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Friday, July 20, 2018

फिर न होगा कोई ऐसा -- श्री गोपाल दास नीरज -- श्रद्धांजलि --






श्री गोपाल दास नीरज से हमारी पहली और अंतिम मुलाकात ८ साल पहले दिल्ली के हिंदी भवन में हुई थी जब हमें उनका एकल कविता पाठ सुनने का सुअवसर मिला था। लगभग दो घंटे तक अकेले ही श्रोताओं से खचाखच भरे हॉल को नई और पुरानी कवितायेँ और गीत सुनाकर उन्होंने ऐसा समां बांधा कि सब मंत्रमुग्ध हो गए। उनकी सुनाई कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार थीं :

तन से भारी सांस है , इसे जान लो खूब
मुर्दा जल में तैरता , जिन्दा जाता डूब ।

ज्ञानी हो फिर भी न कर , दुर्जन संग निवास
सर्प सर्प है भले ही , मणि हो उसके पास ।


जितना कम सामान रहेगा
उतना सफ़र आसान रहेगा
जितना भारी बक्सा होगा
उतना तू हैरान रहेगा ।

आज भले ही नीरज जी हमारे बीच नहीं रहे , लेकिन उनके सर्वप्रिय गीतों और कविताओं में वे सदा जिन्दा रहेंगे। नमन ... विनम्र श्रद्धांजलि ...

Thursday, July 19, 2018

संजू -- एक बड़े लेकिन शरीफ बाप के बिगड़े बेटे की दर्दभरी कहानी ---

पहले हमने सोचा कि ये फिल्म पहले ही बहुत कमा चुकी है, इसलिए क्या फर्क पड़ता है !  फिर ना ना करते देख ही ली।  हालाँकि देखकर अच्छा भी लगा और कुछ बुरा भी। फिल्म के पहले भाग में संजय दत्त की जिंदगी की डार्क साइड दिखाई गई है जिसे देखकर बहुत दुःख होता है कि किस तरह अच्छे घरों और बड़े मां बाप के बेटे बिगड़ जाते हैं। हालाँकि इसमें अक्सर उनका कोई कसूर नहीं होता। लेकिन दूसरे भाग में बेटे का पिता के प्रति प्यार और मान सम्मान देखकर अच्छा लगा ( यदि कहानी में सत्य पर ध्यान दिया गया है तो निश्चित ही यह सराहनीय है।) जेल के दृश्य वास्तव में विचलित करते हैं।  संजय दत्त को विदेश में फटेहाल भीख मांगते देखकर बहुत अफ़सोस हुआ।   

लेकिन फिल्म में रणबीर कपूर का अभिनय और मेकअप दोनों ही गज़ब के हैं। दोनों का कद लगभग एक जैसा होने और चेहरे में समानता होने से और आवाज़ को भी मिला देने से बहुत बढ़िया इफेक्ट आया है। साथ ही फिल्म में दोस्त की भूमिका में विक्की कौशल का सहनायक के रूप में रोल भी बहुत जमा और हास्य का पुट आया जिसने फिल्म को बोझिल होने से बचा लिया। फिल्म में दसियों जाने माने कलाकार हैं जिनमे सभी का रोल बढ़िया रहा। 

कुल मिलाकर यही महसूस हुआ कि सुनील दत्त जैसी जेंटलमेन व्यक्ति के लिए कितना मुश्किल हुआ होगा परिस्थितियों से जूझना, जब एक ओर पत्नी कैंसर से लड़ रही थी, और दूसरी ओर इकलौता बेटा बर्बादी की राह पर जा रहा था।  किसी भी बाप के लिए इससे ज्यादा कष्टदायक और कुछ नहीं हो सकता। निश्चित ही औलाद का ग़म ऐसा ही होता है।    

Wednesday, July 11, 2018

टाइम बैंक -- बुजुर्गों का साथी :



देश में बुजुर्गों की संख्या निरंतर बढ़ती जा रही है। विशेषकर शिक्षित परिवारों में बुजुर्गों के एकाकीपन की समस्या और भी गंभीर होती जा रही है क्योंकि अक्सर बच्चे पढ़ लिख कर घर, शहर या देश ही छोड़ देते हैं और मात पिता अकेले रह जाते हैं। अक्सर ऐसे में बुजुर्गों को सँभालने वाला कोई नहीं रहता जो उनकी रोजमर्रा की ज़रूरतों को पूरा करने में सहायता कर सके।

पता चला है कि स्विट्ज़रलैंड में सरकार द्वारा ऐसे टाइम बैंक स्थापित किये गए हैं जिनमे आपका समाज सेवा का लेखा जोखा रखा जाता है। वहां युवा वर्ग और शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ लोग अपने फालतू समय में समाज के बुजुर्गों के लिए काम करते हैं और जितने घंटे काम किया , उतने घंटे उनके खाते में जमा हो जाते हैं। यह कार्य स्वैच्छिक और सुविधानुसार होता है जिसे वे तब तक करते हैं जब तक स्वयं समर्थ होते हैं। जब वे स्वयं असमर्थ हो जाते हैं, तब अपने टाइम बैंक के खाते से घंटे निकाल लेते हैं।  यानि बैंक उनकी सहायता के लिए किसी और को घर भेज देता है जो सहायता करता है।  इस तरह यह क्रम चलता रहता है। आपके खाते में जितने घंटे जमा हुए , उतने घंटों की सेवा आप प्राप्त कर सकते हैं। इसलिए किसी बुजुर्ग को न तो अकेलापन महसूस होता है और न ही उन्हें वृद्ध आश्रम में जाकर रहना पड़ता है।

यदि इस तरह की कोई योजना यहाँ भी बनाई जाये तो शायद बुढ़ापे में बहुत से लोगों को राहत मिल सकती है। लेकिन हमारे देश और स्विट्ज़रलैंड में बहुत अंतर है।  वहां आबादी कम है और संसाधन ज्यादा।  लोग भी मेहनती , निष्ठावान और कर्मयोगी होते हैं।  वे अपने देश से प्रेम करते हैं और नियमों का पालन करते हैं।  लेकिन हमारे यहाँ अत्यधिक आबादी , भ्रष्टाचार , कामचोरी , हेरा फेरी और धोखाधड़ी का बोलबाला है।  ऐसे में यह योजना सफल होना तो दूर, कोई इसके बारे में सोच भी नहीं सकता। ज़ाहिर है , पहले हमें अपनी बुनियादी समस्याओं से सुलझना होगा।  तभी हम विकसित देशों के रास्ते पर चल पाएंगे। 

  

Thursday, July 5, 2018

न जाने क्यों ---


जाने क्यों ,
बारिश का मौसम है , पर बरखा नहीं आती !
बदल तो आते हैं पर , काली घटा नहीं आती।

जाने क्यों ,
आंधियां चलती हैं पर , अब पुरवाई नहीं चलती,
मौसम बदलता है पर , अब तबियत नहीं मचलती।  

जाने क्यों ,
आसमान दिखता है पर , अब नीला नज़र नहीं आता।
जंगल है ये कंक्रीट का , यहाँ कोई मोर नज़र नहीं आता।     

जाने क्यों ,
लाखों की भीड़ है , पर इंसान अकेला है।
मकां तो शानदार है , पर घर इक तबेला है।

जाने क्यों ,
विकास तो हुआ है , पर हम विकसित नहीं हुए।
स्कूल कॉलेज अनेक हैं , पर हम शिक्षित नहीं हुए।
  
जाने क्यों ,
धर्म के चक्कर में , हम अधर्मी हो गए।
इंसानियत को भूले , और हठधर्मी हो गए।  

जाने क्यों ,
हम समझदार तो हैं , पर ये बात समझ नहीं पाते।
एक दिन खाली हाथ ही जाना है, छोड़ के धन दौलत और रिश्ते नाते। 

फिर भी जाने क्यों ,
हम व्यस्त हैं,  अस्त व्यस्त होने में।
और मस्त हैं ,  मोह माया का बोझ ढोने में। 
जाने क्यों , जाने क्यों !