यह आधुनिक और विकसित जीवन की ही देन है जो बच्चे स्कूल की शिक्षा ख़त्म होते ही घर छोड़ने पर मज़बूर हो जाते हैं , और फिर कभी घर नहीं लौट पाते।
अक्सर सुशिक्षित समाज में मात पिता बुढ़ापे में अकेले ही रह जाते हैं। आज विश्व बुजुर्ग दिवस पर एक रचना , पिता का पत्र पुत्र के नाम :
जीवन के चमन मुर्झा जायें , और हर अंग शिथिल पड़ जायें ।
तुम मुझे सँभालने काम छोड़कर , कहीं रहो, पर आ जाना ----
दुनिया का दस्तूर है ये , आखिर घर छोड़ा जाता है ,
पर बिना बच्चों के भी , आँगन सूना हो जाता है ।
तुम घर का अहसास दिलाने , इक दिन सूरत दिखला जाना ----
मात पिता का सारा जीवन , पालन में निकल जाता है ,
सपने पूरे होने तक यौवन , हाथों से फिसल जाता है ।
तुम यौवन का संचार कराने , शक्ति बन कर आ जाना -------
जाने कितने व्रत रखे थे , जाने कितनी मन्नत मांगी थी ,
तेरी खातिर तेरी माता भी , जाने कितनी रातें जागी थी ।
जीवन के अंतिम क्षण पर , तुम अपना फ़र्ज़ निभा जाना ------
जीवन के चमन मुर्झा जायें , और अंग शिथिल पड़ जायें ।
तुम मुझे सँभालने काम छोड़कर , कहीं रहो घर आ जाना ----
( जब आँचल रात का लहराये -- इस ग़ज़ल / गीत पर आधारित )
पिता का पुत्र के नाम एक मार्मिक पत्र .
ReplyDeleteआपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि- आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (01-10-2016) के चर्चा मंच "कुछ बातें आज के हालात पर" (चर्चा अंक-2483) पर भी होगी!
ReplyDeleteमहात्मा गान्धी और पं. लालबहादुर शास्त्री की जयन्ती की बधायी।
साथ ही शारदेय नवरात्रों की हार्दिक शुभकामनाएँ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सार्थक रचना
ReplyDeleteमार्मिक .... पिता के शंड पुत्र के दिल को हिला सकें तो क्या बात है ...
ReplyDeleteबहुत खूब लिखा है ...
बहुत ही उम्दा ..... बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति .... Thanks for sharing this!! :) :)
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