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Tuesday, September 21, 2021

बुढ़ापा और एकल परिवार --

 एक ज़माना था जब हम गांव में रहते थे। घर के आँगन में या बैठक में घर के और पड़ोस के भी पुरुषों को चारपाई पर बैठ हुक्के का आनंद लेते हुए गपियाते हुए देखते थे। अक्सर गांव, अपने क्षेत्र और शहर की पॉलिटिक्स पर चर्चा के साथ साथ आपस में हँसी ठट्ठा जमकर होता था। खेती बाड़ी का काम वर्ष में दो बार कुछ महीने ही होता था। बाकी का समय आराम, शादी ब्याह, भवन निर्माण या फिर खाली हुक्का पीने या चौपड़ और ताश खेलने में जाता था। कुल मिलाकर सुस्त लेकिन मस्त ज़िंदगी होती थी। संयुक्त परिवारों में बुजुर्गों का विशेष ध्यान रखा जाता था। घर में दादा या बड़े ताऊ जी की सलाह लेकर ही सभी काम किये जाते थे। विशेषकर शादियों में तो सबसे बड़े व्यक्ति का सम्मान सर्वोपरि होता था।       

अब समय बदल गया है। शहर ही नहीं, अब गांवों में भी एकल परिवार हो गए हैं। बच्चे और युवा मोबाइल पर या आधुनिक संसाधनों में व्यस्त रहते हैं। खेती बाड़ी की जगह नौकरी पेशे ने ले ली है।  अब गांवों में भी युवा वर्ग कम ही नज़र आता है।  और शहरों में तो यह हाल है कि जहाँ बच्चों की विधालय शिक्षा पूर्ण हुई, उसके बाद कॉलेज, फिर नौकरी अक्सर दूसरे शहर या देश में ही होती है।  यानि बच्चे व्यस्क होकर एक बार घर से निकले तो फिर कभी कभार मेहमान बनकर ही घर आते हैं।  शादी के बाद तो निश्चित ही अपना घर बनाने का सपना आरंभ से ही देखने लगते हैं। ऐसे में बड़े अरमानों से बनाये घर में मात पिता अकेले ही रह जाते हैं।  

लॉकडाउन और कोरोना के भय से मिलना जुलना लगभग समाप्त ही हो गया था।  डर यह भी था कि डॉक्टर होने के नाते संक्रमित होने की संभावना सबसे ज्यादा हमारी ही रहती थी। इसलिए हमने अस्पताल के अलावा कहीं और आना जाना कम से कम कर रखा था।  लेकिन अब जब दिल्ली में कोरोना के केस न्यूनतम हो गए हैं और अधिकांश लोग टीकाकृत हो गए हैं, तो बहुत समय से लंबित मिलना जुलना अब आरंभ किया है। ऐसे ही पिछले रविवार मिलना हुआ हमारे एक मित्र सहपाठी के माता पिता से जो पास में ही रहते हैं लेकिन उनकी सभी संताने या तो विदेश में हैं या अन्य शहरों में। अंकल आंटी दोनों लगभग ९० और ८५ वर्ष की आयु के हैं।  लेकिन दोनों अभी इतने स्वस्थ हैं कि अकेले रह पाने में समर्थ हैं। 

शरीर से हलके फुलके अंकल ८०-८५ वर्ष की आयु तक एक धावक रहे हैं और उन्होंने वरिष्ठ नागरिकों की दौड़ में अनेक मैडल जीते हैं। उनके साथ एक बार जो बातें शुरू हुईं तो हम जैसे अतीत काल में खो से गए। हमें अपने दादाजी याद आ गए जो हमें अपने पास बिठाकर अपने जीवन के अनेक किस्से बहादुरी से सुनाया करते थे और जिन्हे हम बड़ी तन्मयता से सुना करते थे। कुछ इसी तरह अंकल ने जो बातें सुनानी शुरू की तो ऐसा लग रहा था जैसे किसी उपन्यास में लिखे वार्तालाप को सुन रहे हों।  इस उम्र में भी उन्हें एक एक बात ऐसे याद थी जैसे अभी कल की ही बात हो। सुनाते समय उनका जोश और आँखों में चमक देखकर बड़ा आनंद आ रहा था। हम दोनों स्वयं वरिष्ठ नागरिक होते हुए भी बच्चों जैसा महसूस कर रहे थे और अपने बचपन में जैसे खो से गए थे । निश्चित ही जब तक मात पिता जिंदा हों, तब तक आप कितने ही बड़े क्यों न हो जाएँ, एक बच्चा सदा आपके अंदर जिंदा रहता है।

इस मृत्यु लोक की त्रासदी यह है कि मनुष्य अपना सारा जीवन बच्चों के लालन पालन, शिक्षा, शादी और उनके लिए आराम के संसाधन जुटाने में लगा रहता है।  लेकिन अपने पैरों पर खड़े होते ही बच्चे वयस्क होकर ऐसे उड़ जाते हैं जैसे पर निकलने पर पक्षियों के बच्चे। बुढ़ापे में जब बुजुर्गों को सहारे की सबसे ज्यादा आवश्यकता होती है, तब वे लगभग बेसहारा से हो जाते है। यहां एक बात और ध्यान देने योग्य है। कहावत है कि सास भी कभी बहू थी। लेकिन हक़ीक़त यह भी है कि बहू भी देर सबेर सास बन ही जाती है। अफ़सोस तो यह देखकर होता है कि मात पिता अपने बच्चों के बिना अकेले रहते हैं और बच्चे जो स्वयं बुजुर्ग हो चुके होते हैं, अपने बच्चों के बिना अकेले रहते हैं। बस यह समझ नहीं पाते हैं कि यदि एक बेसहारा दूसरे बेसहारा से मिल जाए तो दोनो को सहारा मिल जाता है। लेकिन स्वतंत्र जीवन जीने के लालच में बच्चे मात पिता से दूर हो जाते हैं। सच तो यह है कि घर इंसानों से बनता है। इंसानों के बिना यह एक मकान ही होता है। हम तो भगवान से यही प्रार्थना करते हैं कि औलाद को इतनी सद्बुद्धि तो दे कि बुढ़ापे में सरवण कुमार न सही, एक आम संतान की तरह अपने मात पिता का पूरा ध्यान रखे और आवश्यकता पड़ने पर उन्हें सँभालने काम छोड़कर घर आ जाये।      

Thursday, September 9, 2021

ज्ञान बाँटने से बढ़ता है --

 

बुजुर्गों से सुनते थे 

अनुभव अर्जित ज्ञान की बातें। 

और यह भी कि  

ज्ञान बांटने से बढ़ता है, 

वरना एक दिन वही ज्ञान 

ज्ञानी के साथ ही मिट जाता है।  


आज का युवा वर्ग 

पढ़ता है सैंकड़ों क़िताबें,

और क़िताबी ज्ञान का  

विद्धान बन जाता है।  

किंतु अनभिज्ञ रह 

सांस्कृतिक ज्ञान से,

व्यवहारिक तौर पर 

अनपढ़ ही रह जाता है।   


फिर एक दिन 

शांति की तलाश में 

किसी गुरु की 

शरण में जाता है।  

पैसा हाथ का मैल है 

यह संसार मोह माया का जाल है, 

यह बात वह पाखंडी गुरु 

हज़ारों की फ़ीस लेकर बतलाता है।  


अनुभव ही इंसान को 

आचार व्यवहार का 

सही मार्ग दिखलाता है।  

जब तक युवा स्वयं 

अनुभव अर्जित न कर लें 

तब तक 

बुजुर्गों का अनुभव ही काम आता है।  


लेकिन आज की 

तकनीकि जिंदगी में 

बुजुर्गों का वज़ूद 

युवाओं पर भार बन कर रह गया है।  

और ज्ञान का प्रचार महज़ 

एक व्यापार बन कर रह गया है।  



Monday, September 6, 2021

और, और, थोड़ा और --

 


रोज़ सोचते हैं 

कल बदल लेंगे, 

रोज़ थोड़ा और निकल आता है।  

इस और और के चक्कर में,

इंसान का सारा 

जीवन ही निकल जाता है।  


और अनंत है 

असंतुष्टि का घर है, 

किंतु यह बात 

जाने क्यों 

नादाँ इंसान 

समझ नहीं पाता है।  


जो इंसान 

इस और को  

काबू कर संतुष्टि पा ले, 

वही इंसान 

सही मायने में 

सात्विक कहलाता है।   

 

Thursday, September 2, 2021

आज़ादी की राह --



 दुनिया में 

अपनी प्रजाति का अस्तित्व 

बनाये रखने को 

जीव जंतु, 

जलचर, या रहते हों भू पर, 

बच्चे या अंडे देते हैं, 

तिनका तिनका जोड़ 

घर बनाकर, 

सेंकते हैं,

अपने जिस्म की ऊर्जा से।  

पालते हैं बड़ी मेहनत से ,

जुटाते हैं चारा 

अपनी जान जोखिम में डालकर।   

फिर एक दिन वही बच्चे 

बड़े होकर 

चल देते हैं अपने रास्ते 

एक स्वतंत्र जीवन बिताने को।   

मादा फिर तैयार होने लगती है 

प्रसूति के 

अगले दौर के लिए। 


इंसान भी 

हर मायने में 

होता है इन जैसा ही। 

फ़र्क बस इतना है,

वह एक बार की औलाद को, 

पालता पोषता है,

अठारह साल तक। 

कभी कभी अठाईस तक भी,

फिर एक दिन वे भी 

उड़ जाते हैं 

ऊँची और लम्बी उड़ान पर। 

एक आज़ाद ज़िंदगी की चाह में।   

सुकून बस यही रहता है, 

कि देर से ही सही, 

आ जायेंगे एक बार ज़रूर, 

जब होगी ज़रुरत।  

बस यही फ़र्क है, 

इंसान और जीव जंतुओं की 

फ़ितरत में।  

आखिर, इंसान भी तो 

इन्हीं से विकसित होकर 

इंसान बना है।