वो जब कभी,
कहते हैं,
घर आना कभी।
कहते हैं
हम भी वही,
तुम भी
घर आना कभी।
ना वो आते कभी,
ना हम जाते कभी,
वो "कभी"
नही आता कभी।
यही है हाल
एक बड़े हास्य कवि की किताब देख ,
बक्से में बंद हमें,
अपनी हास्य कविताओं की याद आई,
तो हमने फ़ौरन प्रकाशक महोदय को कॉल लगाईं।
और कहा भाई,
हम भी छोटे मोटे हास्य कवि कहलाते हैं ,
पर लगता है आप तो सिर्फ
मोटे कवियों की किताब ही छपवाते हैं।
क्या आप हमारी कवितायेँ छपा पाएंगे ?
वो बोले ये तो हम ,
आपकी कवितायेँ पढ़कर ही बता पाएंगे।
हमने कहा अच्छा ये तो समझाइये
आपकी क्या शर्तें हैं
और छापने का क्या लेते हैं।
वो बोला
हम कोई ऐसे वैसे प्रकाशक नहीं हैं,
हम छापने का कुछ लेते नहीं बल्कि देते हैं।
हमने अपनी ख़ुशी जताई
और कहा भाई
लगता है हमारी आपकी कुंडली मिलती है ,
क्योंकि हम भी कविता सुनाने का कुछ लेते नहीं
बल्कि अपनी जेब से देते हैं।
पर अब ज़रा काम की बात पर आइये ,
और ये बताइये कि ,
यदि पसंद नहीं आई तो क्या आप
हमारी कवितायेँ वापस करेंगे,
या अपने पास ही धर लेंगे।
वो बोला टेक्नोलॉजी का ज़माना है ,
आप अपनी कवितायेँ हमे ई मेल कर दीजिये,
हम ई मेल से ही वापस कर देंगे।
उनकी ईमानदारी हमे बहुत भाई ,
और कॉपीराइट की चिंता मन से निकाल ,
सारी कवितायेँ फ़ौरन ई मेल से भिजवाईं।
अब बैठे हैं इंतज़ार में क्योंकि,
अभी तक ना कवितायेँ वापस आईं,
और ना ही मंज़ूरी आई।
रिटायरमेंट के बाद सबसे ज्यादा बेकद्री कपड़ों की होती है। बेचारे अलमारी में ऐसे मुंह लटकाकर टंगे रहते हैं, मानो कह रहे हों, सरजी कभी हमारी ओर भी देख लिया करो। ऐसी भी क्या बेरुख़ी है। रिटायर होते ही हमसे मुंह मोड़ लिया। रिटायर आप हुए हैं, हम नही। बूढ़े आप हुए होंगे, हम नही , हम तो अभी भी जवान और उतने ही हसीन हैं।
कोरोना काल मे जुदा हम और सरकार हो गये,
लॉकडाउन में खाली घर रहकर बेकार हो गये।
बेकार हो गये अब भैया जब रिटायर भये दोबारा,
अब न कोई सुनता न किसी पर चलता वश हमारा।
कह डॉक्टर कविराय अब किस पर हुक्म चलावैं,