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Wednesday, January 27, 2016

कभी कभी सोचने बैठता हूँ तो सोचता हूँ ----


कभी कभी सोचता हूँ कि ,
वो कहाँ होगी , कैसी होगी , क्या वैसी ही होगी !
या वक्त के बेरहम हाथों ने खींच दी होंगी ,
उस मासूम चेहरे पर , आड़ी तिरछी , सैंकड़ों लकीरें। 

कभी कभी सोचता हूँ कि ,
उसके बाएं गाल का इकलौता डिम्पल ,
क्या अब भी उस मोहक मुस्कान पर थिरकता होगा !  
या लुप्त हो गया होगा झुर्रियों के दर्रों में ,
बादलों में लुप्त चन्द्रमा की तरह !

कभी कभी सोचता हूँ कि ,
क्या अभी भी होगा उसके रुखसार पर ,
होठों के बाएं किनारे के नीचे, वो छोटा सा तिल !
या बढ़ गया होगा आकार और उसने ,
कुर्बान कर दिया होगा उसे मेलानोमा के डर से !

कभी कभी सोचता हूँ कि ,
क्या वो अब भी हौले हौले फिराती होगी ,
नेजल ब्रिज की साइड में छोड़े , एक निरीह मुहांसे के,
सूक्षम स्कार पर अपनी नाज़ुक तर्जनी !
या मिटा दिया होगा किसी प्लास्टिक सर्जन के चाकू ने ,
कपोल पर कोपल से कोमल उस ब्यूटी स्पॉट को !

कभी कभी सोचता हूँ कि ,
क्या वो अब भी झटकती होगी घनी ज़ुल्फ़ों को ,
फिर सहलाती होगी गोरे हाथों से उन रेशमी बालों को ! 
या वक्त की स्याही ने केश की कालिमा को ,
रंग दिया होगा कपास की सफेदी से !

कभी कभी सोचता हूँ कि ,
क्या अब भी होगी वो खिलखिलाहट भरी जिजीविषा !
या जिंदगी के बोझ ने झुका दिया होगा ,
उस डाल सी लचकदार २४ इंच की पतली कमर को !

कभी कभी सोचने बैठता हूँ तो सोचता हूँ ----