माता वैष्णो देवी यात्रा पर सबसे पहले हम १९८१ में गए थे। तब नए नए डॉक्टर बने थे और पूर्ण मस्ती में थे। उस समय १४ किलोमीटर का ट्रैक पैदल तय करना पड़ता था , हालाँकि पोनी तब भी उपलब्ध होते थे। लेकिन रास्ते में अर्धक्वाँरी पर ही कुछ खाने पीने की दुकाने होती थी। बाकि रास्ता लगभग सुनसान ही होता था। फिर दोबारा १९९५ में जाना हुआ। तब तक रास्ता पक्का बन गया था और रास्ते भर तरह तरह की दुकाने खुल गई थी। यह वह दौर था जब गुलशन कुमार की टी सीरीज कंपनी ने माता और माता के भजनों को बहुत लोकप्रिय बना दिया था। उस समय तक मंदिर का प्रबंधन भी निजी हाथों से लेकर सरकार ने बोर्ड बनाकर अपने हाथों में ले लिया था।
उस समय जम्मू तक ट्रेन से और जम्मू से कटरा बस द्वारा जाया जाता था। लेकिन लगभग दो वर्ष पूर्व सरकार ने जम्मू से कटरा तक रेल की पटरी बिछाकर रेल सेवा उपलब्ध करा दी जो अपने आप में एक अद्भुत कार्य है। छोटे छोटे पहाड़ों से गुजरती ट्रेन कभी नदी नालों पर बने पुलों पर चलती है तो कभी पहाड़ों को काटकर बनाई गई सुरंगों से होकर बाहर आती है। कुल मिलाकर तकनीक की अद्भुत मिसाल है जम्मू से कटरा रेलवे लाइन।
इस बीच कटरा से माता वैष्णो देवी श्राइन ( सांझी छत ) जाने के लिए हेलीकॉप्टर सेवा भी आरम्भ हो गई। आजकल हिमालय और ग्लोबल नाम की दो कंपनियों द्वारा हेलीकॉप्टर सेवा चलाई जा रही है जिसका एक ओर का किराया मात्र ११७० रूपये है। एक बार में ५ से ६ यात्री बैठकर जा सकते हैं। ३ से ४ मिनट की उड़ान में आप को हवा में उड़ने का रोमांचक अनुभव बहुत आनंद देता है। हेलीपैड सांझी छत जगह पर बना है जहाँ से श्राइन लगभग ढाई किलोमीटर दूर है। हेलीकॉप्टर से जाने वाले यात्रियों को मंदिर में वी आई पी गेट से प्रवेश की सुविधा मिलती है जिससे लम्बी लाईन से बचा जा सकता है।
जो यात्री हेलीकॉप्टर से नहीं जाना चाहते , उनकी सुविधा के लिए भी अब अर्धकंवारी से एक नया रास्ता बनाया गया है जो लगभग समतल है , इसलिए ज्यादा चढ़ाई नहीं करनी पड़ती। हालाँकि यह रास्ता थोड़ा लम्बा है लेकिन ज्यादा आरामदायक है। रास्ते पर टिन शेड लगाने से हर मौसम में सुविधापूर्वक जाया जा सकता है।
पैदल रास्ते का एक दृश्य। पूरा रास्ता पक्का बना है जिस पर खच्चरों की भरमार है लेकिन साफ़ रखने के लिए निरन्तर झाड़ू लगाकर गोबर आदि को हटा दिया जाता है। जगह जगह पीने के पानी और टॉयलेट्स का बढ़िया इंतज़ाम है।
बेशक अब वहां भी विकास नज़र आता है लेकिन जो बिलकुल नहीं बदला वह है भक्तों की भीड़। जहाँ ८० के दशक में ३ से ४ हज़ार यात्री प्रतिदिन जाते थे , अब २० से २५ हज़ार की संख्या प्रतिदिन होती है। यह संख्या भी दिन प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही है। बस अब लोग चुपचाप ट्रेकिंग करते हैं , कम ही लोग 'जय माता दी' बोलते नज़र आये। श्राइन में भी लोगों को ज़मीन पर वैसे ही पसरे हुए पाया जैसे पहले देखा था। लेकिन भक्तों की भीड़ में बच्चे , बूढ़े , अपाहिज और मुश्किल से चल पाने वाले लोग भी कष्ट उठाकर चलते नज़र आये। श्रद्धा चीज़ ही ऐसी है कि मुर्दे में भी जान डाल देती है।
मंदिर में प्रवेश का प्रबंधन बदल दिया गया है। अब पानी वाली गुफा से नहीं जाना पड़ता बल्कि वेल कार्पेटेड रास्ते से होकर गर्भगृह में प्रवेश करते हैं। हालाँकि अंदर बहुत छोटी सी जगह में दो पंडित और एक पुलिसवाला मिला। एक पंडित टीका लगा रहा था और दूसरा माता के पास बैठा था। जो भक्त पहली बार जाता होगा , उसे इन तीन इंसानों के सिवाय कुछ भी दिखाई नहीं देता होगा। कहते हैं कि माता उसे ही दर्शन देती है जो उनमे विश्वास रखता है। हालाँकि यह कहावत भी जगत प्रसिद्द है कि मानो तो मैं गंगा माँ हूँ , ना मानो तो बहता पानी।
श्रीमद्भगवद गीता में लिखा है कि जो सात्विक प्रकृति के लोग होते है वे एक ही भगवान को सर्वव्यापी मानकर सब में श्रद्धा रखते हैं , जबकि राजसी प्रकृति के लोग देवी देवताओं की पूजा करते हैं और तामसी लोग भूत प्रेतों की पूजा करते हैं। जो भगवान सर्वव्यापी है , उसे ढूँढ़ने और पूजने के लिए इतना भटकना क्यों पड़ता है , यह बात आज तक हमारी समझ में नहीं आई। शायद इसीलिए इस लोक को मृत्युलोक कहा जाता है।
नए परिवर्तनों पर अच्छी जानकारी दी आपने।
ReplyDeleteबहुत ही उम्दा आलेख और फोटो भी बढ़िया लगा ... मेरी भी बहुत इच्छा है कि माता के दरबार दर्शन करने जाँऊ ... जय माताजी
ReplyDeleteबढ़िया यात्रा वृत्तान्त।
ReplyDeleteइस पोस्ट का लिंक आज रविकर जी ने चर्चा मंच पर भी दिया है।
खूबसूरत यात्रा व्रतांत
ReplyDelete2003 के बाद मैँ नहीं गई उसके पहले 5 बार होकर आई थी अब फिर से जाने का मन हो रहा हैं।
ReplyDeleteमेरा भी अगले महीने का प्लान है..सच कहते हैं जब माता बुलाती हैं तभी लोग जाते हैं
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