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Sunday, May 25, 2014

रोक सको तो रोक लो, जिंदगी और ज़वानी पल पल हाथ से फिसलती जाती है ---


आजकल टी वी पर चल रहे महाराणा प्रताप के सीरियल को देखकर जिज्ञासा हुई तो पता चला कि महाराणा उदय सिंह और महाराणा प्रताप, दोनो की मृत्यु ५० + की आयु मे ही हो गई थी .    वैसे भी उस समय औसत आयु ५० के आस पास ही रही होगी . १९७० - ८० के दशक मे मनुष्य की औसत आयु ६० के करीब थी . ज़ाहिर है , इस बीच औसत आयु मे बहुत कम ही बढ़त हुई . आजकल यह ७० वर्ष है . यह संभव हुआ है वर्तमान मे स्वास्थ्य सेवाओं मे सुधार के कारण . लेकिन अभी भी और शायद कभी भी मनुष्य मृत्यु पर काबू नहीं पा सकता . जहां मृत्यु एक सच है , वहीं एजिंग यानी बुढ़ापा आना भी एक निश्चितता है . बचपन से बुढापे का यह सफ़र कब पूरा हो जाता है, पता भी नहीं चलता. 

यूं तो आने वाले एक पल का भी कोई भरोसा नहीं , लेकिन औसत आयु के हिसाब से आज हम और हमारी उम्र के लोग लगभग तीन चौथाई जिंदगी जी चुके हैं . सोचा जाये तो कल की ही बात लगती है जब १९८४ मे हमारी शादी हुई थी और जिंदगी की एक नई शुरुआत .  



                                                                              १९८४  


देखते देखते तीस साल बीत गए और हम जाने कहाँ कहाँ से गुजर गए . वैसे तो जिंदगी मे बहुत से उतार चढ़ाव आते हैं लेकिन यह हमारा सौभाग्य रहा कि हमने जिंदगी को ऊँचाई की ओर चढ़ते ही पाया . एक गांव के साधारण से वातावरण मे पैदा होकर आज जिस मुकाम पर पहुंचे हैं , वह स्वयं के लिये आत्मसंतुष्टि प्रदान करता है . एक तरह से मैं स्वयं को सौभाग्यशाली महसूस करता हूँ . बेशक , हमने जिंदगी को भरपूर जीया है . 



                                                                          २०१४ 


कहते हैं सौभाग्य पिछले जन्म के अच्छे कर्मों का फल होता है . लेकिन यदि यह पिछले जन्म का फल हुआ तो फिर हमारे हाथ मे क्या रहा. फिर तो भाग्यशाली होना भी भाग्य की ही बात हुई . क्या आपके वर्तमान जीवन का भाग्य पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता ? 

बचपन मे एक कहानी सुनी थी . एक सज्जन पुरुष जो जिंदगी भर अच्छे कर्म करता रहा , रास्ते से गुजर रहा था कि अचानक उसके पैर मे एक मोटी सी शूल घुस गई . वह दर्द से कराह उठा . तभी वहां से एक दुराचारी व्यक्ति गुजरा जो बड़ा खुश नज़र आ रहा था . उसने बताया कि वो खुश इसलिये है कि उसे २००० रुपये का ख़ज़ाना मिला था . यह देखकर सज्जन पुरुष बड़ा दुखी हुआ और रोने लगा . तभी वहां एक साधु आया तो सज्जन पुरुष को रोते देखकर रोने का कारण पूछा . उसने बताया कि वह सारी जिंदगी अच्छे कर्म करता रहा , फिर भी उसके पैर मे इतनी मोटी शूल घुस गई और वह दुर्जन सारी जिंदगी पाप करता रहा फिर भी उसको २००० रुपये का इनाम मिला , यह कैसा न्याय है . साधु ने कहा भैया , तुम्हारे पिछले जन्म के कर्म इतने बुरे थे कि तुम्हे आज सूली पर चढ़ना था लेकिन तुम्हारे इस जन्म के अच्छे कर्मों ने तुम्हारी सज़ा को घटाकर शूल तक सीमित कर दिया . जबकि इस दुर्जन के पिछले कर्म इतने अच्छे थे कि इसे आज २ लाख का इनाम मिलना था , लेकिन इसके इस जन्म के बुरे कर्मों ने इसके इनाम की राशि को घटाकर २००० कर दिया . यह सुनकर सज्जन पुरुष अपना सारा दर्द भूल गया और उसने शूल को पकड़कर खींच कर निकाल दिया और संतुष्ट भाव से अपने रास्ते चला गया . 



                                                                          २०३४ 

कहने को तो जिंदगी इतनी लम्बी होती है लेकिन ज़वानी कब हाथ से फिसल जाती है , पता ही नहीं चलता . यदि जिंदगी रही तो एक दिन ऐसा रूप होना स्वाभाविक है . 

इसलिये आवश्यक है कि वर्तमान का एक एक दिन भरपूर जीया जाये क्योंकि वर्तमान को ही जीया जा सकता है . भूतकाल अच्छा था या बुरा , वह बीत गया . अब उस पर क्या पछताना ! भविष्य अन्जान और अनिश्चित होता है , हालांकि एक निश्चितता की ओर निश्चित ही बढ़ता है . हमारे वर्तमान के अच्छे कर्म ना सिर्फ वर्तमान को सुधारते हैं , बल्कि अगले जन्म के लिये भी सौभाग्य का आरक्षण कराते हैं .   

नोट : एक पुराने मित्र की ई मेल से प्रेरित . तीसरा फोटो मित्र की मेल से साभार . 

Sunday, May 18, 2014

जब हम रात के अंधेरे मे सुनसान सड़क पर फंस गए थे --- एक संस्मरण !


सन १९८१ की बात है. हम नए नए डॉक्टर बने थे . तभी कुछ मित्रों ने वैष्णों देवी जाने का प्रोग्राम बना लिया . एक चार्टर्ड बस कर मित्र समूह और कुछ अन्य परिवारों से बस भरी और रात के समय हम रवाना हो गए कटरा की ओर . रात मे १४ किलोमीटर की ट्रेकिंग , फिर आइस कोल्ड वाटर मे स्नान कर , भीड़ मे लाइन लगाकर गुफा मे प्रवेश और अंत मे क्या देखा , यह सोचते हुए वापसी , सब कुछ बड़ा एडवेन्चरस और मनोरंजक लगा था . बस मे भी क्योंकि युवाओं की भरमार थी , इसलिये पूरा सफ़र भी मज़ेदार रहा . 

लेकिन वापसी मे विचार बना कि चलो अमृतसर मे स्वर्ण मंदिर होकर आया जाये . शाम ढल चुकी थी , रात का खाना भी नहीं खाया था . प्रोग्राम यही था कि अमृतसर चलकर ही भोजन करेंगे . कटरा से निकलकर जल्दी ही सड़क सुनसान होने लगी थी . धीरे धीरे अंधेरा भी होने लगा था . युवा दिलों ने अंताक्षरी खेलनी शुरू कर दी . भक्ति भावना के बीच थोड़ी मस्ती भावना किसी को भी बुरी नहीं लग रही थी . सभी एन्जॉय कर रहे थे . तभी सरपट दौड़ती बस अचानक एक झटके के साथ रुक गई . उस वक्त रात के करीब ८ बजे थे . बाहर घनघोर अंधकार था . सड़क पर भी कहीं कोई लाइट नहीं थी . दूर दूर तक बस अंधेरा ही अंधेरा दिख रहा था . ड्राईवर ने नीचे उतरकर चेक किया और बताया कि गाड़ी के इंजिन मे कोई पार्ट टूट गया है जो ठीक नहीं हो सकता . अब सुबह होने पर गेराज को ढूंढा जायेगा . तब तक वहीं रुकना पड़ेगा . 

यह सुनकर सब सकते मे आ गए . हालांकि खाना किसी ने नहीं खाया था , लेकिन सबके पास खाने का समान था . इसलिये खाने की चिंता किसी को नहीं थी . हमने भी उदारता दिखाते हुए सबसे पूछा कि यदि किसी को खाने के लिये कुछ चाहिये तो हमसे ले सकता है . लेकिन किसी को ज़रूरत नहीं थी , इसलिये हम अपना सा मूँह लेकर बैठ गए . आखिर सबने अपना अपना खाना निकाला और भोजन किया . लेकिन फिर जल्दी ही समस्या आई कि अब क्या किया जाये . बाहर ठंड थी , इसलिये गाड़ी के शीशे बंद थे . ऐसे मे लोगों ने सोना शुरू कर दिया . जल्दी ही सारी बस खर्राटों से गूंज रही थी . जिंदगी मे इतने विविध प्रकार के खर्राटे हमने कभी ना सुने थे , ना फिर कभी कही सुने . लेकिन थोड़ी देर बाद अंदर सांस घुटने लगा तो हमने सोचा कि चलो बाहर निकलकर देखते हैं . लेकिन बाहर बारिश शुरू हो चुकी थी . 

एक तो ठंड , उपर से बारिश और घनघोर अंधेरा. ट्रैफिक भी बिल्कुल नहीं था . बिल्कुल सुनसान सड़क पर आधी रात मे हम समझ नहीं पा रहे थे कि जाएं तो कहाँ जाएं . यह भी नहीं पता था कि आस पास क्या है , है भी या नहीं . थोड़ा डर भी लगने लगा था . हालांकि उस वक्त पंजाब मे डर की कोई बात नहीं थी . किसी तरह तड़प तड़प कर रात गुजारी . सुबह हुई तो पता चला कि हम एक सुनसान इलाके मे खड़े थे जहां दूर दूर तक कोई इंसानी बस्ती नहीं थी . एक ट्रक वाले से पता चला कि वहां से दो किलोमीटर दूर एक ढाबा है जिस पर चाय मिल सकती है . अब तक सबके नक्शे ढीले हो चुके थे . अब हमारे चाय के प्रस्ताव को तुरंत स्वीकार कर लिया गया और हम भी रॉबिन हुड की तरह दिलेर होकर निकल पड़े ढाबे की ओर . हम तीन चार लड़कों ने एक बाल्टी मे चाय भरी , ढाबे मे जितनी भी ब्रेड थी , सभी थैले मे भरी और एक ट्रक मे लिफ्ट लेकर पहुंच गए अपनी बस मे जहां सब बेसब्री से हमारा या यूं कहिये चाय नाश्ते का इंतज़ार कर रहे थे . अब सबने चाय और ब्रेड ऐसे खाई जैसे बरसों के भूखे हों . दिन के ढाई बजे बस ठीक हुई और हम रात के दस बजे अमृतसर पहुंचे . हमारी किस्मत अच्छी थी या ये कहें कि गुरुद्वारे के लोग अच्छे थे , उन्होने हमे बंद होने के बावज़ूद अंदर प्रवेश करने दिया और हम पूरा गोल्डन टेम्पल देख सके . साथ ही हरमिंदर साहब के दर्शन भी कर सके . 

यह समय समय की ही बात होती है कि यही पृथ्वी कभी स्वर्ग , कभी नर्क नज़र आने लगती है . लेकिन स्वर्ग को नर्क मे परिवर्तित करने वाले भी हम ही होते हैं . यदि सौहार्दपूर्वक रहा जाये तो यही पृथ्वी स्वर्ग से कम नहीं है .   





Sunday, May 4, 2014

मेरी किस्मत मे तू ही है शायद ----


बहुत दिनों से कोई हास्य कविता लिखने का समय नहीं मिला ! आज विश्व हास्य दिवस के अवसर पर फ़ेसबुक पर आधारित एक पैरोडी लिखने का प्रयास किया है ! यह अभी तक की दूरी पैरोडी है जो इत्तेफाक़ से फिर से सुरेश वाडकर के गाने पर ही आधारित है : 


मेरी किस्मत मे तू ही है शायद ,
दिन निकलने का इंतज़ार करता हूँ ! 
पहले अपडेट एक बार करता था ,
अब दिन मे तीस बार करता हूँ ! 

आज समझा हूँ लाइक का मतलब ,
आज टिप्पणीयां मैं भेंट करता हूँ ! 
कल मैं ब्लॉग पोस्ट लिखता था ,
आज मैं स्टेटस अपडेट करता हूँ ! -----------

सोचता हूँ के मेरे स्टेटस पर 
क्यों नहीं लगते लाइक के चटके ! 
मैने मांगी थी इक टिप्पणी लेकिन 
पोस्ट पे आये ना कोई भूले भटके ! 

हो ना जाउँ कहीं मैं फेसबुकिया 
इसकी लत पड़ने से डरता हूँ !
पहले अपडेट एक बार करता था ,
अब दिन मे तीस बार करता हूँ ! ----------

दिन गुजरा फ़ेसबुक पे सारा ,
रात आधी लाइक करते करते ! 
कैसे बुलायें पेज पे उनको ,
चैट करते हैं डरते डरते ! 

लत शायद इसी को कहते हैं ,
हर घड़ी बेकरार रहता हूँ !
रात दिन फ़ेसबुक पे कटते हैं , 
घर बार से बेज़ार रहता हूँ ! -----------

मेरी किस्मत मे तू ही है शायद ,
दिन निकलने का इंतज़ार करता हूँ ! 
पहले अपडेट एक बार करता था ,
अब दिन मे तीस बार करता हूँ !