सन १९९४ की बात है। अस्पताल में हर की दून ट्रेकिंग का एक विज्ञापन देख कर हमें कौतुहल हुआ और ट्रेकिंग पर जाने का मन बन आया। लेकिन साथ जाने के लिए जब कोई तैयार नहीं हुआ तो हमने अकेले ही जाने का मन बना लिया। वैसे भी इस ट्रेकिंग का आयोजन एक अत्यंत अनुभवी और विश्वसनीय ट्रेकर समूह ने किया था। रोज एक बस भरकर जाती और सारा प्रबंध आयोजकों द्वारा किया गया था। एक तरह से यह एक आरामदायक ट्रेक था जो नए लोगों के लिए बहुत लाभदायक था।
बस में गुजरात से आये स्कूल और कॉलेज के छात्रों का समूह था। साथ ही हम दिल्ली के कुछ कामकाज़ी युवक भी थे। हालाँकि इनमे उम्र के लिहाज़ से सबसे बड़े तो हम ही थे। लेकिन सभी अनजान थे। परन्तु जल्दी ही सबसे परिचय हो गया और शुरू हो गया ११ दिन का एक सुहाना सफ़र जो एक यादगार बनने वाला था।
तू चीज़ बड़ी है मस्त मस्त और अम्मा देख तेरा मुंडा बिगाड़ा जाये जैसे गाने सुनते सुनते अगले दिन सफ़र पूरा हुआ संकरी जाकर। हृषिकेश होते हुए उत्तरकाशी क्षेत्र में आखिरी मोटरेबल रोड़ संकरी जाकर ख़त्म हो गई। यहाँ रात में रूककर अगले दिन से ट्रेकिंग शुरू होने वाली थी।
अपना अपना रकसैक कमर पर लादकर हम तैयार थे ट्रेकिंग यानि पैदल खाक छानने के लिए। हमारा पहला कैम्प था तालुका जो करीब ८ -१० किलोमीटर दूर था। नदी किनारे जंगल में टेंट में रुकने का यह हमारा पहला अनुभव था। शहरी जिंदगी को भूलकर बिल्कुल साधारण जीवन की पहली झलक थी।
यहीं हमने पहली बार रात के समय बोनफायर पर सबको गाना सुनाया -- आँखों में क्या जी , रुपहला बादल ( फ़िल्म नौ दो ग्यारह ) और झूमता मौसम मस्त महीना , चाँद से गोरी एक हसीना , आँख में काजल मुँह पे पसीना , याला याला दिल ले गई। गाने सुनकर बोनफायर की आग और तेज हो गई।
अगले दिन टोंस नदी के किनारे किनारे १५-१६ किलोमीटर का सफ़र घने जंगल से होकर था। दूसरा कैम्प लगा सीमा नाम के गांव में जहाँ एक दो झोंपड़ियां ही थी। अगले दिन का सफ़र सबसे लम्बा और कठिन था क्योंकि इसमें पहले उतराई और फिर चढ़ाई थी।
उतरकर हमने नदी पार की और पहुँच गए इस क्षेत्र के सबसे आखिरी गांव ओसला में, लेकिन यहाँ रुके नहीं। यहाँ जो लोग रहते हैं वे कौरवों के वंसज कहलाते हैं। इसलिए यहाँ कौरवों को पूजा जाता हैं। एक और विशेषता यह थी कि यहाँ अभी भी पॉलीएंड्री ( एक से अधिक पति ) का प्रचलन था।
ओसला के बाद चढ़ाई थोड़ी खड़ी हो जाती है। रास्ता भी कहीं कहीं संकरा है जिससे संभल कर चलना पड़ा। लेकिन फिर ट्रेक गेहूं के खेतों से होकर गुजरा जो एक अचंभित करने वाला नज़ारा था।
रास्ते में एक झरना आया तो फोटो सेशन होना स्वाभाविक था।
ऊँचाई पर पहुंचकर सब पस्त होने लगे थे। इसलिए बीच बीच में आराम करना अच्छा लग रहा था। ऐसे में गुजराती लोगों के देसी घी से बने स्नैक्स आदि खाने में बड़ा मज़ा आया।
यह नज़ारा नदी के पार घने जंगल का है जहाँ एक झरना बड़ा मन लुभा रहा था।
लेकिन जंगल इतना घना था कि वहाँ जाने की सोच भी नहीं सकते थे। वैसे भी यहाँ भालू होने की सम्भावना बहुत थी।
अंत में हम पहुँच ही गए हर की दून घाटी जहाँ बिल्कुल नदी के किनारे हमारा कैम्प लगा था। पहले रात तो सब थके हुए थे। इसलिए अगले दिन कैम्प से आगे जाने का कार्यक्रम था जहाँ बर्फ नज़र आ रही थी।
यह बर्फीला रास्ता आगे किन्नौर की ऒर जाता है।
बर्फ में मौज मस्ती के बीच कुछ घंटों की तफ़री। यहाँ ऊपर चढ़कर एक पॉलीथीन की रेल बनाकर फिसलते हुए नीचे आना बड़ा रोमांचल लगा।
दायीं और का नज़ारा जहाँ बर्फ से ढकी चोटियां दिखाई दे रही थी।
यहाँ एक के बाद एक पांच चोटियां दिखाई देती हैं जिन्हे स्वर्गरोहिणी कहते हैं। कहते हैं इन्ही चोटियों से होकर पांडव सशरीर स्वर्ग की ओर गए थे। इसीलिए इनका नाम स्वर्गरोहिणी पड़ा। यहाँ धुप में मौसम बहुत सुहाना था। लेकिन बादल आते ही एकदम ठण्ड हो जाती थी। रात में कल कल करती नदी के किनारे सोना बहुत रोमांचक था।
लेकिन आज सोचते हैं कि यदि कोई बादल फट जाता तो हम कहाँ जाकर रुकते , यह कहना मुश्किल है। आखिर पहाड़ों में मानव भगवान भरोसे ही होता है। फिर भी हर गर्मियों में यहाँ सैंकड़ों सैलानी पैदल चलकर प्रकृति की मनभावन सुंदरता का लाभ उठाते हैं।
आखिरी कैम्प में पूरा दल।
नोट : पहाड़ों में ट्रेकिंग पर जाने के लिए शारीरिक रूप से सक्षम होना बहुत आवश्यक है। इसके लिए आपको कम से कम दो सप्ताह पहले पैदल चलने का अभ्यास शुरू कर देना चाहिए ताकि आप पैदल चलने के अभ्यस्त हो जाएँ। साथ ही यह भी ध्यान रखें कि आपके पास ज़रुरत की सभी चीज़ें हों। खाने के लिए ड्राई फ्रूट्स आदि रखना समझदारी का काम है। सामान कम से कम रखें क्योंकि आप को ही उठाना है। जूते पुराने लेकिन मज़बूत होंने चाहिए।
अंत में यही कह सकते हैं कि ट्रेकिंग एक शारीरिक व्यायाम है जिससे तन थकता है लेकिन मन तरो ताज़ा हो जाता है।