इत्तेफाक की बात है कि हमारी शादी गुड फ्राइडे के दिन हुई थी। इस गुड फ्राइडे को भी छुट्टी थी। एक दिन पहले दिल्ली में जमकर बारिस हुई। फिर फ्राइडे को भी जोर से बादल उमड़े , लेकिन हल्की बारिस के बाद
मौसम साफ़ हो गया और सुहानी धूप खिल गई। ऐसे में घर बैठे रहने के बजाय किसी पार्क में जाकर सैर करने का ख्याल कदाचित गलत नहीं हो सकता था।
किसी अच्छे पार्क की सैर किये हुए एक अरसा हो चुका था। फिर घर के पास इतना खूबसूरत पार्क है -- मिलेनियम पार्क जिसके पास से अक्सर गुजरना होता रहता है। इसलिए गाड़ी उठाई और पहुँच गए पार्क।
पार्क में जगह जगह फूलों की बहार सी आई हुई थी।
एक जगह ये कलाकृतियाँ फोटो खिंचवाने के लिए लालायित कर रही थी।
यूँ तो यह पार्क एक डेढ़ किलोमीटर लम्बा है। नया मिलेनियम आरम्भ होने के साथ ही इसे जनता के लिए खोल दिया गया था। आरंभ में यह पारिवारिक पिकनिक के लिए सर्वोत्तम स्थान लगता था। लेकिन अब यहाँ आकर बड़ा अज़ीब सा लग रहा था।
लगभग चप्पे चप्पे पर बच्चे , युवा और यहाँ तक कि अधेढ़ आयु के लोग, स्त्री पुरुष विशेष मुद्राओं में लिप्त प्रेमालाप करते हुए दिखाई दे रहे थे। हमारे ज़माने में भी युवा प्रेमी पार्कों में प्रेमासक्त नज़र आते थे। ( हमारे ज़माने से तात्पर्य हमारे कॉलेज के दिनों से है , वर्ना हमारा ज़माना तो अभी भी है ) लेकिन अब तो बेशर्मी की हद ही हो गई है। खुले आम , न झाड़ियों के पीछे , न अन्दर, बल्कि सबकी नज़रों के आगे बेधड़क फ़िल्मी हीरो हिरोइन की तरह प्रेम प्रदर्शन करते हुए भारतीय संस्कृति की धज्जियाँ उड़ाते हुए नज़र आते हैं।
एक और विशेष बात यह थी कि पार्क में ९० % लोग लो और लो-मिडल क्लास के नज़र आ रहे थे। ज़ाहिर है , इस वर्ग के लोगों को पार्क ही उचित स्थान नज़र आता है मिलने के लिए। धनाढ्य लोगों के लिए तो क्लब इत्यादि भरे पड़े हैं। इसी कारण खाने पीने की स्टाल्स पर भी उदासी सी नज़र आ रही थी। ऊपर से भिनभिनाती मक्खियाँ इस बात का एहसास दिला रही थी कि हम एक विकासशील देश हैं और सदियों तक ऐसे ही रहेंगे।
लेकिन छोडिये पहले आइये आनंद लेते हैं , पार्क की खूबसूरती का।
पार्क की बदसूरती को छिपाते हुए , खूबसूरती को उजागर करना भी एक कला है।
फोटो खींचते हुए यह आशंका तो रहती थी कि कहीं कोई अचानक उठकर कैमरा न छीन ले , यह सोचकर कि कहीं उनका स्टिंग ऑपरेशन तो नहीं कर रहे।
शांति स्तूप -- हालाँकि यहाँ ट्रैफिक का बड़ा शोर होने की वज़ह से शांति नाम की कोई चीज़ नहीं है।
पार्क के ठीक पीछे निजामुद्दीन रेलवे स्टेशन है। यह रेल का डिब्बा विशेष रूप से ध्यान आकर्षित कर रहा था।
फूलों की भी व्यक्तिगत हस्ती होती है जो मन को लुभाती है।
मेन गेट से ही पार्क की खूबसूरती नज़र आने लगती है।
अभी तक ऐसा लगा होगा जैसे पार्क में मानव जाति का कोई सदस्य था ही नहीं। ज़ाहिर है , यहाँ हमारे सिवाय भी कोई तो और था जिससे हमने यह फोटो खिंचवाया।
आखिर सूर्यास्त होने समय हो आया। सूर्य देवता पेड़ों के पीछे ऐसे छुप गए जैसे हर पेड़ के नीचे / पीछे कोई न कोई युगल अपनी ही दुनिया में खोए हुए मौजूद था।
सूर्यास्त की छटा।
अंतत : जब पंछी भी अपने अपने घोंसलों की ओर लौटने लगे तब हमने भी अपने आशियाने की ओर प्रस्थान करना ही उचित समझा।
इस तरह पार्क की सैर कर आनंद तो आया लेकिन यह निश्चित सा लगा कि अब आप ऐसे पार्कों में बच्चों के साथ पिकनिक नहीं मना सकते। आखिर , हमारी युवा पीढ़ी ही नहीं बल्कि युवाओं के बाप भी प्रेम रोग से इस कद्र ग्रस्त हैं कि मन मचल उठे गाने को कि कोई रोको ना , दीवाने को। हमारी बेरोकटोक बढती हुई आबादी शायद इसी दीवानगी का नतीजा है।
नोट : किसी भी तस्वीर में किसी भी व्यक्ति की उपस्थिति को न दर्शाते हुए , पार्क की खूबसूरती को कैमरे में कैद करना वास्तव में बड़ा मुश्किल काम था। लेकिन यूँ एक पब्लिक पार्क को मजनूं पार्क बनते हुए देखना एक कष्टदायक अनुभव था।
कुछ और तस्वीरों का आनंद यहाँ लीजिये .