सकते हैं।  ३ से ४ मिनट की उड़ान में आप को हवा में उड़ने का रोमांचक अनुभव बहुत आनंद देता है।  हेलीपैड सांझी छत जगह पर बना है  जहाँ से श्राइन लगभग ढाई किलोमीटर दूर है। हेलीकॉप्टर से जाने वाले यात्रियों को मंदिर में वी आई पी गेट से प्रवेश की सुविधा मिलती है जिससे लम्बी लाईन से बचा जा सकता है।



जो यात्री हेलीकॉप्टर से नहीं जाना चाहते , उनकी सुविधा के लिए भी अब अर्धकंवारी से एक नया रास्ता बनाया गया है जो लगभग समतल है , इसलिए ज्यादा चढ़ाई नहीं करनी पड़ती।  हालाँकि यह रास्ता थोड़ा  लम्बा है लेकिन ज्यादा आरामदायक है।  रास्ते पर टिन शेड लगाने से हर मौसम में सुविधापूर्वक जाया जा सकता है।




पैदल रास्ते का एक दृश्य।  पूरा रास्ता पक्का बना है जिस पर खच्चरों की भरमार है लेकिन साफ़ रखने के लिए निरन्तर झाड़ू लगाकर गोबर आदि को हटा दिया जाता है।  जगह जगह पीने के पानी और टॉयलेट्स का बढ़िया इंतज़ाम है।



बेशक अब वहां भी विकास नज़र आता है लेकिन जो बिलकुल नहीं बदला वह है भक्तों की भीड़। जहाँ ८० के दशक में ३ से ४ हज़ार यात्री प्रतिदिन जाते थे , अब २० से २५ हज़ार की संख्या प्रतिदिन होती है। यह संख्या भी दिन प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही है। बस अब लोग चुपचाप ट्रेकिंग करते हैं , कम ही लोग 'जय माता दी' बोलते नज़र आये। श्राइन में भी लोगों को ज़मीन पर वैसे ही पसरे हुए पाया  जैसे पहले देखा था। लेकिन भक्तों की भीड़ में बच्चे , बूढ़े , अपाहिज और मुश्किल से चल पाने वाले लोग भी कष्ट उठाकर चलते नज़र आये।  श्रद्धा चीज़ ही ऐसी है कि मुर्दे में भी जान डाल देती है।

मंदिर में प्रवेश का प्रबंधन बदल दिया गया है।  अब पानी वाली गुफा से नहीं जाना पड़ता बल्कि वेल कार्पेटेड रास्ते से होकर गर्भगृह में प्रवेश करते हैं। हालाँकि अंदर बहुत छोटी सी जगह में दो पंडित और एक पुलिसवाला मिला।  एक पंडित टीका लगा रहा था और दूसरा माता के पास बैठा था। जो भक्त पहली बार जाता होगा , उसे  इन तीन इंसानों के सिवाय कुछ भी दिखाई नहीं देता होगा। कहते हैं कि माता उसे ही दर्शन देती है जो उनमे विश्वास रखता है। हालाँकि यह कहावत भी जगत प्रसिद्द है कि मानो तो मैं गंगा माँ हूँ , ना मानो तो बहता पानी।      

श्रीमद्भगवद गीता में लिखा है कि जो सात्विक प्रकृति के लोग होते है वे एक ही भगवान को सर्वव्यापी मानकर सब में श्रद्धा रखते हैं , जबकि राजसी प्रकृति के लोग देवी देवताओं की पूजा करते हैं और तामसी लोग भूत प्रेतों की पूजा करते हैं।  जो भगवान सर्वव्यापी है , उसे ढूँढ़ने और पूजने के लिए इतना भटकना क्यों पड़ता है , यह बात आज तक हमारी समझ में नहीं आई। शायद इसीलिए इस लोक को मृत्युलोक कहा जाता है।    

Sunday, June 26, 2016

दिल्ली से कटरा रेल यात्रा -- एक संस्मरण।


तीन दिन और चार रातें घर से बाहर बिताकर आज घर वापस लौट आये। इन तीन दिनों में रेल यात्रा , हेलीकॉप्टर यात्रा , तीर्थ यात्रा , टैक्सी यात्रा , पहाड़ों की यात्रा और भारत पाकिस्तान बॉर्डर की यात्रा कर डाली। बेशक यदि दो तीन दिन के लिए भी घर छोड़कर निकल जाओ तो यह बहुत रिफ्रेशिंग होता है।

दिल्ली से सीधे कटरा के लिए ट्रेन सर्विस शुरू होने से यात्रा करने वालों के लिए बहुत सुविधा हो गई है। श्री शक्ति एक्सप्रैस ट्रेन दिल्ली से शाम को साढ़े पांच बजे चलकर सुबह पांच बजे कटरा स्टेशन पहुँच जाती है।  ट्रेन के चलने से ठीक पहले हलकी हलकी बारिश शुरू हो गई।  इससे पहले मौसम बहुत ही उमस भरा था। लेकिन ट्रेन में शायद ऐ सी  ऑन नहीं था जिसके कारण बैठना दुश्वार सा लग  रहा था।  ट्रेन के आधे घंटे चलने के बाद कहीं जाकर ऐ सी इफेक्टिव लगने लगा।  इस ट्रेन में एक बात बड़ी अच्छी लगी कि खाने पीने के लिए बहुत सामान उपलब्ध था।  हर दो मिनट बाद कोई न कोई खाने का सामान लेकर उपस्थित हो जाता था।  वरना एक समय था जब स्टेशन पर दौड़कर सामान लाना पड़ता था।


कटरा रेलवे स्टेशन -- ग्रेनाइट टाईल्स का फर्श , स्टेशन पर कोई खोमचे वाला नहीं , रात में जलती लाइट्स बहुत खूबसूसरत लग रही थीं।


पृष्ठ भूमि में पहाड़ और बादलों का संगम एक मनोहारी दृश्य प्रस्तुत कर रहा था।



आई आर सी टी सी द्वारा बनाया गया विश्राम गृह बहुत भव्य बनाया गया है।  एस्केलेटर और लिफ्ट की सुविधा होने से यात्रियों को सामान ले जाने में कोई दिक्कत नहीं होती।


भवन का डिजाइन भी बहुत खूबसूरत है।  उस पर ऊपर छाये बादल मन को हर्षित कर रहे थे।
कटरा रेलवे स्टेशन नया होने से बहुत सुन्दर बनाया गया है।  यात्रियों के लिए ठहरने , आराम करने और नहाने धोने के लिए IRCTC ने स्टेशन पर ही आराम गृह बनाया है जिसमे सभी सुविधाएँ दी गई हैं।  यह अलग बात है कि यहाँ भी आम और खास में अंतर रखा गया है। द्वार से घुसते ही फर्श पर सैकड़ो की तादाद में यात्री लेटे हुए मिले जिनके बीच से मुश्किल से रास्ता बनाते  हुए  किसी तरह सीढ़ियों तक पहुंचे।





प्रथम तल पर सभी सुविधाओं से सुसज्जित वी आई पी रैस्टहाउस बहुत आरामदायक है। हालाँकि पानी की किल्लत यहाँ भी है। टी वी , फ्रिज , ऐ सी , डाइनिंग टेबल , सोफे आदि से लैस सुइट में करीने से सजाए गए डबल बेड पर लेटकर फ़ौरन नींद आ जाये तो कोई हैरानी की बात नहीं।  लेकिन यहाँ एक दो घंटे आराम कर और नहा धोकर यात्री निकल पड़ते हैं अपने गंतव्य की ओर अपनी अपनी सुविधानुसार। क्रमशः ---  


Thursday, June 16, 2016


डॉ अरविन्द मिश्र जी ने हमारी एक पोस्ट पर सही टाईटल दिया -- इंफोटेनमेंट।
तो लीजिए हाज़िर है , एक और इंफोटेनमेंट :


गर्मी में आता है गर्म पसीना ,
यही पसीना तो गर्मी से बचाता है।

कंपकपाने का मतलब डर नहीं होता ,
सर्दियों में कंपकपाना ही ऊर्ज़ा दिलाता है।

मत समझो कोई अपशकुन इसे ,
छींकने से तो स्वास मार्ग खुल जाता है।

दस्त भले ही कर डालें पस्त तुम्हें ,
पर पेट को रोगाणुओं से निज़ात दिलाता है।

जूता सुंघाओ या ना सुंघाओ ,
मिर्गी के दौरे में कोई टोटका काम नहीं आता है।

जितने मर्ज़ी बदलो शहर के डॉक्टर ,
वायरल बुखार तो अपने आप ही ठीक हो जाता है।

पीलिया भी एक वायरल इंफेक्शन है ,
इसमें झाड़ फूंक नहीं , आराम ही काम आता है।

किसी को नहीं लगती किसी की नज़र ,
नज़र का लगना भी एक अंधविश्वास कहलाता है।

पेट के दर्द को एसीडिटी मत समझो ,
कभी कभी ये दिल का दर्द भी निकल आता है ।

कुत्ता काट ले तो इंजेक्शन लगवाओ ,
हल्दी मिर्च के लेप से तो रोग और बढ़ जाता है।

शहर में भरे पड़े हैं झोला छाप डॉक्टर ,
इनका ईलाज जान का दुश्मन बन जाता है।

जब काम न आएं वैद , हकीम और डॉक्टर ,
इस जिस्म को अक्सर कुदरत ही रोगों से बचाता है। 

Tuesday, June 14, 2016

कर्म ही इंसान की पहचान हैं ---

1)


गीता में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहता है ,
जो जैसा करता है , वो वैसा भरता है।

जन्म से हिन्दू हो, सिख या मुस्लमान,
इंसांन तो मनुष्य कर्म से ही बनता है।

वो मंदिर जाये , मस्जिद , या गुरुद्वारे ,
बंदा हर हाल में इबादत ही तो करता है।

जन्नत आखिर में उसी को मिलती है ,
जो अंतकाल तक अच्छे कर्म करता है।

हों कोई भी आप रईश शहज़ादे 'तारीफ़ ,
इंसान का कर्म ही उसकी पहचान बनता है।

2)

कभी कभी मैं सोचता हूँ कि ,
उसका बाप कितना बड़ा आदमी है !
वो बड़ी सी गाड़ी में आता है ,
रोज सैंकड़ों रूपये उडाता है।
जब देखो नई घड़ी दिखाता है।
सब उसको बड़े बाप का बेटा समझते हैं।
लेकिन जब इम्तिहान का रिजल्ट आता है ,
तब मुँह छुपाता फिरता है ,
घर जाने से बहुत डरता है।
वो ऐसा क्यों करता है ,
वो तो बड़े बाप का बेटा हैं ना !

फिर इसको देखता हूँ तो सोचता हूँ ,
वो कितने ग़रीब घर से है।
रोज एक ही जोड़ी कपड़ों को धोकर पहनता है।
घर का खाना खाता है।
कभी पिक्चर के लिए क्लास बंक नहीं करता।
किताबें भी कभी कभी मांग कर पढता है।
लेकिन जब रिजल्ट आता है ,
तब क्लास में सबसे अव्वल नंबर पर आता है।
अमीर लड़के उससे दोस्ती नहीं करते ,
लेकिन सभी मास्टरों का चहेता है।
हर साल क्लास में वही तो प्रथम आता है।
सच, इंसान अपने कर्मों से ही जाना जाता है।
ये बात वो नहीं समझ सकते जो नादान हैं ,
देखा जाये तो कर्म ही इंसान की पहचान हैं।

Tuesday, May 31, 2016

विश्व तम्बाकू रहित दिवस --कैसे मनाएं !


आज विश्व तम्बाकू रहित दिवस के अवसर पर :

आज का दिन विशेष कर ऐसा दिवस है जिसे बस एक दिन मनाकर काम नहीं चल सकता। सिर्फ एक दिन धूम्रपान न करने से कुछ नहीं बदल सकता।  क्योंकि ऐसा तो सभी धूम्रपान करने वाले स्वयं ही करते रहते हैं।

सिगरेट छोड़ना है इतना आसान ,
ज़रा मुझे ही देखो ,
मैं जाने कितनी बार कर चुका हूँ ये काम।

आज के दिन का नारा होना चाहिए -- धूम्रपान रहित जीवन।
इस अवसर पर डॉक्टर्स भी तरह तरह की अपील करते हैं।  एक अपील हमारी भी है एक डॉक्टर कवि के रूप में ।  आईये देखते हैं कि क्यों बचना आवश्यक है धूम्रपान , गुटखा और पान मसाला से :

धूम्रपान :

सिगरेट पीते थे हमदम , हम दम भर कर ,
अब हरदम हर दम पर दम निकलता है ।

गुटखा :

गुटखा खाते थे सनम , मुँह में चबा चबा कर ,
अब खाना खाने को भी, मुँह ही नहीं खुलता है।

पान मसाला :

मत समझो कि दाने दाने में है केसर का दम ,
सच यह है कि दाने दाने में है कैंसर का डर ।

हम तो सरकार से अपील करते हैं कि इन पंक्तियों को सिगरेट के पैक पर , गुटखा और पान मसाला के पैकेट के साथ छापकर लोगों को चेतावनी दें।
हालाँकि असली समाधान तो बीड़ी सिगरेट , गुटखा , पान मसाला और खैनी आदि पर पूर्ण प्रतिबंद ही है। लेकिन क्या सरकार ऐसा कर पायेगी ?


Thursday, May 26, 2016

सोच बदलो , देश बदलो --


सामने एक शानदार गाड़ी चली जा रही थी। अभी हम उसकी खूबसूरती और शान ओ शौकत की मन ही मन प्रसंशा कर ही रहे थे कि अचानक उसकी एक खिड़की खुली और सड़क पर एक पानी की खाली बोतल फेंक दी गई। बोतल जैसे ही हमारी गाड़ी के पहिया के नीचे आई , एक जोर की आवाज़ आई जैसे टायर फट गया हो। हमने घबराकर गाड़ी साइड में लगाकर देखा तो पाया कि पहिया तो सभी सही थे लेकिन वो बोतल पहिया के नीचे आकर फट गई थी। आवाज़ उसी की थी।

हम अक्सर सैकड़ों पर फैली गंदगी , कूड़ा करकट , खुले में पेशाब करने की लोगों की आदत , खुले आम चलते चलते सड़क पर थूकना , पान की पीक किसी भी कोने में मार देना , और साईकिलरिक्शाओं का ट्रैफिक में कहीं भी घुसकर ट्रैफिक को अस्त व्यस्त करने के लिए ग़रीबों , असहाय , देहाती और अनपढ़ लोगों को दोष देते हैं। बेशक ये सारी प्रॉब्लम्स ऐसे ही लोगों के कारण हैं। इसीलिए शहरों में जहाँ भी अनाधिकृत झुग्गी झोंपड़ी या कॉलोनी बस जाती हैं , उस क्षेत्र में ये समस्याएं बहुतायत में पाई जाती हैं।

लेकिन सबसे ज्यादा अफ़सोस तो तब होता है जब पढ़े लिखे , अमीर , सामर्थ्य वाले शहरी लोग भी नागरिक सुविधाओं का दुरूपयोग करते हुए दायित्वहीन व्यवहार का प्रदर्शन करते हैं। कहीं भी गाड़ी खड़ी कर देना , यातायात के नियमों की धज्जियाँ उड़ाना , ज़रा सी बात पर रोड रेज़ में मरने मारने पर उतर आना , पर्यवरण की ओर पूर्ण उदासीनता और लापरवाही आदि इन तथाकथित सांभ्रान्त , सुशिक्षित और सभ्य समाज के लोगों की स्वार्थी प्रकृति को दर्शित करता है। इन्ही के सुकुमार बच्चे शहर के सबसे बेहतरीन विधालयों में पढ़ते हैं जहाँ उन्हें सिखाया जाता है कि कोई भी प्लास्टिक की वस्तु बाहर न फेंकें ताकि पर्यावरण को हानि न पहुंचे। लेकिन ये स्वयं अपने पद , पैसे और पहुँच के अहंकारवश शहर और देश के वातावरण को दूषित करने में कोई कसर नहीं छोड़ते। शायद इसीलिए हमारा देश स्वतंत्रता के ६८ वर्ष बाद भी विकासशील देश की श्रेणी में ही आता है और ऐसा लगता है कि अनन्त तक इसी श्रेणी में रहने वाला है।
सोच बदलो , देश बदलो।

Monday, May 23, 2016

एक ग़ज़ल ---

१)

भरी जवानी में धर्म कर्म करने लगे हैं ,
मियाँ जाने किस जुर्म से डरने लगे हैं !

जो कहते थे दुनिया में नहीं है ईश्वर कहीं ,
मुसीबत पड़ी तो रामा रामा करने लगे हैं। 


वो ना डरते थे करने से दुष्कर्म कभी , 
अब जिन्दा ही पल पल मरने लगे हैं।  

सब लेकर जायेंगे जैसे , जो धन कमाया ,
बक्सों में सारा ऐसे , सामां भरने लगे हैं।

रहते आये थे सदा कूलर ऐ सी की छाया में ,
जब गर्म लू लगी तो झरने से झरने लगे हैं।

आया वो हूनर जब हाथों में 'तारीफ़' के ,
दुःख दर्द हम रोगियों के हरने लगे हैं । 

२) 

जब मोह भंग हुआ तो हमने ये जाना ,
कितना कम सामां चाहिए जीने के लिए।

तन पर लंगोटी हो और खाने को दो रोटी ,
बस एक पिंट बीयर चाहिए पीने के लिए ।

लत्ते, कपड़े, घड़ी, गॉगल्स, गिफ्ट में देते हैं लोग , 
रिटायर्ड बन्दे को क्या चाहिए तन ढकने के लिए ।  

सुबह से बैठे थे खाली , कुछ नहीं था करने को ,
मैडम एक गठरी कपडे दे गई प्रैस करने के लिए।

अब नहीं कोई जिम्मेदारी और वक्त बहुत है ज्यादा ,
एक फेसबुक ही काफी हैं वक्त गुजर करने के लिए ।  

बड़े काम के थे , नाकाम नहीं आज भी 'तारीफ़', 
बस जौहरी की नज़र चाहिए, परखने के लिए।   

Tuesday, May 17, 2016

एक सेवानिवृत पति की दिनचर्या का हाल ---


प्रस्तुत है , एक सेवानिवृत पति की दिनचर्या का हाल :

सुबह :

पत्नी : अज़ी सुनते हो , आज कामवाली बाई नहीं आएगी और डस्टिंग करने वाली भी अभी तक नहीं आई।  अब आप सम्भालो , मेरा टाइम हो गया ऑफिस का। ज़रा जल्दी से मेरा लंच पैक कर दो।  

पति : ठहरो , मैं ऐ टी एम से पैसे निकाल लाऊं ।  

पत्नी : अरे आप तो रिटायर्ड आदमी हैं।  अब आपको पैसों की क्या ज़रुरत है ? दस बीस रूपये चाहिए तो मेरे पर्स से निकाल लिया करो। वैसे भी आप ने क्या खर्च करना है , हमेशा से कंजूस के कंजूस ही तो रहे हो।
 
पति : हमें दो शर्ट और दो पैंट खरीदनी हैं।  सारी पुरानी हो गई।

पत्नी : ओहो ! आप भी अब कौन से नए रह गए हैं। और क्या करना है नए कपड़ों का ! आपने कौन सा ऑफिस जाना है ! वैसे भी गर्मी का मौसम है , कहाँ जाओगे इस मौसम में।  घर में बैठो आराम से नेकर और बनियान पहनकर।  

पति : अच्छा ब्रेड तो ले आऊं नाश्ते के लिए।

पत्नी : ठीक है।  लेकिन सारे दिन घर में रहते हो।  अब ये मत करना कि बैठे बैठे सारे दिन खाते ही रहो।  वेट बढ़ जायेगा , पेट बढ़ जायेगा , बी पी बढ़ जायेगा और शुगर भी बढ़ जाएगी।  फिर घूमोगे डॉक्टरों के चक्कर लगाते।
अच्छा सुनो , बाहर कपडे सूख रहे हैं, थोड़ी देर में उतार लेना और धोबी को प्रैस के लिए दे देना। लेकिन सीधे करके देना।  और सुनो , ये करना , वो करना , बहुत काम पड़े हैं , बस टाइम वेस्ट मत करना।

फिर शाम को ऑफिस से आने के बाद :

आप तो कमाल हो जी। मैं ऑफिस गई , तब भी आप अख़बार पढ़ रहे थे , अब आई हूँ तब भी अख़बार ही पढ़ रहे हो। आखिर ऐसा क्या है इस मुए अख़बार में !
अच्छा बताओ , दिन भर क्या किया आपने ?
अरे ये क्या , फ्रिज में सब कुछ वैसा का वैसा ही रखा है।  आपने तो कुछ खाया ही नहीं।  हे भगवान , मैंने कहा था ये दाल ख़त्म कर देना , खराब हो जाएगी।  लेकिन आपको तो कोई फ़िक्र है ही नहीं।  
और कपडे ! वहीँ बाहर जल रहे हैं धूप में। आपके भरोसे तो कुछ भी छोड़ना बेकार है। कितने बेकार बेकाम आदमी हो , पता नहीं सरकार कैसे झेल रही थी आपको।  मुफ्त में तनख्वाह दे रही थी।
जब देखो तब अख़बार या मोबाईल पर फेसबुक और वाट्सएप। इसके अलावा तो कोई काम ही नहीं है आपको। अब तो उठ लो , मुझे पानी ही पिला दो।

अगले दिन छुट्टी के दिन डॉक्टर के पास :

डॉक्टर साहब , मेरे पति सारी रात नींद में बड़बड़ाते हैं , कोई अच्छी सी दवा दीजिये।
डॉक्टर : ये दवा लिख रहा हूँ , केमिस्ट से ले लेना।  रोज एक गोली सुबह शाम लेनी है।  आपके पति बड़बड़ाना बंद  कर देंगे।
पत्नी : नहीं नहीं डॉक्टर साहब , आप तो कोई ऐसी दवा दीजिये कि ये साफ साफ बोलना शुरू  दें।  पता तो चले कि ये नींद में किसका नाम लेते हैं।
डॉक्टर : बहन जी , ये दवा आपके पति के लिए नहीं , आपके लिए है। आप उन्हें दिन में बोलने का मौका दें , वे नींद में बड़बड़ाना अपने आप बंद  कर देंगे।  

नोट : यह गर्मी में टाइम पास के लिए लिखा गया हास्य व्यंग है।  इसका किसी जीवित या अजीवित व्यक्ति से कोई  सम्बन्ध नहीं है।



Friday, May 13, 2016

रोते हुए जाते हैं सब , हँसता हुआ जो जायेगा ---


सेवा निवृति एक ऐसा अवसर होता है जिसमे ख़ुशी भी शामिल होती है और थोड़ा रंज भी।  ख़ुशी एक लम्बे व्यवसायिक जीवन के सफलतापूर्वक पूर्ण होने की। और रंज सफलता की ऊँचाई पर पहुंचकर कुर्सी छोड़ने का। अक्सर  ऐसे में सेवा निवृत होने वाला व्यक्ति भावुक हो जाता है और कभी कभी लोग रोने भी लगते हैं।  लेकिन हमारे अस्पताल में पिछले दस सालों में सेवा निवृत होने वाले सभी अधिकारीयों को हमने हँसते हँसते विदा किया।  इसी क्रम को बनाए हुए ३० अप्रैल को जब हम स्वयं सेवा निवर्त हुए तो हमने उसी ख़ुशी के वातावरण को बनाए रखा।  हमारे साथ हमारे एक और साथी डॉकटर को भी विदा किया गया जिन्होंने स्वैच्छिक सेवा निवृति ली थी।  




मंच पर चिकित्सा अधीक्षक और अतिरिक्त चिकित्सा अधीक्षक के साथ हम दोनों।



गंभीर रूप में बस यही एक पल था जब हम हँसते हुए नज़र नहीं आ रहे थे।  लेकिन स्वागत सम्मान समारोह आरम्भ होने के बाद एक भी क्षण ऐसा नहीं था जिसमे लोगों के चेहरे पर मुस्कान न रही हो।  फूल भेंट करने वालों में सभी उच्च अधिकारीगण शामिल हुए।




प्रिंसिपल स्कूल ऑफ़ नर्सिंग।



अस्पताल के चिकित्सा अधीक्षक।



पूर्व चिकित्सा अधीक्षक एवम विभाग अध्यक्ष ई एन टी।



पूर्व चिकित्सा अधीक्षक एवम विभाग अध्यक्ष शल्य चिकित्सा।



डायरेक्टर फैमिली वेलफेयर।



एडिशनल सेक्रेटरी स्वास्थ्य मंत्रालय।



विभाग अध्यक्ष मनो रोग।



हमारे एक पुराने साथी जो सेवा निवृत हो चुके हैं।



अतिरिक्त चिकित्सा अधीक्षक।



नर्सिज यूनियन की सदस्या अधिकारीगण।



कर्मचारी यूनियन के सदस्य।



सीनियर प्रोफ़ेसर और हमारे कॉलेज के सबसे पहले बैच की हमारी सीनियर सहपाठी।



हॉल का एक दृश्य।



दूसरी ओर वरिष्ठ डॉक्टर्स।



कार्यक्रम का सञ्चालन करते हुए भारत भूषण जो सदा हमारे साथ मंच पर सहयोगी रहे और अपनी आवाज़ से सबको मंत्रमुग्ध करते थे।



हम दोनों के परिवार के सदस्य भी इस अवसर पर उपस्थित रहे।
अपने विदाई भाषण में हमने उपस्थित सभी कर्मचारियों और अधिकारीयों को विशेष रूप से दो बातों को याद रखने का आह्वान किया।
एक तो ये कि एक अच्छा स्वास्थयकर्मी होने के लिए तीन गुणों का होना आवश्यक है -- avilability , affability , ability . यानि आपकी उपस्थिति , मृदु व्यवहार और आपकी योगयता।
दूसरा अपने कर्मों को इस कद्र सुधारना चाहिए कि जाते समय बुरे कर्मों का बोझ साथ ना हो।
कवि नीरज की इन पंक्तियों के साथ हमने अपने अभिभाषण को समाप्त किया :

जितना कम सामान रहेगा ,
उतना सफ़र आसान रहेगा।
जितना भारी बक्सा होगा ,
उतना ही तू हैरान रहेगा।