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Tuesday, March 25, 2014

एक जंगल ऐसा जहां शेर खुले मे और इंसान पिंजरे मे बंद होते हैं ---


दिल्ली जैसे शहर मे रहते हुए ऐसा लगता है जैसे हम कंक्रीट जंगल मे रह रहे हैं . इसलिये अक्सर शहरी लोग जंगल भ्रमण का आनंद लेने के लिये असली जंगलों की ओर अग्रसर होते हैं . हम भी कई जंगलों की खाक छान चुके हैं , इस उम्मीद मे कि कहीं कोई जंगली जानवर अपने क्षेत्र मे स्वतंत्र विचरण करता हुआ नज़र आ जाये . लेकिन तेंदुए को छोड और कोई जानवर आज तक नज़र नहीं अया , जबकि वह तो यूँ भी कई बार शहरों मे घुस कर खलबली मचा देता है .   

अपनी बैंगलोर यात्रा के दौरान हमे पता चला कि वहां भी शहर से मात्र २५ किलोमीटर दूर एक जंगल है जहाँ जंगली जानवर देखे जा सकते हैं . हालांकि उम्मीद कम ही थी, फिर भी एक और जंगल देखने का प्रलोभन हम छोड नहीं सके .  


प्रवेश टिकेट मे वहां बने चिडियाघर का प्रवेश भी शामिल था . इसलिये सभी पहले वहां जा रहे थे . हमने भी सोचा कि चलो पहले यहीं शेर देख लें ताकि जंगल मे निराश ना होना पड़े . 




लेकिन बिग केट्स के रूप मे यहां बस ये तेंदुए ही मिले . इनके अलावा कुछ मगरमच्छ, एक शतुर्मुर्ग और अनेक बेबी कछुए देखकर कुछ संतोष मिला .  




जंगल सफ़ारी के लिये करीब २० से ज्यादा हरे रंग की बसें लाइन मे लगी थी . खिड़कियों मे जाली लगाई गई थी . हमने सोचा , अवश्य ही यहाँ शेर नज़र आयेंगे . शायद इसीलिये सुरक्षा का पूरा इंतज़ाम किया गया है . 





जंगल मे घुसते ही सबसे पहले हमेशा की तरह ये चीतल हिरण नज़र आये . हालांकि यह संभावित ही था क्योंकि ये हिरण सभी जगह दिख जाते हैं . लेकिन सड़क किनारे ही पानी का प्रबन्ध किया गया था जिससे कि लोगों को इंतज़ार ना करना पड़े . 




लेकिन जल्दी ही हाथियों का एक बड़ा झुंड देखकर रोमांच महसूस हुआ और लगा कि ये सफ़ारी तो बहुत लाभदयक सिद्ध होने वाली है . फिर ध्यान से देखा तो पाया कि सभी हाथियों को चेन से बांधा गया था . यानि आँखों को धोखा दिया गया था . अब तो हमे कुछ कुछ आभास होने लगा था कि आगे क्या होने वाला है . 




तभी सामने एक गेट नज़र आया जिस पर लिखा था -- भालू . यानि अब हम भालू के बाड़े मे जा रहे थे . फिर जल्दी ही हमे एक भालू सड़क पर टहलता नज़र आ गया . देखने मे तो यही लगा जैसे हम अफ्रिका के जंगलों मे घूम रहे हैं . 

अब तक हम समझ चुके थे कि दरअसल हम एक बड़ी ज़ू मे गाड़ी मे बैठकर घूम रहे थे . फर्क बस इतना था कि यहाँ हम गाड़ी मे जालियों के पीछे बैठे थे और जंगली जानवर आराम से खुले मे विचरण कर रहे थे . 




फिर भी इन बब्बर शेरों को खुले मे यूँ इतने पास से देखना और फोटो खींचना एक सुखद और रोमांचक अहसास था . 




अगला बाड़ा टाईगर यानि बाघ का था . हालांकि यह बेचारा सुस्त और बीमार सा लग राहा था . 




यह सफ़ेद टाईगर शायद बच्चा था . लगा जैसे भूखा था और खाने का इंतज़ार कर रहा था . इसलिये अपने भोजनालय के आस पास ही चक्कर लगा रहा था . 




एक अकेला बन्दर मनुष्यों की बस्ती के आस पास खाना ढूंढ रहा था . यहाँ आम के पेड थे जिन पर कच्चे आम लगे थे . 

जंगल मे स्वछंद विचरण करते जंगली जानवरों को इंसानों को दिखाने का यह तरीका हमे भी पसंद आया . यहाँ अलग अलग प्रजाति के जानवरों के लिये अलग अलग बड़े बड़े बाड़े बनाये गए थे . एक तरह से सब के लिये अलग अलग फार्म हॉउस से बने थे . उनके डाइनिंग हॉल भी सड़क के पास ही बनाये गए थे ताकि बस मे बैठे लोगों के लिये इनका दर्शन सुनिश्चित हो सके . लेकिन लगभग सभी जानवर सुस्त से लग रहे थे जैसे उन्हे हल्का नशा हो . एक टाईगर तो बीमार सा ही लग रहा था . निश्चित ही ये जानवर चिड़ियाघर के जानवरों की अपेक्षा ज्यादा सुखी रहे होंगे क्योंकि यहाँ इनको खाने के साथ साथ विचरण के लिये प्राकृतिक वातावरण मिल रहा था . हालांकि मुफ्त का खाना खाकर ये निकम्मे तो अवश्य हो गए होंगे और इनकी शिकार करने की स्वाभाविक प्रवृति कुंठित हो गई होगी . 



सफ़ारी के अंत मे यह एक छोटी सी जंगली झील फोटो मे ज्यादा सुन्दर दिख रही है जैसे एक साधारण सी लोकेशन भी फिल्मों मे बड़ी सुन्दर दिखाई देती है . कुल मिलाकर यही लगा कि यह सफ़ारी लोगों को जंगली जानवरों को समीप से बेखौफ़ देखने के लिये एक अच्छा अवसर प्रदान करती है . 

Tuesday, March 18, 2014

बैंगलोर के लाल बाग़ की लाली और हरियाली दोनो देखने लायक हैं ---


पिछली पोस्ट से आगे --

एक बार तो लगा कि बैंगलोर में शायद देखने के लिए कुछ नहीं है।  लेकिन फिर लाल बाग के बारे में पता चला जो शहर के बीचों बीच है। ऑटो पकड़कर हम पहुँच गए लाल बाग़।  २४० एकड़ में बना यह पार्क वास्तव में काफी बड़ा और खूबसूरत है।


प्रवेश द्वार से गुजरते ही यह रास्ता जाता है पार्क की पार्किंग तक।




द्वार से पार्किंग तक जाने के लिए सड़क के किनारे यह हरियाली और रंगों की छटा  देखकर ही अनुमान लगाया कि क्यों इसे लाल बाग़ कहा जाता है।



पार्किंग के सामने एक छोटी सी पहाड़ी पर एक छोटा सा मंदिर बना है।  यहाँ से शहर का खूबसूरत नज़ारा नज़र आता है।



पार्क में एक मैदान जिस पर पैर रखते ही चौकीदार बैठा बैठा जोर से सीटी बजाकर बताता कि घास पर चलना मना है।



पार्क के इस हिस्से में घास को ऐसा बनाया गया था जैसे समुद्र में ज्वार भाटा आता है।




एक पिक्चर पोस्ट कार्ड दृश्य।



यह है अशोक वाटिका वाला अशोक वृक्ष जिसके नीचे कभी सीता मैया बैठी थी।  इसे १९७२ में श्रीमती इंदिरा गांधी जी ने लगाया था।  यह पेड़ श्रीलंका में भी मिलता हैं।



लाल बाग़ के अंदर एक बहुत बड़ी झील भी है जिसकी परिधि करीब १. ५ से २ किलोमीटर की है ।



झील किनारे दिखे ये जुड़वां पेड़ -- पहली बार देखे।



पार्क में सैकड़ों वर्ष पुराने पेड़ बहुत नज़र आये।




एक यह भी।





यहाँ की हरियाली तो देखने लायक थी।



तरह तरह के अंदाज़ में पेड़ पौधों को सजाया गया था।



कहते हैं , मरा हुआ हाथी भी सवा लाख का होता है।





अंत में यह फूल घड़ी ( फ्लावर वाच ) बिलकुल सही समय दिखा रही थी।



Wednesday, March 12, 2014

यूँ तो अपने घर में भी है रोटी --- एक यात्रा संस्मरण !


देश विदेश में भ्रमण करने के बावज़ूद बैंगलोर कभी जाना नहीं हो पाया था।  इत्तेफ़ाक़ से यह अवसर मिला जब अभी बेटे के पास जाना हुआ। ऐसे में हम तो जो टिकेट सबसे सस्ती मिलती है , उसे ही बुक करा देते हैं।  संयोगवश इस बार आना जाना दोनों ही एयर इण्डिया से हुआ। जाते समय तो प्लेन साधारण सा ही था लेकिन वापसी में एयर इण्डिया का ड्रीमलाइनर  विमान मिला जिसमे बैठकर एक बार तो आनन्द आ गया।

एयर इण्डिया का एक लाभ तो यह मिलता है कि इसकी उड़ान टी- ३ से उड़ती है।  इसलिए एयरपोर्ट पर ही आधे पैसे वसूल हो जाते हैं।  उस पर फलाइट के दौरान जैसा भी सही , लेकिन खाना मुफ्त में मिलता है।हमें तो बैठते ही वो दिन याद आ गए जब पहली बार और तद्पश्चात एयर इण्डिया से यात्रा करते थे और बैठते ही सुन्दर सी विमान परिचारिका एक  ट्रे में टॉफियां और इयर प्लग लेकिन सेवा में हाज़िर हो जाती थी।  फिर टेक ऑफ़ करते ही पहले गर्मागर्म तौलिया हाथ मुँह पोंछने के लिए हाज़िर होता था।  और फिर खाना।  इस तरह एक महाराजा की तरह ही आपको ट्रीट किया जाता था।  लेकिन अब न महाराजा रहा , न वो आवभगत।  फिर भी , एयर इण्डिया से सफ़र करना एक सुखद अनुभव ही रहा।

यूँ तो बैंगलोर को देश  का आई टी हब कहा जाता है।  इसलिए उत्तर भारत से बहुत से युवा जॉब करने यहाँ आते हैं।  लेकिन यह  शहर बाकि बड़े शहरों की अपेक्षा थोड़ा महंगा है।  एयरपोर्ट से निकलते ही सड़क के दोनों ओर बहुत खूबसूरत हरियाली और फूलों की सजावट मिली।  हालाँकि प्री पेड़ टैक्सी बहुत महँगी थी , लेकिन बाहर टैक्सियों के रेट अपेक्षाकृत कम थे।  लेकिन शहर से दूर होने की वज़ह से समय और पैसा अतिरिक्त ही लगा।

यहाँ घूमने के लिए नेट पर कुछ स्थल अपनी पसंद के ढूंढें और हम पहुँच गए इस पैलेस में जिसे वड़ियार राजाओं ने बनवाया था।  महल में प्रवेश टिकेट ही इतना महंगा था कि एक बार तो सोचना पड़ा।  लेकिन फिर २२५ रूपये प्रति व्यक्ति देकर महल देखने का प्रलोभन छोड़ना असम्भव ही था।  आखिर , देखकर निराश तो नहीं ही हुए।  



बाहर लॉन से महल का दृश्य।





महल का एक कक्ष जो बैठक जैसा था।  गाइड के रूप में ऑडियो यंत्र दिए गए थे जिसमे रिकॉर्ड किये गए सन्देश द्वारा हर कक्ष के बारे में बताया गया था।




खूबसूरती से सजे आँगन में रखा एक आसन , सोफेनुमा।




मुख्य प्रवेश द्वार के सामने बना है यह बड़ा हॉल जिसमे शादियां होती हैं।  इसकी सजावट भी बेहद सुन्दर थी।





महल के बाहर लॉन में यह पेड़ सैकड़ों वर्ष पुराना लगता है।  इसने अपने अंदर कई और छोटे पेड़ छुपाये हुए हैं जिन्हे यह संरक्षण प्रदान करता है।

पेलेस से लौटे समय विधान सभा भवन आता है जो मेंन रोड पर ही है।



यह विधान सभा का नया भवन है।  पुरनी बिल्डिंग भी साथ ही है।





विधान सभा भवन के बाहर पेड़ों की छटा।


बैंगलोर की एक विशेषता तो यह लगी कि यहाँ कहीं भी हमें झुग्गी झोंपड़ी या अनधिकृत आवासीय कॉलोनी दिखाई नहीं दी , न ही कोई स्लम दिखा। सभी शहरों की तरह यहाँ भी एक महात्मा गांधी रोड़ है जो काफी आधुनिक साज सज्जा से परिपूर्ण है।  यह हैरानी की ही बात थी कि देश की राजधानी में भी एम् जी रोड है लेकिन वह महात्मा गांधी नहीं बल्कि मेहरौली गुडगाँव रोड कहलाती है। क्या महात्मा गांधी के नाम पर दिल्ली में इतना रोष है ?

परिवहन के रूप में यहाँ भी दिल्ली जैसी लो फलोर बसें थी लेकिन उनका किराया बहुत ज्यादा था।  टैक्सी सिर्फ फोन पर बुकिंग से ही मिलती हैं जिनका किराया भी ज्यादा ही लगा।  लेकिन सड़क पर ऑटो अवश्य मिल जाते हैं परन्तु वे कभी मीटर से चलने को राज़ी नहीं होते।  फल , सब्ज़ियाँ , दूध , खाने पीने की सभी चीज़ें दिल्ली के मुकाबले महँगी हैं।

लेकिन जो बात सबसे अच्छी है वो है यहाँ का मौसम।  लगता है यहाँ गर्मी तो कभी पड़ती ही नहीं , न ही ज्यादा ठण्ड होती है। शायद इसका कारण है इसकी समुद्र तल से ऊंचाई जो करीब ९०० मीटर है जबकि दिल्ली की ऊंचाई २०० मीटर ही है।  इसलिए यहाँ सुबह शाम मौसम बहुत सुहाना रहता है।  ठंडी हवायें जब लहरा कर आती हैं तो सारी महंगाई भूल सी जाती है।  यहाँ वायु प्रदुषण भी बहुत कम लगा। पानी और बिजली की किल्लत भी नज़र नहीं आई। लोग भी दिल्ली के मुकाबले ज्यादा सभ्य लगे।  सडकों पर थूकना भी दिखाई नहीं दिया।  विशेष तौर पर एक बात अच्छी यह लगी कि यहाँ लगभग सभी हिंदी समझते भी हैं और बोलते भी हैं।  एक ग्राहक को दुकानदार से हिंदी में बात करते हुए देखकर अति प्रसन्नता हुई क्योंकि दोनों ही दक्षिण भारतीय थे।

लेकिन वापस आते समय यही महसूस हुआ कि जहाँ हमारे पडोसी बैंगलोर से आकर दिल्ली में बसे हैं , वहीँ दिल्ली वाले जॉब करने बैंगलोर जा रहे हैं। आखिर घर में भी होती है रोटी ! लेकिन लगता है , समय के साथ यह परिवर्तन भी अनिवार्य है अब तो जिसके साथ ही जीना है।




Wednesday, March 5, 2014

सड़कों पर खेलती , कलाबाज़ी खाती जिंदगियां ----


जैसे ही गाड़ी चौराहे पर रुकी , वही मैले कुचैले बच्चे व्यस्त हो गए कलाबाज़ी दिखाने मे . तभी सड़क के दूसरी ओर एक गाड़ी आकर रुकी . ड्राईवर की सीट पर गाड़ी मे बैठे मालिक ने एक बच्चे को ईशारा किया और एक गोल सा पैकेट निकाला . लगभग पांच साल की उस बच्ची ने बड़ी हसरत भरी निगाहों से पैकेट को देखा और अपने नन्हे हाथों मे थाम लिया . फिर वहीं सड़क के बीचों बीच बैठ गई फुटपाथ के किनारे पर . हम उत्सुकतावश बड़े ध्यान से बच्ची की गतिविधियों को  देखने लगे . उसने भी जल्दी ही हमे उसे देखते हुए देख लिया . यह देखकर वह थोड़ी सी सहम गई . अब वह असमंजस मे थी कि पैकेट खोले या नहीं . लेकिन उसके साथ साथ अब तक हमे भी उत्सुकता होने लगी थी कि पैकेट मे क्या हो सकता है , हालांकि हमे कुछ कुछ आभास हो रहा था .  


कुछ झिझकते हुए उसने धीरे धीरे पैकेट खोला जैसे अक्सर दीवाली पर हम गिफ्ट के पैकेट खोलते हैं . जैसा कि अनुमान था , पैकेट मे करीने से पैक की गई चार रोटियाँ थी सब्ज़ी के साथ . उसने एक हाथ से सब्ज़ी मे से हरी मिर्च निकाली और मछली की तरह लटकाया और फेंक दिया . फिर उसने हमारी ओर देखा , हम अभी भी उसे एकटक देख रहे थे . वह फिर शरमाई . इस बीच देखने का लुका छिपी का यह खेल यूं ही चलता रहा . अन्तत: उसने हिम्मत कर रोटियों का हिसाब किया . अब उसके दोनो हाथों मे दो दो रोटियाँ थीं और दोनो पर सब्ज़ी रखी थी . वह उठी और ट्रैफिक के बीच हमारी गाड़ी के पीछे खड़ी गाड़ियों के बीच भीख मांगने की असफल कोशिश करते हुए अपने चार वर्षीय भाई के पास पहुंच गई . बच्चे की रोटियों से ज्यादा पैसों मे रुचि नज़र आ रही थी . 

ट्रैफिक सिग्नल की बत्ती हरी हुई और हम आगे बढ़ गए यह सोचते हुए कि क्या शाम के चार बजे बच्चों को भूख रही होगी !  

Saturday, March 1, 2014

दिल्ली मे हुमायूँ का मक़बरा -- एक सुन्दर पर्यटक स्थल !


रविवार को घर बैठना थोड़ा अखरता है।  फिर सुहानी धूप का आनंद तो घर से बाहर निकल कर ही लिया जा सकता है।  इसलिए इस रविवार को जाना हुआ  एक ऐसी जगह जहाँ हम एक बार कॉलेज दिनों में ही गए थे । दिल्ली के निजामुद्दीन क्षेत्र में बना है हुमायूँ का मक़बरा जिसके नवीकरण के बाद १८ सितम्बर २०१३ को प्रधान मंत्री जी ने उद्घाटन किया था ।

प्रवेश द्वार से घुसते ही दायीं ओर एक द्वार नज़र आता है जिसके अंदर बना है यह इसा ख़ान का अष्टकोणीय मकबरा जिसे हुमायूँ के मकबरे से २० साल पहले उन्ही के जीवन काल में १५४७ में बनाया गया था।


इसके अहाते में कभी एक पूरा गांव बसा था।





इसके चारों ओर चारदीवारी बनी है जिससे चारों ओर का अंदर और बाहर का नज़ारा देखा जा सकता हैं।




चारदीवारी पर पैदल पथ पर चलने में बड़ा मज़ा आया।





प्रथम द्वार से द्वितीय द्वार की ओर।  इसे बू हलीमा गेट कहते हैं।  इसकी हालत काफी बिगड़ गई थी , इसलिए मरम्मत करने के बाद इस पर सफेदी कर दी गई है जिससे इसकी खूबसूरती कम हो गई लगती है।   




बू हलीमा गेट से प्रवेश करते ही दायीं ओर यह द्वार नज़र आता है जिसे अरब की सराय गेट कहते हैं।  इसके आगे अरब की सराय थी जहाँ हुमायूँ टोम्ब बनाने वाले पर्सियन कारीगरों को ठहराया गया था।  अब यहाँ आई टी आई का कॉलेज है और यह रास्ता बंद है।






बू हलीमा गेट से दोनों ओर खूबसूरत लॉन्स से होकर सामने एक और गेट नज़र आता है जिसके अंदर म्यूजियम बनी हैं जहाँ मक़बरे से सम्बंधित सारी जानकारी और तस्वीरें दिखाई गई हैं।




इस तीसरे गेट से सामने नज़र आता है हुमायूँ का मक़बरा जिसे एक मंज़िले चबूतरे पर बनाया गया है।





सारे प्रांगण में पानी की धारायें बनाई गई हैं।  सामने एक फव्वारा भी चल रहा था।




हुमायूँ का मकबरा।




ऊपर से उत्तर पूर्व की ओर दूर नज़र आता है एक गुरुद्वारा।




चारों तरफ हरे भरे लॉन हैं जिनमे फुटपाथ बने हैं।




मक़बरे के अंदर मध्य में बनी है हुमायूँ की कब्र।  अन्य कमरों में तीन तीन कब्रें एक साथ बनी हैं जिनके बारे में पता नहीं चला।  हम तो सोचते ही रह गए कि क्या वास्तव में हुमांयू जी यहाँ लेटे होंगे !





मक़बरे से पश्चिम की ओर का दृश्य जहाँ से होकर अंदर आते हैं।




हुमायूँ के मक़बरे का एरियल फोटो जो म्यूजियम में लगा है।  

नोट : दक्षिण दिल्ली के पुराने और बहुत महंगे क्षेत्र में स्थित हुमायूँ का मक़बरा एक बहुत बड़े क्षेत्र में बना है।  यहाँ जितने अपने देश के लोग नज़र आते हैं , उतने ही विदेशी भी इसे देखने के लिए आते हैं।  मुग़लों की इस धरोहर को  सरकार ने सुव्यवस्थित ढंग से संजो कर रखने का प्रयास किया है।