2७ फ़रवरी २०१२ को हरकीरत 'हीर' जी के काव्य संग्रह 'दर्द की महक' का विमोचन और लोकार्पण दिल्ली के प्रगति मैदान में संपन्न हुआ । इत्तेफाक से इस समारोह में जाना संभव नहीं हो पाया । लेकिन बड़ी तमन्ना थी कि इस पुस्तक की समीक्षा मैं लिखूं । हालाँकि हमारे लिए तो यह काम बिल्कुल नया था । एक तो समीक्षा कभी लिखी नहीं । फिर वो भी हीर जी जैसी शायरा ,जिन्हें हम पढ़ते तो रहते हैं लेकिन समझने के लिए बड़ी कठिनाई का सामना करना पड़ता है ।
लेकिन खुद से वायदा तो कर दिया था । इसलिए पीछे हटने का सवाल भी नहीं था । वैसे भी रोज एक नया काम करने की आदत सी पड़ गई है । पुस्तक प्राप्त होते ही एक साँस में पढ़ गया ।
हालाँकि पढ़ते समय साँस चल रही थी या नहीं , यह भी पता नहीं चला ।
हालाँकि पढ़ते समय साँस चल रही थी या नहीं , यह भी पता नहीं चला ।
असम में जन्मी , पली , बढ़ी , हीर जी अमृता प्रीतम से बहुत प्रभावित रही । उनकी लेखनी में कहीं अमृता जी तो कहीं गुलज़ार की झलक साफ दिखाई देती है । अमृता जी के जाने के बाद हीर जी का संपर्क इमरोज़ जी से बना रहा जिन्होंने ही उनको हकीर से हीर बना दिया ।
हीर का यह काव्य संग्रह , मोहब्बत की अदीम मिसाल--इमरोज़ और अमृता को समर्पित है ।
इस संग्रह में हीर जी की ६१ नज़्में संग्रहित हैं । और अंत में एक नज़्म इमरोज़ की हीर के लिए ।
यह मानव जीवन की विडंबना ही है कि एक औरत का नसीब हमेशा एक पुरुष के साथ जुड़ा रहता है । हीर जी ने अपनी नज़्मों में एक प्रेयसी के रूप में औरत के दर्द , पीड़ा , प्रताड़ना और उपेक्षा को ऐसे दर्द भरे लफ़्ज़ों में उतारा है कि पढने वाले को खुद दर्द का अहसास भूलकर दर्द में मिठास की अनुभूति होने लगती है ।
उनकी नज़्मों में मौत , कब्र , लाशें , कफ़न , नश्तर ,छाले आदि अनेकों ऐसे लफ़्ज़ों का इस्तेमाल किया गया है जिन्हें पढ़कर अन्दर तक एक टीस का अहसास होता है ।
मौत की मुस्कराहट
रात वह फिर आई ख्वाबों में
चुपके से रख गई, कुछ लफ्ज़ झोली में
मैंने देखा , मौत की मुस्कराहट कितनी हसीं थी ।
जीते जी , मौत के ख्वाब कोई यूँ ही नहीं देखता ।
ज़ुल्म जब हद से गुजर जाएँ तो लफ्ज़ बनकर कुछ ऐसे उतर आते हैं --
वहशी बादल जमकर बरसे फिर कल रात
सुई जुबाँ से लहू कुरेदती रही
सबा तो खामोश रही दोनों के बीच
बस तेरा चेहरा तलाक मांगता रहा ...
पति पत्नी के रिश्ते में यदि कड़वाहट आ जाये तो एक अजीब सी स्थिति उत्पन्न हो जाती है जहाँ रिश्ते सिर्फ रस्म का जामा पहन लेते हैं । हीर ने करवा चौथ पर लिखा है --
वह फिर जलाती है
दिल के फासलों के दरम्याँ
उसकी लम्बी उम्र का दिया ।
यह भी औरत की कैसी मज़बूरी है कि जो दर्द देता है , मन से उसी के लिए दुआ निकलती है ।
जब दर्द पास आ मुस्कराने लगता है --मोहब्बत जैसे कुछ पल के लिए ही सही , साँस लेने लगती है दर्द के आगोश में ।
हीर जी , अपना जन्मदिन अमृता के जन्मदिन ३१ अगस्त को ही मनाती हैं । एक नज़्म अमृता जी को भेंट करते हुए लिखती हैं--
उसने कहा है अगले जन्म में
तू फिर आएगी मोहब्बत का फूल लिए
ज़रूर आना अमृता
इमरोज़ जैसा दीवाना , कोई हुआ है भला ।
आशा का दामन कभी साथ नहीं छोड़ता । तमाम दुखों , अपमान , क्षोभ और हार के अहसासों के बीच लिखती हैं --
अक्सर सोचती हूँ ,
खुद को बहलाती हूँ
कि शायद छूटे हुए कुछ पल
दोबारा जन्म ले लें ।
लेकिन दर्द है कि साथ छोड़ता ही नहीं । दर्द दीवाना है हीर का । हीर दीवानी है दर्द की । एक अजीब सी कशमकश रहती है, कभी एक बुत बनाती हैं , लम्हे दर लम्हे उसे सजाती हैं और फिर तोड़ देती हैं । कभी सांसे उम्मीद के धागे बुनने लगती हैं , उस लाल दुप्पटे को देखकर । लेकिन दर्द जब जब अंगडाई लेता है , इक बांसुरी की तान सी सुनाई देती है--- और हीर की सांसें राँझा राँझा पुकारने लगती हैं -- रब्बा , क्या दर्द का कोई मौसम नहीं होता ! दिल से इक बेबस सी आह निकलती है -- जब समंदर की इक भटकती हुई लहर तपती रेत में घरोंदे तलाशती है।
हीर की नज़्मों में अक्सर रातों की उदास सी चुप्पियों का ज़िक्र रहता है ।
रात आसमाँ ने आँगन में अर्थी सजाई
तारे रात भर खोदते रहे कब्र
हवाओं ने भी छाती पीटी
पर मेरे जख्मों की मौत न हुई ।
जख्म , जिन पर कभी मरहम न लग सकी । जख्म , जो सूखते सूखते ज़िस्म को पत्थर कर गए ।
तुम गढ़ते रहे
देह की मिट्टी पर
अपने नाम के अक्षर
हथोड़ों की चोट से
ज़िस्म मेरा पत्थर होता रहा ...
इंसान से ज्यादा बर्बर कोई नहीं । लेकिन मौत भी मांगने से कहाँ आती है -- फिर भले ही आप सितारों जड़ा , सुनहरा कफ़न लिए बैठे रहें-- चाहे मौत को जिंदगी के सुनहरे टुकड़े देकर अपनी चिता के गीत गाते रहें ।
पुरुष औरत पर कितने ही ज़ुल्म क्यों न ढाये , जब कमज़ोर पड़ता है तो उसी के कंधे का सहारा लेता है --
अब न रखा कर कंधे पे हाथ ,
दर्द की आँखों में नमी होती है ।
फिर एक दिन ऐसा भी आता है जब सब अहसास सुन्न हो जाते हैं --
मेरे इश्क के कतरे
पत्थरों पे गिरते रहे
और रफ्ता रफ्ता
दिल के छाले ,
पत्थर होते गए ।
जिंदगी भी अक्सर आशा निराशा की आँख मिचौली में झूलती रहती है ---
मोहब्बत खिलखिलाकर हंसने ही वाली थी
कि गुजर गई फिर कुछ अर्थियां करीब से ।
हीर जी ऱब से पूछती हैं इक सवाल --सिर्फ अपने लिए ही नहीं -- उन तमाम औरतों के लिए , जिन्हें जिंदगी में वो नहीं मिला जिनकी वो हकदार थी, जो जिंदगी में पीड़ित , उत्पीड़ित , प्रताड़ित और शोषित रहीं हैं।
--तेरी दुनिया की किसी कोख में ज़वाब नहीं उगते क्या ?
ज़वाब नहीं है , न ऱब के पास , न ऱब के बंदों के पास । जिंदगी अपनी तमाम मुश्किलें बाँटती हुई जिंदा रखेंगी हीर को -- हीर को भी फ़र्ज़ की वेदी पर जिंदगी का कर चुकाते रहना पड़ेगा , इन्ही दर्द , ज़ख्म और उत्पीड़न के साथ । लेकिन इस दर्द की महक आती रहेगी -- सदा सदा ही इस गुलशन में , जहाँ हम और आप खुश हैं , अपनी अपनी जिंदगी में ।
हीर के काव्य संग्रह पर अंत में यही कह सकते हैं जो इमरोज़ ने हीर को लिखा था -
न कभी हीर ने -
न कभी रांझे ने
अपने वक्त के कागज़ पर
अपना नाम लिखा था
फिर भी लोग आज तक
न हीर का नाम भूले
न रांझे का ।
(हीर तुम्हारी नज़्में खुद बोलती हैं , उन्हें किसी तम्हीद की ज़रुरत नहीं । )
पुस्तक के फ्लैप पर प्रसिद्द समीक्षक श्री जितेन्द्र जौहर जी का समीक्षक अभिमत प्रकाशित है ।
पुस्तक में साथी ब्लोगर्स की टिप्पणियों को भी जगह दी गई है जिनमे प्रमुख हैं --
पुस्तक में साथी ब्लोगर्स की टिप्पणियों को भी जगह दी गई है जिनमे प्रमुख हैं --
सर्वश्री मुफलिस जी , शाहिद मिर्ज़ा शाहिद , सुशील कुमार छोंकर , डॉ अनुराग , अपूर्व , अलबेला खत्री , गौतम राजरिशी , समीर लाल जी , मीनू खरे , तेजेंद्र शर्मा , नीरज गोस्वामी, दिगंबर नासवा , वाणी जी , मनु , निर्मला कपिला जी , तथा अन्य कई मित्र ।
नोट : हमेशा हंसी मजाक के मूड में रहने वाले एक हास्य कवि के लिए दर्द की महक की समीक्षा करना कितना मुश्किल रहा होगा , इसका अंदाज़ा आप लगा सकते हैं । पुस्तक की गहराई तो आपको पढ़कर ही पता चलेगी ।
समीक्षक : डॉ टी एस दराल
नयी दिल्ली
समीक्षक : डॉ टी एस दराल
नयी दिल्ली
दर्द की महक
मूल्य : २२५ /-रु
प्रकाशक :
हिंदी युग्म
१ , जिया सराय, हौज़ खास
नई दिल्ली -११००१६
मो : 9873734046 , 9968755908