वक्त बदल जाता है । हालात बदल जाते हैं। और कई बातें , कई रिवाजें वक्त की परतों के नीचे दब कर रह जाती हैं।
ऐसा ही है , होली मनाना । जी हाँ , होली अलग अलग राज्यों में अलग अलग तरीके से मनाई जाती है।
ब्रिज की होली को कौन नहीं जनता।
लेकिन हरयाणवी होली ! शायद आपको नहीं मालूम होगा की कैसे मनाई जाती थी हरियाणा में होली।
यह उन दिनों की बात है जब न मोबाइल थे , न गाड़ियाँ।
न कलर टीवी, न कंप्यूटर।
लेकिन होली तब भी खेली जाती थी।
बस हमने बचपन में कभी होली नहीं खेली।
सोच सकते हैं क्यों ?
क्योंकि उन दिनों हरियाणा और दिल्ली के गावों में बच्चे होली नहीं खेलते थे ।
हैं न अचरज में डालने वाली बात।
आइये आज आपको परिचित कराते हैं , हरियाणा में होली कैसे खेली जाती थी , सातवें और आठवें दशक में ।
* होली का खेल बसंत पंचमी के दिन से शुरू हो जाता था। यानि अगले ४० दिन तक होली खेलते थे । लेकिन सिर्फ बहुएं । घर की बहु अपने जेठों पर पानी डालती थी , जहाँ भी अवसर मिलता था । यह सिलसिला पूरे फागुन चलता था ।
* अगर घर में बटेऊ ( दामाद ) आ जाता था , तो उसकी तो श्यामत आ जाती थी।
*होलिका दहन वाले दिन सभी औरतें एकजुट होकर , गीत गाती हुई , विशेष रूप से बनाये गए गोबर के उपले और कंडे लेकर होली में डाल कर आती थी।
* दुलैन्ह्ड़ी वाले दिन असली होली होती थी। लेकिन यह सिर्फ देवर और भाभी के बीच खेली जाती थी।
एक मैदान या खाली पड़े खेत में सब लोग इकट्ठा होते थे । मोहल्ले के सभी लड़के पानी की बाल्टी लेकर तैयार , और बहुएं ( भाभियाँ ) दूसरी तरफ कोल्ह्ड़े लेकर तैयार ।
देवर भाभी पर पानी डालने की कोशिश करता और भाभी उसे कोल्ह्ड़ा मारने की कोशिश करती । इस तरह भाग दोड वाला खेल होता था , जिसमे देवरों की पिटाई खूब होती थी।
* बाकि सब लोग बस दूर खड़े तमाशा ही देखते थे ।
* उन दिनों गुलाल कोई नहीं जनता था ।
* एक और विशेषता : होली पर पटाखे छुडाये जाते थे , दिवाली पर नहीं ।
शुक्र है हम बड़े हुए , गाँव से बाहर निकले और हमने होली मनाना सीखा --रंग और गुलाल से ।
तो बताइये कैसी लगी आपको यह जानकारी।
Saturday, February 27, 2010
Friday, February 26, 2010
जाने कहाँ खो गई खुशबू गुलाबों की ---
आज सारा देश लुप्त होते जा रहे बाघों के लिए चिंतित है। होना भी चाहिए । आखिर वन्य जीवन हमारी धरोहर है।
लेकिन हम इसे अपने ही हाथों नष्ट किये जा रहे हैं। इंसान की लालच की प्रवर्ति इतनी बढ़ गई है की वह इस बेशकीमती खजाने को मिटाने पर तुला है।
अब ज़रा इस तस्वीर को देखिये ।
कितने खूबसूरत है ना ये फूल। फूल होते ही हैं ऐसे की देखकर मन गद गद हो जाये।
फूलों का योगदान भी देखिये कितना है हमारे जीवन में । हर अवसर पर प्रयोग में आते हैं फूल।
पुष्प की अभिलाषा ---यह कविता बचपन में पढ़ी थी । कितनी सार्थक है।
एक ज़माना था जब दिल्ली के चांदनी चौक में जैन मंदिर के आगे से जाते हुए स्वर्ग का अहसास होता था । क्योंकि वहां बनी दसियों फूलों की दुकानों से इतनी गज़ब की खुशबू वातावरण में फैली रहती थी की बस मज़ा आ जाता था।
लेकिन आज यह देखकर बड़ा दुःख होता है की अब फूलों में सिर्फ रंग रह गए हैं । खुशबू न जाने कहाँ गायब हो गई है।
न गेंदे में , न गुलाबों में ही खुशबू आती है।
विकास की ये कैसी इंतहा हो गई
जाने कहाँ खो गई खुशबू गुलाबों की।
क्या आपको भी कभी ऐसा लगा है , फूलों को देखकर ?
लेकिन हम इसे अपने ही हाथों नष्ट किये जा रहे हैं। इंसान की लालच की प्रवर्ति इतनी बढ़ गई है की वह इस बेशकीमती खजाने को मिटाने पर तुला है।
अब ज़रा इस तस्वीर को देखिये ।
कितने खूबसूरत है ना ये फूल। फूल होते ही हैं ऐसे की देखकर मन गद गद हो जाये।
फूलों का योगदान भी देखिये कितना है हमारे जीवन में । हर अवसर पर प्रयोग में आते हैं फूल।
पुष्प की अभिलाषा ---यह कविता बचपन में पढ़ी थी । कितनी सार्थक है।
एक ज़माना था जब दिल्ली के चांदनी चौक में जैन मंदिर के आगे से जाते हुए स्वर्ग का अहसास होता था । क्योंकि वहां बनी दसियों फूलों की दुकानों से इतनी गज़ब की खुशबू वातावरण में फैली रहती थी की बस मज़ा आ जाता था।
लेकिन आज यह देखकर बड़ा दुःख होता है की अब फूलों में सिर्फ रंग रह गए हैं । खुशबू न जाने कहाँ गायब हो गई है।
न गेंदे में , न गुलाबों में ही खुशबू आती है।
विकास की ये कैसी इंतहा हो गई
जाने कहाँ खो गई खुशबू गुलाबों की।
क्या आपको भी कभी ऐसा लगा है , फूलों को देखकर ?
क्या इसमें भी इंसान का हाथ है ?
क्या लौट पायेगी गुलाबों की खुशबू ?
आप ही दे सकते हैं इसका ज़वाब ।
Wednesday, February 24, 2010
क्या आप चाय के रूप में ज़हर पी रहे हैं ?
क्या आप चाय पीते हैं ? --ज़रूर पीते होंगे ।
क्या आप ट्रेन में सफ़र करते हैं ? --कभी कभी तो करते ही होंगे ।
क्या आप ट्रेन में सफ़र करते हुए , प्लेटफार्म की चाय पीते हैं ? --सम्भावना हैं ज़रूर पीते होंगे ।
बेहतर है --मत पीजिये । क्योंकि पता नहीं चाय के रूप में आप ज़हर पी रहे हों।
यह मैं नहीं , टी वी वाले कह रहे हैं।
कल टी वी पर न्यूज देखते हुए एक न्यूज आइटम देखने को मिला जिसमे एक लड़के को नकली दूध से चाय बनाते हुए दिखाया गया था ।
सच मानिये , ये नज़ारा देखकर आपके पैरों तले से ज़मीन खिसक जाएगी।
मूंह पर कपडा बांधकर मूंह छुपाकर चाय वाला दिखा रहा था नकली चाय बनाना।
मात्र ८ रूपये में मिलने वाली एक सफ़ेद पेंट की डिबिया --- इस पेंट को २० लीटर पानी में घोला --इसे पतीले में डाल स्टोव पर चढ़ा दिया ---उबाल आने पर चीनी और ढेर सारी इलाइची डाली --और बन गई खुशबूदार चाय।
अब --चाय --बढ़िया चाय --चाय लेलो --सुनकर आपको लगेगा की एक रुपया सस्ती इतने दूध वाली खुशबूदार चाय पीकर मज़ा आ जायेगा।
लेकिन सोचिये इस चाय को पीकर आपको क्या हानि हो सकती है।
तो भई , अब अगली बार आप ट्रेन में सफ़र करें तो सावधान ! प्लेटफार्म की खुली चाय न ही पीयें तो अच्छा है।
डिस्क्लेमर : यह रिपोर्ट टी वी न्यूज देख कर लिखी गई है । इसकी सत्यता और सार्थकता के बारे में हमारी कोई जिम्मेदारी नहीं है।
वैसे यह समझ में नहीं आया की चाय वाला टी वी कैमरे के सामने नकली चाय बनाने के लिए तैयार कैसे हो गया !
अब यह सच्चाई तो टी वी चैनल्स में काम करने वाले ही बता सकते हैं।
क्या आप ट्रेन में सफ़र करते हैं ? --कभी कभी तो करते ही होंगे ।
क्या आप ट्रेन में सफ़र करते हुए , प्लेटफार्म की चाय पीते हैं ? --सम्भावना हैं ज़रूर पीते होंगे ।
बेहतर है --मत पीजिये । क्योंकि पता नहीं चाय के रूप में आप ज़हर पी रहे हों।
यह मैं नहीं , टी वी वाले कह रहे हैं।
कल टी वी पर न्यूज देखते हुए एक न्यूज आइटम देखने को मिला जिसमे एक लड़के को नकली दूध से चाय बनाते हुए दिखाया गया था ।
सच मानिये , ये नज़ारा देखकर आपके पैरों तले से ज़मीन खिसक जाएगी।
मूंह पर कपडा बांधकर मूंह छुपाकर चाय वाला दिखा रहा था नकली चाय बनाना।
मात्र ८ रूपये में मिलने वाली एक सफ़ेद पेंट की डिबिया --- इस पेंट को २० लीटर पानी में घोला --इसे पतीले में डाल स्टोव पर चढ़ा दिया ---उबाल आने पर चीनी और ढेर सारी इलाइची डाली --और बन गई खुशबूदार चाय।
अब --चाय --बढ़िया चाय --चाय लेलो --सुनकर आपको लगेगा की एक रुपया सस्ती इतने दूध वाली खुशबूदार चाय पीकर मज़ा आ जायेगा।
लेकिन सोचिये इस चाय को पीकर आपको क्या हानि हो सकती है।
तो भई , अब अगली बार आप ट्रेन में सफ़र करें तो सावधान ! प्लेटफार्म की खुली चाय न ही पीयें तो अच्छा है।
डिस्क्लेमर : यह रिपोर्ट टी वी न्यूज देख कर लिखी गई है । इसकी सत्यता और सार्थकता के बारे में हमारी कोई जिम्मेदारी नहीं है।
वैसे यह समझ में नहीं आया की चाय वाला टी वी कैमरे के सामने नकली चाय बनाने के लिए तैयार कैसे हो गया !
अब यह सच्चाई तो टी वी चैनल्स में काम करने वाले ही बता सकते हैं।
Monday, February 22, 2010
दिल्ली के गार्डन ऑफ़ फाइव सेंसिज में, आनंद लीजिये गार्डन टूरिस्म फेस्टिवल का ---
दिल्ली में डेढ़ महीने की सर्दी के बाद कुछ दिनों से मौसम बदल सा गया है। हवा में ठंडक कम और उष्मा बढ़ने लगी है। नर्म सुहानी धूप खिली है। बसंत ऋतू अपने पूरे जोबन पर आ चुकी है। हवाओं में फूलों की भीनी भीनी खुशबू छा गई है। ऐसे में दिली वाले घर कहाँ बैठे रह सकते हैं।
दिल्ली में महरौली बदरपुर रोड पर साकेत के करीब बना है , गार्डन ऑफ़ फाइव सेंसिज। दिल्ली टूरिज्म ने यहाँ १९-२१ फरवरी तक गार्डन टूरिज्म फेस्टिवल का आयोजन किया था । क्योंकि यही एक पार्क है जो हमने अभी तक नहीं देखा था , इसलिए शनिवार को हम पहुँच गए इस फूलों के मेले में।
ढूढने में कुछ समय लगा। ऍम बी रोड से गार्डन तक की रोड कच्ची सी थी , मेट्रो का काम चल रहा था । पार्क के सामने भी उमड़ पड़ी भीड़ के लिए इतनी पार्किंग नहीं थी। इसलिए गाँव की कच्ची जमीन में पार्किंग बना रखी थी।
बड़ी बड़ी गाड़ियों वाले दिल्ली के रईसजादों की नाक भों सिकुड़ रही थी , क्योंकि अपने प्यारे देश की सोंधी मिटटी की टनों धूल गाड़ियों और साड़ियों से लिपटी जा रही थी।
लेकिन द्वार से प्रवेश करते ही सारी थकान और परेशानी उड़न छू हो गई।
कैसे --- आप भी देखिये ---
प्रवेश द्वार के अन्दर ।
फूलों से बनी हैंगिंग बास्केट ---
ये फूल इतने बड़े थे की इनकी रक्षा के लिए बड़ी बड़ी मूछों वाला गार्ड खड़ा करना पड़ा।
यह गमलों का समूह बहुत खूबसूरत दिख रहा था ।
यहाँ तो ढेरों ढेर बने हुए थे ।
पंक्ति में देखिये ।
ये गेंदे के फूल बहुत दिनों बाद दिखाई दिए । और इनमे खुशबू भी थी।
इस फ्लोरल अरेजमेंट में क्या दिख रहा है , ये तो आपको पता चल ही गया होगा।
ये बोनसई , कितना बड़ा --कितना छोटा ।
एक पुष्प ऐसा भी ।
मेले में घूमता नज़र आया ---चार्ली चैपलिन ---राजू चैपलिन , एक आर्टिस्ट।
और ये राजस्थानी डांसर्स , लोगों को दखते ही ठुमके लगाना शुरू कर देते थे।
स्टेज पर रंगारंग कार्यक्रम ---ये मयूर नृत्य वास्तव में बड़ा मनभावन था ।
अंत में , ये हरियाणवी लोक नृत्य ---मेरा दामण सिला दे हो , ओ नन्दी के बीरा ---इस लोक गीत के साथ --सबसे ज्यादा आकर्षण का केंद्र रहा।
गार्डन ऑफ़ फाइव सेंसिज की एक और छवि देखने के लिए --विजिट कीजिये --चित्रकथा पर।
नोट : कभी फूलों को देखिये , देखते रहिये ---एक मेडिटेशन सा होने लगता है।
दिल्ली में महरौली बदरपुर रोड पर साकेत के करीब बना है , गार्डन ऑफ़ फाइव सेंसिज। दिल्ली टूरिज्म ने यहाँ १९-२१ फरवरी तक गार्डन टूरिज्म फेस्टिवल का आयोजन किया था । क्योंकि यही एक पार्क है जो हमने अभी तक नहीं देखा था , इसलिए शनिवार को हम पहुँच गए इस फूलों के मेले में।
ढूढने में कुछ समय लगा। ऍम बी रोड से गार्डन तक की रोड कच्ची सी थी , मेट्रो का काम चल रहा था । पार्क के सामने भी उमड़ पड़ी भीड़ के लिए इतनी पार्किंग नहीं थी। इसलिए गाँव की कच्ची जमीन में पार्किंग बना रखी थी।
बड़ी बड़ी गाड़ियों वाले दिल्ली के रईसजादों की नाक भों सिकुड़ रही थी , क्योंकि अपने प्यारे देश की सोंधी मिटटी की टनों धूल गाड़ियों और साड़ियों से लिपटी जा रही थी।
लेकिन द्वार से प्रवेश करते ही सारी थकान और परेशानी उड़न छू हो गई।
कैसे --- आप भी देखिये ---
प्रवेश द्वार के अन्दर ।
फूलों से बनी हैंगिंग बास्केट ---
ये फूल इतने बड़े थे की इनकी रक्षा के लिए बड़ी बड़ी मूछों वाला गार्ड खड़ा करना पड़ा।
यह गमलों का समूह बहुत खूबसूरत दिख रहा था ।
यहाँ तो ढेरों ढेर बने हुए थे ।
पंक्ति में देखिये ।
ये गेंदे के फूल बहुत दिनों बाद दिखाई दिए । और इनमे खुशबू भी थी।
इस फ्लोरल अरेजमेंट में क्या दिख रहा है , ये तो आपको पता चल ही गया होगा।
ये बोनसई , कितना बड़ा --कितना छोटा ।
एक पुष्प ऐसा भी ।
मेले में घूमता नज़र आया ---चार्ली चैपलिन ---राजू चैपलिन , एक आर्टिस्ट।
और ये राजस्थानी डांसर्स , लोगों को दखते ही ठुमके लगाना शुरू कर देते थे।
स्टेज पर रंगारंग कार्यक्रम ---ये मयूर नृत्य वास्तव में बड़ा मनभावन था ।
अंत में , ये हरियाणवी लोक नृत्य ---मेरा दामण सिला दे हो , ओ नन्दी के बीरा ---इस लोक गीत के साथ --सबसे ज्यादा आकर्षण का केंद्र रहा।
गार्डन ऑफ़ फाइव सेंसिज की एक और छवि देखने के लिए --विजिट कीजिये --चित्रकथा पर।
नोट : कभी फूलों को देखिये , देखते रहिये ---एक मेडिटेशन सा होने लगता है।
Friday, February 19, 2010
अब आप ही बताइये की ये विश्वास है या अंध विश्वास !
आज खुशदीप सहगल की पोस्ट पढ़कर मुझसे रहा नहीं गया और आज पोस्ट न लिखने का दिन होते हुए भी ये पोस्ट डाल रहा हूँ।
हमारा देश एक धार्मिक देश है जहाँ विभिन्न धर्मों को मानने वाले लोग मिलकर रहते हैं।जहाँ भी देखो मंदिर, मस्जिद , गुरद्वारे और गिरिजा घर दिखाई दते हैं। यहाँ तक तो सब ठीक है।
लेकिन यह भी सच है की हम चमत्कारों में बहुत विश्वास रखते हैं। यहाँ तक की बीमारी में भी यदि ठीक नहीं हो रहे तो झाड फूंस, टूणा टोटका , तंत्र मन्त्र में फंसकर अपना नुक्सान करा लेते हैं।
यहाँ तो अभी भी दिल्ली जैसे बड़े शहर में भी ऐसे चमत्कारी डॉक्टर मिल जायेंगे जो मात्र ५१ रूपये में आपकी जिंदगी के सारे कष्ट दूर कर देंगे।
अब आइये आपको दिखाते हैं ऐसे उदाहरण जिससे आपको यकीन हो जायेगा की चमत्कार नाम की कोई चीज़ नहीं होती।
१) करीब १५ साल पुरानी बात है --दिल्ली के पुरानी सब्जी मंडी क्षेत्र में एक मानसिक तौर पर विछिप्त युवक रहता था। वो अक्सर घर छोड़कर निकल जाता और कई दिनों बाद लौट आता। एक बार ऐसा गया की वापस ही नहीं आया। एक दिन आई टी ओ के पास एक युवक की लाश मिली पुलिस को, जिसे उसने उसी युवक के रूप में पहचाना। जब घर वालों को बुलाया तो उन्होंने भी शिनाख्त कर दी। अंतिम संस्कार हो गया।
इतेफाक देखिये , अभी लौटे ही थे की ज़नाब घूमते हुए घर पहुँच गए । अब क्या था , सारे मोहल्ले में खबर फ़ैल गई की चमत्कार हो गया, बंदा जिन्दा हो गया।
खबर फैलते ही सारे मोहल्ले की औरतें पूजा की थाली लेकर घर के आगे लाइन लगाकर खड़ी हो गई, भगवान के अवतार की आरती उतारने के लिए। आखिर पुलिस को बुलाना पड़ा , कंट्रोल करने के लिए।
बाद में पता चला की जिस आदमी का दाह संस्कार कर दिया गया था , वो कोई और था।
२) कुछ साल पहले खबर फ़ैल गई की मुंबई में समुद्र का खारा पानी मीठा हो गया। ये खबर मिलते ही मुंबई की सारी जनता जुहू बीच पर पहुँच गई , पूजा करने के लिए ताकि जितना पुण्य बटोरा जा सके बटोर लिया जाये।
बाद में पता चला की भारी बारिस का पानी समुद्र में मिलने से किनारे का पानी नमकीन की बजाय मीठा लगने लगा था।
३)भारी बारिस के बाद कोल्कता के कई भवनों की दीवारों पर लोगों को साईं बाबा की मूर्ती दिखाई देने लगी।सफेदी वाली दीवारों पर बारिस के बाद किसी की भी शक्ल बन सकती है।
४) दिल्ली में दूध पीने वाले गणेश जी के बारे में तो आज सारी दुनिया जानती है। लाखों लीटर दूध नालियों में बहाकर जाने हमने क्या हासिल कर लिया था हमने ।
५) बड़ोदरा में एक फैस्टिवल में हजारों किलो देसी घी सड़क पर बहाया गया। यह मैंने टीवी पर देखा था।
अब भला इतना महंगा खाने का सामान सड़क पर बहाने से क्या पुण्य मिल सकता है , अपनी तो सोच से बाहर है।
यहाँ बताये गए सभी उदाहरण अख़बारों और टीवी पर दिखाए गए थे।
अब आप ही बताइये की ये विश्वास है या अंध विश्वास !
५) बड़ोदरा में एक फैस्टिवल में हजारों किलो देसी घी सड़क पर बहाया गया। यह मैंने टीवी पर देखा था।
अब भला इतना महंगा खाने का सामान सड़क पर बहाने से क्या पुण्य मिल सकता है , अपनी तो सोच से बाहर है।
यहाँ बताये गए सभी उदाहरण अख़बारों और टीवी पर दिखाए गए थे।
अब आप ही बताइये की ये विश्वास है या अंध विश्वास !
Thursday, February 18, 2010
कौन अधिक सुखी ---आदि मानव या आधुनिक मानव ?
आदि मानव रहता था ---हरे भरे घने जंगलों में ।
जहाँ था, नीला आसमान ,स्वच्छ वायु, स्वच्छ शीतल नीर के झरने व नदियाँ , हरी भरी वादियाँ , शांत वातावरण ।
कोई भाग दोड़ नहीं , कोई चिंता नहीं, जो मिल गया -खा लिया , भले ही कंद मूल ही सही ।
आधुनिक मानव रहता है ---कंक्रीट के जंगलों में ।
जहाँ प्रदूषित वायु , वाहनों का शोर , पानी की कमी, आसमान या तो दिखाई नहीं देता या दूषित मटमैला, नष्ट होता पर्यावरण ।
उस पर भ्रष्टाचार का बोल बाला, तामसी प्रवर्ति के लोग, तनाव से ग्रस्त , एक दूसरे का गला काटने को तैयार।
खाने को मिलावटी सामान , यहाँ तक की फल और सब्जियां भी ।
घोर कलियुग ।
कौन अधिक सुखी रहा ---आदि मानव या आधुनिक मानव ?
जहाँ था, नीला आसमान ,स्वच्छ वायु, स्वच्छ शीतल नीर के झरने व नदियाँ , हरी भरी वादियाँ , शांत वातावरण ।
कोई भाग दोड़ नहीं , कोई चिंता नहीं, जो मिल गया -खा लिया , भले ही कंद मूल ही सही ।
आधुनिक मानव रहता है ---कंक्रीट के जंगलों में ।
जहाँ प्रदूषित वायु , वाहनों का शोर , पानी की कमी, आसमान या तो दिखाई नहीं देता या दूषित मटमैला, नष्ट होता पर्यावरण ।
उस पर भ्रष्टाचार का बोल बाला, तामसी प्रवर्ति के लोग, तनाव से ग्रस्त , एक दूसरे का गला काटने को तैयार।
खाने को मिलावटी सामान , यहाँ तक की फल और सब्जियां भी ।
घोर कलियुग ।
कौन अधिक सुखी रहा ---आदि मानव या आधुनिक मानव ?
Saturday, February 13, 2010
वो वैलेंटाइन डे कब आएगा---? एक सोच ---
आज वैलेंटाइन डे पर दो रचनाएँ --पसंद आपकी।
गत वर्ष इसी दिन :
अपनी काम वाली बाई ,
जब दस बजे तक न आई।
तो मैडम को गुस्सा आया,
उसका मोबाईल मिलाया।
वो बोली ,
बीबी जी , हम तो आज
वैलंटाइन डे मना रहे हैं।
हमारे पतिदेव हमें
एक रोमांटिक फ़िल्म दिखा रहे हैं।
स्ल्म्दौग करोडपति ---
पत्नि बोली, तुम्हे उसमे
रोमांस नजर आता है?
वो बोली नही,
चांस नजर आता है।
करोड़पति बनने का,
मालूम है नही बनने का,
पर ख्वाब देखने में क्या जाता है।
और इस तरह कामवाली तो
सिनेमा घर में बैठी ,
वैलंटाइन डे मनाती रही ,
और घरवाली बेचारी घर में
झाडू पोछा लगाती रही।
जय हो।
इस वर्ष :
अपना फ़र्ज़ , अपनी संस्कृति को क्यों छोड़े जाते हो,
वैलेंटाइन तो याद है, पर खून के रिश्तों को तोड़े जाते हो!
क्यों भूल गए न ,
भूल गए न उस जननी को,
सर्व कष्ट हरनी को,
जो हर नाजों नखरे उठाती है,
राजा कह कर बुलाती है ,
फ़िर बेटा चाहे जैसा हो।
क्यों भूल गए न ,
क्यों भूल गए उसको ,
जीवन के पतझड़ में?
और भूल गए न ,
भूल गए न ,
कलाई पर बहन की राखी का नर्म अहसास ,
भूल गए भाई भाई के खून के रिश्ते की मिठास,
मैली हुई गंगा मैया और मैले पवन के झोंके,
फ़िर भी आप खुश हैं ,
अरे वैलेंटाइन तो हैं
मात- पिता और भाई बहन का प्यार ,
और वैलेंटाइन हैं ये पाँच तत्व ,
गत वर्ष इसी दिन :
अपनी काम वाली बाई ,
जब दस बजे तक न आई।
तो मैडम को गुस्सा आया,
उसका मोबाईल मिलाया।
वो बोली ,
बीबी जी , हम तो आज
वैलंटाइन डे मना रहे हैं।
हमारे पतिदेव हमें
एक रोमांटिक फ़िल्म दिखा रहे हैं।
स्ल्म्दौग करोडपति ---
पत्नि बोली, तुम्हे उसमे
रोमांस नजर आता है?
वो बोली नही,
चांस नजर आता है।
करोड़पति बनने का,
मालूम है नही बनने का,
पर ख्वाब देखने में क्या जाता है।
और इस तरह कामवाली तो
सिनेमा घर में बैठी ,
वैलंटाइन डे मनाती रही ,
और घरवाली बेचारी घर में
झाडू पोछा लगाती रही।
जय हो।
इस वर्ष :
वो वैलेंटाइन डे कब आएगा---?
ये कैसी भेड चाल है, ये कैसा भ्रम जाल?
क्यों अपनी चाल को भूल कर , हंस चला कौव्वे की चाल।अपना फ़र्ज़ , अपनी संस्कृति को क्यों छोड़े जाते हो,
वैलेंटाइन तो याद है, पर खून के रिश्तों को तोड़े जाते हो!
भूल गए न उस जननी को,
सर्व कष्ट हरनी को,
जो हर नाजों नखरे उठाती है,
राजा कह कर बुलाती है ,
फ़िर बेटा चाहे जैसा हो।
दो प्यार के मीठे बोल ,
और दो पल अपनों का साथ ,
ग़र उसे भी मिले तो कैसा हो!
क्यों भूल गए न ,
भूल गए न उसको जो जन्म दाता है ,
पूरे परिवार का बोझ उठाता है !
ख़ुद एक कोट में जीवन काटे ,
पर आपको ब्रांडेड वस्त्र दिलवाता है।
ख़ुद झेले डी टी सी के झटके ,
पर आपको नैनो के सपने दिखलाता है।
फ़िर अपनी नई वैलेंटाइन की अकड़ में ,क्यों भूल गए उसको ,
जीवन के पतझड़ में?
और भूल गए न ,
भूल गए न ,
कलाई पर बहन की राखी का नर्म अहसास ,
भूल गए भाई भाई के खून के रिश्ते की मिठास,
और भूल गए धरती माँ, वो सूर्य , वो आकाश ,
और मैला कर दिया न गंगा मैया को।मैली हुई गंगा मैया और मैले पवन के झोंके,
फ़िर भी आप खुश हैं ,
अपनी नई वैलेंटाइन के साथ होके !
अरे वैलेंटाइन तो हैं
मात- पिता और भाई बहन का प्यार ,
और वैलेंटाइन हैं ये पाँच तत्व ,
जो हैं जीवन के मूल आधार ।
पर वो वैलेंटाइन डे कब आएगा ,
जब मानव को इन सबसे होगा प्यार?
वो वैलेंटाइन डे कब आएगा---?
Wednesday, February 10, 2010
क्या इतने सारे इत्तेफाक होना भी एक इत्तेफाक है ?
यह भी एक इत्तेफाक है की बहुत पहले , शायद तब हम नए नए डॉक्टर बने थे , हमने स्वर्गीय काका हाथरसी को सुना और उनकी हास्य कविताओं के दीवाने हो गए ।
बरसों बाद २००७ में दिल्ली हंसोड़ दंगल में कविराज अशोक चक्रधर का सामना हुआ, ज़ज़ के रूप में । इत्तेफाक।
फिर २००८ में फिर एक बार अशोक जी के ही प्रोग्राम ---नव कवियों की कुश्ती ---के दंगल में उतर कर कुश्ती जीतने का इत्तेफाक।
एक जनवरी २००९ में मैंने अपना ब्लॉग बनाया । इत्तेफाक देखिये , यह भी श्री अशोक चक्रधर जी के आह्वान पर ।
अशोक जी द्वारा आयोजित जयजयवंती मासिक काव्य गोष्ठी में श्री अविनाश वाचस्पति जी का ब्लॉग पाठ किया जा रहा था । अशोक जी ने सभी से हिंदी ब्लॉग बनाने का अनुरोध किया , और हमने भी साहस कर एक ब्लॉग बना डाला।
क्या इतने सारे इत्तेफाक होना भी एक इत्तेफाक था ?
पता नहीं , पर यह पोस्ट समर्पित है , अशोक चक्रधर जी को , जिनके इत्तेफाक से मिले मार्गदर्शन में हम आज यहाँ तक पहुंचे हैं।
आइये आपको अपने कुछ संस्मरण सुनाते हैं ।
द्रश्य I
एक दिन मेरे पास एक फोन आया ---हम दिल्ली आज तक से बोल रहे हैं। क्या आपने हमारे प्रोग्राम में ऑडिशन दिया था ?
मैंने डरते डरते कहा --हाँ, भई दिया तो था । कोई गलती हुई क्या?
नहीं नहीं , हमने तो ये बताने के लिए फोन किया है की आपको फाइनल्स के लिए सलेक्ट कर लिया गया है।
मैंने कहा --कमाल है , सीधे फाइनल्स में ! अच्छा फाइनल्स का ऑडिशन अलग से होगा?
वो बोला --नहीं सर आप समझे नहीं । आपको ऑडिशन के लिए नहीं , ऑडियंस के लिए सलेक्ट किया गया है ।
मैंने कहा , अरे भाई तो ये कहो न की फ्री में तालियाँ बजाने के लिए बुला रहे हो।
खैर, पहले हमने दूसरों के लिए तालियाँ बजाई ,फिर अगली बार दूसरों ने हमारे लिए बजाई।
द्रश्य II :
शूटिंग के लिए स्टूडियो में --किसी तरह भागते दोड़ते स्टूडियो पहुंचे --जाते ही किसी ने पकड़ लिया ---सर आप मेकप कराना चाहेंगे ?
मैंने कहा --भाई आज तक तो किया नहीं , लेकिन अगर आपको चेहरे में कोई दिफेक्ट्स नज़र आ रहे हों तो
ले चलो। खैर एक छोटे से कमरे में ---इधर उधर दो तीन ब्रश --और हो गया मेकप।
बाद में हमने देखा हमसे ज्यादा मेकप तो ऑडियंस ने कर रखा था ।
स्टूडियो में :
पहला सवाल : सर आपका नाम ?
डॉ टी एस दराल ।
सर ये दराल तो हमने सुना नहीं , टी एस से क्या बनता है , यही बता दीजिये ।
मैंने कहा भाई, अगर जानना इतना ही ज़रूरी है तो आप इण्डिया गेट जाइए , अमर ज़वान ज्योति पर फूल मालाएं चढ़ाइये , और इण्डिया गेट के दक्षिण में खड़े होकर दीवार पर लिखे शहीदों के नाम पढ़िए । दायें किनारे की ओर सबसे नीचे हमारा नाम लिखा है , आपको पता चल जायेगा।
सुनते सुनते उसका सांस फूल गया , और बोला --सर मुझे नहीं पता था इतनी मेहनत करनी पड़ेगी , छोडिये हम टी एस दराल से ही काम चला लेते हैं।
इण्डिया गेट
दूसरा सवाल : सर आपका निवास स्थान कहाँ है ?
मैंने कहा , भैया शुद्ध हिंदी में पूछ रहे हो तो सुनो---मेरा निवास स्थान है ---पप्गिप एक्सटेंशन।
सर ये कैसा नाम है, ये तो हमने कभी सुना ही नहीं।
मैंने कहा, भैया सुना तो मैंने भी नहीं, बस पढ़ा ही है ।
जी समझा नहीं , क्या मतलब ?
मैंने कहा --अरे भाई , ये इंग्लिश के शोर्ट फॉर्म का हिंदी अनुवाद है , जो ऍम टी एन एल के टेलीफोन बिल पर लिखा रहता है,---- पप्गिप एक्सटेंशन डी एल आई ९२ ।
वो बेचारा इतना कन्फ्यूज्ड हुआ , उसने आगे कुछ पूछा ही नहीं।
अब आपके लिए दो सवाल छोड़ रहे हैं।
पहला : हमारा पूरा नाम ?
दूसरा : निवास स्थान आपको बताना है। यानि पप्गिप से क्या बनता है ?
हिंट इसी पोस्ट में है।
बरसों बाद २००७ में दिल्ली हंसोड़ दंगल में कविराज अशोक चक्रधर का सामना हुआ, ज़ज़ के रूप में । इत्तेफाक।
फिर २००८ में फिर एक बार अशोक जी के ही प्रोग्राम ---नव कवियों की कुश्ती ---के दंगल में उतर कर कुश्ती जीतने का इत्तेफाक।
एक जनवरी २००९ में मैंने अपना ब्लॉग बनाया । इत्तेफाक देखिये , यह भी श्री अशोक चक्रधर जी के आह्वान पर ।
अशोक जी द्वारा आयोजित जयजयवंती मासिक काव्य गोष्ठी में श्री अविनाश वाचस्पति जी का ब्लॉग पाठ किया जा रहा था । अशोक जी ने सभी से हिंदी ब्लॉग बनाने का अनुरोध किया , और हमने भी साहस कर एक ब्लॉग बना डाला।
क्या इतने सारे इत्तेफाक होना भी एक इत्तेफाक था ?
पता नहीं , पर यह पोस्ट समर्पित है , अशोक चक्रधर जी को , जिनके इत्तेफाक से मिले मार्गदर्शन में हम आज यहाँ तक पहुंचे हैं।
आइये आपको अपने कुछ संस्मरण सुनाते हैं ।
द्रश्य I
एक दिन मेरे पास एक फोन आया ---हम दिल्ली आज तक से बोल रहे हैं। क्या आपने हमारे प्रोग्राम में ऑडिशन दिया था ?
मैंने डरते डरते कहा --हाँ, भई दिया तो था । कोई गलती हुई क्या?
नहीं नहीं , हमने तो ये बताने के लिए फोन किया है की आपको फाइनल्स के लिए सलेक्ट कर लिया गया है।
मैंने कहा --कमाल है , सीधे फाइनल्स में ! अच्छा फाइनल्स का ऑडिशन अलग से होगा?
वो बोला --नहीं सर आप समझे नहीं । आपको ऑडिशन के लिए नहीं , ऑडियंस के लिए सलेक्ट किया गया है ।
मैंने कहा , अरे भाई तो ये कहो न की फ्री में तालियाँ बजाने के लिए बुला रहे हो।
खैर, पहले हमने दूसरों के लिए तालियाँ बजाई ,फिर अगली बार दूसरों ने हमारे लिए बजाई।
द्रश्य II :
शूटिंग के लिए स्टूडियो में --किसी तरह भागते दोड़ते स्टूडियो पहुंचे --जाते ही किसी ने पकड़ लिया ---सर आप मेकप कराना चाहेंगे ?
मैंने कहा --भाई आज तक तो किया नहीं , लेकिन अगर आपको चेहरे में कोई दिफेक्ट्स नज़र आ रहे हों तो
ले चलो। खैर एक छोटे से कमरे में ---इधर उधर दो तीन ब्रश --और हो गया मेकप।
बाद में हमने देखा हमसे ज्यादा मेकप तो ऑडियंस ने कर रखा था ।
स्टूडियो में :
पहला सवाल : सर आपका नाम ?
डॉ टी एस दराल ।
सर ये दराल तो हमने सुना नहीं , टी एस से क्या बनता है , यही बता दीजिये ।
मैंने कहा भाई, अगर जानना इतना ही ज़रूरी है तो आप इण्डिया गेट जाइए , अमर ज़वान ज्योति पर फूल मालाएं चढ़ाइये , और इण्डिया गेट के दक्षिण में खड़े होकर दीवार पर लिखे शहीदों के नाम पढ़िए । दायें किनारे की ओर सबसे नीचे हमारा नाम लिखा है , आपको पता चल जायेगा।
सुनते सुनते उसका सांस फूल गया , और बोला --सर मुझे नहीं पता था इतनी मेहनत करनी पड़ेगी , छोडिये हम टी एस दराल से ही काम चला लेते हैं।
इण्डिया गेट
दूसरा सवाल : सर आपका निवास स्थान कहाँ है ?
मैंने कहा , भैया शुद्ध हिंदी में पूछ रहे हो तो सुनो---मेरा निवास स्थान है ---पप्गिप एक्सटेंशन।
सर ये कैसा नाम है, ये तो हमने कभी सुना ही नहीं।
मैंने कहा, भैया सुना तो मैंने भी नहीं, बस पढ़ा ही है ।
जी समझा नहीं , क्या मतलब ?
मैंने कहा --अरे भाई , ये इंग्लिश के शोर्ट फॉर्म का हिंदी अनुवाद है , जो ऍम टी एन एल के टेलीफोन बिल पर लिखा रहता है,---- पप्गिप एक्सटेंशन डी एल आई ९२ ।
वो बेचारा इतना कन्फ्यूज्ड हुआ , उसने आगे कुछ पूछा ही नहीं।
अब आपके लिए दो सवाल छोड़ रहे हैं।
पहला : हमारा पूरा नाम ?
दूसरा : निवास स्थान आपको बताना है। यानि पप्गिप से क्या बनता है ?
हिंट इसी पोस्ट में है।
दोनों सवालों का सही ज़वाब देने वाले को हमारी तरफ से एक कॉकटेल / मॉकटेल डिनर अपने ऑफिसर्स क्लब में ।
तब तक --शुभकामनायें।
तब तक --शुभकामनायें।
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