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Saturday, April 15, 2017

बाघ जो देखन मैं चला, बाघ मिला ना कोय ---

बाघ जो देखन मैं चला, बाघ मिला ना कोय,
जो तुमको देखा प्रिये , याद आया न कोय ।

जिन लोगों के पास फालतु पैसा होता है , वो शादी की सालगिरह पर विदेश जाते हैं या जश्न मनाने कम से कम फाइव स्टार होटल में जाते हैं । जिनके पास काम ज्यादा और पैसा कम होता है , उनके लिए सालगिरह भी बस एक और दिन ही होता है।  हमारे पास फालतु पैसा तो कभी नही रहा लेकिन वक्त की कमी कभी नहीं रही।  इसलिए हम हर साल सालगिरह पर बाहर ज़रूर जाते हैं। लेकिन लगभग पिछले दस सालों से हम सिर्फ जंगलों में ही जाते हैं। हालाँकि इसका वानप्रस्थ आश्रम से कोई सम्बन्ध नहीं है।

इस बार भी जाना हुआ जिम कॉर्बेट के जंगल में बसा एक गाँव मरचुला जहाँ बना है स्टर्लिंग रिजॉर्ट्स।


 उत्तराखंड के रामनगर शहर से करीब ३२ किलोमीटर की दूरी पर चारों ओर हरे भरे पहाड़ों से घिरा यह रिजॉर्ट दो साल पहले ही बना है और हम तभी से यहाँ जाने का कार्यक्रम बना रहे थे। इसके ठीक सामने बहती है रामगंगा नदी जिसका सम्बन्ध रामायण काल से जुड़ा है। सुना है यहीं कहीं कभी सीता मैया भी रही थीं। शहर से दूर एकदम शांत , सुन्दर , स्वच्छ वातावरण लेकिन सभी सुविधाओं से परिपूर्ण यह स्थान मन को मोह लेता है।  यहाँ गाड़ियों का शोर और प्रदुषण नहीं होता बल्कि सुबह शाम चिड़ियों की चहचाहट , रंग बिरंगी चिड़ियाँ जो शहर में कभी देखने को नहीं मिलती , नदी के बहते पानी की कर्णप्रिय कलकल करती आवाज़ और एक ठहरा हुआ सा समय , मानो जिंदगी स्थिर सी हो गई हो।  सब मिलकर तनावग्रस्त तन और मन को पूर्ण रूप से विषमुक्त कर देते हैं। सिर्फ दो दिन का वास ही मन को हर्ष और उल्लास से भर देता है।  




मरचुला गाँव , यहाँ तक आने के लिए रामगंगा नदी पर एक पुल बनाया गया है।  पुल से बलखाती नदी का एक दृश्य।    




मरचुला गाँव की हरी भरी वादियों के बीच बहती नदी किनारे यह एक नंगी पहाड़ी भी दिखी जिससे कई बार भूस्खलन हुआ लगता है।  इसके ठीक नीचे बने एक रिजॉर्ट को देखकर लगा मानो बहुत खतरनाक जगह है।  लेकिन बताया गया कि यह ज़रा हटकर है , इसलिए रिजॉर्ट को कोई खतरा नहीं है।




गाँव की सड़क पर बनी यह दुकान देखने में शराब की दुकान जैसी लगी।  लेकिन पास जाकर देखा तो पाया कि कोल्ड ड्रिंक्स की बोतलों को बड़े करीने से सजाया गया था जिससे यह एक बार जैसी दिख रही थी। यहाँ बैठकर चाय पीना भी एक सुखद अहसास था।  




स्टर्लिंग रिजॉर्ट के सामने सड़क से नीचे उतरकर करीब आधा किलोमीटर की दूरी पर नदी का पानी कलकल करता बहता नज़र आता है। यहाँ नदी किनारे कई और रिजॉर्ट्स भी बने हैं।  हालाँकि यह क्षेत्र अभी विकसित हो रहा है।  इसलिए एक गाँव जैसा मह्सूस होता है।




चारों ओर पहाड़ और बीच में बहती नदी हो । नदी का किनारा हो , अपना कोई पास हो , और दिन कोई खास हो , तो वातावरण स्वयं ही रोमांचित हो जाता है।




नदी का कलकल करता बहता पानी , शांत वातावरण में जिसे संगीत सा घोल देता है।




सभी सुविधाओं से सुसज्जित इस रिजॉर्ट में स्विमिंग पूल भी है , जिससे यहाँ की खूबसूरती में चार चाँद लग जाते हैं।

यदि संभव हो तो शादी की सालगिरह पर सभी को एक दो दिन के लिए घर से बाहर कहीं दूर निकल जाना चाहिए। शहर के कंक्रीट जंगल से दूर किसी प्राकृतिक जंगल में रहकर आप गुजरे साल के सारे गिले शिकवे ( यदि कोई हों तो ) भूल जायेंगे और अगले एक साल तक के लिए तन मन में एक मीठा मीठा सा अहसास भर जायेगा जब आप होंगे , आपकी खास होगी और तीसरा कोई पास नहीं होगा।

Sunday, April 14, 2013

शेर जो देखन मैं चल्या, शेर मिल्या ना कोय ---

बचपन में शेर की कहानी सुनने में बड़ा मज़ा आता था। आज भी डिस्कवरी चैनल पर अफ्रीका के जंगलों की सैर करते हुए जंगली जानवरों के बारे में फिल्म देख कर बड़ा रोमांच महसूस होता है। शायद इसी वज़ह से हर साल १३ अप्रैल को जो हमारी वैवाहिक वर्षगांठ होती है, हमें जंगलों की याद प्रबल हो आती है। यूँ तो भारत में भी अनेक शेर और बाघ संरक्षित क्षेत्र हैं लेकिन इनमे जंगली जानवरों से सामना उतना ही असंभव लगता है जितना जितना मनुष्यों में इन्सान का ढूंढना। फिर भी यही चाह हमें खींच ले जाती है जंगलों की ओर। 
इस वर्ष हमारा जाना हुआ - जिम कॉर्बेट पार्क। 

दिल्ली से २५० किलोमीटर रामनगर से करीब १० किलोमीटर पर बसा है ढिकुली गाँव जहाँ अनेकों आरामदायक रिजॉर्ट्स बने हैं। दिल्ली से मुरादाबाद तक का १५० किलोमीटर का सफ़र राष्ट्रीय राजमार्ग २४ द्वारा बहुत सुहाना लगता है जहाँ आप फर्राटे से गाड़ी चलाते हुए हाइवे ड्राइविंग का आनंद उठा सकते हैं। लेकिन उसके बाद काशीपुर से होता हुआ रामनगर तक का करीब १०० किलोमीटर का रास्ता आपको रुला सकता है। कहीं बढ़िया , कहीं टूटी फूटी सड़क को देखकर पता चल जाता है कि कहाँ कैसे ठेकेदार ने काम किया होगा। 

लेकिन रामनगर पहुँचने के बाद पहाड़ शुरू होने पर राहत सी मिलती है। फिर एक के बाद एक रिजॉर्ट्स आपका स्वागत करने को तैयार मिलते हैं।              

 

एक ओर पहाड़ और दूसरी ओर कोसी नदी के बीच २०० मीटर का क्षेत्र। रिजॉर्ट में घुसते ही ड्राइव वे के दोनों ओर घने पेड़ जिनमे बांस के पेड़ बेहद खूबसूरत लग रहे थे।    



घनी हरियाली के बीच बनी कॉटेज अपने आप में एक स्वर्गिक अहसास की अनुभूति कराती हैं।    



कॉटेज के बाद नदी किनारे रेस्तराँ, स्विमिंग पूल और हरे भरे लॉन -- कुल मिलाकर एक परफेक्ट सेटिंग।   




ढिकुली से आगे राजमार्ग संख्या १२१ सीधे रानीखेत को जाता है। करीब ४ किलोमीटर आगे यह गर्जिया देवी का मंदिर नदी के बीचों बीच बना है।    




कोसी नदी का एक दृश्य -- मंदिर से थोड़ा पहले एक पुराना ब्रिज बना है जहाँ कई तरह के एडवेंचर स्पोर्ट्स का मज़ा लिया जा सकता है। बेशक इसके लिए मन में साहस और उत्साह की आवश्यकता है।   


  

रिवर क्रॉसिंग करते हुए। यहाँ एक बार धम्म की आवाज़ आने पर हमने पूछा कि क्या हुआ तो पता चला कि ब्रिज फाल हो रहा है। समझने में समय लगा कि यह पुल से पानी में कूदने का खेल था।  



जिम कॉर्बेट पार्क में मुख्य रूप से जीप सफारी द्वारा जंगल की सैर की जाती है। पार्क के ४ अलग अलग जोन्स हैं जहाँ एक बार में एक जोन में जाया जा सकता है। लेकिन वीकेंड पर अक्सर बुकिंग पहले ही फुल हो जाती है। हमें भी जो बुकिंग मिली वो ऐसे क्षेत्र की थी जहाँ बस पहाड़ ही पहाड़ थे। लेकिन बहुत घना जंगल था। पेड़ पौधों की अनेकों किस्म थी जिनमे सबसे प्रमुख साल के पेड़ थे।

कुछ नहीं थे तो शेर और बाघ। हालाँकि यहाँ बाघों की काफी संख्या बताई जाती है लेकिन दिखने की सम्भावना न के बराबर ही होती है। फिर भी ऐसा नहीं सोचा था कि इतने घने जंगल में भी एक भी जंगली जानवर दिखाई नहीं देगा।



लेकिन पेड़ तरह तरह के दिखे। यह तना दो पेड़ों का है। बाहर वाला अन्दर वाले पर पेरासाईट है जो जल्दी ही इसकी जान निकाल देगा। शायद कलयुगी मनुष्यों की लालची प्रवृति का प्रभाव पेड़ों पर भी आ गया है।    



पूरे जंगल में आखिर यह एक लंगूर ही नज़र आया जो हमें देखते ही उछलकर पेड़ पर चढ़ गया।



घने जंगल से होकर अंत में हम पहुँच गए ऐसे स्थान पर जहाँ इस क्षेत्र की दूसरी नदी -- रामगंगा नज़र आ रही थी। यह यहाँ की मुख्य नदी है जिस पर रामगंगा रिजर्वायर बना है।

जंगल सफ़ारी तो निराशाजनक रहा, हालाँकि घने जंगल में ५० - ६० किलोमीटर की सैर कमाल की थी। रिजॉर्ट में आकर  यहाँ की खूबसूरती का अवलोकन अपने आप में एक अनुपम अनुभव था।



यहाँ लॉन में शाम को सांस्कृतिक कार्यक्रमों के साथ भोजन का आयोजन किया जाता है।
 


पहाड़ों में लाल रंग बहुत ही सुन्दर लगता है। इसलिए सभी कॉटेज की छत इसी रंग में रंगी थी। लेकिन फूलों का भला क्या मुकाबला !  



कोसी नदी में महाशीर नाम की मछलियाँ पाई जाती हैं जिनका शिकार एंगलर्स को बहुत भाता है।





अगले दिन सुबह आसमान में बदल छा गए थे। बादलों की खूबसूरती नदी और पहाड़ के साथ मिलकर दोगुनी हो जाती है। लेकिन अब वापस चलने का समय हो गया था। इसलिए हमने भी अपना बोरिया बिस्तर समेटा और लौट आए फिर से उसी जंगल में जहाँ एक ढूंढो तो हज़ार मिलते हैं, इंसानी जानवर।

वापसी में एक सवाल बार बार तंग करता रहा -- क्या वास्तव में हमारे जंगलों में जंगली जानवर बचे हैं ? या इन्सान ने उन्हें अपने लालच का शिकार बना कर ख़त्म कर डाला है। और हम स्वयं को धोखा दिए जा रहे हैं वन विभाग की बातों में आकर।

लेकिन भले ही वनों में वन्य जीवन का अस्तित्त्व मिटता जा रहा हो , अभी भी समय है वन्य जीवन की रक्षा करने का ताकि हमारी आने वाली पीढियां उन्हें सिर्फ किताबों में ही न देखें। शहरी जिंदगी की भाग दौड़ से अलग ये क्षेत्र हमेशा इन्सान को सकूं पहुंचाते रहे हैं।  पर्यावरण की रक्षा करना हमारा धर्म है।  यह बात सबको सीखनी चाहिए .