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Monday, May 28, 2012

आए तुम याद मुझे --जिंदगी के ३६ साल बाद ---


कहते
हैं घर मनुष्यों से बनता
है , चार दीवारों से नहीं लेकिन चार दीवारों की भी अहमियत होती है । क्योंकि जहाँ मनुष्य पैदा होता है , पला बड़ा होता है , उसके साथ पुरानी यादें हमेशा जुडी रहती हैं ।

नए बने सात किलोमीटर लम्बे
फ्लाई ओवर पर 8० की स्पीड से गाड़ी चलाते हुए एक स्थान ऐसा आता जहाँ पहुँचकर मन अतीत में हिलोरें मारने लगता । उस स्थान पर एक ओर वो स्कूल था जहाँ से हायर सेकंडरी की शिक्षा प्राप्त की थी । बायीं ओर वो झूले वाला पुल जिससे नाला क्रॉस कर थोड़ा आगे दो कमरे वाला सरकारी क्वार्टर जहाँ जिंदगी के छै साल बिताकर बचपन से ज़वानी का पुल पार किया । नाले वाला पुल पार करते हुए अक्सर पुल के साथ झूलने लगते और डरते भी रहते कि कहीं टूटकर ही न गिर जाए ।

इस बीच जिंदगी के छत्तीस साल गुजर गए उस जगह दोबारा कभी जाना न हुआ। लेकिन एक अरसे से यहाँ से गुजरते हुए अक्सर वे दिन याद आते और उत्सुकता बढती गई । उन दर ओ दीवारों को दोबारा देखने की लालसा जाग उठी और बलवती होती गई ।

श्रीमती जी को भी वायदा किया था कि एक दिन वह जगह ज़रूर दिखायेंगे जहाँ से होकर आज हम इस मुकाम तक पहुंचे हैं

फिर एक दिन , उसी स्थान पर पहुँच कर अनायास ही गाड़ी का स्टीयरिंग दायीं ओर मुड गया । मोड़ से ज्यादा दूर नहीं था स्कूल । लेकिन अब वहां उसका नामों निशान भी नहीं था । उसकी जगह सर्वोदय स्कूल खुल गया था ।यानि उस स्कूल का अस्तित्त्व ही मिट गया था

वापस उसी स्थान पर आकर थोड़ा आगे जाकर वो मोड़ भी आ गया जहाँ से सीधी सड़क जाती थी उस कॉलोनी में या यूँ कहिये कि वो सड़क उसी कॉलोनी की थी


सड़क बड़ी साफ और वेल मेंटेंड दिखाई दे रही थी । जहाँ पहले साईकल और लम्ब्रेटा स्कूटर ही दिखाई देते थे , अब लम्बी लम्बी गाड़ियाँ खड़ी थी ।

सबसे पहला पड़ाव आया सेन्ट्रल मार्केट का । बचपन में हर साल रामलीला यहीं देखते थे । लेकिन दशहरे की छुट्टियाँ होने से दो तीन दिन बाद ही गाँव चले जाते थे । इसलिए आज तक पूरी रामलीला कभी नहीं देख पाए ।
वह मैदान अब बड़ा छोटा सा नज़र आया । पार्क तो उतना ही रहा होगा लेकिन शायद अब देखने वाली नज़र बड़ी हो चुकी थी


बायीं ओर की दुकानों में एक फोटोग्राफर की दुकान होती थी जिसमे उसका बहुत खूबसूरत फोटो लगा होता था ।
वो थी ही इतनी सुन्दर कि देखने वाला देखता रह जाए जान पहचान की थी लेकिन उम्र में आठ साल बड़ी थी।

लेकिन अब वहां वो दुकान थी , फोटो कोई नहीं जानता अब वह कहाँ है

मार्केट के पीछे वाली गली में कुमार डेयरी भी नहीं थी लेकिन उस दुकान पर कुमार नाम अभी भी लिखा था । अब वहां मोटर गेरेज खुल गई थी । उन दिनों दूध बस डी एम एस का मिलता था या कुमार डेयरी का सप्रेटा दूध ।
कुछ पल ठगा सा खड़ा उस दुकान को देखता रहा जिसके आगे कभी एक हाथ में पांच पैसे और दूसरे में कांच का गिलास थामे, मैं पडोसी के लिए दूध की कतार में खड़ा था । असहज होती पत्नी ने जब ध्यान भंग किया तो हम चल पड़े आगे की ओर ।
लेकिन हलवाई की इकलौती दुकान अभी भी वैसी ही थी, जिसे रेस्तरां कहना बेइंसाफी ही होगी

मार्केट से थोड़ा आगे ही था वह मकान । दो ब्लॉक्स के बीच में पार्क होता था और एंट्री बैक लेन से । पार्क में बच्चे क्रिकेट खेलते । गर्मियों की रात में यही पार्क सामूहि ओपन एयर नेचुरल सी शयन कक्ष बन जाता


लेकिन अब वहां सारे साल निठल्ले बैठे रहे किसी निगम पार्षद या विधायक की कृपा से पार्क की बाउंड्री बनाकर सारा मज़ा किरकिरा हो चुका
था बच्चों के क्रिकेट खेलने का ।

हालाँकि बैक लेन अब पक्की बना दी गई है ।

एक अज़नबी सी उत्सुकता आँखों में लिए चले जा रहे थे और ढूंढ रहे थे मकान नंबर ३४५ । तभी मकान नंबर ३४१ दिखाई दिया । लगा अब तो अगला ३४५ ही होगा । दिल की धड़कन थोड़ी तेज हो गई थी । मन में तरह तरह के ख्याल आ रहे थे । कौन रहता होगा वहां ? कैसे लोग होंगे ? क्या मिलना सही रहेगा ?

बाहर आँगन में चार पांच महिलाएं धूप का आनंद लेती हुई स्वेटर बुनते हुए गपिया रही थीं । सामने ३४५ दिख ही गया । फिर भी अनपढ़ों की तरह पूछ ही लिया कि क्या ३४५ नंबर यही है कौन रहता है यहाँ , क्या घर में हैं? एक महिला ने कहा ,
शायद घर में नहीं हैं आप घंटी बजा कर देख लीजिये ।

धड़कते दिल से घंटी बजाई --दो बच्चे बाहर आए । पता चला घर में न पापा थे न मम्मी। लेकिन अब तक यादों में गोते लगा चुके थे । बच्चे से कहा --पापा को फोन कर के बुलाओ । बच्चे ने बड़ी मासूमियत से बिना सोचे समझे लेकिन आदर
सहित अन्दर बुला लिया और कमरे में बिठाया ।

वही कमरा जहाँ कभी अपना अधिकार होता था --लेकिन ३६ साल पहले । अब
बिल्कुल अज़नबी सा लग रहा था
सामने थी वही खिड़की जिसके साथ न जाने कितनी यादें जुडी थी बचपन और तरुणाई की


और उस खिड़की को देखते हुए जो यादों में खोए तो तभी होश में आए जब मकान के मालिक ने प्रवेश किया और हमें सादर नमस्कार किया --- क्रमश :


Wednesday, May 23, 2012

जाको रखे साइयाँ , मार सके न कोय --


एक पिछली पोस्ट में आपने पढ़ा , चिकित्सा के क्षेत्र में चमत्कार नहीं होते . यह बात चमत्कारी दावों पर ज्यादा लागु होती है . लेकिन चिकित्सा में कभी कभी ऐसी घटनाएँ हो जाती हैं , जो किसी चमत्कार से कम नहीं होती . आखिर डॉक्टर्स भी इन्सान ही होते हैं . जीवन देना भले ही डॉक्टर्स के हाथ में हो , लेकिन मृत्यु से बचाना अक्सर डॉक्टर्स के हाथ में नहीं होता . यदि ऐसा होता तो संसार में कोई मृत्यु ही नहीं होती . डॉक्टर सिर्फ सही उपचार ही कर सकता है . असंभावित घटनाओं पर उसका कोई वश नहीं होता .

बात उन दिनों की है जब मैं अस्पताल के आपातकालीन विभाग में केजुअल्टी में काम करता था . केजुअल्टी को प्राइवेट अस्पतालों और विदेशों में इमरजेंसी रूम ( ER ) कहा जाता है . उस दिन मैं नाईट ड्यूटी पर था . रात के चार बजे थे . यह वह समय होता है जब अक्सर डॉक्टर्स , नर्सिज और अन्य कर्मचारियों समेत मरीजों को भी नींद आने लगती है . शोर शराबे वाली केजुअल्टी जैसी जगह पर भी पूर्ण शांति होती है .

तभी ट्रॉली में लेटा ५५-६० वर्ष का एक मरीज़ आया जिसे उसका लड़का लेकर आया था . दोनों पढ़े लिखे और खाते पीते परिवार से लग रहे थे . मैंने उसका मुआइना किया और पाया , उसे हार्ट अटैक हुआ था . यथोचित कार्यवाही कर अभी उसे दूसरे कमरे में शिफ्ट कर ही रहे थे की तभी एक दूसरा मरीज़ दाखिल हुआ , बिल्कुल उसी हालत में . उसे भी हार्ट अटैक ही हुआ था .

सर्दियों में अक्सर अर्ली मोर्निंग हार्ट अटैक होने की सम्भावना बहुत ज्यादा होती है .

लेकिन दूसरा मरीज़ एक नेपाली था , किसी कॉलोनी में चौकीदार था . साथ में उसकी ज़वान लड़की और लड़का भी थे . उन्हें देख कर उनकी गरीबी का आभास हो रहा था . दोनों मरीजों को देखकर मन में बड़ा अजीब सा ख्याल आया . वैसे तो हम डॉक्टर्स रोगियों को देख कर कभी भावुक नहीं होते . लेकिन उस दिन एक साथ दो एक जैसे लेकिन आर्थिक रूप से भिन्न रोगियों को देख कर मन थोडा विचलित सा हुआ . यही लगा की पहला रोगी तो शायद इलाज और उसके बाद का खर्च सहन कर पाने की आर्थिक स्थिति में था , लेकिन दूसरा गरीब मरीज़ बेचारा क्या करेगा .
हालाँकि उन दिनों एन्जिओग्राफी और स्टेंट डालने की सुविधा नहीं थी . दवाओं से ही हार्ट अटैक का इलाज किया जाता था . लेकिन दवाएं भी कहाँ सस्ती होती हैं .

अभी दूसरे मरीज़ को भी शिफ्ट किया जा रहा था की अचानक उसकी लड़की दौड़ी दौड़ी आई और हांफते हांफते बोली --पापा साँस नहीं ले रहे हैं . मैंने भी तुरंत जाकर देखा -- उसको कार्डिअक अरेस्ट हो गया था . यानि दिल की धड़कन अचानक बंद हो गई थी . ऐसे में यदि तुरंत उपचार न किया जाए तो कुछ ही मिनट्स में मृत्यु निश्चित होती है . कार्डिअक अरेस्ट का एक ही उपचार होता है -- CPR और DC शॉक . लेकिन इसकी व्यवस्था न होने पर ठीक दिल के ऊपर छाती पर एक जोरदार घूँसा लगाने से भी दिल की धड़कन शुरू हो जाती है .

यहाँ जीवन और मृत्यु के बीच कुछ ही पलों की दूरी थी . मरीज़ कॉरिडोर में था . अक्सर इमरजेंसी इलाज करते समय रोगी के रिश्तेदारों को दूर कर दिया जाता है ताकि इलाज में बाधा उत्पन्न न हो . लेकिन उस वक्त न ऐसी स्थिति थी न समय .
बिना एक पल की देर किये , मैंने वही किया जो करना चाहिए था . एक जोरदार घूँसा, जिंदमी में पहली और शायद आखिरी बार , लगाते ही रोगी के दिल की धड़कन लौट आई . वह साँस लेने लगा . ऑक्सिजन लगाकर और CPR करते हुए उसे इमरजेंसी वार्ड में शिफ्ट कर दिया गया .

सुबह होने पर ड्यूटी खत्म कर घर आने से पहले उत्सुकतावश सोचा , क्यों न दोनों मरीजों का हाल जान लिया जाए .
मालूम किया तो पता चला -- पहला रोगी जो ठीक ठाक लग रहा था, उसकी मृत्यु हो गई थी . उसे वार्ड में ही दूसरा अटैक आ गया था . दूसरा जो लगभग जा चुका था , सही सलामत बैठा चाय पी रहा था .

इस घटना ने हमें सोचने पर मजबूर कर दिया -- ऊपर वाले की मर्ज़ी क्या है , यह कोई नहीं जान सकता . डॉक्टर्स भी नहीं .

Saturday, May 19, 2012

हम बुलबुल मस्त बहारों की , हम मस्त कलंदर धरती के --मेरे गीत ( सतीश सक्सेना )



श्री सतीश सक्सेना जी की प्रथम पुस्तक -- मेरे गीत -- प्रकाशित होकर हमारे बीच आ चुकी है । ज्योतिपर्व प्रकाशन द्वारा प्रकाशित १२२ प्रष्ठों की इस पुस्तक में सतीश जी के ५८ गीत शामिल किये गए हैं । हालाँकि अधिकतर गीत उनके ब्लॉग पर पढ़े जा चुके हैं , कुछ गीत ऐसे भी हैं जो या तो पहली बार सामने आए हैं या पिछले कुछ सालों में नहीं पढ़े गए ।


श्री सतीश सक्सेना जी एक बेहद सुलझे हुए व्यक्तित्त्व के स्वामी हैं जिनके दिल में जिंदगी से जुड़ी मानवीय संवेदनाएं कूट कूट कर भरी हैं। यह उनके गीतों में साफ झलकता है । बचपन में ढाई वर्ष की अबोध आयु में माँ को खोकर, पिता के साये से भी उन्हें बचपन में ही वंचित होना पड़ा । बड़ी बहन ने पाला पोसा , पढाया और अपने पैरों पर खड़ा होने में सहायता की । पूर्णतय: अपने बल बूते पर जीवन की खुशियाँ हासिल कर आज वो एक लविंग और केयरिंग पति होने के साथ साथ एक आदर्श पिता भी हैं जिन्होंने अपने बच्चों में एक अच्छा इन्सान बनने के सारे गुण विकसित करने का भरपूर प्रयास किया है । लेकिन जो बात सबसे ज्यादा प्रभावित करती है , वह है पुत्रवधू के प्रति उनके विचार । उनका कहना है , जब हम अपनी बेटी के लिए सभी सुखों की कामना करते हुए उसके ससुराल वालों से अच्छे व्यवहार की अपेक्षा करते हैं, तो क्यों न अपनी बहु को भी बेटी का दर्ज़ा देते हुए उसे उतना ही प्यार और सम्मान दें जितना अपनी स्वयं की बेटी को देते हैं ।
श्री सक्सेना जी के यही विचार उनकी कविताओं और गीतों में पढने को मिलेंगे इस पुस्तक में ।

मेरे गीत :

सक्सेना जी के गीतों की एक विशेष शैली है । या यूँ कहिये सभी प्रकार की शैलियों से अलग उन्होंने एक अलग ही पहचान बनाई है ।
बचपन में माँ को खोकर , माँ के प्यार से वंचित रहकर जो भाव मन में आते हैं, उन्हें वही समझ सकता है जिस पर बीती हो

हम जी न सकेंगे दुनिया में
मां जन्मे कोख तुम्हारी से
जो दूध पिलाया बचपन में
यह शक्ति उसी से पाई है
जबसे तेरा आँचल छूटा , हम हँसना अम्मा भूल गए ,
हम अब भी आंसूं भरे , तुझे टकटकी लगाए बैठे हैं ।

मात पिता का प्यार और अभाव उनकी कई रचनाओं में समाया हुआ है ।

पिता के बारे में लिखते हैं --

पिता पुत्र का रिश्ता तुमको
कैसे शब्दों में समझाउं !
कुछ रिश्ते अहसासों के हैं
समझाने की बात नहीं !
जीवन और रक्त का नाता , नहीं बनाने से बनता है
यह तो विधि की देन पुत्र , समझाने की है बात नहीं ।

एक पिता की सबसे बड़ी कमजोरी होती है , बेटीसतीश जी ने बेटी से बिछुड़ने के दर्द को बहुत खूबसूरती से पिरोया है इस गीत में --

पहले घर के हर कोने में
एक गुडिया खेला करती थी
चूड़ी, पायल, कंगन, झुमका
को संग खिलाया करती थी
जबसे गुड्डे संग विदा हुई , हम ठगे हुए से बैठे हैं ,
कव्वे की बोली सुनने को , हम कान लगाए बैठे हैं ।

लेकिन बेटी को पिता द्वारा जो नसीहतें दी जाती हैं , उनका भी बेहद उपयोगी और सार्थक वर्णन है यहाँ -- पिता का ख़त पुत्री को -- इस गीत में

पत्नी /प्रेयसी पर लिखने का अंदाज़ तो रूमानी होना अपेक्षित ही था . सतीश जी का यह रूप भी बहुत निखर कर सामने आया है कुछ ऐसे ---

प्रथम प्यार का प्रथम पत्र है ,
लिखता , निज मृगनयनी को ।
उमड़ रहे जो , भाव हृदय में
अर्पित , प्रणय संगिनी को
इस आशा के साथ, कि समझें भाषा प्रेमालाप की
प्रेयसी पहली बार लिख रहा , चिट्ठी तुमको प्यार की ।

पुस्तक के आखिरी पन्नों में शायद उनकी युवावस्था में लिखी रचनाएँ हैं , हालाँकि अभी भी किसी युवा से कम नहीं हैं . लेकिन शादी से पहले और शादी के बाद की युवावस्था में थोडा अंतर होना तो स्वाभाविक ही है . अल्हड़ ज़वानी की बातें कुछ इस प्रकार की हैं --

सोचता था बचपन से यार
बड़ा जल्दी कर दे भगवान
मगर अब बीत गए दस साल
ज़वानी बीती जाए यार !
किसी नारी के संग सिनेमा जाने का दिल करता है ।

सतीश जी ने आतंकवाद , भ्रष्ट और जालिमों पर भी खूब तीर चलाये हैं --

तुम मासूमों का खून बहा
खुद को शहीद कहलाते हो
और मार नमाज़ी को बम से
इस को जिहाद बतलाते हो
जब मौत तुम्हारी आएगी , तब बात शहादत की छोडो
मय्यत में कन्धा देने को , अब्बू तक पास न आएंगे ।

कुल मिलाकर यह पुस्तक आपको एक अति संवेदनशील हृदय स्वामी लेखक के मनोभावों के दर्शन करायेगी । जिंदगी के उतार चढाव और संघर्ष से गुजरकर जब आप एक खास मुकाम तक पहुंचते हैं , तब जीवन मूल्यों का सही आंकलन कर पाते हैं । जो इस संघर्ष से बचे रहते हैं , वे जिंदगी की हकीकतों से सदा दूर ही रहते हैं ।

पुस्तक देखने में थोड़ी मोटी लगती हैलेकिन यह उसमे प्रयोग किये गए उत्तम कागज़ की वज़ह से हैएक बार पढने लगेंगे तो आप भी ख़त्म कर के ही दम लेंगे

(कीमत मात्र १९९/-)

यह एक छोटा सा परिचय है -- मेरे गीत -- की समीक्षा लिखना हमारे बस की बात नहींइसके लिए इंतजार करना पड़ेगा एक अच्छे साहित्यकार की समीक्षा का


Wednesday, May 16, 2012

अंकल जी मत कहना भूल कर भी ---


गाँव
की पगडंडी पर एक महिला चली जा रही थी सामने से साईकल पर आते एक युवक ने कहा -- अरी बुढियासामने से हट जा महिला बोली -- भाई, बुढिया तो नहीं थी पर बीमारी ने बना दी बेशक , शरीर में कोई रोग लगजाए तो मनुष्य समय से पहले ही बूढा हो जाता है लेकिन रोग भी हो तो क्या बूढ़े नहीं होते ?

हालाँकि बुढ़ापे की ओर अग्रसर होना किसी को अच्छा नहीं लगता इसीलिए सभी ज़वान बने रहने की जी तोड़कोशिश करते हैं एक ज़माना था जब ब्यूटी पार्लर सिर्फ महिलाओं के लिए ही होते थे लेकिन अब लगता हैमहिलाओं से ज्यादा ब्यूटी ट्रीटमेंट का शौक पुरुषों को है

कुछ भी हो लेकिन जब तक आप स्वयं को ज़वान समझते रहें , तब तक अंकल जी कहलाना बिल्कुल नहीं भाता हमने यह अनुभव किया अभी कुछ दिन पहले , मार्केट में सब्जी खरीदते हुए जब किसी ने हमें अंकल कह करपुकारा और तभी मन में उपजी यह ग़ज़ल हालाँकि ग़ज़ल अक्सर गंभीर विषय पर लिखी जाती है लेकिन क्याकरें , अपनी तो आदत है ना हर बात में मजाक ढूँढने की


सीने
में इक दर्द सा उठने लगता है
जब कोई हमको अंकल जी कहता है

आँखें चुंधिया हों या घुटनों में कड़ कड़
दिल तो अपना अब भी धक् धक् करता है

बचपन बीता जाने कब यौवन आया
अब इस नाते से गुजरा सा लगता है

काला कर डाला बालों को रोगन से
पर ये साला सर ही गंजा दिखता है

बूढा ना समझो गलती से भी जानम
बंदा ये अब भी दम भर दम रखता है

कह पागल या पुल बांधो 'तारीफों' के
दिल अपना हरदम हंसने को करता है


नोट : यह छोटी सी ग़ज़ल श्री देवेन्द्र पाण्डे जी के ब्लॉग पर होली के अवसर पर पढ़े एक हास्य लेख सेप्रेरित होकर लिखी है

Saturday, May 12, 2012

ज़रा संभल के --- स्वास्थ्य के मामले में चमत्कार नहीं होते .


शायद हमारा देश ही एक ऐसा देश होगा जहाँ रोगों का इलाज करने के लिए दादी नानी से लेकर साधु बाबा तक सभी चिकित्सक का काम धड़ल्ले से करते हैं . न सिर्फ मान्यता प्राप्त चिकित्सा पद्धतियाँ ही अनेक हैं , बल्कि यहाँ बिना किसी डिग्री धारण किये और बिना सरकार से मान्यता प्राप्त किये अनेकों सिद्ध पुरुष , स्व घोषित चिकित्सक और घराने/ सफ़ाखाने मोटी रकम वसूल कर धर्मभीरु और मूढमति जनता को लूटते हुए मिल जायेंगे .

आजकल टी वी पर भी ऐसे अनेकों कार्यक्रम दिखाई देने लगे हैं जहाँ कोई ज्योतिषी, पंडित जी , टेरो कार्ड रीडर , वास्तु एक्सपर्ट , साधु , बाबा या कोई भी पहचान रहित बंदा पेट के कीड़ों से लेकर कैंसर तक का शर्तिया इलाज करने का दावा करते हैं .

हमें तो सबसे ज्यादा हास्यस्पद तब लगता है जब एक ज्योतिषी अपना कंप्यूटर लेकर बैठ जाता है और फोन पर किसी की स्वास्थ्य समस्या सुनकर तुरंत computerized इलाज बता देता है .

एक हरियाणवी लाला तो हर बीमारी का इलाज घर में मिलने वाले मसालों से ही बता देता है . माना हल्दी बड़ी गुणकारी है लेकिन हर तरह के रोग इसके सेवन से ठीक हो जाते तो सैकड़ों दवा निर्माण कम्पनियाँ ( pharmaceutical firms ) बंद न हो जाएँ . ऊपर से ज़नाब हर फोन करने वाले को यह भी बताते हैं , हमारा पैकेज खरीद लो , शर्तिया फायदा होगा . पैकेज भी सौ दो सौ का नहीं बल्कि तीन से चार हज़ार रूपये का . हम तो इस कार्यक्रम को बस दो चार मिनट के लिए एक हास्य कार्यक्रम के रूप में देखते हैं .

एक और कार्यक्रम जो टी वी पर बहुत लोकप्रिय रहा है वह है किसी बाबा द्वारा आयोजित किये गए सत्संग का सीधा प्रसारण या रिकोर्ड किया हुआ प्रसारण . ऐसा कोई एक बाबा नहीं है . पिछले दस पंद्रह सालों में अनेक बाबाओं ने देश की जनता को अपनी प्रतिभा से भ्रमित कर न सिर्फ अपना दास भक्त बना लिया है बल्कि आज उनका करोड़ों का व्यापार चल रहा है . यह सोच कर भी हैरानी होती है , कैसे कोई गोल गप्पे खाकर / खिलाकर अपनी मुश्किलों का हल निकाल सकता है . लेकिन बाबा ने कहा और भक्त ने आँख बंद कर विश्वास कर लिया. आखिर एक सुखी जीवन के लिए १०००-१५००/- भला क्या मायने रखते हैं .

हमारे देशवासियों की सबसे बड़ी कमजोरी है , चमत्कारों में विश्वास रखना . हालाँकि सभी ओर से निराश होकर मनुष्य अपना विवेक खो जाता है . लेकिन आशा के विरुद्ध आस रखना कहीं न कहीं चमत्कारिक आस्थाओं को ही जन्म देता है . इन्हीं आस्थाओं और अंध विश्वास का फायदा उठाते हैं ये ढोंगी बाबा और धर्म गुरु जिनके पास निश्चित रूप से विलक्षण बुद्धि तो होती है . इस कलियुग में जो दूसरों को बेवक़ूफ़ बना सकता है , वही सिद्ध है ,वही भगवान है , उसी की पूजा होती है -- तन , मन और धन से .

आइये देखते हैं कुछ रोगों से सम्बंधित कुछ विशेष उदाहरण :

एपिलेप्सी :

कई वर्ष पहले ऋषिकेश में एक क्लिनिक का बड़ा बोलबाला था जहाँ एपिलेप्सी का इलाज किया जाता था . इसके संस्थापक और मुख्य चिकित्सक न तो डिग्रीधारी चिकित्सक थे , न मान्यता प्राप्त . फिर भी अख़बारों के मुख्य प्रष्ठ पर बड़े बड़े विज्ञापन आते थे जिनमे उन्हें राष्ट्रपति के ऑनरेरी फिजिसियन होने का दावा किया जाता था . सबसे आश्चर्यजनक बात थी तथाकथित डॉक्टर द्वारा पहली खुराक अपने हाथों से खिलाया जाने का आगृह . फिर तीन महीने की दवा एक साथ --मात्र ५०००-६००० रूपये में .
अंत में इस धोखाधड़ी का भंडा भोड़ हुआ और डॉक्टर साहब को जेल .

सत्य : एपिलेप्सी का इलाज चमत्कारिक नहीं है . एलोपेथी में कई तरह की दवाएं हैं , जिनके सेवन से तीन साल में एपिलेप्सी हमेशा के लिए ठीक हो जाती है . लेकिन ये दवाएं डॉक्टर की देख रेख में ही लेनी चाहिए क्योंकि इनके साइड इफेक्ट्स भी होते हैं जो हानि कर सकते हैं .

एस्थमा :
हैदराबादी मछली :
इसके बारे में तो सभी ने सुना होगा . एक परिवार जिन्दा मछली में कोई दवा मिलाकर रोगियों को खिलाता है . देश में अलग अलग जगह कैम्प लगाये जाते हैं जहाँ दूर दूर से निराश रोगी इलाज कराने आते हैं . जो शाकाहारी हैं या जिन्दा मछली नहीं निगल सकते , उन्हें दवा केले में मिलाकर खिलाई जाती है . इलाज भले ही मुफ्त में किया जाता हो , लेकिन लोग किराया लगाकर कैम्प तक पहुँचते हैं .
अब सोचने की बात यह है , यदि केले में लेने से उतना ही फायदा होता है जितना मछली में, तो जिन्दा मछली क्यों खिलाई जाती है . क्या है यह दवा ? कितने लोगों को फायदा हुआ है ? यह कोई नहीं जानता .

सत्य :
एस्थमा एक अनुवांशिक रोग है जो परिवारों में चलता है . इसका कोई इलाज नहीं है लेकिन सही दवाओं से नियंत्रित किया जा सकता है . यदि सही तरीके से इलाज न किया जाए तो जान भी जा सकती है , विशेष कर अक्युट अटैक में . इन्हेलर्स के इस्तेमाल से बहुत फायदा होता है . लेकिन इसका इलाज भी एक्सपर्ट की देख रेख में ही कराना चाहिए .

पीलिया ( जौंडिस ) :

यह एक वाइरल संक्रमण है जिससे लीवर ( यकृत ) की कोशिकाएं नष्ट हो जाती हैं . लेकिन यह सेल्फ लिमिटिंग होता है . यानि एक से डेढ़ महीने में अपने आप लीवर सेल्स पुनर्जीवित हो जाती हैं . इलाज में सिर्फ बेड रेस्ट और खाने का ध्यान रखना होता है .

लेकिन रोग को ठीक करने के लिए अनेक नीम हकीम जड़ी बूटियों से शर्तिया इलाज का दावा करते हैं . जाने माने ब्लॉगर भाई अविनाश वाचस्पति जी ने स्वयं अपनी दास्ताँ सुनाते हुए लिखा , किस तरह एक ठग ने उनसे हजारों रूपये झाड़ लिए और शरीर में जो रिएक्शन हुई उसके इलाज में उन्हें अलग से पैसा खरचना पड़ा और दर्द सहन करना पड़ा . अंत में हमारी सलाह पर उन्होंने सही जगह इलाज कराया और आज वो लगभग पूर्णतया सही हो चुके हैं .

सत्य : पीलिया का कोई इलाज नहीं होता . यह स्वत : सही हो जाता है . हालाँकि क्रॉनिक हिपेटाईटिस में इलाज ज़रूरी है जो महंगा भी है . लेकिन किसी भी झाड़ फूंस , तंत्र मंत्र या चमत्कारिक दवा के चक्कर में न पड़ें .

ऐसा नहीं है , एलोपेथी ही एक पद्धति है उपचार की . आयर्वेद और होमिओपेथी में भी कई रोगों का अच्छा उपचार होता है . हालाँकि यह क्रॉनिक रोगों में ज्यादा फायदेमंद होता है . लेकिन जो विकास एलोपेथी में हुआ है और जो क्रांतिकारी अनुसन्धान यहाँ हुआ है , उसका कोई मुकाबला नहीं है .
अक्सर रोगी यहाँ वहां से सुनी सुनाई बातों पर यकीन कर गलत हाथों में अपनी जिंदगी थमा देते हैं . यह अत्यंत हानिकारक होता है . उपचार हमेशा सुशिक्षित , मान्यता प्राप्त और क्वालिफाइड डॉक्टर से ही कराना चाहिए . आखिर , यह जिंदगी एक ही बार मिलती है .

नोट : यह पोस्ट जन साधारण के हित में लिखी गई है . किसी व्यक्ति विशेष, समूह या पद्धति के विरुद्ध नहीं है . कृपया अपना विवेक इस्तेमाल करें .




Wednesday, May 9, 2012

बाबा रामदेव का पतंजलि योगपीठ और --जंगल में मंगल (भाग ५).


मौका हो , दस्तूर हो और लॉन्ग वीकेंड , तो कुछ ऐसा करना चाहिए जो - दिन में ही एक जिंदगी जीने काअहसास दिलाये जैसा कि पिछले चार भाग में पढ़ा, हमने इन तीनों का पूरा फायदा उठाते हुए, पांच सूत्रीयकार्यक्रम इस प्रकार बनाया :
) लॉन्ग ड्राईव -- एक स्ट्रेस बस्टर
) चिल्ला फोरेस्ट रेस्ट हाउस -- दो दिन का रेस्ट -- बेस्ट रेजुवेनेटिंग एक्सपीरियंस
) हर की पौड़ी , हरिद्वार -- आत्म शुद्धि का अवसर प्रदान करता एक अनुभव
) जंगल सफ़ारी -- जंगली जानवरों से सीखने का अनुभव

और अंतिम भाग में , एक ऐसा अनुभव जिसे आम के आम और गुठलियों के दाम कहा जा सकता है

सुबह नाश्ते के बाद , तैयार हैं वापसी के सफ़र के लिए

हरिद्वार से रुड़की तक सड़क अभी ज्यादा अच्छी नहीं है चौड़ा करने का काम अभी चल रहा है इसलिए यहाँ काड्राईविंग एक्सपीरियंस ज्यादा अच्छा नहीं हो सकता था एक घंटा ड्राईव करके ही चाय की बड़ी तलब होने लगी थी आते समय हरिद्वार से पहले , हमें नज़र गया था -- बाबा रामदेव का आश्रम --पतंजलि योगपीठ बड़ीउत्सुकता थी यह जानने की कि वहां है क्या इसलिए वहां पहुंचते ही हमने गाड़ी मोड़ दी प्रवेश द्वार की ओर

इसके बारे में कुछ नहीं पता था इसलिए गेट पर गार्ड से पूछा -- अन्दर जा सकते हैं उसने भी आँखें फाड़ कर कहा- जी जाईये , आपके लिए ही है मैंने पूछा --बाबा रामदेव जी हैं अन्दर बोला - जी वो तो पता नहीं
खैर, पार्किंग में गाड़ी पार्क कर , हमने अपना कैमरा उठाया और निकल पड़े आश्रम की सैर पर


अन्दर से प्रवेश द्वार सारा ड्राईव वे और फुटपाथ रेड स्टोन से बना था


दोनों तरफ ये फव्वारे शीतलता प्रदान कर रहे थे साथ ही नयनाभिराम दृश्य



महर्षि पतंजलि की मूर्ति योग सूत्र के लेखक



गेट के सामने यह भव्य भवन किसी फाईव स्टार होटल जैसा दिख रहा था सामने छोटा सा बगीचाऔर उसमे चलते फव्वारे बड़ा मनोरम दृश्य था



चरक संहिता के लेखक महर्षि चरक की मूर्ति



यहाँ एक के बाद एक , अनेक भवन हैं , जिनके बारे में पता बाद में चला
दरअसल जो भव्य भवन सामने नज़र रहा था , वह बाबा रामदेव के पतंजलि योगपीठ ( अस्पताल ) की पीडी है
पी डी के चारों ओर बने हैं , अलग अलग वार्ड्स


एक वार्ड की ओर जाता रास्ता वार्ड के नाम भी कुछ इस प्रकार हैं -- योग वार्ड , ध्यान वार्ड आदि यहाँ साफसफाई देखकर मन कर आया कि यहीं जॉब के लिए आवेदन पत्र दे दिया जाए आखिर , सरकारी अस्पताल में कामकरते , यह नज़ारा हमारे लिए तो चित्त आकर्षक था



पी डी की लिस्ट
यहाँ ट्रॉली और व्हील चेयर पर कई मरीज़ देखे जो वर्षों के बीमार लग रहे थे ज़ाहिर था , पूर्ण रूप से निराश होकरयहाँ आए थे , मन में उम्मीद लिए कि शायद बाबा ही कोई चमत्कार कर दे एक रोगी से बात करने की कोशिशकरने पर यही लगा कि यह होपिंग अगेंस्ट होप का मामला ज्यादा था
आखिर दुनिया में चमत्कार भी कहाँ होते हैं


अस्पताल के भवनों से बाहर आकर मिला --अन्नपूर्णा भवन -- रेस्ट्रां यहाँ देसी घी में बने पकवान खाने मेंथोडा सा आनंद तो आया हालाँकि जहाँ हमारे प्रिय भारतवासी नागरिक हों , वहां साफ सफाई की उम्मीद नहीं कीजा सकती



भवनों की कतार के सामने बना है यह खूबसूरत पार्क यहाँ सर्दियों में धूप सेकने में बहुत मज़ा आएगा



फ़िलहाल तो गर्मी थी और धूप तेज फिर भी एक फोटो हमने भी खिंचवा लिया , टोपी पहन कर

खा पीकर अब हम निकलने के लिए तैयार थे लेकिन इस बीच हमें यहाँ की फार्मेसी भी नज़र गई थी बड़ीदिलचस्प लगी मेडम तो किचन के लिए मसाले और शरबत आदि देख रही थी और हमने खरीदी -- ज़वानी कीक्रीम -- जवाँ बनाने वाली नहीं , ज़वान दिखाने वाली जी हाँ , इसे लगाते ही चेहरे की उम्र १० साल कम हो जाती है अब वैसे भी दिखावे का ज़माना है इसलिए हम भी इसे विशेष अवसरों पर इस्तेमाल करते हैं
हालाँकि अब बाबा की सदा बहार ज़वानी का राज़ भी समझ रहा है



मेरठ बाई पास ख़त्म होते ही , मोदी नगर से पहले बना है यह जैन शिकंजी रेस्ट्रां इसके बोर्ड कई किलोमीटर सेदिखने शुरू हो जाते हैं इनकी शिकंजी बड़ी मशहूर है हालाँकि खचाखच भरे छोटे से हॉल में ३० रूपये का शिकंजीका गिलास और ४० रूपये की पनीर पकौड़े की प्लेट ( बस एक पनीर ब्रेड पकौड़ा -पांच टुकड़ों में काटा हुआ ) खानेपीने में बड़ी मुशक्कत करनी पड़ेगी लेकिन फिर भी , थोडा रिफ्रेस्गिंग तो लगेगा
रेस्ट्रां के बाहर बनी एक छोटी सी दुकान में १३० रूपये के आधे किलो रेट के विशेष बिस्कुट अत्यंत स्वादिष्ट लगे

और इस तरह पूर्ण हुआ जंगल में मंगल , फाईव इन वन पुराण