बचपन की दो सहेली , अब पचपन की देहलीज़ पर , जी भर कर शॉपिंग कर शौफर ड्रिवन कार में बैठी अपनी खरीदारी पर मन ही मन खुश होती हुई अठखेलियाँ कियेजा रही थी । तभी गाड़ी एक रेड लाईट पर रुकी । शीशे पर ठक ठक की आवाज़ से दोनों का ध्यान उधर गया तो एक सेल्समेन को हाथ पर लेडिज सूट लादे खड़ा पाया ।
"मैडम सूट ले लो । बहुत अच्छे हैं और सस्ते भी ।"
---नहीं भाई , नहीं चाहिए । सेठानियाँ शॉपिंग कर थक चुकी थी ।
"मेडम एक बार देख तो लो । इतने अच्छे सूट इतने सस्ते कहीं नहीं मिलेंगे ।"
एक सहेली ने कहा --भई ज़रा देख तो लें । बेचारा कितनी गर्मी में पसीने पसीने होकर बेच रहा है ।
--अच्छा कितने का है ।
"मेडम बस १५० का ।"
--अरे इतने में तो कटरे में ही मिल जायेगा ।
"मेडम इतने सुन्दर सूट नहीं मिलेंगे । हाथ लगाकर तो देखो ।"
--नहीं भई --बहुत महंगे हैं ।
सेल्समेन ने देखा , बत्ती हरी होने में ३० सेकंड्स बचे थे ।
बोला --मेडम १५० में सारे ले जाइये । उसके हाथ में चार सूट देखकर सेठानी के मूंह में पानी आ गया ।
दूसरी बोली --देख लो, दीवाली पर नौकरों को देने के काम आ जायेंगे ।
--लेकिन ऐसे नहीं चलेगा , थोडा तो कम करो । हम तो बस १०० रूपये देंगे ।
सेल्समेन ने देखा , अब बस दस सेकण्ड बचे थे । बोला अच्छा चलिए --१०० में सारे ले जाइये ।
अपनी सूट की लूट पर दोनों सहेलियां खिलखिला कर हंस पड़ी । गाड़ी चलने पर एक ने कहा --ज़रा खोल कर तो दिखाओ भई । कैसे सूट हैं ?
सूट बहुत सुन्दर पैकिंग में पैक किये गए थे ।
पैकिंग खोल कर देखा तो सेठानी को कुछ शक हुआ ।
--भई ये तो पुराने से लगते हैं ।
सहेली -- तो क्या हुआ , नौकरानियों को ही तो देने हैं । अब २५ रूपये में भला कहीं सूट आते हैं ।
अब सहेली ने जैसे ही सूट उठाकर देखे , वह चीखी --अरे ये तो वही सूट हैं जो मैंने कुछ दिन पहले एक फटे हाल भिखारिन पर तरस खाकर उसे दान में दिए थे ।
विशेष :
सेठ जी --भाग्यवान , कुछ समझी ?
सेठानी --हाँ जी, दान पुण्य भी सोच समझ कर ही करना चाहिए ।
Monday, February 28, 2011
Tuesday, February 22, 2011
कौन कहता है कि नारी अबला होती है ?
कहने को तो वह अपनी दूर की रिश्तेदार है । वैसे बहुत करीबी रिश्तेदार की करीबी रिश्तेदार है । शायद रिश्तों की केमिस्ट्री ऐसी ही होती है ।
उससे पहली बार १३-१४ साल पहले मिला था । तब वह १७-१८ वर्ष की पतली दुबली , सुन्दर सी , अल्हड नवयौवना थी । शांत स्वाभाव , आयु सुलभ सकुचाहट परन्तु सुव्यवहारिक । नाम तो कुछ और है लेकिन घर में सब उसे स्वीटी कह कर बुलाते हैं अभी भी । कभी कभी प्यार से स्विटू भी कहते हैं ।
पिछले दिनों दोबारा मुलाकात हुई , अलबत्ता प्रतिकूल परिस्थितियों में ।
इस बीच उसने ला की डिग्री हासिल की , शादी हो गई और अब दो प्यारी प्यारी सी छोटी बच्चियों की मां है ।
बातों का सिलसिला शुरू हुआ तो पता चला वह राजस्थान में एक राष्ट्रीयकृत बैंक में काम करती है , रिकवरी डिपार्टमेंट की इंचार्ज के पद पर ।
सुनकर थोड़ी हैरानी हुई । क्योंकि अभी तक तो हमने यह काम हट्टे कट्टे , लम्बे चौड़े , बाउंसर टाईप ज़वानों को ही करते देखा सुना है ।
लेकिन उसने बताया कि वह पूरे राजस्थान में अकेली लड़की है जो यह काम कर रही है ।
फिर शुरू हुई उसकी अपने काम की दास्तान जिसे सुनकर हमने दातों तले उंगली दबा ली ।
लोन रिकवरी का काम कोई सज्जनता का काम तो है नहीं । पहले प्यार से , फिर थोडा सख्ताई से और यदि तब भी बन्दे को अक्ल न आये तो गिरेबान पकड़कर सबके सामने ज़लील करनी की कला में ज़वाब नहीं उसका ।
मैंने पूछा कि क्या इसके लिए उसने कुंगफू कराटे भी सीखा है ।
छाती पर हाथ रखकर वो बोली --"नहीं भाई साहब । इंसान में यहाँ हिम्मत होनी चाहिए , फिर किसी चोर उच्चक्के की क्या मजाल कि पंगा ले ले । मुझे मेरे पिताजी ने बचपन से ही मुझे बहादुरी का पाठ पढाया है । मैं उनके लिए बेटी नहीं, बेटा हूँ । वो अक्सर कहते थे कि यदि कोई लड़का तुम्हे छेड़े तो रोते हुए घर नहीं आना । उसका मूंह तोड़कर आना । बाकि मैं संभल लूँगा ।"
राजस्थान में भरतपुर के एक बड़े ज़मींदार की यह बेटी शिकार की शौक़ीन रही है । हालाँकि आजकल शिकार पर रोक है ।
देखने में आम लड़कियों की तरह , स्वीट लुकिंग , व्यवहार कुशल इस लड़की से मिलकर मैं उसके व्यक्तित्त्व से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सका ।
ऐसी बहादुर और साहसी बेटी पर किसी भी पिता को गर्व हो सकता है ।
कौन कहता है कि नारी अबला होती है ?
उससे पहली बार १३-१४ साल पहले मिला था । तब वह १७-१८ वर्ष की पतली दुबली , सुन्दर सी , अल्हड नवयौवना थी । शांत स्वाभाव , आयु सुलभ सकुचाहट परन्तु सुव्यवहारिक । नाम तो कुछ और है लेकिन घर में सब उसे स्वीटी कह कर बुलाते हैं अभी भी । कभी कभी प्यार से स्विटू भी कहते हैं ।
पिछले दिनों दोबारा मुलाकात हुई , अलबत्ता प्रतिकूल परिस्थितियों में ।
इस बीच उसने ला की डिग्री हासिल की , शादी हो गई और अब दो प्यारी प्यारी सी छोटी बच्चियों की मां है ।
बातों का सिलसिला शुरू हुआ तो पता चला वह राजस्थान में एक राष्ट्रीयकृत बैंक में काम करती है , रिकवरी डिपार्टमेंट की इंचार्ज के पद पर ।
सुनकर थोड़ी हैरानी हुई । क्योंकि अभी तक तो हमने यह काम हट्टे कट्टे , लम्बे चौड़े , बाउंसर टाईप ज़वानों को ही करते देखा सुना है ।
लेकिन उसने बताया कि वह पूरे राजस्थान में अकेली लड़की है जो यह काम कर रही है ।
फिर शुरू हुई उसकी अपने काम की दास्तान जिसे सुनकर हमने दातों तले उंगली दबा ली ।
लोन रिकवरी का काम कोई सज्जनता का काम तो है नहीं । पहले प्यार से , फिर थोडा सख्ताई से और यदि तब भी बन्दे को अक्ल न आये तो गिरेबान पकड़कर सबके सामने ज़लील करनी की कला में ज़वाब नहीं उसका ।
मैंने पूछा कि क्या इसके लिए उसने कुंगफू कराटे भी सीखा है ।
छाती पर हाथ रखकर वो बोली --"नहीं भाई साहब । इंसान में यहाँ हिम्मत होनी चाहिए , फिर किसी चोर उच्चक्के की क्या मजाल कि पंगा ले ले । मुझे मेरे पिताजी ने बचपन से ही मुझे बहादुरी का पाठ पढाया है । मैं उनके लिए बेटी नहीं, बेटा हूँ । वो अक्सर कहते थे कि यदि कोई लड़का तुम्हे छेड़े तो रोते हुए घर नहीं आना । उसका मूंह तोड़कर आना । बाकि मैं संभल लूँगा ।"
राजस्थान में भरतपुर के एक बड़े ज़मींदार की यह बेटी शिकार की शौक़ीन रही है । हालाँकि आजकल शिकार पर रोक है ।
देखने में आम लड़कियों की तरह , स्वीट लुकिंग , व्यवहार कुशल इस लड़की से मिलकर मैं उसके व्यक्तित्त्व से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सका ।
ऐसी बहादुर और साहसी बेटी पर किसी भी पिता को गर्व हो सकता है ।
कौन कहता है कि नारी अबला होती है ?
Wednesday, February 16, 2011
जब बड़ा आदमी बन जाऊँगा तो कैसा लगेगा ----
पिता सरकारी दफ्तर में चपरासी था । अभावों में जीना सीख लिया था उसने । जब सब बच्चे गली में क्रिकेट खेल रहे होते तो वह खिड़की से झांक कर दूसरों को खेलते देख कर ही संतुष्ट हो जाता ।
लेकिन ऊपर वाले ने उसे विलक्षण बुद्धि दी थी । इसलिए मन में उत्साह और लग्न थी कुछ कर दिखाने की ।
उस दिन भी तो वह खिड़की से ही झांक रहा था कि तभी पडोसी की नज़र उस पर पड़ गई ।
थमा दिया हाथ में एक गिलास और पांच पैसे का सिक्का ।
घर में मेहमान आया था । चाय बनानी थी , दूध चाहिए था ।
पांच पैसे में पचास ग्राम सप्रेटा दूध आता था ।
दो कप चाय आसानी से बन जाती ।
डेरी की लाइन में एक हाथ में कांच का गिलास और दूसरे में सिक्का पकडे, वह इंतजार कर रहा था अपनी बारी का ।
मन में विश्वास था कि एक दिन वह बड़ा आदमी ज़रूर बनेगा ।
और सोचता जा रहा था कि जब वो बड़ा आदमी बन जाएगा और ये दिन याद आयेंगे तो कैसा लगेगा ।
चपरासी ने आवाज़ दी तो ध्यान भंग हुआ --सा`ब चाय ठंडी हो गई । दूसरी ला दूँ क्या ?
बाहर जिले के लोग आपसे मिलने के लिए इंतजार कर रहे हैं ।
जिलाधीश के पास पचास गाँव की पंचायत के लोग फ़रियाद लेकर आए थे, गावों में पीने के पानी की व्यवस्था के लिए ।
नोट : यदि मन में विश्वास हो तो कुछ भी असंभव नहीं ।
लेकिन ऊपर वाले ने उसे विलक्षण बुद्धि दी थी । इसलिए मन में उत्साह और लग्न थी कुछ कर दिखाने की ।
उस दिन भी तो वह खिड़की से ही झांक रहा था कि तभी पडोसी की नज़र उस पर पड़ गई ।
थमा दिया हाथ में एक गिलास और पांच पैसे का सिक्का ।
घर में मेहमान आया था । चाय बनानी थी , दूध चाहिए था ।
पांच पैसे में पचास ग्राम सप्रेटा दूध आता था ।
दो कप चाय आसानी से बन जाती ।
डेरी की लाइन में एक हाथ में कांच का गिलास और दूसरे में सिक्का पकडे, वह इंतजार कर रहा था अपनी बारी का ।
मन में विश्वास था कि एक दिन वह बड़ा आदमी ज़रूर बनेगा ।
और सोचता जा रहा था कि जब वो बड़ा आदमी बन जाएगा और ये दिन याद आयेंगे तो कैसा लगेगा ।
चपरासी ने आवाज़ दी तो ध्यान भंग हुआ --सा`ब चाय ठंडी हो गई । दूसरी ला दूँ क्या ?
बाहर जिले के लोग आपसे मिलने के लिए इंतजार कर रहे हैं ।
जिलाधीश के पास पचास गाँव की पंचायत के लोग फ़रियाद लेकर आए थे, गावों में पीने के पानी की व्यवस्था के लिए ।
नोट : यदि मन में विश्वास हो तो कुछ भी असंभव नहीं ।
Thursday, February 10, 2011
नियति
आज प्रस्तुत है एक लघु कथा ।
घंटी बजते ही सेठ जी ने दरवाज़ा खोला और सामने काम वाली बाई को देख कर बिगड़ पड़े ।
--कहने के बावजूद कर दी न देर ।
कामवाली कुछ बोली नहीं और सर झुका कर मुस्कराती हुई रसोई में चली गई ।
रसोई में सेठानी ने भी डांटा --कमला तुम्हे कहा था न कि कल टाईम पर आ जाना , फिर देर कर दी ।
कमला -- बीबी जी , का करते , आज हमरी लड़ाई है गई ।
सेठानी --किसके साथ ?
कमला --हमरे मर्द के साथ । ऊ हमरे इक रिश्तेदार की लौंडिया की सादी भई । वे हमरी लौंडिया की सादी में लोहे की अलमारी दियें रहीं । सो हमका भी अलमारी देनी थी । हमरा मर्द एक दूसरे रिश्तेदार के पास पहुँच गया , पैसन मांगने के वास्ते । ऊ मना कर दियें ।
हमने कहा --तुम कुछ काम धंधा तो करत नाहि । कौन तुम्हे रुपया पैसा देइं ।
बस उनका आ गया गुस्सा । चाय का कप वो फैंका और ज़मा दिए हमका दो झापड़ ।
इतना कह कामवाली शांत भाव से अपने बर्तन मांजने के काम में लीन हो गई ।
नोट : हमारे समाज में जाने कितनी ही ऐसी कमला बाई हैं जो सुबह शाम बर्तन मांजकर अपने निकम्मे पति और बच्चों का पेट पालती हैं । फिर भी पति की झाड और झापड़ खाती हैं । क्या यही इनकी नियति है ?
घंटी बजते ही सेठ जी ने दरवाज़ा खोला और सामने काम वाली बाई को देख कर बिगड़ पड़े ।
--कहने के बावजूद कर दी न देर ।
कामवाली कुछ बोली नहीं और सर झुका कर मुस्कराती हुई रसोई में चली गई ।
रसोई में सेठानी ने भी डांटा --कमला तुम्हे कहा था न कि कल टाईम पर आ जाना , फिर देर कर दी ।
कमला -- बीबी जी , का करते , आज हमरी लड़ाई है गई ।
सेठानी --किसके साथ ?
कमला --हमरे मर्द के साथ । ऊ हमरे इक रिश्तेदार की लौंडिया की सादी भई । वे हमरी लौंडिया की सादी में लोहे की अलमारी दियें रहीं । सो हमका भी अलमारी देनी थी । हमरा मर्द एक दूसरे रिश्तेदार के पास पहुँच गया , पैसन मांगने के वास्ते । ऊ मना कर दियें ।
हमने कहा --तुम कुछ काम धंधा तो करत नाहि । कौन तुम्हे रुपया पैसा देइं ।
बस उनका आ गया गुस्सा । चाय का कप वो फैंका और ज़मा दिए हमका दो झापड़ ।
इतना कह कामवाली शांत भाव से अपने बर्तन मांजने के काम में लीन हो गई ।
नोट : हमारे समाज में जाने कितनी ही ऐसी कमला बाई हैं जो सुबह शाम बर्तन मांजकर अपने निकम्मे पति और बच्चों का पेट पालती हैं । फिर भी पति की झाड और झापड़ खाती हैं । क्या यही इनकी नियति है ?
Thursday, February 3, 2011
जिंदगी की डगर पर एक सफ़र , समीर लाल जी के साथ--देख लूँ तो चलूँ.
देख लूँ तो चलूं --आखिर समीर लाल जी की उपन्यासिका पढने का अवसर मिल ही गया । वास्तव में यह लघु उपन्यास कम और जिंदगी की डगर पर चलना सिखाने वाली एक सार्थक पुस्तिका ज्यादा है । इसकी भूमिका में ही श्री पंकज सुबीर ने सही लिखा है कि इसे पढ़कर आपको लगेगा जैसे आप अपने ही जीवन की कहानी पढ़ रहे हैं ।
मुझे भी पढ़ते हुए यही लगा कि जैसे जीवन के अनुभव मेरे हों और शब्दों में ढाला हो समीर लाल जी ने ।
कनाडा में एक लम्बे अरसे से रह रहे समीर लाल जी ने निश्चित ही दोनों देशों की जिंदगी को करीब से देखा और समझा है ।
लेकिन इस पुस्तिका की विशेष बात यह है कि इसमें एक एक घंटे के सफ़र की दास्तान को इतने मनोरंजक तरीके से प्रस्तुत किया गया है कि आप इसे ही एक सांस में पढ़ डालेंगे ।
कई वृतांत तो ऐसे हैं जिन्हें आपने उनके ब्लॉग पर भी पढ़ा होगा लेकिन एक धाराप्रवाह रूप में पढ़कर आपको पता भी नहीं चलेगा कि कैसे कहानी में फिट हो गया ।
आइये आपको इसे पढवाते हैं संक्षिप्त में, एक एक भाग में :
भाग १:
यह कहानी है एक मित्र के गृह प्रवेश में अकेले जाने की , जो मात्र एक घंटे की दूरी पर है ।
हाईवे पर सूअरी और सुंदरी के साथ सफ़र की दास्तान को बड़े मनोरंजक रूप में प्रस्तुत किया गया है ।
भाग २ :
मित्र ने घर एक गाँव में बनाया है । यहाँ बताया है कि किस तरह वहां सभी को अपना देश और गाँव याद आता है । कवियों की कविताओं में भी बस गाँव ही बसे रहते हैं जबकि वे खुद पीछे छोड़ कर आए हैं ।
विदेश जाते समय मन में उमड़ते घुमड़ते विचारों और भावनाओं को बड़ी खूबी से सुनाया है समीर जी ने ।
हालाँकि गाँव यदि ऐसा हो तो किसे तकलीफ होगी --
भाग ३ :
टिम हॉरटन्स की कॉफ़ी पीते हुए वहां काम करने वाले १४-१५ साल के बच्चों को देखकर लगता है जैसे बाल श्रम या बाल शोषण जैसी बात यहाँ कोई नहीं जानता । यह अलग बात है कि जिसे हम बाल श्रम कहते हैं , उसे वहां चाइल्ड डेवलेपमेंट कहते हैं ।
भाग ४:
यहाँ एक एनोरेक्षिक ( डाइटिंग पर ) नवयौवना के आहार का आँखों देखा हाल प्रस्तुत किया है समीर लाल जी ने ।
मानो कह रहे हों --
वे कम खाते हैं शौक से
हम खाकर भी मरते हैं भूख से ।
भाग ५ :
यहाँ वहां की गोरी मेमों और लंगूर से दिखने वाले मर्दों पर गहरा कटाक्ष है ।
ऐसा लगता है कि हम हिन्दुस्तानी गोरी चमड़ी से बहुत प्रभावित रहते हैं । तभी तो गीतों में भी लड़की अक्सर गोरी ही होती है न कि काली ।
लेकिन ऐसा भी नहीं है --सांवली लड़की को भी शायरों ने बहुत सराहा है ।
भाग ६ में समीर जी ने जर्मनी में समलैंगिक परेड का बड़ा रोचक वर्णन किया है जिसे आप खुशदीप सहगल के ब्लॉग पर पढ़ ही चुके हैं ।
यहाँ भी समलैंगिक विवाह का प्रचलन होने लगा है ।
कैसा ज़माना आ गया है । पहले मां बेटे से कहती थी --बेटा शादी किसी सुन्दर , सुशील और गृह कार्य में दक्ष लड़की से ही करना ।
लेकिन हमारे कंजर्वेटिव समाज में आज माएं यही कहती हैं कि बेटे शादी तो लड़की से ही करना ।
भाग ७ :
में विदेश में रहने वाले लोगों के मात पिता के कशमकश को दिखाया गया है ।
जाने वाले चले जाते हैं । फिर आते हैं मेहमान बनकर । बूढ़े मां बाप बस राह ही तकते रहते हैं उनके आने की ।
भाग ८ : यहाँ मृत्यु पर होने वाले दिखावे और आडम्बरों को बखूबी बताया गया है , यहाँ भी और वहां भी ।
भाग ९ : जगह कोई भी हो , मर्द बाज़ नहीं आते अपनी हरकतों से । हाइवे पर भी साथ वाली गाड़ी में झांककर देखते हैं कि लड़की कैसी है जैसे उससे चक्कर ही चला लेंगे ।
समीर जी कहते हैं कि जिंदगी हो या कार --साइड मिरर में देखकर नहीं चला करती ।
भाग १० :
आर्ट ऑफ़ लिविंग पर गहरा कटाक्ष । कहते हैं जिस उम्र में आर्ट ऑफ़ डाइंग सीखनी चाहिए , उसमे आर्ट ऑफ़ लिविंग सीखकर क्या करेंगे ।
बात तो पते की कही है ।
भाग ११ :
देश भारत हो या कनाडा --ड्राईवर डरते हैं तो बस ट्रेफिक पुलिस से ।
वहां के हैवेज पर १२० की स्पीड पार करते ही फ़ौरन चलान कट सकता है ।
लेकिन जब हाइवे ऐसे खुले हों तो किसका दिल नहीं करेगा गाड़ी दौड़ाने का ।
सड़क के दोनों ओर घने जंगल से निकलकर जंगली जानवर बेचारे कुत्ते की मौत मर जाते हैं ।
भाग १२ :
जिसे देखो बस भागा ही जा रहा है । वहां दौड़ने के लिए हाइवेज जो बने हैं । यहाँ की तरह नहीं कि सड़क किनारे बना दिए मंदिर या दरगाह और रोक दिया ट्रेफिक ।
भाग १३ :
लेकिन फिर भी एक शून्य सा लगता है । गलियों में , घरों के बाहर , लोगों के मन में भी ।
कोई शोर नहीं , कोई परिंदा नहीं , यहाँ तक कि एक कुत्ता भी नहीं ।
ऐसी ही होती हैं वहां की गलियां । एक दम सुनसान ।
भाग १४ :
गोरों का असर यहाँ ही नहीं , वहां भी लोगों के दिलो दिमाग पर छाया रहता है । यह बात किसी भी पार्टी या भोज में देखी जा सकती है । मित्र के घर पर भी एक गोरे के साथ सभी बड़े चाव से बात कर रहे थे जैसे वह एक आम आदमी नहीं बल्कि बिल क्लिंटन हो ।
हम तो सोचे थे कि बस हम ही स्टार स्ट्रक हैं।
भाग १५ :
अंत में समीर जी एक अनजानी वो का ज़िक्र करते हैं ।
हम भी सोच रहे थे कि अब तक लिंडा का ज़िक्र कैसे नहीं आया । वही लिंडा जिस पर जून २००८ में लिखा लेख पढ़कर हम पहली बार समीर जी से प्रभावित हुए थे और उनसे मिलने का विचार बनाया था ।
शायद पूरी कहानी में लिंडा ही एक काल्पनिक पात्र है ।
नोट : यह समीर लाल जी के लघु उपन्यास की समीक्षा नहीं है । पढ़ते हुए कहीं न कहीं एक एक बात सत्य प्रतीत हुई । क्योंकि २००८ में अपने तीन सप्ताह के कनाडा भ्रमण में हमने भी यहीं बातें देखी और महसूस की थी जिन्हें श्री समीर लाल जी ने बहुत खूबसूरत अंदाज़ में प्रस्तुत किया है ।
मुझे भी पढ़ते हुए यही लगा कि जैसे जीवन के अनुभव मेरे हों और शब्दों में ढाला हो समीर लाल जी ने ।
कनाडा में एक लम्बे अरसे से रह रहे समीर लाल जी ने निश्चित ही दोनों देशों की जिंदगी को करीब से देखा और समझा है ।
लेकिन इस पुस्तिका की विशेष बात यह है कि इसमें एक एक घंटे के सफ़र की दास्तान को इतने मनोरंजक तरीके से प्रस्तुत किया गया है कि आप इसे ही एक सांस में पढ़ डालेंगे ।
कई वृतांत तो ऐसे हैं जिन्हें आपने उनके ब्लॉग पर भी पढ़ा होगा लेकिन एक धाराप्रवाह रूप में पढ़कर आपको पता भी नहीं चलेगा कि कैसे कहानी में फिट हो गया ।
आइये आपको इसे पढवाते हैं संक्षिप्त में, एक एक भाग में :
भाग १:
यह कहानी है एक मित्र के गृह प्रवेश में अकेले जाने की , जो मात्र एक घंटे की दूरी पर है ।
हाईवे पर सूअरी और सुंदरी के साथ सफ़र की दास्तान को बड़े मनोरंजक रूप में प्रस्तुत किया गया है ।
भाग २ :
मित्र ने घर एक गाँव में बनाया है । यहाँ बताया है कि किस तरह वहां सभी को अपना देश और गाँव याद आता है । कवियों की कविताओं में भी बस गाँव ही बसे रहते हैं जबकि वे खुद पीछे छोड़ कर आए हैं ।
विदेश जाते समय मन में उमड़ते घुमड़ते विचारों और भावनाओं को बड़ी खूबी से सुनाया है समीर जी ने ।
हालाँकि गाँव यदि ऐसा हो तो किसे तकलीफ होगी --
भाग ३ :
टिम हॉरटन्स की कॉफ़ी पीते हुए वहां काम करने वाले १४-१५ साल के बच्चों को देखकर लगता है जैसे बाल श्रम या बाल शोषण जैसी बात यहाँ कोई नहीं जानता । यह अलग बात है कि जिसे हम बाल श्रम कहते हैं , उसे वहां चाइल्ड डेवलेपमेंट कहते हैं ।
भाग ४:
यहाँ एक एनोरेक्षिक ( डाइटिंग पर ) नवयौवना के आहार का आँखों देखा हाल प्रस्तुत किया है समीर लाल जी ने ।
मानो कह रहे हों --
वे कम खाते हैं शौक से
हम खाकर भी मरते हैं भूख से ।
भाग ५ :
यहाँ वहां की गोरी मेमों और लंगूर से दिखने वाले मर्दों पर गहरा कटाक्ष है ।
ऐसा लगता है कि हम हिन्दुस्तानी गोरी चमड़ी से बहुत प्रभावित रहते हैं । तभी तो गीतों में भी लड़की अक्सर गोरी ही होती है न कि काली ।
लेकिन ऐसा भी नहीं है --सांवली लड़की को भी शायरों ने बहुत सराहा है ।
भाग ६ में समीर जी ने जर्मनी में समलैंगिक परेड का बड़ा रोचक वर्णन किया है जिसे आप खुशदीप सहगल के ब्लॉग पर पढ़ ही चुके हैं ।
यहाँ भी समलैंगिक विवाह का प्रचलन होने लगा है ।
कैसा ज़माना आ गया है । पहले मां बेटे से कहती थी --बेटा शादी किसी सुन्दर , सुशील और गृह कार्य में दक्ष लड़की से ही करना ।
लेकिन हमारे कंजर्वेटिव समाज में आज माएं यही कहती हैं कि बेटे शादी तो लड़की से ही करना ।
भाग ७ :
में विदेश में रहने वाले लोगों के मात पिता के कशमकश को दिखाया गया है ।
जाने वाले चले जाते हैं । फिर आते हैं मेहमान बनकर । बूढ़े मां बाप बस राह ही तकते रहते हैं उनके आने की ।
भाग ८ : यहाँ मृत्यु पर होने वाले दिखावे और आडम्बरों को बखूबी बताया गया है , यहाँ भी और वहां भी ।
भाग ९ : जगह कोई भी हो , मर्द बाज़ नहीं आते अपनी हरकतों से । हाइवे पर भी साथ वाली गाड़ी में झांककर देखते हैं कि लड़की कैसी है जैसे उससे चक्कर ही चला लेंगे ।
समीर जी कहते हैं कि जिंदगी हो या कार --साइड मिरर में देखकर नहीं चला करती ।
भाग १० :
आर्ट ऑफ़ लिविंग पर गहरा कटाक्ष । कहते हैं जिस उम्र में आर्ट ऑफ़ डाइंग सीखनी चाहिए , उसमे आर्ट ऑफ़ लिविंग सीखकर क्या करेंगे ।
बात तो पते की कही है ।
भाग ११ :
देश भारत हो या कनाडा --ड्राईवर डरते हैं तो बस ट्रेफिक पुलिस से ।
वहां के हैवेज पर १२० की स्पीड पार करते ही फ़ौरन चलान कट सकता है ।
लेकिन जब हाइवे ऐसे खुले हों तो किसका दिल नहीं करेगा गाड़ी दौड़ाने का ।
सड़क के दोनों ओर घने जंगल से निकलकर जंगली जानवर बेचारे कुत्ते की मौत मर जाते हैं ।
भाग १२ :
जिसे देखो बस भागा ही जा रहा है । वहां दौड़ने के लिए हाइवेज जो बने हैं । यहाँ की तरह नहीं कि सड़क किनारे बना दिए मंदिर या दरगाह और रोक दिया ट्रेफिक ।
भाग १३ :
लेकिन फिर भी एक शून्य सा लगता है । गलियों में , घरों के बाहर , लोगों के मन में भी ।
कोई शोर नहीं , कोई परिंदा नहीं , यहाँ तक कि एक कुत्ता भी नहीं ।
ऐसी ही होती हैं वहां की गलियां । एक दम सुनसान ।
भाग १४ :
गोरों का असर यहाँ ही नहीं , वहां भी लोगों के दिलो दिमाग पर छाया रहता है । यह बात किसी भी पार्टी या भोज में देखी जा सकती है । मित्र के घर पर भी एक गोरे के साथ सभी बड़े चाव से बात कर रहे थे जैसे वह एक आम आदमी नहीं बल्कि बिल क्लिंटन हो ।
हम तो सोचे थे कि बस हम ही स्टार स्ट्रक हैं।
भाग १५ :
अंत में समीर जी एक अनजानी वो का ज़िक्र करते हैं ।
हम भी सोच रहे थे कि अब तक लिंडा का ज़िक्र कैसे नहीं आया । वही लिंडा जिस पर जून २००८ में लिखा लेख पढ़कर हम पहली बार समीर जी से प्रभावित हुए थे और उनसे मिलने का विचार बनाया था ।
शायद पूरी कहानी में लिंडा ही एक काल्पनिक पात्र है ।
नोट : यह समीर लाल जी के लघु उपन्यास की समीक्षा नहीं है । पढ़ते हुए कहीं न कहीं एक एक बात सत्य प्रतीत हुई । क्योंकि २००८ में अपने तीन सप्ताह के कनाडा भ्रमण में हमने भी यहीं बातें देखी और महसूस की थी जिन्हें श्री समीर लाल जी ने बहुत खूबसूरत अंदाज़ में प्रस्तुत किया है ।
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