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Thursday, July 5, 2018

न जाने क्यों ---


जाने क्यों ,
बारिश का मौसम है , पर बरखा नहीं आती !
बदल तो आते हैं पर , काली घटा नहीं आती।

जाने क्यों ,
आंधियां चलती हैं पर , अब पुरवाई नहीं चलती,
मौसम बदलता है पर , अब तबियत नहीं मचलती।  

जाने क्यों ,
आसमान दिखता है पर , अब नीला नज़र नहीं आता।
जंगल है ये कंक्रीट का , यहाँ कोई मोर नज़र नहीं आता।     

जाने क्यों ,
लाखों की भीड़ है , पर इंसान अकेला है।
मकां तो शानदार है , पर घर इक तबेला है।

जाने क्यों ,
विकास तो हुआ है , पर हम विकसित नहीं हुए।
स्कूल कॉलेज अनेक हैं , पर हम शिक्षित नहीं हुए।
  
जाने क्यों ,
धर्म के चक्कर में , हम अधर्मी हो गए।
इंसानियत को भूले , और हठधर्मी हो गए।  

जाने क्यों ,
हम समझदार तो हैं , पर ये बात समझ नहीं पाते।
एक दिन खाली हाथ ही जाना है, छोड़ के धन दौलत और रिश्ते नाते। 

फिर भी जाने क्यों ,
हम व्यस्त हैं,  अस्त व्यस्त होने में।
और मस्त हैं ,  मोह माया का बोझ ढोने में। 
जाने क्यों , जाने क्यों !




3 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (06-07-2018) को "सोशल मीडिया में हमारी भूमिका" (चर्चा अंक-3023) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. सबकुछ समझते हुए भी हमें मासूम बनने में शायद अच्छा लगता है
    बहुत अच्छी रचना

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  3. निमंत्रण विशेष : हम चाहते हैं आदरणीय रोली अभिलाषा जी को उनके प्रथम पुस्तक ''बदलते रिश्तों का समीकरण'' के प्रकाशन हेतु आपसभी लोकतंत्र संवाद मंच पर 'सोमवार' ०९ जुलाई २०१८ को अपने आगमन के साथ उन्हें प्रोत्साहन व स्नेह प्रदान करें। सादर 'एकलव्य' https://loktantrasanvad.blogspot.in/

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