कभी कभी सोचता
हूँ कि ,
वो कहाँ होगी ,
कैसी होगी , क्या वैसी ही होगी !
या वक्त के बेरहम
हाथों ने खींच दी होंगी ,
उस मासूम चेहरे
पर , आड़ी तिरछी , सैंकड़ों लकीरें।
कभी कभी सोचता
हूँ कि ,
उसके बाएं गाल का
इकलौता डिम्पल ,
क्या अब भी उस
मोहक मुस्कान पर थिरकता होगा !
या लुप्त हो गया
होगा झुर्रियों के दर्रों में ,
बादलों में लुप्त
चन्द्रमा की तरह !
कभी कभी सोचता
हूँ कि ,
क्या अभी भी होगा
उसके रुखसार पर ,
होठों के बाएं
किनारे के नीचे, वो छोटा सा तिल !
या बढ़ गया होगा आकार
और उसने ,
कुर्बान कर दिया
होगा उसे मेलानोमा के डर से !
कभी कभी सोचता
हूँ कि ,
क्या वो अब भी
हौले हौले फिराती होगी ,
नेजल ब्रिज की
साइड में छोड़े , एक निरीह मुहांसे
के,
सूक्षम स्कार पर
अपनी नाज़ुक तर्जनी !
या मिटा दिया
होगा किसी प्लास्टिक सर्जन के चाकू ने ,
कपोल पर कोपल से
कोमल उस ब्यूटी स्पॉट को !
कभी कभी सोचता
हूँ कि ,
क्या वो अब भी
झटकती होगी घनी ज़ुल्फ़ों को ,
फिर सहलाती होगी
गोरे हाथों से उन रेशमी बालों को !
या वक्त की
स्याही ने केश की कालिमा को ,
रंग दिया होगा
कपास की सफेदी से !
कभी कभी सोचता
हूँ कि ,
क्या अब भी होगी
वो खिलखिलाहट भरी जिजीविषा !
या जिंदगी के बोझ
ने झुका दिया होगा ,
उस डाल सी लचकदार
२४ इंच की पतली कमर को !
कभी कभी सोचने
बैठता हूँ तो सोचता हूँ ----