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Monday, November 25, 2019

महा चुनावों पर एक पैरोड़ी ---


नगरी नगरी , होटल होटल , छुपता जाये बेचारा ,
ये सियासत का मारा  ....

चुनावों तक का साथ था इनका , जीतने तक की यारी,
आज यहाँ तो कल उस दल में , घुसने की तैयारी।
नगरी नगरी , होटल होटल ----

मंत्री पद के पीछे क्यों हैं , ये नेता सब पगले ,
यहाँ की ये कुर्सी नहीं मिलेगी , ग़र होटल से निकले ।
नगरी नगरी , होटल होटल ----

कदम कदम पर नेता बैठे , अपना हाथ बढ़ाये ,
सियासत के खेल में जाने , कौन कहाँ मिल जाये।
नगरी नगरी , होटल होटल ---

काले नोटों में बिकता हो, जहाँ दलों का प्यार ,
वोट्स भी बेकार वहां पर , वोटर भी बेकार।
नगरी नगरी , होटल होटल  ----

उन जैसों के भाग में लिखा , कुर्सी का वरदान नहीं ,
जिसने उनको नेता चुना वो , अवसर है मतदान नहीं।
नगरी नगरी , होटल होटल ---




Monday, November 18, 2019

पत्नी पर एक गंभीर विचार विमर्श --



वो पास होती है तो फरमान सुनाती है।
अज़ी ऐसा मत करना , वैसा मत करना ,
ये मत खाना , वो मत खाना ,
कुछ भी खाना पर ज्यादा मत खाना।

वो दूर होती है तो समझाती है ,
अज़ी ऐसा करना , वैसा करना ,
ये खा लेना , वो खा लेना ,
कुछ भी खाना पर भूखा मत रहना।

हम तो हर हाल में ,
बस पत्नी का हुक्म बजाते हैं।
वो दिन को रात भी कहे तो ,
आँख बंद कर रात ही बताते हैं।

वो , हो , तो मुसीबत,
ना हो तो और बड़ी मुसीबत।
पत्नी तो एक दोधारी तलवार होती है।
परन्तु पत्नी पास हो या दूर,
सोते जागते उसके मन पर बस ,
पति और बच्चों की ही चिंता सवार होती है। 


Thursday, November 7, 2019

शादी करवा के मारे गए --एक हास्य कविता --


एक दिन एक हास्य कवि से हो गई मुलाकात,
अवसर देख कर मैं करने लगा उनसे बात।

मैंने कहा ज़नाब आप सारी दुनिया को हंसाते हैं ,
लेकिन खुद कभी हँसते हुए नज़र नहीं आते हैं।

क्या बता सकते हैं आप इस चक्कर में कब फंसे थे ,
और दिल खोलकर आखिरी बार कब हँसे थे। 

वो बोले, ज़रूर बता सकता हूँ मैं इस चक्कर में कब फंसा था ,
मैं आखिरी बार दिल खोलकर अपने शादी वाले दिन हंसा था।

भला क्या बताऊँ वो दिन मेरे लिए कैसा था,
बस यूँ समझ लो बिलकुल ९/११ जैसा था।

मैंने कहा ज़नाब आप ऐसे विचार क्यों रखते हैं,
और पत्नी को ऐसी मुसीबत क्यों समझते हैं।

वो बोले यार तुम भी कमाल करते हो ,
शादी शुदा होकर ये सवाल करते हो।

क्या आपको पत्नी कभी नहीं लगती अच्छी ,
वो बोले नहीं भाई , ये बात नहीं है सच्ची। 

एक दिन बड़ी अच्छी लगी थी जब वो बोली,
मैं एक सप्ताह के लिए मायके जा रही हूँ।

पर दिल पर चोट सी लगी जब अगले दिन बोली,
अज़ी मैं आज शाम को ही घर वापस आ रही हूँ।

एक ही दिन का विरह उन्हें तो खलने लगा था ,
पर मैं कैसे बताता, मेरा दिल तो तभी लगने लगा था।

मैंने कहा, मान लीजिये आपकी पत्नी भाग जाये,
तो ऐसे में आप क्या करेंगे उपाय।

वो झट से बोले, अब तो मानकर ही दिल समझाना पड़ेगा,
वरना मुझे पता है, ये कष्ट तो जिंदगी भर उठाना पड़ेगा।

पर ऐसा हुआ कभी तो मैं दिल से नहीं दिमाग से काम लूंगा,
और भगाने वाले को दस हज़ार रूपये इनाम दूंगा।

साथ ही ये बात भी हम उसे ज़रूर समझायेंगे ,
कि भैया रख ले, तेरे बुरे दिनों में काम आएंगे।

पर देखिये एक बात आपको भी बतलाऊंगा ,
कुछ भी हो जाये पुलिस में रिपोर्ट नहीं लिखवाऊंगा।

पिछली बार लिखवाई थी, संकट के ऐसे बदल छाये,
नालायक नामुराद, ढूंढ कर घर वापस ले आये।

बोले देखिये, अब सुपरदारी पर आपके पास छोड़ रहे हैं ,
संभाल कर रखियेगा, आप बार बार कानून तोड़ रहे हैं।

मैंने कहा यार, मेरे जीवन में अभी तो आने लगी थी बहार,
फिर क्यों पकड़ लाये इस मुसीबत को फिर एक बार।

कविवर, अपने अनुभवों की माला के कुछ मोती लुटा दीजिये,
और देश के कुंवारों को शादी के कुछ गुर बता दीजिये।

बोले मैं तो अब अगले जन्म में कुंवारा ही रहना चाहूंगा ,
लेकिन देश के कुंवारों को बस यही कहना चाहूंगा।

कि बेटा जिंदगी में शादी एक बार ज़रूर कराना ,
वरना जिंदगी भर बिना वजह ही पड़ेगा पछताना।

शादी करके आपकी हालत जो होगी सो होगी,
पर कम से कम पछताने की एक वजह तो होगी।

""एक दूल्हे की किस्मत सही वक्त पर जाग गई ,
फेरों से पहले दुल्हन खिड़की से कूदकर भाग गई।
दूल्हा भी कौन सा दूध का धुला और सीधा सादा था ,
पिछली शादी में वो खुद घोड़ी के साथ भागा था।""


Friday, November 1, 2019

भ्रष्टाचार पर एक हास्य व्यंग पैरोडी --


प्रस्तुत है, प्रसिद्ध हास्य व्यंग कवि श्री आशकरण अटल जी की एक दिलचस्प हास्य व्यंग कविता पर आधारित एक हास्य व्यंग पैरोडी कविता :

एक बिन बुलाये कवि ने,
कवि सम्मेलन में एंट्री ली।
कवि जी अभी मंच पर पहुंचे भी नहीं ,
कि संयोजक ने उसे पहले ही संभाल लिया,
और सवाल किया।

आप यहाँ क्या कर रहे हैं ?
जी मैं समझा नहीं, कहाँ क्या कर रहे हैं।
आप यहाँ इस कवि सम्मेलन में क्या कर रहे हैं ?
जी हम यहाँ कविता सुनाने आये हैं।
क्या बुलाने पर आये हैं ?
जी नहीं, हम बिन बुलाये स्वयं ही चले आये हैं।
क्या आपको पता है, बिन बुलाये कविता सुनाने पर
आपको पैसे नहीं मिलेंगें ?
जी, पता है।
जब आपको पता था कि बिन बुलाये
कविता सुनाने पर आपको पैसे नहीं मिलेंगे,
तो फिर आप यहाँ क्यों आये ?
जी, राष्ट्र हित में आये।

अच्छा, कविता सुनाकर आप क्या करेंगे ?
जी, कविता सुनाकर हम चले जायेंगे।
क्या कभी फिर आएंगे ?
जी अवश्य आएंगे।
आप जबरदस्ती कवितायेँ कब तक सुनाते रहेंगे ?
जी जब तक हमें बिना बुलाये,
आप कवि सम्मेलन कराते रहेंगे।
आप निशुल्क कविता सुनाकर,
ये आर्थिक त्याग क्यों कर रहे हैं ?
जी राष्ट्रहित में कर रहे हैं।

आखिर आप मुफ्त कविता क्यों सुनाते हैं ,
जबकि कविता सुनकर आप कुछ धन राशि कमा सकते हैं। 
क्योंकि हम गवर्न्मेंट सर्वेंट हैं ,
आप चाहें तो हमें सरकारी बाबू कहकर भी बुला सकते हैं।
और सरकारी बाबू सीट छोड़कर,
पैसा कमाने कहीं नहीं जाते हैं।
क्योंकि नेताओं की तरह वे भी
कुर्सी पर बैठे बैठे ही बिक जाते हैं।
और खुले आम निडर होकर दोनों हाथों से ,
विशुद्ध करमुक्त धन कमाते हैं।

क्या इस परम्परा को निभाया जाना चाहिए ?
और बाकि कवियों को भी राष्ट्र हित में ,
मुफ्त कविता सुनाने के लिए ,
आगे आना चाहिए , आगे आना चाहिए !

नोट : साभार आशकरण अटल जी।