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Sunday, August 5, 2012

क्या लेकर आए हो , क्या लेकर जाओगे -- .


मनुष्य संसार में अकेला आता है -- खाली हाथ, और एक दिन अकेला ही चला जाता है -- खाली हाथ . लेकिन इस आने जाने के बीच करीब ७० साल में ( वर्तमान औसत आयु ) जीवन में अनेक पड़ावों से गुजरता है . बचपन गुजरने के बाद यौवन आता है , फिर शादी -- एक से दो , दो से चार होते हुए सांसारिक उपलब्धियों की लाइन सी लग जाती है . हर इन्सान की कोशिश रहती है , जीवन में सभी भौतिक सुविधाओं का भोग करते हुए , जिंदगी चैन और ऐशो आराम में गुजारने की .

कुछ गरीब पैदा होते हैं और गरीब ही मर जाते हैं . कुछ अमीर घर में पैदा होकर सभी सुख सुविधाओं को बचपन से ही हासिल कर लेते हैं . लेकिन एक बड़ा वर्ग होता है मध्यम वर्ग का , जिनके पास आरम्भ में सीमित संसाधन होते हैं , लेकिन आर्थिक उन्नत्ति करते हुए एक दिन सर्व सम्पन्नता प्राप्त कर लेते हैं . ऐसे ही एक परिवार में गाँव में पैदा होकर ( लेकिन अभाव में नहीं ) , जब शहर में आए तो स्वयं को दूसरों से आर्थिक रूप में कम भाग्यशाली पाया . लेकिन फिर धीरे धीरे आर्थिक विकास की सीढ़ी चढ़ते हुए इस मुकाम तक पहुँच ही गए जहाँ इन्सान सुखी होने के भ्रम में भ्रमित रहकर अपने भाग्य और उपलब्धि पर इतराता है .

कॉलिज के दिनों में गाने का बड़ा शौक था . एक बार समूह गान को लीड करते हुए पुरुस्कार भी मिला . हालाँकि गाना कभी सीखा नहीं , इसलिए गाना कभी नहीं आया . लेकिन शौक इस कद्र हावी था -- कॉलेज पास करते ही इन्टरनशिप में गाने पर प्रयोग करते हुए लता मंगेशकर के साथ अपने युगल गानों की रिकोर्डिंग कर डाली . उन दिनों में डब्बे जैसे टेप प्लेयर / रिकॉर्डर होते थे जिसमे केसेट प्ले होते थे . १९८० के दशक में गुलशन कुमार ने टी सीरिज के सस्ते टेप बनाकर संगीत की दुनिया में अपनी धाक जमाकर टी सीरिज कंपनी को आसमान की उचाईयों पर पहुँचा दिया था . कहीं से दो टेप रिकॉर्डर का इंतजाम किया और ३-४ मित्रों की मंडली बैठ गई गानों की रिकॉर्डिंग करने के लिए . एक मित्र टेप चलाता, दूसरा रिकॉर्डिंग वाला टेप ओंन करता और रफ़ी की जगह हम अपना राग अलापते . कुल मिलाकर नतीजा ग़ज़ब का रहा .

जिस तरह चिकित्सा के क्षेत्र में नॉलेज बहुत जल्दी बदलती रहती है , उसी तरह इलेक्ट्रोनिक्स के क्षेत्र में भी तकनीक बहुत जल्दी बदल जाती है . १९८० के दशक में टेप आए तो टू इन वन मिलने लगे . फिर वीडियो प्लेयर , वी सी आर --- फिर वॉकमेन --- सी डी प्लेयर -- थ्री इन वन आदि तरह तरह के म्यूजिक सिस्टम मिलने लगे . एक समय था जब लोग हाई आउट पुट म्यूजिक सिस्टम को जोर जोर से बजाते थे जिससे सारी बिल्डिंग हिलने लगती थी . ऐसे ही समय हमने भी एक म्यूजिक सिस्टम खरीदा बड़े शौक से , लेकिन उसके बाद फिर तकनीक इतनी तेजी से बदली -- देखते ही देखते संगीत माइक्रो चिप्स में घुसकर कंप्यूटर और मोबाइल फोन्स में ही आने लगा . अब किसी म्यूजिक सिस्टम की ज़रुरत ही नहीं रही . और बेकार हो गया हजारों रूपये की कीमत का हजारों वाट का म्यूजिक सिस्टम जिस पर सभी तरह की सीडी , टेप , केसेट और ऍफ़ एम् रेडियो आदि सुने जा सकते थे .

पिछले दस बारह सालों में जो सांसारिक खज़ाना हाथ लगा था , अब श्रीमती जी को पुराना लगने लगा था . पुराने आइटम्स से उन्हें उकताहट होने लगी , हालाँकि हमें तो अभी भी कोई शिकायत नहीं थी . लेकिन गृह स्वामिनी ने फरमाइश की और हमने मान ली . वैसे भी समय के साथ जब घर बदल जाते हैं , घरवाले बदल जाते हैं तो भला इन निर्जीव सामान की क्या बिसात .



वैसे भी पिछले दस पंद्रह सालों में ड्राइंग रूम बदल गया लेकिन ड्राइंग रूम की शोभा बढ़ाते हुए ये साजो सामान अभी तक विराजमान थे . अब शुरू हुआ इन्हें बेचने का अभियान जो शुरू होने से पहले ही नाकाम हो गया क्योंकि पता चला -- आजकल पुराने सामान के कोई खरीदार ही नहीं मिलते . एक ज़माना था जब अक्सर विदेशी राजनयिक ट्रांफर होने पर घर का सारा सामान बेच कर जाते थे जिनकी बाकायदा सेल लगती थी . इम्पोर्टेड सामान के लालच में सारा सामान फटाफट बिक जाता था . एक दो बार हम भी इस तरह की सेल देखने तो गए लेकिन खरीद कुछ नहीं पाए .

हमने भी अख़बार में आए सभी इस्तेहारों पर फोन कर बेचने की इच्छा ज़ाहिर की लेकिन एक भी जगह से एक भी ग्राहक नहीं आया . गोतिये की यह वॉल केबिनेट जो बड़ी खूबसूरत दिखती थी , अब किसी के काम की नहीं थी . लेकिन हमारा भी खून पसीने का पैसा लगा था , इसलिए हमने भी बुद्धि का इस्तेमाल करते हुए इसके नट बोल्ट खोले और इसे वन इन टू बना दिया -- साइड के कॉलम्स को खोलकर अलग अलग किया , बीच के पैनल्स अलग किये और बन गए दो खूबसूरत कॉर्नर्स, जिन्हें सजा दिया दो बेडरूम्स में .

२९ इंच का टी वी दे दिया अपनी कामवाली बाई को , एक महीने की पगार के बदले . लगभग मुफ्त में पाकर बाई धन्य हो गई . उसके चेहरे पर झलकती ख़ुशी को देखकर दिल खुश हो गया . और समझ आया -- जो वस्तु आपके लिए बेकार हो चुकी है , वह किसी और की अपार ख़ुशी का माध्यम बन सकती है .




लेकिन अभी भी म्यूजिक सिस्टम बचा था जिसे देने का हमारा मन बिल्कुल नहीं था . हमारे लिए यह हमारी संगीत साधना का यंत्र था जिसे हमें असीम प्रेम सा था . लेकिन काफी समय से इस्तेमाल नहीं हो पाया था , इसलिए डिस्युज होकर इसके सारे अस्थि पंजर जाम हो चुके थे . करीब एक महीना यूँ ही पड़ा रहा असमंजस की स्थिति में . सोचा इसे ठीक कराकर इस्तेमाल किया जाए . लेकिन अब तो सुनने की फुर्सत ही कहाँ होती है . खाली समय में टी वी और नेट पर ही समय गुजर जाता है . इस बीच इसकी भी खरीददार मिल गई -- हमारी कामवाली बाई की विवाहित बेटी . एक दिन चुपके से पत्नी ने बुला लिया , तभी हमें पता चला . लेकिन सोचा न था --कभी ऐसे भी मोल भाव करना पड़ेगा . उसे अगले दिन आने के लिए कहकर हमने अपने पुराने मेकेनिक को फोन किया जिसने एक दो बार टी और म्यूजिक सिस्टम की सर्विस की थी . उसने बताया -- सर अब इन्हें कोई नहीं खरीदता . मैंने स्वयं भी १४-१५ सेट कबाड़ी को बेचे हैं ३०० -३०० रूपये में . कोई एक हज़ार दे दे तो गनीमत समझना .

अब तक हमारा विवेक जाग उठा था . दिल ने कहा -- क्यों मोह माया के जाल में उलझे हो मूर्ख . उठो , जागो -- देखो दुनिया में क्या क्या है , और क्या क्या नहीं है . क्या लेकर आये थे जो साथ लेकर जाओगे . इन बच्चों के चेहरों को देखो -- कितनी आस के साथ आए हैं , जेब में थोड़े से पैसे डालकर -- सिस्टम खरीदने . पैसे का लालच तो यूँ भी कभी नहीं रहा , लेकिन गाढ़ी कमाई के सामान को फेंकना भी मंज़ूर नहीं रहा .

लेकिन यह अवसर कुछ और था . हमारे लिए मृत पड़े सामान से किसी को अपार खुशियाँ मिल सकती थी . बस इसी विचार से हमने निर्णय लिया और बच्चों को बुलाकर सोंप दिया अपना प्यारा म्यूजिक सिस्टम जो कभी हमने बड़े अरमान से खरीदा था -- बिल्कुल मुफ्त . लेकिन देने से पहले उसकी आरती उतारी और यह फोटो खींच लिया यादगार के लिए .

आज खाली पड़ी खिड़की को देखकर एक अजीब सी संतुष्टि महसूस हो रही है . चलो फिर किसी के चेहरे पर मुस्कराहट तो देखने को मिली .


Thursday, February 18, 2010

कौन अधिक सुखी ---आदि मानव या आधुनिक मानव ?

आदि मानव रहता था ---हरे भरे घने जंगलों में ।


जहाँ था, नीला आसमान ,स्वच्छ वायु, स्वच्छ शीतल नीर के झरने नदियाँ , हरी भरी वादियाँ , शांत वातावरण
कोई भाग दोड़ नहीं , कोई चिंता नहीं, जो मिल गया -खा लिया , भले ही कंद मूल ही सही ।

आधुनिक मानव रहता है ---कंक्रीट के जंगलों में

जहाँ प्रदूषित वायु , वाहनों का शोर , पानी की कमी, आसमान या तो दिखाई नहीं देता या दूषित मटमैला, नष्ट होता पर्यावरण ।
उस पर भ्रष्टाचार का बोल बाला, तामसी प्रवर्ति के लोग, तनाव से ग्रस्त , एक दूसरे का गला काटने को तैयार।
खाने को मिलावटी सामान , यहाँ तक की फल और सब्जियां भी ।
घोर कलियुग

कौन अधिक सुखी रहा ---आदि मानव या आधुनिक मानव ?