लेह में दो दिन के स्थानीय आवास और विश्राम के बाद आप पूर्णतया स्वस्थ और अभ्यस्त हो जाते हैं। अगले दिन आप निकल पड़ते हैं दो दिन के नुब्रा वैली टूर पर। नुब्रा वैली लेह से करीब १४० किलोमीटर दूर है जहाँ विश्व की सबसे ऊंची वाहन योग्य सड़क द्वारा खरदुंगला पास से होकर पहुंचा जा सकता है। सुबह नाश्ते के बाद ९ बजे चलकर आप २ या ३ बजे तक आराम से नुब्रा पहुँच सकते हैं।
लेह से खररदुंगला पास की दूरी ३९ किलोमीटर है जो एक ही पहाड़ पर चलकर आता है। यहाँ तक का रास्ता आसान ही है , हालाँकि जगह जगह सड़क को चौड़ा करने का काम चल रहा था , लेकिन ड्राइव करने में कोई विशेष दिक्कत का सामना नहीं करना पड़ रहा था। हमारे साथ तो ड्राइवर था लेकिन बहुत से लोग अपनी गाड़ी द्वारा भी लेह घूमने आते हैं। फोटो में दूर लेह वैली नज़र आ रही है और पृष्ठभूमि में बर्फ से ढकी पहाड़ों की चोटियां जो कोणकरम पर्वतमाला है।
खरदुंगला पास से ठीक पहले ये पहाड़ दूर से ही नज़र आ रहे थे लेकिन पास से इनकी खूबसूरती और भी निखर आई।
पास के पार बर्फ और भी ज्यादा थी। ज़ाहिर है , यह बची खुची बर्फ ही थी जो अभी तक पिघली नहीं थी। सर्दियों में तो सारा ही पहाड़ बर्फ से ढका रहता है और बर्फ को काटकर रास्ता बनाना पड़ता है। यह काम सेना करती है।
खारदुंगला पास की ऊँचाई १८३८० फ़ीट है और यह विश्व का सबसे ऊंचा स्थान है जहाँ वाहन योग्य सड़क है। इस स्थान पर फोटो खिंचवाने के लिए लाइन में लगना पड़ता है। लेकिन निश्चित ही यह भी एक उपलब्धि ही लगती है।
बीच में सड़क और चारों ओर छोटी छोटी पहाड़ियां देखकर नहीं लगता कि हम इतनी ऊँचाई पर हैं जहाँ ठण्ड और ऑक्सीजन की मात्रा कम होने से कई लोगों को उल्टी आ जाती है। खरदुंगला पास की मन में कुछ ऐसी तस्वीर थी कि कोई बहुत संकरा सा बर्फ से ढका दुर्गम रास्ता होगा जिसे बड़ी मुश्किल से ही पार कर पाते होंगे। ऐसा इसलिए भी था क्योंकि अभी तक हमने रोहतांग पास ही देखा था जहाँ गर्मियों में भी बर्फ के बीच से संकरी सी सड़क से होकर जाना पड़ता है। लेकिन यहाँ ऐसा कुछ नहीं था , बल्कि लग ही नहीं रहा था कि हम इतनी ऊँचाई पर खड़े हैं। बस हवा की रफ़्तार कुछ ज्यादा थी जो चेहरे को चीरती हुई जा रही थी।
ठन्डे मौसम में सकूं देते हैं यहाँ बने कई ढाबे जहाँ गर्मागर्म चाय और कॉफी पीकर तन और मन को गरमाहट मिलती है। पास को पार करने पर ढलान शुरू हो जाती है।
पास के बाद सड़क बिलकुल नई बनाई गई थी और मक्खन मलाई जैसी लग रही थी। निरंतर ढलान के साथ यहां आपके साथ जलधारा भी बहने लगती है जो कि बर्फीले पहाड़ों से निरंतर पिघलती बर्फ से बनती है। कुछ दूर जाने पर खरदुंग गांव आता है जो इस दिशा में नुब्रा वैली का पहला गांव है। चारों ओर सूखे , नंगे , भूरे रंग के पहाड़ों के बीच में हरा भरा गांव देखकर मन प्रसन्न हो जाता है। गांव को पार करने के बाद जो पहाड़ दिखाई देते हैं उनको देखकर ऐसा लगता है जैसे किसी चित्रकार ने कैनवास पर खूबसूरत चित्रकारी की हो। यहाँ पहाड़ों पर पत्थर नज़र नहीं आते। ऐसा लगता है मानो सारा पहाड़ एक ही पत्थर से बना है। उनकी सतह भी एकदम साफ और चिकनी सी नज़र आती है। लेकिन पूरे पहाड़ पर सैंकड़ों हज़ारों नालियां सी नज़र आती हैं जिसे देखकर ऐसा लगता है जैसे किसी ने कुल्हाड़ी से काटकर बनाया हो। यह बर्फ के पिघलकर बहने के कारण होता है जो सदियों से होता चला आया होगा। पानी की काट ही ऐसी होती है कि पत्थर को भी काटकर आकार दे देती है।
खरदुंग गांव के बाद जल्दी ही आप पहुँच जाते हैं श्योक नदी के पास जिसके साथ साथ चलते हुए हम आ जाते हैं नुब्रा वैली के अंदर। यहाँ नदी के दो भाग हो जाते हैं। एक नदी नुब्रा कहलाती है और दूसरी श्योक नदी। अब हम श्योक नदी के साथ साथ आगे बढ़ते हुए अंतत : पहुँच जाते हैं दिस्कित गांव जहाँ हमारा कैम्प है।
दोनों नदियों के संगम के पास काफी चौड़ा पाट है जो रेतीला समतल स्थान है। यहाँ वापसी में हमने डेजर्ट स्कूटर चलाने का भी आनंद लिया। यहाँ दो गांव हैं , पहला दिस्कित और दूसरा करीब १० किलोमीटर दूर हुन्डर गांव। नुब्रा में रात में रुकने के लिए बहुत से कैम्प लगाए गए हैं जो ज्यादातर इन्ही दो गांवों में पड़ते हैं। इन कैम्पों में टेंट में रहने की सुविधा होती है जिसमे सभी आवशयक सुविधाएँ जुटाई गई हैं। नहाने के लिए गर्म पानी और टॉयलेट के साथ डबल बैड और बरामदा जिसमे बैठ कर आप प्रकृति को निहार सकते हैं। खाने के लिए डाइनिंग रूम जिसमे स्वादिष्ट बुफे आयोजित किया जाता है। यहाँ आपके आराम का पूरा ख्याल रखा जाता है।
कैम्प के चारों ओर के पहाड़ बहुत खूबसूरत दिखाई देते हैं और धूप छाँव का अद्भुत मिश्रण सुबह मन मोह लेता है। कैम्प को भी बड़े दिलचस्प अंदाज़ में बनाया सजाया गया है।
शाम के समय हुन्डर गांव में जाकर सूर्यास्त के समय ऊँट की सवारी बहुत दिलकश लगती है। यहाँ दो कूबड़ वाले ऊँट होते हैं जिनपर बैठना बड़ा आनंददायक लगता है।
ऊँट पर बैठकर ऊंटों का काफिला चल देता है सैंड ड्यून्स की ओर। २०० रूपये प्रति व्यक्ति के हिसाब से करीब १५ मिनट की डेजर्ट सफ़ारी कोई घाटे का सौदा नहीं है। लेकिन टोकन नंबर का कोई विशेष महत्त्व नहीं रहता , लोग बिना नंबर के भी घुस जाते हैं और यदि आपने ध्यान नहीं दिया तो आप खड़े ही रह जायेंगे और बाद में आने वाले आपसे पहले सवारी कर चुके होंगे। इसलिए अपने नंबर के लिए सतर्क रहना ज़रूरी है।
दिस्कित गांव अपने आप में एक छोटा सा शहर है। यहाँ दुकानें , पोस्ट ऑफिस , अस्पताल , विधालय, बिजली , पानी ,टेलिफ़ोन और इंटरनेट आदि सभी आम नागरिक सुविधाएँ हैं। सुदूर पहाड़ों में ये सभी सुविधाएँ देखकर आश्चर्यमिश्रित प्रसन्नता होती है। सुबह वापसी में हम जाते हैं गांव के पास ही एक पहाड़ी पर बने इस ५०० वर्ष गोम्पा को देखने जहाँ सैंकड़ों मोंक्स भी रहते हैं। यहाँ से घाटी का नज़ारा बेहद सुन्दर दिखाई देता है।
गोम्पा के साथ ही है ये मोनास्ट्री जो थिकसे मोनास्ट्री का ही भाग है।
ये चार पहियों वाला स्कूटर वास्तव में बड़ा मज़ेदार लगा। इसको चलाने के लिए बस एक लीवर है जिसे दबाते ही यह दौड़ने लगता है। उसी से स्पीड कंट्रोल कर सकते हैं और छोड़ने पर यह रुक जाता है। गाइड ने साथ बैठकर जो एक टीले से नीचे डाइव करवाया तो ऐसा लगा जैसे सैंकड़ों फ़ीट से नीचे कूद गए हों। एक तरह से यह रेगिस्तान का राफ्टिंग जैसा है।
नुब्रा से सुबह ९ बजे चलकर आप २ बजे तक लेह पहुँच जाते हैं। लंच के बाद आराम करने के बाद शाम को लेह बाजार के साथ ही बना लेह पैलेस पैदल ही पहुंचा जा सकता है , हालाँकि गाड़ी से जाने के लिए सड़क भी बनी है। लेह पैलेस लकड़ी और मिटटी से बना हुआ है और नौ मंज़िला है। यहाँ से एक ओर पूरा लेह शहर नज़र आता है।
वहीँ दूसरी ओर लेह घाटी और इसमें बने नए बहुमंज़िला होटल्स दिखाई देते हैं। यह क्षेत्र नया लेह है।
लेह पैलेस की आठवीं मंज़िल तक जाया जा सकता है। पीछे एक पहाड़ी पर बनी एक और मोनास्ट्री शाम के समय बहुत सुन्दर दृश्य प्रस्तुत करती है। सूरज ढलने के साथ ही हम नीचे उतर आते हैं बाजार की ओर , हालाँकि रास्ता बड़ा टेढ़ा मेढा और कई जगह संकरा भी है लेकिन पैदल के लिए सही है , बशर्ते कि आपके घुटने सही सलामत हैं।