यह मानव जाति का दुर्भाग्य ही है कि एक ओर जहाँ लगभग आधी शताब्दी पूर्व मानव चरण चाँद पर पड़े थे , मंगल गृह पर यान उतर चुके हैं और अंतरिक्ष में भी मनुष्य तैरकर , चलकर , उड़कर वापस धरती पर सफलतापूर्वक उतर चुका है , वहीँ दूसरी ओर आज भी हमारे देश में विवाहित महिलाओं पर न सिर्फ दहेज़ के नाम पर अत्याचार किये जा रहे हैं , बल्कि उन्हें आग में झोंक दिया जाता है। यह अमानवीय व्यवहार किसी भी तरह क्षमा के योग्य नहीं है। इन कुकृत्यों के अपराधियों की सज़ा कारावास से बढाकर फांसी कर देना चाहिए। शायद तभी ये शैतान रुपी लालची मनुष्य इंसान बन पाएंगे।
शिक्षा : लेकिन यहाँ यह सवाल भी उठता है कि कोई लड़की क्यों वर्षों तक ससुराल वालों के अत्याचार सहन करे। इसके मूल कारण हैं लड़कियों का अपने पैरों पर खड़े होने की सामर्थ्य न होना। जब तक हमारी बेटियां सुशिक्षित होकर स्वयं सक्षम न होकर दूसरों पर निर्भर रहेंगी , तब तक इस समस्या का सामाजिक समाधान नहीं निकल सकता। इसके लिए सबसे पहला काम है बेटियों को पढ़ाना और उन्हें आत्मनिर्भर बनाना। जब अपने बलबूते पर जीवन जीने का आत्मविश्वास होगा , तभी महिलाओं में इन शैतानों से लड़ने का साहस आ पायेगा।
तलाक : हमारे देश में आज भी पति पत्नी का साथ सात जन्मों का माना जाता है , जबकि विकसित देशों में कभी कभी एक ही जन्म मे महिलाएं सात शादियां कर डालती हैं। इसका कारण है सहनशीलता के नाम पर अत्याचार सहते हुए साथ रहना जो एक मज़बूरी सी होती है। लेकिन यदि महिला आर्थिक और शैक्षिक रूप से सक्षम हो तो इस आवश्यकता से अधिक सहनशीलता की आवश्यकता नहीं होती। यदि सभी प्रयासों के बावजूद आपसी सामंजस्य नहीं बैठ पा रहा तो पति पत्नी का अलग होना ही दोनों के लिए हितकारी है। निसंदेह , तलाक के बाद सबसे ज्यादा विपरीत प्रभाव बच्चों पर पड़ता है और अक्सर बच्चों के कारण पति पत्नी तलाक के बारे में नहीं सोच पाते , लेकिन बच्चों को प्रतिदिन के पति पत्नी के झगड़ों का सामना करना पड़े , इससे बेहतर तो दोनों का अलग होना ही है।
समाज को भी तलाकशुदा पति पत्नी की ओर अपना रवैया बदलना होगा। आखिर यह दो इंसानों के बीच का आपस का मामला है जिसमे किसी भी अन्य व्यक्ति का हस्तक्षेप सही नहीं।
कानून और समाज : शादियों में दहेज़ मांगना तो एक अपराध होना ही चाहिए , साथ ही दहेज़ देने को भी हतोत्साहित करना चाहिए। अक्सर पैसे वाले लोग अपनी शान शौकत दिखाने के लिए शादियों में करोड़ों रूपये तक खर्च कर डालते हैं , जो अन्य व्यक्तियों के लिए एक गलत सन्देश पहुंचाता है। लोगों को इस दिखावे और झूठी शान का मोह छोड़ना होगा। लेकिन ऐसा संभव नहीं लगता , इसलिए सरकार को ही ऐसा कानून बनाना चाहिए जिसमे शादियों पर होने वाले खर्च की सीमा निर्धारित हो। हालाँकि यह काम सामाजिक संस्थायें बेहतर कर सकती हैं। सादगी और सरलता में जो बात है वह बनावटी चमक धमक में कहाँ !
किसी भी रूढ़िवादी परम्परा को बदलने में समय लगता है। लेकिन समय के साथ साथ परिवर्तन भी अवश्यम्भावी है। बस हम थोड़ा सा प्रयास सक्रीय होकर करें तो शायद हमारे आपके समय में ही यह सामाजिक परिवर्तन आ सकता है जो मानव जाति के हित में होगा। नारी की सुरक्षा में ही मानव जाति की सुरक्षा है।