तंग गलियारों में ही गुजरती रही ,
ये जिंदगी भी कितनी तन्हा सी रही।
खोलो कभी मन के बंद दरवाज़ों को,
मिलकर बैठो और बतियाओ तो सही।
जिंदगी गुजर जाती है ये सोचते सोचते,
तू अपनी जगह सही मैं अपनी जगह सही।
क्यों दौड़ते हो धन दौलत के पीछे बेइंतहा,
ये बेवफा कभी मेरी कभी तेरी होकर रही।
इज़्ज़त , सौहरत , दौलत तो बहुत कमाई ,
मन का सुख चैन पर कभी मिला ही नहीं।
जिंदगी की दौड़ मृगमरीचिका है 'दोस्त',
भला इसे कोई कभी पकड़ पाया है कहीं ।
वाह.... क्या खूब लिखा है!
ReplyDeleteसोंचने और समझने की बात है
ReplyDeleteब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, " भारत के 14वें राष्ट्रपति बने रामनाथ कोविन्द “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteसटीक कहा आपने, हम लोग इसी मृगमरीचिका के पीछे भागे जारहे हैं, बहुत शुभकामनाएं.
ReplyDeleteरामराम
#हिन्दी_ब्लॉगिंग
खूब शब्दों में ढाला अपने मनोभावों को ......बहुत ही सुंदर
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