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Friday, May 31, 2013

इट्स वेरी ईजी टू स्टॉप स्मोकिंग , एंड आई हैव डन इट सो मेनी टाइम्स ---


धूम्रपान रहित दिवस पर आज प्रस्तुत है , एक पूर्व प्रकाशित रचना। अस्पताल एक धूम्रपान निषेद्ध क्षेत्र होता है। फिर भी लोग बीड़ी सिग्रेट पीते नज़र आते हैं। कानून की दृष्टि में यह अपराध है जिसमे १०० से ५०० रूपये तक का जुर्माना किया जा सकता है। ऐसे ही अभियान के दौरान जब लोगों को धूम्रपान करते पकड़ा, तब लोगों ने धूम्रपान करने के क्या क्या बहाने बताये, इसी पर लिखी है यह हास्य- व्यंग कविता।        



अस्पताल के प्रांगण में, ओ पी डी के आँगन में
जेठ की धूप में जले पेड़ तले,
कुछ लोग आराम कर रहे थे ।
करना मना है ,फिर भी मजे से धूम्रपान कर रहे थे ।

एक बूढ़े संग बैठा उसका ज़वान बेटा था
बूढा बेंच पर बेचैन सा लेटा था ।

साँस भले ही धोंकनी सी चल रही  थी
मूंह में फिर भी बीड़ी जल रही थी ।

बेटा भी बार बार पान थूक रहा था
बैठा बैठा वो भी सिग्रेट फूंक रहा था ।

एक बूढा तो बैठा बैठा भी हांफ रहा था
और हांफते हांफते साथ बैठी बुढिया को डांट रहा था ।

फिर डांटते डांटते जैसे ही उसको खांसी आई
उसने भी जेब से निकाल, तुरंत बीड़ी सुलगाई।

मैंने पहले बूढ़े से कहा बाबा , अस्पताल में बीड़ी पी रहे हो
चालान कट जायेगा,
वो बोला बेटा, गर बीड़ी नहीं पी, तो मेरा तो दम ही घुट जायेगा ।

डॉ ने कहा है, सुबह शाम पार्क की सैर किया करो
और खड़े होकर लम्बी लम्बी साँस लिया करो ।

लम्बे लम्बे कश लेकर वही काम कर रहा हूँ ।
खड़ा खड़ा थक गया था , लेटकर आराम कर रहा हूँ ।

मैंने बेटे से कहा --भई तुम तो युवा शक्ति के चीते हो
फिर भला सिग्रेट क्यों पीते हो ?

वो बोला बाबा की बीमारी से डर रहा हूँ
सिग्रेट पीकर टेंशन कम कर रहा हूँ ।

मैंने कहा भैये -
टेंशन के चक्कर में मत पालो हाईपरटेंशन
वरना समय से पहले ही मिल जाएगी फैमिली पेंशन ।

एक बोला मुझे तो बीड़ी बिल्कुल भी नहीं भाती है
पर क्या करूँ इसके बिना टॉयलेट ही नहीं आती है ।

दूसरा बोला सर बिना पिए, मूंह में बांस हो जाती हैं
एक दो सिग्रेट पी लेता हूँ, तो गैस पास हो जाती है ।

एक युवक हवा में धुएं के गोल गोल छल्ले बना रहा था
पता चला वो लड़का होने की ख़ुशी में ख़ुशी मना रहा था ।

कुछ युवा डॉक्टर भी सिग्रेट के कश भर रहे थे ,
मूंह में सिग्रेट दबा गर्ल फ्रेंड को इम्प्रेस कर रहे थे।


कुछ लोग ग़म में पीते हैं , कुछ पीकर ख़ुशी मनाते हैं ।
कुछ लोग दम भर पीते हैं , फिर दमे से छटपटाते हैं ।

भले ही जेब में पैसे नहीं रिक्शा लायक घर जाने को।
लेकिन बण्डल माचिस ज़रूर मिलेगी बीड़ी सुलगाने को।   

ये धूम्रपान की आदत , आसानी से कहाँ छूटती है
पहले सिग्रेट हम फूंकते हैं , फिर सिग्रेट हमें फूंकती है।


नोट : किसी ने कहा है -- इट्स वेरी ईजी टू स्टॉप स्मोकिंग , एंड आई हैव डन इट सो मेनी टाइम्स।  






Sunday, May 26, 2013

बॉलर बने बैट्टर, बल्लेबाज सट्टेबाज हो गए हैं ---


कुछ समय से समय न मिल पाने के कारण कुछ लिख नहीं पा रहा था। लेकिन कविता का कीड़ा रह रह कर कुलबुला रहा था। लिखे बिना कवियों के कवि मन को कहाँ राहत होती है। समसामयिक विषयों पर लिखना कवियों की आदत होती है। हर विषय को हंसी में ढालना हमारी आदत है। लेकिन चाहकर भी इस गंभीर विषय पर हास्य उत्पन्न करना हमें अपने बल बूते से बाहर लगा। इसलिए व्यंग ही बन पाया :     



अभी अभी पता चला है ,
क्रिकेट कोचिंग में एक नया कोर्स खुला है।

पी जी डी एम् ऍफ़ ---- यानि ,
पोस्ट ग्रेजुएट डिप्लोमा इन मैच फिक्सिंग।

इसमें क्रिकेट के स्नातक ही ले सकते हैं एडमिशन ,
विशेषकर जिनका टीम इंडिया में न हो सेलेक्शन।


यहाँ नहीं सिखाते कि छक्का चौका कैसे मारते हैं ,
ये बताते हैं कि एक जीता हुआ मैच कैसे हारते हैं !


इस कोर्स में दाल चेयरमेन की भी नहीं गलती है ,
क्योंकि हुकुमत तो यहाँ दामाद की ही चलती है।

ये वी आई पी गैलरी में करते हैं सोशल मिक्सिंग ,
पर होटल के बंद कमरे में करते है मैच फिक्सिंग।

एक स्वर्गिक ईशारे ने जब मैच का रुख मोड़ दिया,
तब से सचिन ने स्वर्ग की ओर देखना छोड़ दिया।

कभी रुमाल का काम होता था पसीना पोंछना
अब होता है मैच को प्लेट पर रखकर सोंपना।

हम मैच भर जपते रहे राम नाम की माला,
पर माला ने मैच का ही राम नाम कर डाला।  

बॉक्स में बैठे भाई लोग बरबस मुस्कराने लगे ,
मैदान में जब एक बॉलर बेबात खुजलाने लगे।

चंदू को नंदू का क्रिकेटर बेटा पसंद आ गया,
हट्टा कट्टा छै फुटा वधु के मन को भी भा गया।

चंदू बेटी का मैच फिक्स करने नंदू के घर आया ,
नंदू पुत्र खुद ही मुंबई में मैच फिक्स कर आया।

क्रिकेट के गुरु और चेले ऐसे हमराज़ हो गए हैं, 
बॉलर बने बैट्टर, बल्लेबाज सट्टेबाज हो गए हैं।  


Friday, May 17, 2013

जन्नत कहीं है तो बस यहीं है , यहीं है -- मॉल कल्चर।


कॉलेज के दिनों में अक्सर शाम को दोस्तों के साथ मार्किट की ओर निकल जाते थे , मटरगश्ती करने। खरीदारी करने की न कोई वज़ह या ज़रुरत होती थी , न हैसियत। जेब में दस रूपये डालकर जाते थे और दस के दस सुरक्षित वापस लाकर रख देते थे। उस पर यह कह कर खुश हो लेते कि ऐसा करने से इच्छा शक्ति बढती है। लेकिन ऐसा करते करते ऐसा लगता है कि इच्छा शक्ति शायद इतनी दृढ हो गई कि अब चाह कर भी पैसे खर्च करने की चाहत नहीं होती। लगता है , जब काम चल ही रहा है तो खर्च कर के भी क्या हासिल कर लेंगे। इसलिए अब भी जब मार्किट जाते हैं तो जो एक पांच सौ का नोट जेब में होता है, वह दिनों दिन सलामत रहता है। यह अलग बात है कि जिस दिन श्रीमती जी के साथ मार्किट जाना होता है , उस दिन न जाने कितने ऐसे बेचारे स्वाहा होकर मार्किट की भेंट चढ़ जाते हैं।


अब एक विशेष अंतर तो यह आ गया है कि अब युवा लोग मटरगश्ती करने मार्किट नहीं जाते बल्कि मॉल्स के एयरकंडीशंड और चमक धमक के वातावरण में इकोनोमिक लिब्रलाइजेशन से आए आर्थिक विकास का मज़ा लेते हुए मस्ती करते नज़र आते हैं। लेकिन मॉल्स में यह देखकर घबराहट सी होने लगती है कि हमारी उम्र के लोग बहुत ही कम नज़र आते हैं। जिधर भी देखिये , बच्चे , युवा और युगल ही दिखाई देते हैं। इक्के दुक्के मियां बीबी छोटे बच्चों के साथ चिल पों करते हुए मिल सकते हैं , लेकिन ५० से ऊपर के परिपक्व लोग न के बराबर नज़र आते हैं।

अचानक आए इस परिवर्तन से विचलित होकर हमने गहन विचार किया तो यह समझ आया कि २०११ में हुई जनसँख्या गणना के अनुसार देश में लगभग ५ ० % लोग २५ वर्ष से कम आयु के हैं और लगभग दो तिहाई ३५ से कम। करीब एक तिहाई १४ से कम , दो तिहाई १५ से ६४ के बीच और केवल ५ % लोग ६५ वर्ष से ज्यादा आयु के हैं। यानि हम तो १० - १५ % लोगों में ही आते हैं। इस से ज़ाहिर होता है कि हमारा देश कैसे दिन दूनी रात चौगुनी वृद्धि कर रहा है।                 




मॉल्स :

देश में आर्थिक विकास हुआ है , यह तो निश्चित है। इसका सबसे ज्यादा फायदा देश का मध्यम वर्ग समाज ही उठा रहा है। आज दिल्ली जैसे शहरों में बने मॉल्स विश्व के किसी भी बड़े और सुन्दर मॉल्स का मुकाबला कर सकते हैं। आम युवक युवतियों को हाथ में हाथ डाले मॉल्स में घूमते देख कर नई पीढ़ी की किस्मत पर रास आता है। एक दशक पहले जो सुविधाएँ सिर्फ विदेशों में कुछ ही भाग्यशाली लोगों को उपलब्ध होती थी , अब हमारे आम नागरिकों को उपलब्ध हैं। इन मॉल्स में दुकाने या शोरूम्स भी विश्व के हर ब्रांड के सामान से भरे मिलेंगे। वास्तव में देसी और विदेशी मॉल्स में शायद ही कोई अंतर नज़र आये। खाने पीने के पदार्थ भी विदेशी ब्रांड्स के मिलते हैं जिन्हें समझना भी पुरानी पीढ़ी के बस का नहीं होता।    




आप शायद अभी भी नुक्कड़ पर बनी पुरानी किसी जान पहचान के टेलर की दुकान से कपड़े सिलवाते हों , लेकिन आप के बच्चे अवश्य ही ऐसे ही किसी शोरूम से शॉपिंग करते होंगे। हमें तो अक्सर इन पुतलों को देखकर धोखा हो जाता है कि असली बन्दे खड़े हैं या पुतले।

लेकिन इन मॉल्स में एक बड़ी समस्या आती है बैठने की। किसी भी शोरूम में बैठने के लिए कोई जगह नहीं होती। जहाँ बच्चे तो दौड़ दौड़ कर एक के बाद एक पोशाक ट्राई कर रहे होते हैं , वहीँ हम जैसे बुजुर्गों को खड़े खड़े बोर होना पड़ता है। कभी किसी कपड़े को हाथ लगाया नहीं कि आ गया / गई एक ३० किलो का / की सेल्समेन / सेल्स गर्ल -- मे आई हेल्प यू । हेल्प करने को तो ऐसे तैयार रहते हैं जैसे मुफ्त में माल मिल रहा हो। अक्सर रेट देखकर अपना तो सारा मूड ही खराब हो जाता है। लेकिन बच्चों को जैसे रेट से कोई मतलब नहीं होता। सबसे महँगी चीज़ पर हाथ रखना अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझते हैं।            

बात जब खाने की आती है तो हम ढूंढते हैं समोसा , पकोड़ा या छोले बठूरे। लेकिन वहां मिलता है -- बस पूछिए मत क्या मिलता है -- बताने में भी शर्म आती है, क्योंकि खुद हमें उनका नाम नहीं पता होता। आखिर में बच्चों को ही आगे करना पड़ता है और वो जितनी भी जेब कटाएँ , सब सहना पड़ता है।   

अंत में यही कहा जा सकता है कि धरती पर अगर जन्नत है तो क्या अलग होगी। लेकिन सब के लिए नहीं , सिर्फ उनके लिए जो इतने समर्थ हैं। वर्ना अभी भी देश में करीब २२ % ( २६ करोड़ ) लोग गरीबी रेखा से नीचे रह रहे हैं जिनके लिए जन्नत का अर्थ बस दो वक्त की रोटी मुहैया होना ही होता है। 


Sunday, May 12, 2013

घर बैठे ही महसूस करें गर्मियों में भी सर्दी का अहसास -- बीट द हीट।


मौसम के मामले में दिल्ली की दो बातें मशहूर हैं -- दिल्ली की सर्दी और दिल्ली की गर्मी। इस समय दिल्ली में गर्मी चरम सीमा की ओर अग्रसर है। ऐसे में दिल्ली वाले निकल पड़ते हैं , ठन्डे देशों/ प्रदेशों की ओर एक दो सप्ताह की छुट्टी पर। लेकिन आप कहाँ जाते हैं , यह आपकी हैसियत पर निर्भर करता है। आइये देखते हैं , दिल्ली वालों की हैसियत का लेखा जोखा :

१ ) आम आदमी :  सर्दी हो या गर्मी , करीब  ९० % लोग घर से बाहर निकल ही नहीं पाते। यदि जाते भी हैं तो बच्चों के नाना नानी या दादा दादी के पास। ये वे लोग होते हैं , जिनके लिए रोजी रोटी कमाना ही एक उपलब्धि होती है।       

२ ) आम से ज़रा सा ऊपर :  ये वे मिडल क्लास लोग होते हैं जो जिंदगी को सीमित दायरे में रहकर लेकिन भरपूर जीना चाहते हैं। इन्हें हर वर्ष गर्मियों में किसी ने किसी हिल स्टेशन पर जाना होता है, तरो ताज़ा होने के लिए। इनमे ज्यादातर हम जैसे सरकारी कर्मचारी आते हैं।

३ ) छोटे मोटे बिजनेसमेन :  ये लोग निकलते हैं साउथ ईस्ट एसियन देशों की ओर जैसे थाईलेंड ,  होंगकोंग और मलेसिया आदि।

४ ) निओ रिच और बड़े बाप के बेटे :  जाते हैं स्विट्जर्लेंड , पेरिस , लन्दन या इटली के युरोपियन टूर पर। ज़ाहिर है , इनमे वे लोग ज्यादा होते हैं जिनके पास दो नंबर का पैसा ज्यादा होता है।

५ ) रियल रिच या खानदानी रईश :  ये वे लोग होते हैं जो हर साल एक नयी रोमांचक जगह की तलाश में निकल पड़ते हैं जैसे केन्या , अलास्का , साउथ अफ्रीका , रोमानिया आदि।

गर्मी जब हद से ज्यादा बढ़ जाती है तब हम तो पहाड़ों के सपने देखने लग जाते हैं। ऐसे में जाने से पहले ही ठंडक का अहसास होने लगता है। यकीन न हो तो आप भी देखिये, कुछ हिल स्टेशंस के नज़ारे और महसूस कीजिये पहाड़ों की ठंडी हवाओं को।    

उत्तर भारत के हिल स्टेशन : 
       
१ ) मसूरी -- पर्वतों की रानी -- दिल्ली से करीब २७५ किलोमीटर।



समुद्र ताल से ऊंचाई -- ६ ० ० ०  फीट।




स्टर्लिंग रिजॉर्ट मसूरी।



मसूरी से करीब ३० किलोमीटर -- धनोल्टी जहाँ सुरखंडा देवी का मंदिर है जहाँ तक एक किलोमीटर की चढ़ाई है। लेकिन जून में भी बादलों से ढका रहता है।



धनोल्टी से आगे आप जा सकते हैं चम्बा -- जहाँ नया टिहरी शहर और टिहरी डैम बना है।

२ ) मनाली : 

दिल्ली से ६५० किलोमीटर दूर। यहाँ आप जा सकते हैं -- रोहतांग पास जिसकी ऊंचाई है १ ४ ० ० ० फीट। यह लेह को जाने वाला रास्ता भी है ।     


सोलंग वैल्ली -- जहाँ पैरा ग्लाइडिंग का आनंद लिया जा सकता है।

इसके अलावा उत्तर में शिमला और नैनीताल अन्य अत्यंत मशहूर हिल स्टेशन हैं।

दक्षिण भारत : 

१ )ऊटी :
२ ) कोडाई



ऊटी -- यहाँ आपको खड़े पहाड़ नज़र नहीं आयेंगे। लेकिन नज़ारा बेहद खूबसूरत मिलेगा।    





 बोटेनिकल गार्डन ऊटी।




ऊटी से बाहर मैसूर के रास्ते में बहुत सुन्दर पहाड़ और घाटियाँ , झीलें और वन हैं।   


ऊंचाइयों पर : 

कश्मीर को जन्नत कहते हैं। लेकिन लेह लद्दाख भी कम सुन्दर नहीं।  



लेह--  टॉप ऑफ़ द वर्ल्ड डेज़र्ट का जन्नत।





साथ ही बर्फ से ढके पहाड़। कोई कैसे इसे चीनियों के हाथों में सोंप सकता है।


उत्तर पूर्वी भारत : 

दार्जिलिंग : 



मिरिक लेक -- हमें यह झील अभी तक देखी सबसे सुन्दर झील लगी।





गंगटोक :  छंगु लेक। यह प्राकृतिक झील गंगटोक से करीब ५ ० किलोमीटर दूर  पहाड़ों पर बनी है। यहाँ से नाथुला पास थोड़ी दूर पर है। नाथुला पास से चीन शुरू हो जाता है। यहाँ सीमा पर तैनात आप चीनी सैनिकों से हाथ मिला सकते हैं।

यहाँ काफी ठण्ड पड़ती है। अब तक निश्चित ही आपको भी ठण्ड लगनी शुरू हो चुकी होगी। इसलिए इस सफ़र को यहीं समाप्त करते हैं। और आगे की तैयारी करते हैं।    



Wednesday, May 8, 2013

ताउगिरी का इस्तेमाल करते हुए जिंदगी के तनाव हटायें --


कॉलेज के दिनों में खूब हँसते थे , गाते थे और मस्ती करते थे। दोस्तों में केंद्र बिंदु हम ही होते थे। डॉक्टर बनने के बाद भी यह क्रम जारी रहा। सब मित्र हमारे ही इर्द गिर्द रहकर सामंजस्य बनाये रखते थे। फिर कुछ वर्षों की दुनियादारी निभाने के बाद अस्पताल में नए लोगों से पाला पड़ा। यहाँ भी हमारे साथ हंसने हंसाने का दौर चलता रहा। कुछ लोग तो हमारे पास आते ही हंसने के लिए थे। जो कभी भी कहीं भी नहीं हँसते थे , वे हमारे साथ बैठकर हंसने का कोटा पूरा करते थे।

अक्सर देखने में आता है कि अधिकांश लोग हंसने में बड़ी कंजूसी करते हैं। हमारे एक मित्र , बाल रोग चिकित्सक , हमेशा परेशांन रहते। लेकिन हमारे पास आकर थोड़ी देर के लिए अपनी सारी परेशानियाँ भूल जाते। फिर एक दिन दूसरे अस्पताल में विभाग अध्यक्ष बन गए। लेकिन अभी भी हाल वही , माथे पर सलवटें , चेहरे पर चिंता के भाव , कंधे झुके हुए, मानो जिंदगी का सारा बोझ वही ढो रहे हैं।

यहाँ ब्लॉगिंग में भी ऐसे लोगों की कमी नहीं। हालाँकि ब्लॉगिंग करने का ध्येय सबका भिन्न हो सकता है , पसंद नापसंद भी भिन्न हो सकती है, लेकिन हास परिहास और आमोद प्रमोद के बिना ब्लॉग जिंदगी बड़ी सूनी सूनी सी लग सकती है। गत वर्ष हिंदी ब्लॉगर्स में काफी उथल पुथल हुई , कई लोग ब्लॉगिंग छोड़ फेसबुक की ओर हो लिए, कुछ ने नाता ही तोड़ लिया। कई धुरंधर माने जाने वाले ब्लॉगर्स की अनुपस्थिति से नए ब्लॉगर्स के विकास में बाधा उत्पन्न हुई।

ऐसे में एक ब्लॉगर बंधु ने फिर से माहौल को खुशनुमा बनाने की दिशा में प्रयास करना आरम्भ किया है जिसका प्रभाव भी दिखाई दे रहा है। ताऊ के नाम से प्रसिद्द श्री पी सी रामपुरिया का हास्य विनोद, ब्लॉगिंग को फिर से दिलचस्प बना रहा है। ताऊ कविता नहीं करते लेकिन उनकी कल्पना शक्ति किसी बड़े कवि से कम नहीं है। अक्सर लोग हैरानी में पड़ जाते हैं कि ताऊ के पास ऐसे खुरापाती आइडियाज आखिर आते कहाँ से हैं।


ताऊ पी सी रामपुरिया ( मुदगल ) : 


हिंदी ब्लॉगजगत में जब भी ताऊ का नाम आता है , मन में मौज मस्ती की जैसे धारा प्रवाहित होने लगती है। ताऊ की ब्लॉग पहेलियाँ सभी ब्लॉगर्स का ऐसा मानसिक व्यायाम कराती थी जैसे कोई ८१ खानों वाला क्रॉसवर्ड पज़ल करता है। एक चिकित्सक की दृष्टि से देखें तो यह एक्षरसाइज़ करने वालों को एल्ज़िमर्स डिसीज होने का खतरा कम से कम रहता है।

हालाँकि पिछले एक आध साल से ताऊ की ब्लॉगिंग सक्रियता पर ताई का अंकुश लगा रहा और ताऊ ''चैरिटी बिगिन्स एट होम '' के सिद्धांत का पालन करते हुए पूर्णतया ताई सेवा में लीन रहे जिससे पूरे ब्लॉग जगत में मायूसी सी छाई रही। लेकिन ख़ुशी की बात यह है कि ताई ने अब धर्म कर्म में व्यस्त होकर ताऊ पर से ब्लॉगिंग प्रतिबन्ध हटा दिया है और अब ताऊ पूर्ण रूप से स्पेनिश बुल की तरह बलमस्त होकर मैदान में कूद पड़ा है , बुल फाइटर्स को दिन में रंगीन तारे दिखाने के लिए।

ताऊ को देखा कहीं ! : 

ताऊ की एक ख़ास बात यह है कि आज तक उन्हें कोई पहचान नहीं पाया। हमें भी ताऊ से बस एक मुलाकात का अवसर मिला था लेकिन यह देखकर हैरान रह गए कि --

न टोपी , न पगड़ी 
न मूंछ , न दाढ़ी।  
न लट्ठ , न डंडा 
न ताबीज़, न गंडा।   
न बन्दर सी शक्ल , 
न छछूंदर सी अक्ल। 
न चेहरा काला ,
न गले में माला। 
न तन पर धोती, न चुनर,
न ताऊ, न ताऊ की उम्र। 
न देखा बुड्ढा खूंसट हठीला , 
दिखा एक बांका ज़वान सजीला।  


अक्सर हम ब्लॉगर्स स्वयं को सबसे बड़ा ज्ञानी समझने का भ्रम पाले रहते हैं। लेकिन ताऊ का प्रोफाइल पढ़कर हमारे तो ज्ञान चक्षु खुल गए और अब हम खुद को ज्ञानी समझने की भूल नहीं करते।

'' हमारे यहाँ एक पान की दूकान पर तख्ती टंगी है , जिसे हम रोज देखते हैं ! उस पर लिखा है : कृपया यहाँ ज्ञान ना बांटे , यहाँ सभी ज्ञानी हैं ! बस इसे पढ़ कर हमें अपनी औकात याद आ जाती है ! और हम अपने पायजामे में ही रहते हैं ! एवं किसी को भी हमारा अमूल्य ज्ञान प्रदान नही करते हैं !'' 

ताऊ अपना अमूल्य ज्ञान प्रदान करें या न करें , लेकिन एक बात निश्चित है कि बिना ज्ञान बघेरे भी ताऊ ब्लॉग जगत को अपने जिंदादिल लेखन से जीने की सही राह दिखा रहे हैं।

दो दिन की है जिंदगी, 
यूँ ही कट जायेगी ,  
कुछ रोने में, कुछ सोने में। 
जीने का मज़ा है ,  
जिंदादिल होने में।   

आइये ताउगिरी का इस्तेमाल करते हुए जिंदगी के तनाव हटायें -- हम भी। 
सबके जीवन में समस्याएं होती हैं , कठिनाइयाँ होती हैं , लेकिन जो इनका सामना करते हुए भी माहौल को खुशनुमा बनाये रखे , उसे ताऊ कहते हैं।  


         

Saturday, May 4, 2013

जब पहली बार हमें एक अपराधी जैसा होना महसूस हुआ -- ऐ विजिट टू दिल्ली एयरपोर्ट।


एक समय था जब दिल्ली एयरपोर्ट तभी जाना होता था जब कनाडा में रहने वाले हमारे मित्र साल दो साल में एक बार दिल्ली आते थे। उन्हें लेने जाते तो आधी रात तक बेसब्री से इंतजार करते। ट्रॉली पर सामान लादे दोनों हाथों से ट्रॉली धकाते हुए जब वे सामने आते तो पहचान कर चेहरे पर जैसे एक विजयी मुस्कान फ़ैल जाती। इसी तरह विदेश जाते समय सभी दोस्त और रिश्तेदार मिलकर उन्हें विदा करने जाते। इस अवसर पर सब प्रस्थान क्षेत्र में बने रेस्तराँ में बैठकर चाय कॉफ़ी का आनंद लेते और बाहर चलते हवाई ज़हाज़ों को देखकर रोमांचित होते।

उन दिनों प्रस्थान टर्मिनल का नज़ारा भी बड़ा दिलचस्प होता था। अक्सर पंजाब से लोग दल बल सहित आते और विदेश जाने वाले प्यारे मुंडे को फूल मालाओं से लाद कर गले मिलकर खूब रोते। एक एक बन्दे को छोड़ने ४०-५० लोग तक बस या ट्रक भर कर आते। पता नहीं कि तब विदेश जाना ज्यादा महत्त्वपूर्ण होता था या हवाई ज़हाज़ में बैठना , या शायद दोनों। हमने भी जब पहली बार हवाई यात्रा की तब अपना वी आई पी होने का भ्रम ज़ेहन में अन्दर तक उतर गया था। ट्रॉली में एक छोटा सा बैग रखकर हम ऐसे चल रहे थे जैसे बरसों बाद विदेश से लौटे हों। स्वागत में तख्ती लिए खड़े एक एक शख्स को देखते हुए ऐसे आगे बढ़ रहे थे जैसे हमारे ही स्वागत में खड़े हों।   

लेकिन अब जब देश में लो कॉस्ट एयरलाइन्स के चलते हवाई यात्रा पहले के मुकाबले सस्ती हो गई है और साथ ही मिडल क्लास की खर्च करने की क्षमता अपेक्षाकृत बढ़ गई है , तब हवाई यात्रा और एयरपोर्ट जाना उतना दुर्लभ नहीं रहा। महीने दो महीने में दोनों बच्चों में से किसी एक को लाने या छोड़ने का क्रम चलता ही रहता है। हालाँकि अब एयरपोर्ट तक मेट्रो उपलब्ध है लेकिन दिल्ली वालों को अपनी गाड़ी में चलने की बड़ी बुरी आदत है। इसी के चलते एयरपोर्ट पर गाड़ियों की भीड़ इतनी बढ़ गई कि अब वहां रुकने की इज़ाज़त ही बंद कर दी गई है।

अब डोमेस्टिक एयरपोर्ट पर पिकअप करने के लिए बस ५ मिनट का ही समय मिलेगा। उसके बाद १०० रूपये का टिकेट कट जायेगा। और यदि आपको एक घंटा रुकना पड़ गया तो समझो ६०० का चूना लग गया। हालाँकि पार्किंग में गाड़ी पार्क करने के आधे घंटे के ५० रूपये देने पड़ते हैं।

ऐसे में अक्सर देखने में आता है कि पिकअप करने के लिए जाने वाले गाड़ीवाले एयरपोर्ट से पहले ही सड़क पर  
साइड में गाड़ी लगाकर खड़े हो जाते हैं। लेकिन जल्दी ही ट्रैफिक पुलिस वाले लाउड स्पीकर पर गाड़ी का नंबर पुकारते हुए वहां से हटने को मजबूर कर देते हैं। यह नज़ारा अब आम हो गया है।

कुछ दिन पहले हम भी एक्सप्रेस हाइवे आरम्भ होने से पहले वाले स्थान पर रात १० बजे बेटी का प्लेन लैंड होने का इंतजार कर रहे थे। तभी देखा कि आगे पीछे जो और गाड़ियाँ थीं , सब अचानक चल दिए। कुछ सेकंड्स बाद ही एक पुलिस की गाड़ी हमारे साइड में आकर रुकी और उसमे बैठा पुलिसमेंन हमें घूर कर देखने लगा। हमें भी लगा जैसे हम कोई अपराधी हैं। अब तक हम यह भी समझ गए थे कि यहाँ से खिसक लेना ही बेहतर है। हालाँकि हमें एक महिला (पत्नि) के साथ देर रात यूँ सड़क पर रुके होने का अर्थ उन्होंने क्या लगाया होगा , यह सोचकर ही हंसी आ गई।    

हाइवे पर चढ़ते ही नज़ारा और भी दिलचस्प हो गया। जहाँ दायीं लेन में चलती हुई गाड़ियों में तेज चलने की रेस लगी थी , वहीँ बायीं लेंन में वे सब चल रहे थे जिन्हें एयरपोर्ट जाना था। बायीं लेन में चलने वालों में एक तरह से धीरे चलने की होड़ सी लगी थी। ज़ाहिर था , किसी को भी जाने की जल्दी नहीं थी। आखिर एक जगह जहाँ फ़्लाइओवर में मोड़ सा था , वहां पर जाकर सारी गाड़ियाँ रुकने लग गई। वहां न सिर्फ मोड़ था , बल्कि अँधेरा भी था। फिर भी लोग इत्मिनान से गाड़ी रोककर इंतजार कर रहे थे , घड़ी की सूइयों के आगे बढ़ने का। कुल मिलाकर सारा दृश्य एक संस्पेस्फुल फिल्म के  सैट जैसा लग रहा था।

इंतजार करते हुए यही विचार मन में आ रहा था कि ५ से १५ लाख की गाड़ियों में बैठे हम शहरी खाते पीते लोग वहां सिर्फ इसलिए खड़े थे क्योंकि पार्किंग के ५० रूपये बचाने थे। यह अलग बात है कि यदि पिकअप करने में ५ मिनट से ज्यादा की देरी हो जाये तो ५० बचाने के चक्कर में १०० रूपये भी देने पड़ सकते हैं। उधर फ़्लाइओवर के ऊपर से होती हुई एयरपोर्ट मेट्रो जा रही थी , बिल्कुल खाली। एयरपोर्ट आने वाली मेट्रो में भी मुश्किल से १० सवारियां थीं। ज़ाहिर था कि हम दिल्ली वालों को अपनी गाड़ी से ही चलने की भयंकर आदत है। इसीलिए सब जगह पार्किंग की समस्या बढती जा रही है।           

अब सवाल यह उठता है कि इन परिस्थितियों में दोष किसे दिया जाये।

क्या उन्हें जो अपने प्रिय परिजनों को लेने एयरपोर्ट अपनी गाड़ी में जाते हैं ?
या एयरपोर्ट मेट्रो लोगों को लुभा नहीं पा रही है ?  
या फिर एयरपोर्ट अधिकारीगण इस समस्या का कोई बेहतर समाधान नहीं निकाल पा रहे हैं ? 

जब तक कोई बेहतर विकल्प नहीं मिलता , तब तक लगता है कि दिल्ली के सांभ्रांत लोग यूँ ही मन में एक अपराधबोध लिए सडकों पर पुलिस से बचते फिरते रहेंगे।