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Sunday, March 31, 2013

मिलेनियम पार्क जो बन गया मजनूं पार्क ---


इत्तेफाक की बात है कि हमारी शादी गुड फ्राइडे के दिन हुई थी। इस गुड फ्राइडे को भी छुट्टी थी। एक दिन पहले दिल्ली में जमकर बारिस हुई। फिर फ्राइडे को भी जोर से बादल उमड़े , लेकिन हल्की बारिस के बाद    
मौसम साफ़ हो गया और सुहानी धूप खिल गई। ऐसे में घर बैठे रहने के बजाय किसी पार्क में जाकर सैर करने का ख्याल कदाचित गलत नहीं हो सकता था। 

किसी अच्छे पार्क की सैर किये हुए एक अरसा हो चुका था। फिर घर के पास इतना खूबसूरत पार्क है -- मिलेनियम पार्क जिसके पास से अक्सर गुजरना होता रहता है। इसलिए गाड़ी उठाई और पहुँच गए पार्क।      



पार्क में जगह जगह फूलों की बहार सी आई हुई थी।




एक जगह ये कलाकृतियाँ फोटो खिंचवाने के लिए लालायित कर रही थी।

यूँ तो यह पार्क एक डेढ़ किलोमीटर लम्बा है। नया मिलेनियम आरम्भ होने के साथ ही इसे जनता के लिए खोल दिया गया था। आरंभ में यह पारिवारिक पिकनिक के लिए सर्वोत्तम स्थान लगता था। लेकिन अब यहाँ आकर बड़ा अज़ीब सा लग रहा था।

लगभग चप्पे चप्पे पर बच्चे , युवा और यहाँ तक कि अधेढ़ आयु के लोग, स्त्री पुरुष विशेष मुद्राओं में लिप्त प्रेमालाप करते हुए दिखाई दे रहे थे। हमारे ज़माने में भी युवा प्रेमी पार्कों में प्रेमासक्त नज़र आते थे। ( हमारे ज़माने से तात्पर्य हमारे कॉलेज के दिनों से है , वर्ना हमारा ज़माना तो अभी भी है ) लेकिन अब तो बेशर्मी की हद ही हो गई है। खुले आम , न झाड़ियों के पीछे , न अन्दर,  बल्कि सबकी नज़रों के आगे बेधड़क फ़िल्मी हीरो हिरोइन की तरह प्रेम प्रदर्शन करते हुए भारतीय संस्कृति की धज्जियाँ उड़ाते हुए नज़र आते हैं।

एक और विशेष बात यह थी कि पार्क में ९० % लोग लो और लो-मिडल क्लास के नज़र आ रहे थे। ज़ाहिर है , इस वर्ग के लोगों को पार्क ही उचित स्थान नज़र आता है मिलने के लिए। धनाढ्य लोगों के लिए तो क्लब इत्यादि भरे पड़े हैं। इसी कारण खाने पीने की स्टाल्स पर भी उदासी सी नज़र आ रही थी। ऊपर से भिनभिनाती मक्खियाँ इस बात का एहसास दिला रही थी कि हम एक विकासशील देश हैं और सदियों तक ऐसे ही रहेंगे।
             
लेकिन छोडिये पहले आइये आनंद लेते हैं , पार्क की खूबसूरती का।



पार्क की बदसूरती को छिपाते हुए , खूबसूरती को उजागर करना भी एक कला है।



फोटो खींचते हुए यह आशंका तो रहती थी कि कहीं कोई अचानक उठकर कैमरा न छीन ले , यह सोचकर कि कहीं उनका स्टिंग ऑपरेशन तो नहीं कर रहे।



शांति स्तूप -- हालाँकि यहाँ ट्रैफिक का बड़ा शोर होने की वज़ह से शांति नाम की कोई चीज़ नहीं है।



पार्क के ठीक पीछे निजामुद्दीन रेलवे स्टेशन है। यह रेल का डिब्बा विशेष रूप से ध्यान आकर्षित कर रहा था।




फूलों की भी व्यक्तिगत हस्ती होती है जो मन को लुभाती है।



मेन गेट से ही पार्क की खूबसूरती नज़र आने लगती है।



अभी तक ऐसा लगा होगा जैसे पार्क में मानव जाति का कोई सदस्य था ही नहीं। ज़ाहिर है , यहाँ हमारे सिवाय भी कोई तो और था जिससे हमने यह फोटो खिंचवाया।





आखिर सूर्यास्त होने समय हो आया। सूर्य देवता पेड़ों के पीछे ऐसे छुप गए जैसे हर पेड़ के नीचे / पीछे कोई न कोई युगल अपनी ही दुनिया में खोए हुए मौजूद था।





सूर्यास्त की छटा।




अंतत : जब पंछी भी अपने अपने घोंसलों की ओर लौटने लगे तब हमने भी अपने आशियाने की ओर प्रस्थान करना ही उचित समझा।

इस तरह पार्क की सैर कर आनंद तो आया लेकिन यह निश्चित सा लगा कि अब आप ऐसे पार्कों में बच्चों के साथ पिकनिक नहीं मना सकते। आखिर , हमारी युवा पीढ़ी ही नहीं बल्कि युवाओं के बाप भी प्रेम रोग से इस कद्र ग्रस्त हैं कि मन मचल उठे गाने को कि कोई रोको ना , दीवाने को। हमारी बेरोकटोक बढती हुई आबादी शायद इसी दीवानगी का नतीजा है।


नोट : किसी भी तस्वीर में किसी भी व्यक्ति की उपस्थिति को न दर्शाते हुए , पार्क की खूबसूरती को कैमरे में कैद करना वास्तव में बड़ा मुश्किल काम था। लेकिन यूँ एक पब्लिक पार्क को मजनूं पार्क बनते हुए देखना एक कष्टदायक अनुभव था। 

कुछ और तस्वीरों का आनंद यहाँ लीजिये . 

Thursday, March 28, 2013

पता चला वो पड़ोसी नहीं , पड़ोसन थी---


होली त्यौहार है मौज मस्ती का , खाने खिलाने का , पीने पिलाने का , हंसने हंसाने का और सबको प्यार से गले लगाने का। इस अवसर पर हमारे यहाँ तो होली के दिन सब लोग जो होली खेलते हैं , नीचे सेन्ट्रल पार्क में इकट्ठे हो जाते हैं और सामूहिक रूप से होली खेलते हैं। बच्चे , बड़े , बूढ़े और महिलाएं अपनी अपनी टोलियों में होली का आनंद लेते हैं।

इस बार हमारी सोसायटी ने डी जे का भी प्रबंध किया था। छोटे बच्चों के लिए बाथ टब और बड़े बच्चों के लिए सीधा पानी का पाइप और सब के लिए ठंडाई। बुजुर्गों के लिए बेंच जो ११ बजे तक खाली पड़े थे।    



सोसायटी में होली का शुभारभ : चित्र बालकनी से सेटेलाईट द्वारा ! :)

इस वर्ष निकट सम्बन्धियों और मित्रों में कई लोगों का आकस्मिक देहांत होने से होली खेलने का मूड नहीं बन रहा था। दोनों बच्चे भी बाहर होने से घर भी सूना सूना सा लग रहा था। हालाँकि हमने तो एक दिन पहले दिन में  अस्पताल में और शाम को एक मित्र की सोसायटी में हुए कवि सम्मेलन में हास्य कवितायेँ सुनाकर होली का  आनंद ले लिया था। लेकिन श्रीमती जी को थोड़ी मायूसी सी हो गई जब हमने कहा कि छोड़ो क्या करेंगे होली मनाकर।  आखिर तय हुआ कि चलो पहले एक दूसरे को तो गुलाल लगा लें , फिर सोचा जायेगा।  



                                 
                                                                      होली से पहले


इस फोटो में आपको कुछ विशेष नज़र आ रहा है ? शायद सिर्फ प्यार करने वाले ही समझ पायें !

खैर रंग लगाकर मन कुछ प्रसन्न हुआ तो सोचा कि चलिए चलते हैं और होली खेलते हैं सब के साथ। आखिर लाइफ़ हैज टू गो ओन।  फिर :

होली खेलने को हम घर से निकले
और जब एक पडोसी नज़र आये।
हमने उनके गालों पर गुलाल लगाया
और प्यार से गले मिलने को हाथ बढाए।
पर तभी हम चौंके , हाथ अपने रोके।
क्योंकि आन पड़ी एक अड़चन थी ,
पता चला वो पड़ोसी नहीं , पड़ोसन थी।

होली पर यही समस्या हर जगह आती है। रंग में रंगे चेहरे पहचानना ही मुश्किल हो जाता है। समूह में तो और भी विकट समस्या होती है। एक बार रंग लगाने के बाद याद भी नहीं रहता कि पहले लगाया था या नहीं। हमने तो इसका एक तरीका सोचा और हरा गुलाल लेकर गए जो और किसी के पास नहीं था। इसलिए जिसके भी चेहरे पर हरा रंग नहीं था , उसके चेहरे पर रंग लगाते गए। थोड़ी देर बाद सभी के चेहरे हरे भरे नज़र आ रहे थे।          

                                                                                               
अंत में नहाने धोने , और रंग उतारने के बाद सामूहिक भोज का आयोजन  था। जो लोग होली खेलने नहीं आए थे , अब वे भी सपरिवार सहभोज का आनंद ले रहे थे। शुद्ध सात्विक भोजन कर अब घर जाकर आराम करने का समय था। अब तक फेसबुक पर भी फेसबुकियों की भीड़ लग चुकी थी। हमने भी एक फोटो फेसबुक पर टांगा और व्यस्त हो गए लाइक पर लाइक करने में।

लेकिन इस सब के बीच हम सुबह से ही देख रहे थे हलवाई के लोगों को खाना बनाने की तैयारी करते हुए। जब सोसायटी के सब लोग होली मनाने में व्यस्त थे, तब सुबह से ही ये लोग अपने काम में व्यस्त थे। जहाँ होली के दिन सब दुकानें बंद रहती हैं , वहीँ इन बेचारों की न कोई छुट्टी थी , न होली मिलन। रह रह कर यही गाना याद आ रहा था :

सब की किस्मत , अपनी अपनी
कोई हँसे , कोए रोये ----

शायद यही इस नश्वर संसार की रीति है। यहाँ सब अपनी अपनी किस्मत लेकर आते हैं। लेकिन आपकी किस्मत आपके अपने कर्म बनाते हैं। बस यही याद रखना ज़रूरी है।      


Tuesday, March 26, 2013

चश्मे पे जब हो जाये , रंगों की बौछार---


1)

होली के हुडदंग में,  भांति भांति के रंग
रंगों की बौछार में , मस्ती लाये भंग ।
मस्ती लाये भंग की , इक छोटी सी गोली,
कि शर्मा जी की घरवाली , वर्मा जी संग होली।
हंस कर बोले वर्मा जी , बुरा ना मानो शर्मा जी,
होली है भई होली , ये तो होली है भई होली।  


2)

चश्मे पे जब हो जाये , रंगों की बौछार
सतरंगी नज़र आये , ये सारा संसार।
ये सारा संसार , फिर लगे सुनेहरा
गोरा दिखे काला , काला हरा भरा।
कह डॉक्टर कविराय, ना बुरा मनाना ,
होली पर सबको हंसकर गले लगाना।


3)

जेम्स, जावेद, श्याम और संता, रंगों में नहाएं
जात धर्म को छोड़कर , सब पर मस्ती छाये।
सब पर मस्ती छाये मिलकर आपस में गले ,
बरसों के बिछड़े भी जब सब होली पे मिलें।
आओ भैया भूल जाएँ सब गुजरे शिकवे गिले
होली के बहाने फिर आज, दिल से दिल मिलें।

सभी को होली की हार्दिक शुभकामनायें।


Friday, March 22, 2013

फॉसिल बनने की क्या जल्दी है--



कुछ समय से एक भी ब्लॉग पोस्ट नहीं लिख पा रहे हैं हम। सच तो यह है कि कोई आइडिया ही नहीं आ रहा। लगता है जैसे थॉट ब्लॉक हो गया है। पहले जहाँ नित नए आइडिया दिमाग में घूमते रहते थे, अभिव्यक्त होने के लिए मचलते रहते थे , वहीँ अब जैसे कहीं अटक से गए हैं। जोर लगाने पर भी कोई आइडिया नहीं आ रहा जिस पर कुछ लिखा जाये। ठीक वैसा हाल है जैसा  किसी प्रोस्टेट के मरीज़ का होता है कि पेशाब करने के लिए  जितना जोर लगाओ उतना ही अवरुद्ध होता है।

इसके कई कारण हो सकते हैं। जैसे काम में अत्यधिक व्यस्तता , ब्लॉगिंग में ब्लॉगर्स की रूचि कम होना या फिर फेसबुक की ओर सभी का झुकाव होना। बेशक काम बढ़ने से ज्यादा ध्यान उधर ही रहता है , इसलिए इधर कम हुआ है। ऐसा सभी के साथ हुआ लगता है। लेकिन यह ही सच है कि वे सब ब्लॉगर्स जो पहले ब्लॉग्स पर नज़र आते थे , अब फेसबुक पर वक्त गुज़ारा करते हैं।      

यह भी मानवीय प्रवृति ही है कि वह एक जगह ज्यादा देर तक नहीं टिक पाता। उसकी यही बेचैनी आखिर विकास में भी सहायक सिद्ध हुई है। निरंतर आगे बढ़ते रहने का नाम ही विकास है। जहाँ थम गए , समझो वहीँ जम गए। और जमने के बाद तो बस फॉसिल ही बनता है। फिर फॉसिल बनने की क्या जल्दी है !  


Sunday, March 10, 2013

फेसबुकिया ब्लॉगिंग और ब्लॉग पर फेसबुकिंग -- यही है ज़माने की चाल !


अब जब हमारे सभी ब्लॉगर मित्र बन्धु फेसबुक की ओर कूच कर चुके हैं, तो न चाहते हुए भी हम भी कुछ कुछ फेसबुकिया हो गए हैं। हालाँकि जो मज़ा यहाँ है , वह वहां कहाँ। इसलिए पिछले एक महीने में फेसबुक पर अलग अलग मूड और माहौल में जो कुछ चन्द पंक्तियाँ डाली, उन्हें यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है : 

फेसबुकिया क्षणिकाएं       

१)

२)

आज ---
सारी रात 
मेघा , गरजते रहे 
बरसते रहे ---
नयनों से 
फिर आज ,
सारी रात ---

Sunday, March 3, 2013

बसंत का एक रविवार, और गाँव की शादी ---


बसंत ऋतू और फागुन का महीना। इन दिनों में गाँव की याद आना स्वाभाविक सा है उन लोगों के लिए जिनका गाँव से कभी नाता रहा है। हालाँकि भाग दौड़ की जिंदगी में अब गाँव जाना कभी कभार ही हो पाता है।लेकिन पिछले रविवार जब एक शादी में जाने की अपरिहार्य परिस्थितियां उत्पन्न हुई तो हमने भी सहर्ष स्वीकार कर लिया।

गाँव था यू पी के बागपत जिले में बागपत से थोड़ा आगे जिसके लिए हमें जाना था शाहदरा लोनी रोड से होकर जो कहने को तो राजकीय राजमार्ग है लेकिन शाहदरा से लोनी तक का करीब १५ किलोमीटर का सफ़र कमरतोड़ ही कहा जायेगा। ऐसा लगता है कि इस क्षेत्र में जनसँख्या घनत्त्व देश में सबसे ज्यादा है। लोनी पार करने के बाद जब बागपत जनपद क्षेत्र शुरू हुआ तब जाकर ट्रैफिक से थोड़ी राहत मिली।     



बागपत के पास सड़क के पश्चिम की ओर यमुना नदी काफी पास दिखाई दे रही थी। यह क्षेत्र काफी हरा भरा था। अब सरसों की फसल से भरे बसंती खेत भी दिखाई देने लगे थे। लगा जैसे प्यारा गाँव आ गया है। लेकिन कुछ किलोमीटर के बाद ही सड़क फिर टूटी फूटी हो गई। एक दिन पहले हुई बरसात का पानी गहरे गड्ढों में भरकर यातायात के लिए मुश्किलें पैदा कर रहा था। ऐसे में अपनी गाड़ी छोड़कर किराये की गाड़ी लाने का निर्णय बड़ा सही लगा।



सड़क किनारे बसे एक गाँव का दृश्य। फोटो में जो संरचना नज़र आ रही हैं , उन्हें हरियाणा में बूंगे कहते हैं। ये भूसा स्टोर करने के लिए काम आते हैं। गाय भैंसों के गोबर से बने उपले आज भी गाँव में ईंधन के रूप में इस्तेमाल किये जाते हैं। इन्हें स्टोर करने के लिए जो संरचना बनायीं जाती है , उन्हें बिटोड़े कहते हैं।    
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गाँव के रास्ते में इस तरह के नज़ारे बहुत देखने को मिले। बचपन में बच्चे इसे देख कर कहते थे , क़ुतुब मीनार आ गई। लेकिन ये वास्तव में ब्रिक किल्न की चिमनी होती है। शहरों में बने आलिशान भवनों के लिए ईंटें यहीं से आती हैं।  


बारात के ठहरने का इंतज़ाम एक घर की बैठक में किया गया था। बीच में बने आँगन में खिली धूप में बिछी चारपाइयों पर हुक्का गुडगुडाते हुए बाराती बैठे थे।



 हम तो सीधे खाने पर चले गए। गाँव में भी खाने का अच्छा इंतज़ाम देखकर आश्चर्यमिश्रित प्रसन्नता हुई। यह तो निश्चित था कि खाने में इस्तेमाल किये गए खाद्य पदार्थ जैसे दूध , खोया , पनीर आदि शुद्ध थे। लेकिन फिर बारात का जुलुस आरम्भ हुआ और मोबाइल डी जे साथ खुले में शराब की बोतल पकडे युवाओं ने डांस करना आरम्भ किया तो एक घंटे के बाद भी जब ५० मीटर का ही फासला तय हुआ तो हमने वहां से खिसकना ही बेहतर समझा। लड़के के पिता को बाय बाय कर हम तो चल पड़े वापसी के सफ़र पर।         




रास्ते में गाँव का स्वरुप आधुनिक विकास के साथ एक साथ नज़र आ रहे थे। सड़क किनारे उपले और गन्ने के खेत , और पृष्ठभूमि में हाई टेंशन बिजली के तार इस बात के साक्षी हैं कि यहाँ आधुनिकता और परंपरा आभी भी एक साथ जीवित हैं।


आखिर शाम होते होते हम लौट आये गाँव से शहर की ओर, फिर उसी ट्रैफिक और इंसानी जंगल में जिसकी दूषित वायु में साँस लेते हुए साँस लेने का आभास हर घड़ी होता रहता है क्योंकि इसके लिए भी प्रयास करना पड़ता है।  लेकिन इस तरह एक मुद्दत के बाद गाँव की सैर कर आनंद आ गया।