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Monday, November 18, 2013

हर-की-दून घाटी में ट्रेकिंग -- एक संस्मरण।


सन १९९४ की बात है। अस्पताल में हर की दून ट्रेकिंग का एक विज्ञापन देख कर हमें कौतुहल हुआ और ट्रेकिंग पर जाने का मन बन आया।  लेकिन साथ जाने के लिए जब कोई तैयार नहीं हुआ तो हमने अकेले ही जाने का मन बना लिया।  वैसे भी इस ट्रेकिंग का  आयोजन एक अत्यंत अनुभवी और विश्वसनीय ट्रेकर समूह ने किया था। रोज एक बस भरकर जाती और सारा प्रबंध आयोजकों द्वारा किया गया था।  एक तरह से यह एक आरामदायक ट्रेक था जो नए लोगों के लिए बहुत लाभदायक था।

बस में गुजरात से आये स्कूल और कॉलेज के छात्रों का समूह था।  साथ ही हम दिल्ली के कुछ कामकाज़ी युवक भी थे।  हालाँकि इनमे उम्र के लिहाज़ से सबसे बड़े तो हम ही थे। लेकिन सभी अनजान थे।  परन्तु जल्दी ही सबसे परिचय हो गया और शुरू हो गया ११ दिन का एक सुहाना सफ़र जो एक यादगार बनने वाला था।
तू चीज़ बड़ी है मस्त मस्त और अम्मा देख तेरा मुंडा बिगाड़ा जाये जैसे गाने सुनते सुनते अगले दिन सफ़र पूरा हुआ संकरी जाकर। हृषिकेश होते हुए उत्तरकाशी क्षेत्र में आखिरी मोटरेबल रोड़ संकरी जाकर ख़त्म हो गई।  यहाँ रात में रूककर अगले दिन से ट्रेकिंग शुरू होने वाली थी।    



अपना अपना रकसैक  कमर पर लादकर हम तैयार थे ट्रेकिंग यानि पैदल खाक छानने के लिए।  हमारा पहला कैम्प था तालुका जो करीब ८ -१० किलोमीटर दूर था।  नदी किनारे जंगल में टेंट में रुकने का यह हमारा पहला अनुभव था।  शहरी जिंदगी को भूलकर बिल्कुल साधारण जीवन की पहली झलक थी।

यहीं हमने पहली बार रात के समय बोनफायर पर सबको गाना सुनाया -- आँखों में क्या जी , रुपहला बादल ( फ़िल्म नौ दो ग्यारह ) और झूमता मौसम  मस्त महीना , चाँद से गोरी एक हसीना , आँख में काजल मुँह पे पसीना , याला याला दिल ले गई।  गाने सुनकर बोनफायर की आग और तेज हो गई।




अगले दिन टोंस नदी के किनारे किनारे १५-१६ किलोमीटर का सफ़र घने जंगल से होकर था।  दूसरा कैम्प लगा सीमा नाम के गांव में जहाँ एक दो झोंपड़ियां ही थी। अगले दिन का सफ़र सबसे लम्बा और कठिन था क्योंकि इसमें पहले उतराई और फिर चढ़ाई थी।

उतरकर हमने नदी पार की और पहुँच गए इस क्षेत्र के सबसे आखिरी गांव ओसला में, लेकिन यहाँ रुके नहीं।  यहाँ जो लोग रहते हैं वे कौरवों के वंसज कहलाते हैं।  इसलिए यहाँ कौरवों को पूजा जाता हैं।  एक और विशेषता यह थी कि यहाँ अभी भी पॉलीएंड्री ( एक से अधिक पति ) का प्रचलन था।




ओसला के बाद चढ़ाई थोड़ी खड़ी हो जाती है।  रास्ता भी कहीं कहीं संकरा है जिससे संभल कर चलना पड़ा।  लेकिन फिर ट्रेक गेहूं के खेतों से होकर गुजरा जो एक अचंभित करने वाला नज़ारा था।



रास्ते में एक झरना आया तो फोटो सेशन होना स्वाभाविक था।





ऊँचाई पर पहुंचकर सब पस्त होने लगे थे।  इसलिए बीच बीच में आराम करना अच्छा लग रहा था।  ऐसे में गुजराती लोगों के देसी घी से बने स्नैक्स आदि खाने में बड़ा मज़ा आया।  




यह नज़ारा नदी के पार घने जंगल का है जहाँ एक झरना बड़ा मन लुभा रहा था।




लेकिन जंगल इतना घना था कि वहाँ जाने की सोच भी नहीं सकते थे।  वैसे भी यहाँ भालू होने की सम्भावना बहुत थी।
अंत में हम पहुँच ही गए हर की दून घाटी जहाँ बिल्कुल नदी के किनारे हमारा कैम्प लगा था।  पहले रात तो सब थके हुए थे।  इसलिए अगले दिन कैम्प से आगे जाने का कार्यक्रम था जहाँ बर्फ नज़र आ रही थी।




यह बर्फीला रास्ता आगे किन्नौर की ऒर जाता है।  



बर्फ में मौज मस्ती के बीच कुछ घंटों की तफ़री।  यहाँ ऊपर चढ़कर एक पॉलीथीन की रेल बनाकर फिसलते हुए नीचे आना बड़ा रोमांचल लगा।





दायीं और का नज़ारा जहाँ बर्फ से ढकी चोटियां दिखाई दे रही थी।




यहाँ एक के बाद एक पांच चोटियां दिखाई देती हैं जिन्हे स्वर्गरोहिणी कहते हैं।  कहते हैं इन्ही चोटियों से होकर पांडव सशरीर स्वर्ग की ओर गए थे।  इसीलिए इनका नाम  स्वर्गरोहिणी पड़ा। यहाँ धुप में मौसम बहुत सुहाना था।  लेकिन बादल आते ही एकदम ठण्ड हो जाती थी।  रात में कल कल करती नदी के किनारे सोना बहुत रोमांचक था।

लेकिन आज सोचते हैं कि यदि कोई बादल फट जाता तो हम कहाँ जाकर रुकते , यह कहना मुश्किल है।  आखिर पहाड़ों में मानव भगवान भरोसे ही होता है।  फिर भी हर गर्मियों में यहाँ सैंकड़ों सैलानी पैदल चलकर प्रकृति की मनभावन सुंदरता का लाभ उठाते हैं।  




आखिरी कैम्प में पूरा दल।  

नोट : पहाड़ों में ट्रेकिंग पर जाने के लिए शारीरिक रूप से सक्षम होना बहुत आवश्यक है।  इसके लिए आपको कम से कम दो सप्ताह पहले पैदल चलने का अभ्यास शुरू कर देना चाहिए ताकि आप पैदल चलने के अभ्यस्त हो जाएँ।  साथ ही यह भी ध्यान रखें कि आपके पास ज़रुरत की सभी चीज़ें हों।  खाने के लिए ड्राई फ्रूट्स आदि रखना समझदारी का काम है।  सामान कम से कम रखें क्योंकि आप को ही उठाना है।  जूते पुराने लेकिन मज़बूत होंने चाहिए।   

अंत में यही कह सकते हैं कि ट्रेकिंग एक शारीरिक व्यायाम है जिससे तन थकता है लेकिन मन तरो ताज़ा हो जाता है।  




Thursday, November 14, 2013

खाली पड़ा पिज़रा हंसा , चला गया उड़ के --- एक श्रद्धांजलि .


पुराने ज़माने में  हरियाणा में लोकगीतों का बड़ा महत्त्व होता था।  गायकों को भजनी कहा जाता था ।  किसी भी विशेष अवसर पर भजनियों को बुलाकर संगीतमय कार्यक्रम ही मनोरंजन का सबसे बड़ा साधन होता था. भजनी भी दो तरह के गीत या गाने सुनाते थे -- एक पौराणिक गाथाओं से सम्बंधित जिनमे धार्मिक और दार्शनिक सामग्री ज्यादा होती थी . दूसरे रोमांटिक गीत जिन्हे रागनी कहा जाता था . लेकिन सामाजिक कार्यक्रमों मे सिर्फ भजन ही सुनाये जाते थे .


लोकगीतों के गायकों मे लक्ष्मीचंद ( लखमीचंद ) का नाम बड़ा मशहूर था . हमारे पिताजी को भी गाने का बड़ा शौक था . आवाज़ भी अच्छी थी और गाते भी अच्छा थे . उन्ही से अक्सर राजा हरिश्चंद्र के किस्से से लिया गया एक गीत हम सुना करते थे जिसमे सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र सत्‍य पर कायम रहने के लिये अपना सारा राज पाट छोड़ कर एक शमशान भूमि मे नौकरी करने लगता है. एक दिन उनकी रानी उनके बेटे की लाश लेकर दफनाने के लिये आती है जिसे सांप ने काट लिया था . लेकिन राजा शमशान कर मांगता है जिसे वह देने मे असमर्थ रहती है . आखिर लाश के पास बैठी रोने लगती है तब राजा कहता है :

सुनता ना कोई रे , यूं रोवना फिज़ूल है,
विपदा की मारी तेरै, ममता की भूल है !  

खाली पड़ा पिज़रा हंसा , चला गया उड़ के, 
जाये पीछे फेर कोई , आया नहीं मूड के ! 
पांच तत्व जुड़ के सारी, काया का स्थूल है !  
विपदा की मारी तेरै, ममता की भूल है !  

इसी तरह के अनेक गाने हम पिताजी से सुनते आये थे . सिर्फ गाने ही नहीं , उनका हरियाणवी ह्यूमर भी गज़ब का था जो हमारे भी बहुत काम आया . रोज सुबह पार्क की ६-७ किलोमीटर की सैर करना उनके लिये आम बात थी . एक दिन पार्क की पगडंडी पर चलते हुए एक शख्श दो बार सामने से बिना नमस्ते किये हुए निकल गया . तीसरी बार पिताजी ने पकड़ लिया और बोले -- क्यों भाई , तू कोए लाट साब है या डी सी लगा हुआ है ! वो हैरान होकर बोला -- क्यों साहब , कोई गलती हो गई क्या ? पिताजी बोले -- भाई तू तीन बार सामने से गुजर गया , ना दुआ ना सलाम ! ये कोई बात हुई ! अब वो बेचारा क्या बोलता -- सॉरी बोल कर पीछा छुड़ाया . 

उनकी ऐसी ही दबंग बातों से सारे क्षेत्र मे उनका दबदबा आज भी कायम है ! आज उनकी तीसरी पुण्य तिथि है . सच है कि हंस के उड़ जाने के बाद वो कभी वापस नहीं आता ! लेकिन उनकी यादें ओर उनसे सीखे गए सबक सदा याद रहेंगे . 

Wednesday, November 6, 2013

व्यस्त जीवन मे हंसने के क्षण निकालना भी आवश्यक है -- कुछ हंसिकाएं !


1) दो कंजूस : 

दो कंजूस मित्रों की हुई शादी 
और बात हनीमून की आई ,
तो एक कंजूस ने चिंता ज़ताई 
यार यह तो बिना बात का खर्चा आ गया ! 
दूसरा कंजूस बोला सच कहा भाई  
इसीलिये आधा खर्चा बचाने को , 
मैं तो हनीमून पर अकेला ही चला गया ! 
पहला बोला यार सब फिज़ूलखर्ची है  
मैने तो पूरा ही खर्चा सहेज लिया !
और हनीमून पर पत्नी के साथ
अपनी जगह पड़ोसी को भेज दिया !

2) काम : 

मीटिंग खत्म हुई तो
बॉस पी ए से बोला,
आज तो बहुत देर हो गई !
अब घर जाकर भी काम संभालना पड़ेगा ! 
पी ए बोली , सर उसकी चिन्ता नहीं है ,
खाना बनाने का काम
आजकल हमारे पतिदेव कर रहे हैं! 
बॉस बोला डियर तुम्हारी नहीं,
हम तो अपनी बात कर रहे हैं !! 

3) डांट :

एक अफसर की पी ए देर से आई , 
साहब ने उसे जमकर डांट लगाई !
हमने कहा ज़नाब , 
काहे बेचारी महिला को डांट लगाते हैं !
वो बोले भैया , ये दफ्तर की बात है, 
घर मे तो डांट हम खुद ही खाते हैं !  

4) कविता चोर कवि :

एक बार हमने कविता सुनाई ,
सुनकर श्रोताओं ने जमकर तालियाँ बजाईं ! 
तभी एक महिला आकर बोली , 
डॉक्टर साहब कमाल है,
हम क्या सोचते थे, आप क्या निकले ! 
आप बड़े शरीफ दिखते थे,
आप तो असली कवि निकले ! 
बात हमे तब समझ मे आई, 
जब पता चला कि वो जिस कवि की फैन थी ,
उसी की काव्य गोष्ठी से होकर आई थी !
और हमने अपने नाम से
उसी कवि की कविता चुराकर सुनाई थी ! 

5) 

क्रांति :

कभी मां बाप बेटे से कहते थे,
बेटा सुन्दर , सुशील
गृह कार्य मे दक्ष  , 
लड़की से ही शादी करना !  
आजकल कहते हैं, बेटा 
शादी लड़की से ही करना !!

नोट : कृपया बताएं कौन सी हंसिका सबसे ज्यादा पसंद आई ! ( कोई भी पसंद न आई हो तो भी बताएं ) 



Friday, November 1, 2013

दीवाली के मच्छरों पर एक सामाजिक शोध कविता ---


दीवाली पर मच्छरों की भरमार पर प्रस्तुत है एक पूर्व प्रकाशित रचना :




एक दिन हमारी कामवाली बाई
सुबह सुबह घर आते ही बड़बड़ाई ।

बाबूजी, ये द्वार पर कौन मेहमान खड़े हैं ,
हैं तो लाखों करोड़ों, पर सब बेज़ान पड़े हैं ।

ये कहाँ से आते हैं, क्यों आते हैं,
हम तो समझ ही नहीं पाते हैं ।

और इनका नाज़ुक मिजाज़ देखिये ,
रोज रूपये की तरह लुढ़क जाते हैं ।

मैंने कहा बेटा, ये बिन बुलाये मेहमान जो बेज़ान हो गए हैं,
ये स्वतंत्र भारत के वो नागरिक हैं जो अपनी पहचान खो गए हैं ।

इनका तो जन्म लेना भी कुदरत की बड़ी माया है ।
क्योंकि इनके लघु जीवन पर प्रदूषण की पड़ी छाया है ।

प्रदुषण से परिवर्तित इनका अस्तित्त्व हो गया है ।
इसीलिए नेताओं की तरह इनका भी व्यक्तित्व खो गया है ।

उस दिन शाम रौशन होते ही वो फिर आ गए ।
दीवाने परवाने से हर विद्धुत शमा पर छा गए ।

मैंने पूछा -- आप कौन हैं
कहाँ से आए हैं, और क्यों आए हैं ?

उनमे से एक जो ज्यादा ख़बरदार था,
शायद उस झुण्ड का सरदार था ।

बोला --हम उत्तर भारत से आए हैं,
रोजी रोटी की तलाश में, दिल्ली के आसरे ।

हमने कहा आइये, आपका स्वागत है,
अरे हम नहीं हैं बेरहम बेशर्म बावरे ।

हम दिल्लीवाले दिल वाले हैं, मेहमान नवाज़ी के साये में पाले हैं ।
तभी तो दिल्ली के द्वार सभी के लिए खुले हैं ।

लेकिन यह तो बताईये, आप रोज रोज क्यों चले आते हैं ?
वो बोला हम तो इंसानी सभ्यता की चकाचौंध से खिंचे चले आते हैं ।

लेकिन इस रौशन दुनिया को
इतना असभ्य और मतलबपरस्त पाते हैं ।

कि जल कर राख ना हो जाये अपनी ही लौ में शमा ,
इसलिए हम तो पतंगा बन, खुद ही पस्त हो जाते हैं ।

देखिये ये जो हमारी खेप अभी उड़कर आई है ।
ये सही में मच्छर नहीं, देश में बढती महंगाई है ।

सामने वाली लाईट पर जो इनकी भरमार है ।
वह दरअसल देश में फैला हुआ भ्रष्टाचार है ।

और जो ज़मीं पर बिखरा इनका सामान है ।
वो असल में इंसान का गिरा हुआ ईमान है ।

अरे हमें मच्छर समझना आपका भ्रम है ।
क्योंकि हम मच्छर नहीं इंसान के बुरे कर्म हैं ।

जिस दिन इंसान में इंसानियत जाग जायेगी !
हमारी ये नस्ल लुप्त हो खुद ही भाग जायेगी !