दोपहर का समय , सूरज लगभग सर पर , अक्टूबर माह की तेज लेकिन सुहानी धूप और हरा भरा पार्क ! वायु का प्रवाह ना के बराबर होने से झील का साफ पानी एकदम स्थिर ! पानी मे आस पास के पेड़ों का प्रतिबिम्ब झील की सुंदरता को बढ़ाते हुए ! कुल मिलाकर एक नयनाभिराम दृश्य मन को शांति और सकूं पहुंचाता हुआ ! ऐसे मे दूध सी सफेद बतखों का एक झुण्ड पार्क की हरी घास से निकल कर पानी की ओर बढ़ता हुआ जैसे किसी राजा की पंक्तिबद्ध सेना युद्ध के मैदान की ओर जाती हुई !
झुण्ड के सबसे आगे झुण्ड के सरदार और उसके पीछे सेनापति सबसे पहले पानी मे अवतरित हुए तो झील के शांत पानी मे ऐसी तरंगें पैदा हुई जैसे किसी षोडशी को देखकर किसी तरुण के दिल मे उत्पन्न होती हैं ! पेड़ों की छाया भी जैसे प्रेमासक्त नागिन सी लहराने सी लगी ! छपाक की आवाज़ ने कानों मे ऐसा मधुर स्वर घोल दिया जैसे किसी संगीतकार की बांसुरी की धुन पर किसी तबलची ने धाप छोड़ी हो ! पार्क की खामोशी मे छई छप्पा छई की तान जैसे वातावरण मे गूँजने लगी !
फिर एक अनुशासित बटालियन की तरह बतखों का समूह चल पड़ा अपनी मंज़िल की ओर जैसे सरदार ने सबको कोई मूक संदेश दे दिया हो ! झील के गहरे नीले पानी मे सफेद रंग की बतखें मोतियों सी चमक रही थी ! पानी की सतह पर वे जैसे स्वत: ही तैर और चल रही थी ! पानी की तरंगों का दायरा अब फैलता जा रहा था जो पानी मे बनी बाकि छवियों को लहराता सा जा रहा था !
बतखें अब अपने गंतव्य स्थान पर पहुंच गई थी ! शायद यह उनकी जीविका का रोजमर्रा का हिस्सा था क्योंकि उन्हे मालूम था कि चारा कहाँ मिलने वाला था ! चारा डालने वाले भी जैसे तैयार ही बैठे थे !
अब सब तन्मयता से चुग्गा चुगने मे व्यस्त हो गई थी ! दाना खाने मे उनकी तत्परता देखते ही बनती थी ! लेकिन अब वे अकेली नहीं थी ! पानी मे रहने वाले अन्य जीव भी इस प्रक्रिया मे शामिल हो गए थे ! जिसका दांव लग रहा था वही मूँह मे दाना दबोच लेता था ! इंसान और अन्य जीव जंतुओं मे यह मूक रिश्ता बड़ा दिलचस्प लग रहा था ! मनुष्य उन्हे खाते देख कर खुश थे और वे मनुष्य के हाथों दावत पाकर !
क्या हम सभ्य समाज मे रहने वाले सभी जीवों मे सबसे ज्यादा विकसित प्राणी इंसान बनकर इन जलस्थलचर प्राणियों की तरह बिना लड़े झगड़े मिल जुल कर नहीं रह सकते !!