कुछ ऐसे क्षेत्र हैं जहाँ पुनर्निवास कॉलोनियां बनी हैं जहाँ दूसरे राज्यों से आए गरीब लोग २५ गज़ के मकान में ६ परिवारों के साथ रहते हैं ।
तीसरे किस्म के क्षेत्र हैं दिल्ली के गाँव । दिल्ली में ३६० गाँव हैं जिनमे अधिकतर अब शहरी क्षेत्रों में आ चुके हैं ।
लेकिन सबसे पुराना क्षेत्र है --पुरानी दिल्ली जिसे वॉल्ड सिटी भी कहते हैं । यह वह क्षेत्र है जिसे शाहजहाँबाद के नाम से जाना जाता है । पुरानी दिल्ली में मौजूद हैं --लाल किला , ज़ामा मस्जिद , चांदनी चौक , नई सड़क , सदर बाज़ार , दरीबा और कितने ही कूचे , गलियां और बाज़ार आदि ।
ऐसे क्षेत्र को विदेशों में डाउनटाउन कहा जाता है ।
इस क्षेत्र में मुख्यतय: मुस्लिम आबादी रहती है लेकिन व्यवसायिक बनिया लोग भी बहुत मिल जायेंगे । ये दोनों समुदाय सदियों से मिल जुल कर यहाँ रहते हुए अपनी गुजर बसर कर रहे हैं ।
बाहरी लोगों के लिए यहाँ की गलियों और बाज़ारों में घुसना अपने आप में एक अद्भुत अनुभव होता है ।
ऐसा ही अनुभव हमें हुआ जब एम बी ऐ कर रही हमारी बिटिया ने एक प्रोजेक्ट के सिलसिले में सदर क्षेत्र में स्थित डिप्टीगंज ( दिप्तिगंज ) के बाज़ार में जाने का कार्यक्रम बनाया । हमने तो इस क्षेत्र का नाम भी नहीं सुना था । नेट पर ही सारा नक्शा देख कर किसी तरह हमने जाने का रूट पता किया ।
पहाड़गंज से होकर सदर तक पहुँचते पहुँचते हमें चक्कर आने लगे । सड़क पर रिक्शा , ठेले , साईकल , तांगा और पैदल आदमियों की भीड़ में गाड़ी चलाना एक बड़ा ज़ोखिम भरा काम था । किसी तरह रास्ता पूछते हुए आखिर हम पहुँच ही गए डिप्टीगंज । पार्किंग मिलने का तो सवाल ही नहीं था । किसी तरह एक दुकान के आगे गाड़ी खड़ी कर हमने गाड़ी में बैठे रहना ही उचित समझा । जब तक बिटिया अपना काम ख़त्म करती , बैठे बैठे हमने जिंदगी के विभिन्न रूपों का दर्शन किया ।
यहाँ सारे इलाके में मजदूर किस्म के लोग नज़र आ रहे थे ।
रिक्शा में सवारी और सामान दोनों एक साथ ।
या फिर ट्राईसाईकल में दस फुट ऊंचे तक भरा सामान ।
हाथ से चलाने वाली रहड़ी ।
बाल्टी को ही हेलमेट बनाकर ।
सर पर बोझा लादकर ।
अकेले रहड़ी को खींचना कितना मुश्किल होता होगा ।
साईकल रिक्शा को खींचना फिर भी आसान है ।
हाथ में लटकाकर ।
दो हों तो काम थोडा आसान हो जाता है ।
इक्का दुक्का गाड़ियाँ भी नज़र आ रही थी ।
रियर व्यू मिरर में एक दृश्य ।
यहाँ आकर जीवन का एक अलग ही रूप देखा ।
ऐसा जीवन जिसमे मेहनत का पसीना खून से मिलकर रगों में दौड़ता होगा ।
जहाँ दुनिया की रंगीनियाँ नहीं , बल्कि जीवन यापन के लिए निरंतर संघर्ष रहता है ।
इक्कीसवीं सदी में रहते हुए भी जिनका जीवन उन्नीसवीं सदी के लोगों जैसा प्रतीत होता है ।
विकास जिनके लिए एक एलियन शब्द है । बरसों से जिनकी जिंदगी यूँ ही चलती रही है और चलती रहेगी ।
अंत में यही लगा कि क्या कभी हम भी पूर्ण विकसित देश हो पाएंगे ।
अंत में यही लगा कि क्या कभी हम भी पूर्ण विकसित देश हो पाएंगे ।