देश में बुजुर्गों की संख्या निरंतर बढ़ती जा रही है। विशेषकर शिक्षित परिवारों में बुजुर्गों के एकाकीपन की समस्या और भी गंभीर होती जा रही है क्योंकि अक्सर बच्चे पढ़ लिख कर घर, शहर या देश ही छोड़ देते हैं और मात पिता अकेले रह जाते हैं। अक्सर ऐसे में बुजुर्गों को सँभालने वाला कोई नहीं रहता जो उनकी रोजमर्रा की ज़रूरतों को पूरा करने में सहायता कर सके।
पता चला है कि स्विट्ज़रलैंड में सरकार द्वारा ऐसे टाइम बैंक स्थापित किये गए हैं जिनमे आपका समाज सेवा का लेखा जोखा रखा जाता है। वहां युवा वर्ग और शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ लोग अपने फालतू समय में समाज के बुजुर्गों के लिए काम करते हैं और जितने घंटे काम किया , उतने घंटे उनके खाते में जमा हो जाते हैं। यह कार्य स्वैच्छिक और सुविधानुसार होता है जिसे वे तब तक करते हैं जब तक स्वयं समर्थ होते हैं। जब वे स्वयं असमर्थ हो जाते हैं, तब अपने टाइम बैंक के खाते से घंटे निकाल लेते हैं। यानि बैंक उनकी सहायता के लिए किसी और को घर भेज देता है जो सहायता करता है। इस तरह यह क्रम चलता रहता है। आपके खाते में जितने घंटे जमा हुए , उतने घंटों की सेवा आप प्राप्त कर सकते हैं। इसलिए किसी बुजुर्ग को न तो अकेलापन महसूस होता है और न ही उन्हें वृद्ध आश्रम में जाकर रहना पड़ता है।
यदि इस तरह की कोई योजना यहाँ भी बनाई जाये तो शायद बुढ़ापे में बहुत से लोगों को राहत मिल सकती है। लेकिन हमारे देश और स्विट्ज़रलैंड में बहुत अंतर है। वहां आबादी कम है और संसाधन ज्यादा। लोग भी मेहनती , निष्ठावान और कर्मयोगी होते हैं। वे अपने देश से प्रेम करते हैं और नियमों का पालन करते हैं। लेकिन हमारे यहाँ अत्यधिक आबादी , भ्रष्टाचार , कामचोरी , हेरा फेरी और धोखाधड़ी का बोलबाला है। ऐसे में यह योजना सफल होना तो दूर, कोई इसके बारे में सोच भी नहीं सकता। ज़ाहिर है , पहले हमें अपनी बुनियादी समस्याओं से सुलझना होगा। तभी हम विकसित देशों के रास्ते पर चल पाएंगे।
क्या फायदा है इस भागदौड़ भरी ज़िन्दगी का जिस में हमारे पास अपनों के लिए भी समय नहीं हो? इंसान चाहे कम कमाए या ज़्यादा पर उसे अपने और अपनों के लिए तो समय निकलना ही चाहिए!
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