कहते हैं घर मनुष्यों से बनता है , चार दीवारों से नहीं । लेकिन चार दीवारों की भी अहमियत होती है । क्योंकि जहाँ मनुष्य पैदा होता है , पला बड़ा होता है , उसके साथ पुरानी यादें हमेशा जुडी रहती हैं ।
नए बने सात किलोमीटर लम्बे फ्लाई ओवर पर 8० की स्पीड से गाड़ी चलाते हुए एक स्थान ऐसा आता जहाँ पहुँचकर मन अतीत में हिलोरें मारने लगता । उस स्थान पर एक ओर वो स्कूल था जहाँ से हायर सेकंडरी की शिक्षा प्राप्त की थी । बायीं ओर वो झूले वाला पुल जिससे नाला क्रॉस कर थोड़ा आगे दो कमरे वाला सरकारी क्वार्टर जहाँ जिंदगी के छै साल बिताकर बचपन से ज़वानी का पुल पार किया । नाले वाला पुल पार करते हुए अक्सर पुल के साथ झूलने लगते और डरते भी रहते कि कहीं टूटकर ही न गिर जाए ।
इस बीच जिंदगी के छत्तीस साल गुजर गए । उस जगह दोबारा कभी जाना न हुआ। लेकिन एक अरसे से यहाँ से गुजरते हुए अक्सर वे दिन याद आते और उत्सुकता बढती गई । उन दर ओ दीवारों को दोबारा देखने की लालसा जाग उठी और बलवती होती गई ।
श्रीमती जी को भी वायदा किया था कि एक दिन वह जगह ज़रूर दिखायेंगे जहाँ से होकर आज हम इस मुकाम तक पहुंचे हैं ।
श्रीमती जी को भी वायदा किया था कि एक दिन वह जगह ज़रूर दिखायेंगे जहाँ से होकर आज हम इस मुकाम तक पहुंचे हैं ।
फिर एक दिन , उसी स्थान पर पहुँच कर अनायास ही गाड़ी का स्टीयरिंग दायीं ओर मुड गया । मोड़ से ज्यादा दूर नहीं था स्कूल । लेकिन अब वहां उसका नामों निशान भी नहीं था । उसकी जगह सर्वोदय स्कूल खुल गया था ।यानि उस स्कूल का अस्तित्त्व ही मिट गया था ।
वापस उसी स्थान पर आकर थोड़ा आगे जाकर वो मोड़ भी आ गया जहाँ से सीधी सड़क जाती थी उस कॉलोनी में या यूँ कहिये कि वो सड़क उसी कॉलोनी की थी ।
सड़क बड़ी साफ और वेल मेंटेंड दिखाई दे रही थी । जहाँ पहले साईकल और लम्ब्रेटा स्कूटर ही दिखाई देते थे , अब लम्बी लम्बी गाड़ियाँ खड़ी थी ।
सड़क बड़ी साफ और वेल मेंटेंड दिखाई दे रही थी । जहाँ पहले साईकल और लम्ब्रेटा स्कूटर ही दिखाई देते थे , अब लम्बी लम्बी गाड़ियाँ खड़ी थी ।
सबसे पहला पड़ाव आया सेन्ट्रल मार्केट का । बचपन में हर साल रामलीला यहीं देखते थे । लेकिन दशहरे की छुट्टियाँ होने से दो तीन दिन बाद ही गाँव चले जाते थे । इसलिए आज तक पूरी रामलीला कभी नहीं देख पाए ।
वह मैदान अब बड़ा छोटा सा नज़र आया । पार्क तो उतना ही रहा होगा लेकिन शायद अब देखने वाली नज़र बड़ी हो चुकी थी ।
बायीं ओर की दुकानों में एक फोटोग्राफर की दुकान होती थी जिसमे उसका बहुत खूबसूरत फोटो लगा होता था ।
वो थी ही इतनी सुन्दर कि देखने वाला देखता रह जाए । जान पहचान की थी लेकिन उम्र में आठ साल बड़ी थी।
बायीं ओर की दुकानों में एक फोटोग्राफर की दुकान होती थी जिसमे उसका बहुत खूबसूरत फोटो लगा होता था ।
वो थी ही इतनी सुन्दर कि देखने वाला देखता रह जाए । जान पहचान की थी लेकिन उम्र में आठ साल बड़ी थी।
लेकिन अब वहां न वो दुकान थी , न फोटो । कोई नहीं जानता अब वह कहाँ है ।
मार्केट के पीछे वाली गली में कुमार डेयरी भी नहीं थी लेकिन उस दुकान पर कुमार नाम अभी भी लिखा था । अब वहां मोटर गेरेज खुल गई थी । उन दिनों दूध बस डी एम एस का मिलता था या कुमार डेयरी का सप्रेटा दूध ।
कुछ पल ठगा सा खड़ा उस दुकान को देखता रहा जिसके आगे कभी एक हाथ में पांच पैसे और दूसरे में कांच का गिलास थामे, मैं पडोसी के लिए दूध की कतार में खड़ा था । असहज होती पत्नी ने जब ध्यान भंग किया तो हम चल पड़े आगे की ओर ।
लेकिन हलवाई की इकलौती दुकान अभी भी वैसी ही थी, जिसे रेस्तरां कहना बेइंसाफी ही होगी ।
मार्केट से थोड़ा आगे ही था वह मकान । दो ब्लॉक्स के बीच में पार्क होता था और एंट्री बैक लेन से । पार्क में बच्चे क्रिकेट खेलते । गर्मियों की रात में यही पार्क सामूहिक ओपन एयर नेचुरल ऐ सी शयन कक्ष बन जाता ।
मार्केट के पीछे वाली गली में कुमार डेयरी भी नहीं थी लेकिन उस दुकान पर कुमार नाम अभी भी लिखा था । अब वहां मोटर गेरेज खुल गई थी । उन दिनों दूध बस डी एम एस का मिलता था या कुमार डेयरी का सप्रेटा दूध ।
कुछ पल ठगा सा खड़ा उस दुकान को देखता रहा जिसके आगे कभी एक हाथ में पांच पैसे और दूसरे में कांच का गिलास थामे, मैं पडोसी के लिए दूध की कतार में खड़ा था । असहज होती पत्नी ने जब ध्यान भंग किया तो हम चल पड़े आगे की ओर ।
लेकिन हलवाई की इकलौती दुकान अभी भी वैसी ही थी, जिसे रेस्तरां कहना बेइंसाफी ही होगी ।
मार्केट से थोड़ा आगे ही था वह मकान । दो ब्लॉक्स के बीच में पार्क होता था और एंट्री बैक लेन से । पार्क में बच्चे क्रिकेट खेलते । गर्मियों की रात में यही पार्क सामूहिक ओपन एयर नेचुरल ऐ सी शयन कक्ष बन जाता ।
लेकिन अब वहां सारे साल निठल्ले बैठे रहे किसी निगम पार्षद या विधायक की कृपा से पार्क की बाउंड्री बनाकर सारा मज़ा किरकिरा हो चुका था बच्चों के क्रिकेट खेलने का ।
हालाँकि बैक लेन अब पक्की बना दी गई है ।
एक अज़नबी सी उत्सुकता आँखों में लिए चले जा रहे थे और ढूंढ रहे थे मकान नंबर ३४५ । तभी मकान नंबर ३४१ दिखाई दिया । लगा अब तो अगला ३४५ ही होगा । दिल की धड़कन थोड़ी तेज हो गई थी । मन में तरह तरह के ख्याल आ रहे थे । कौन रहता होगा वहां ? कैसे लोग होंगे ? क्या मिलना सही रहेगा ?
बाहर आँगन में चार पांच महिलाएं धूप का आनंद लेती हुई स्वेटर बुनते हुए गपिया रही थीं । सामने ३४५ दिख ही गया । फिर भी अनपढ़ों की तरह पूछ ही लिया कि क्या ३४५ नंबर यही है । कौन रहता है यहाँ , क्या घर में हैं? एक महिला ने कहा , शायद घर में नहीं हैं आप घंटी बजा कर देख लीजिये ।
धड़कते दिल से घंटी बजाई --दो बच्चे बाहर आए । पता चला घर में न पापा थे न मम्मी। लेकिन अब तक यादों में गोते लगा चुके थे । बच्चे से कहा --पापा को फोन कर के बुलाओ । बच्चे ने बड़ी मासूमियत से बिना सोचे समझे लेकिन आदर सहित अन्दर बुला लिया और कमरे में बिठाया ।
वही कमरा जहाँ कभी अपना अधिकार होता था --लेकिन ३६ साल पहले । अब बिल्कुल अज़नबी सा लग रहा था ।
एक अज़नबी सी उत्सुकता आँखों में लिए चले जा रहे थे और ढूंढ रहे थे मकान नंबर ३४५ । तभी मकान नंबर ३४१ दिखाई दिया । लगा अब तो अगला ३४५ ही होगा । दिल की धड़कन थोड़ी तेज हो गई थी । मन में तरह तरह के ख्याल आ रहे थे । कौन रहता होगा वहां ? कैसे लोग होंगे ? क्या मिलना सही रहेगा ?
बाहर आँगन में चार पांच महिलाएं धूप का आनंद लेती हुई स्वेटर बुनते हुए गपिया रही थीं । सामने ३४५ दिख ही गया । फिर भी अनपढ़ों की तरह पूछ ही लिया कि क्या ३४५ नंबर यही है । कौन रहता है यहाँ , क्या घर में हैं? एक महिला ने कहा , शायद घर में नहीं हैं आप घंटी बजा कर देख लीजिये ।
धड़कते दिल से घंटी बजाई --दो बच्चे बाहर आए । पता चला घर में न पापा थे न मम्मी। लेकिन अब तक यादों में गोते लगा चुके थे । बच्चे से कहा --पापा को फोन कर के बुलाओ । बच्चे ने बड़ी मासूमियत से बिना सोचे समझे लेकिन आदर सहित अन्दर बुला लिया और कमरे में बिठाया ।
वही कमरा जहाँ कभी अपना अधिकार होता था --लेकिन ३६ साल पहले । अब बिल्कुल अज़नबी सा लग रहा था ।
सामने थी वही खिड़की जिसके साथ न जाने कितनी यादें जुडी थी बचपन और तरुणाई की ।
और उस खिड़की को देखते हुए जो यादों में खोए तो तभी होश में आए जब मकान के मालिक ने प्रवेश किया और हमें सादर नमस्कार किया --- क्रमश :
और उस खिड़की को देखते हुए जो यादों में खोए तो तभी होश में आए जब मकान के मालिक ने प्रवेश किया और हमें सादर नमस्कार किया --- क्रमश :