शाम के समय लोकल मार्किट के सामने मेंन रोड के फुटपाथ पर खड़े रेहड़ी और खोमचे वाले तरह तरह के पकवान बनाये जाते हैं जिनकी खुशबु वहां से गुजरने वाले लोगों को बेहद आकर्षित करती है। विशेषकर घी में तलती टिक्कियां , पकौड़े और चाऊमीन देखकर ही मुँह में पानी आने लगता है। खाने वाले भी बहुत मिल जाते हैं , इसलिए धंधा धड़ल्ले से चलता है।
लेकिन सड़क से उड़ती धूल और गाड़ियों का धुआँ देखकर लगता है कि हम हाईजीन के मामले में कितने पिछड़े हुए हैं। अक्सर ये खोमचे वाले नालियों के ऊपर बैठे होते हैं। एक गंदे से पीपे या जार में पीने का पानी भरा होता है जिसे लोग आँख बंद कर पी जाते हैं। कड़ाही में डीप फ्राई होते पकौड़े तो फिर कीटाणुरहित हो सकते हैं लेकिन कुलचे छोले वाला छोले तो घर से ही बनाकर लाता है। और वो किसी फाइव स्टार में नहीं बल्कि किसी अनाधिकृत कॉलोनी में झुग्गी झोंपड़ी में रहता होगा जहाँ न टॉयलेट की सुविधा होगी और न पीने के पानी की।
लेकिन हम हिंदुस्तानी लक्कड़ हज़म पत्थर हज़म होते हैं क्योंकि ज़रा ज़रा सा संक्रमण हमारे शरीर में प्रतिरोधक क्षमता उत्पन्न कर देता है। इसलिए छोटा मोटा संक्रमण हमें प्रभावित नहीं करता। लेकिन विकसित देशों में रहने वाले लोगों में साफ सफाई होने के कारण एंटीबॉडीज न के बराबर होती हैं। इसलिए उनको भारत जैसे देश में आते ही कुछ भी खाते ही दस्त लग जाते हैं , जिसे ट्रैवेलर्स डायरिया कहते हैं। लेकिन ऐसा ना समझें कि हम सुरक्षित हैं। संक्रामक रोग सबसे ज्यादा हमारे जैसे देशों में ही होते हैं जिससे हर वर्ष लाखों लोग प्रभावित होते हैं। आगे तो मर्ज़ी आपकी।