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Tuesday, June 14, 2016

कर्म ही इंसान की पहचान हैं ---

1)


गीता में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहता है ,
जो जैसा करता है , वो वैसा भरता है।

जन्म से हिन्दू हो, सिख या मुस्लमान,
इंसांन तो मनुष्य कर्म से ही बनता है।

वो मंदिर जाये , मस्जिद , या गुरुद्वारे ,
बंदा हर हाल में इबादत ही तो करता है।

जन्नत आखिर में उसी को मिलती है ,
जो अंतकाल तक अच्छे कर्म करता है।

हों कोई भी आप रईश शहज़ादे 'तारीफ़ ,
इंसान का कर्म ही उसकी पहचान बनता है।

2)

कभी कभी मैं सोचता हूँ कि ,
उसका बाप कितना बड़ा आदमी है !
वो बड़ी सी गाड़ी में आता है ,
रोज सैंकड़ों रूपये उडाता है।
जब देखो नई घड़ी दिखाता है।
सब उसको बड़े बाप का बेटा समझते हैं।
लेकिन जब इम्तिहान का रिजल्ट आता है ,
तब मुँह छुपाता फिरता है ,
घर जाने से बहुत डरता है।
वो ऐसा क्यों करता है ,
वो तो बड़े बाप का बेटा हैं ना !

फिर इसको देखता हूँ तो सोचता हूँ ,
वो कितने ग़रीब घर से है।
रोज एक ही जोड़ी कपड़ों को धोकर पहनता है।
घर का खाना खाता है।
कभी पिक्चर के लिए क्लास बंक नहीं करता।
किताबें भी कभी कभी मांग कर पढता है।
लेकिन जब रिजल्ट आता है ,
तब क्लास में सबसे अव्वल नंबर पर आता है।
अमीर लड़के उससे दोस्ती नहीं करते ,
लेकिन सभी मास्टरों का चहेता है।
हर साल क्लास में वही तो प्रथम आता है।
सच, इंसान अपने कर्मों से ही जाना जाता है।
ये बात वो नहीं समझ सकते जो नादान हैं ,
देखा जाये तो कर्म ही इंसान की पहचान हैं।

Sunday, May 25, 2014

रोक सको तो रोक लो, जिंदगी और ज़वानी पल पल हाथ से फिसलती जाती है ---


आजकल टी वी पर चल रहे महाराणा प्रताप के सीरियल को देखकर जिज्ञासा हुई तो पता चला कि महाराणा उदय सिंह और महाराणा प्रताप, दोनो की मृत्यु ५० + की आयु मे ही हो गई थी .    वैसे भी उस समय औसत आयु ५० के आस पास ही रही होगी . १९७० - ८० के दशक मे मनुष्य की औसत आयु ६० के करीब थी . ज़ाहिर है , इस बीच औसत आयु मे बहुत कम ही बढ़त हुई . आजकल यह ७० वर्ष है . यह संभव हुआ है वर्तमान मे स्वास्थ्य सेवाओं मे सुधार के कारण . लेकिन अभी भी और शायद कभी भी मनुष्य मृत्यु पर काबू नहीं पा सकता . जहां मृत्यु एक सच है , वहीं एजिंग यानी बुढ़ापा आना भी एक निश्चितता है . बचपन से बुढापे का यह सफ़र कब पूरा हो जाता है, पता भी नहीं चलता. 

यूं तो आने वाले एक पल का भी कोई भरोसा नहीं , लेकिन औसत आयु के हिसाब से आज हम और हमारी उम्र के लोग लगभग तीन चौथाई जिंदगी जी चुके हैं . सोचा जाये तो कल की ही बात लगती है जब १९८४ मे हमारी शादी हुई थी और जिंदगी की एक नई शुरुआत .  



                                                                              १९८४  


देखते देखते तीस साल बीत गए और हम जाने कहाँ कहाँ से गुजर गए . वैसे तो जिंदगी मे बहुत से उतार चढ़ाव आते हैं लेकिन यह हमारा सौभाग्य रहा कि हमने जिंदगी को ऊँचाई की ओर चढ़ते ही पाया . एक गांव के साधारण से वातावरण मे पैदा होकर आज जिस मुकाम पर पहुंचे हैं , वह स्वयं के लिये आत्मसंतुष्टि प्रदान करता है . एक तरह से मैं स्वयं को सौभाग्यशाली महसूस करता हूँ . बेशक , हमने जिंदगी को भरपूर जीया है . 



                                                                          २०१४ 


कहते हैं सौभाग्य पिछले जन्म के अच्छे कर्मों का फल होता है . लेकिन यदि यह पिछले जन्म का फल हुआ तो फिर हमारे हाथ मे क्या रहा. फिर तो भाग्यशाली होना भी भाग्य की ही बात हुई . क्या आपके वर्तमान जीवन का भाग्य पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता ? 

बचपन मे एक कहानी सुनी थी . एक सज्जन पुरुष जो जिंदगी भर अच्छे कर्म करता रहा , रास्ते से गुजर रहा था कि अचानक उसके पैर मे एक मोटी सी शूल घुस गई . वह दर्द से कराह उठा . तभी वहां से एक दुराचारी व्यक्ति गुजरा जो बड़ा खुश नज़र आ रहा था . उसने बताया कि वो खुश इसलिये है कि उसे २००० रुपये का ख़ज़ाना मिला था . यह देखकर सज्जन पुरुष बड़ा दुखी हुआ और रोने लगा . तभी वहां एक साधु आया तो सज्जन पुरुष को रोते देखकर रोने का कारण पूछा . उसने बताया कि वह सारी जिंदगी अच्छे कर्म करता रहा , फिर भी उसके पैर मे इतनी मोटी शूल घुस गई और वह दुर्जन सारी जिंदगी पाप करता रहा फिर भी उसको २००० रुपये का इनाम मिला , यह कैसा न्याय है . साधु ने कहा भैया , तुम्हारे पिछले जन्म के कर्म इतने बुरे थे कि तुम्हे आज सूली पर चढ़ना था लेकिन तुम्हारे इस जन्म के अच्छे कर्मों ने तुम्हारी सज़ा को घटाकर शूल तक सीमित कर दिया . जबकि इस दुर्जन के पिछले कर्म इतने अच्छे थे कि इसे आज २ लाख का इनाम मिलना था , लेकिन इसके इस जन्म के बुरे कर्मों ने इसके इनाम की राशि को घटाकर २००० कर दिया . यह सुनकर सज्जन पुरुष अपना सारा दर्द भूल गया और उसने शूल को पकड़कर खींच कर निकाल दिया और संतुष्ट भाव से अपने रास्ते चला गया . 



                                                                          २०३४ 

कहने को तो जिंदगी इतनी लम्बी होती है लेकिन ज़वानी कब हाथ से फिसल जाती है , पता ही नहीं चलता . यदि जिंदगी रही तो एक दिन ऐसा रूप होना स्वाभाविक है . 

इसलिये आवश्यक है कि वर्तमान का एक एक दिन भरपूर जीया जाये क्योंकि वर्तमान को ही जीया जा सकता है . भूतकाल अच्छा था या बुरा , वह बीत गया . अब उस पर क्या पछताना ! भविष्य अन्जान और अनिश्चित होता है , हालांकि एक निश्चितता की ओर निश्चित ही बढ़ता है . हमारे वर्तमान के अच्छे कर्म ना सिर्फ वर्तमान को सुधारते हैं , बल्कि अगले जन्म के लिये भी सौभाग्य का आरक्षण कराते हैं .   

नोट : एक पुराने मित्र की ई मेल से प्रेरित . तीसरा फोटो मित्र की मेल से साभार . 

Friday, January 11, 2013

डाक्टर अच्छा मिले , तो और बात है --


कहते हैं , हँसना और गाल फुलाना एक साथ नहीं होता। लेकिन लगता है कवियों के जीवन में ये प्रक्रियाएं साथ साथ ही चलती हैं। तभी तो ख़ुशी हो या ग़म, एक कवि का धर्म तो कविता सुनाना ही है। विशेषकर हास्य कवियों के लिए यह दुविधा और भी महत्त्वपूर्ण होती है। भले ही दिल रो रहा हो, लेकिन हास्य कवि को तो श्रोताओं को हँसाना होता है। यही उसका कर्म है , यही कवि धर्म है।

कुछ ऐसा ही हुआ गत सप्ताह। सांपला सांस्कृतिक मंच, हरियाणा में एक हास्य कवि सम्मेलन का आयोजन किया गया था जिसमे हमें मुख्य अतिथि बनाया गया था। लेकिन उसी दिन सुबह ही पता चला कि बहादुरी के साथ जीवन संघर्ष कर रही दामिनी की सिंगापुर में मृत्यु हो गई थी। अचानक यह खबर सुनकर एक पल को ऑंखें नम हो गईं। ऐसा लगा जैसे अचानक कुछ ढह सा गया। उस दिन शाम को ही तो कवि सम्मेलन में जाना था। भला ऐसे में हँसना हँसाना क्या उचित होता। आयोजक को फोन किया तो पता चला कि सारी तैयारियां हो चुकी थी , इसलिए स्थगित करना संभव नहीं था। हमने भी सम्मिलित होने का वचन दिया था, इसलिए अब पीछे नहीं हटा जा सकता था। आखिर भारी मन से हमने प्रस्थान किया।        







कवि सम्मेलन में एक से बढ़कर एक धुरंधर कवि अलग अलग राज्यों से आए हुए थे। साथ ही सांपला के क्षेत्रिय निवासियों में भी कई लोग थे जिन्हें कविता का शौक था। इनमे से कई तो डॉक्टर ही थे। रात 8 बजे शुरू हुआ कार्यक्रम आधी रात के बाद ढाई बजे तक चला। हैरानी की बात थी कि कड़ाके की ठण्ड के बावजूद , रात 2 बजे तक एक भी श्रोता पंडाल छोड़कर नहीं गया और सब तन्मयता से कवितायेँ सुनते रहे। हालाँकि हमें तो इतनी देर तक बैठे रहने की आदत नहीं थी लेकिन 6 घंटे कब गुजर गए, पता ही नहीं चला। 

कवियों की सबसे बड़ी खूबी यह होती है कि उन्हें देखकर यह पता नहीं लगाया जा सकता कि यह कवि हास्य रस का है या वीर रस का , या फिर श्रृंगार या प्रेम रस का। एक दम शांत सा दिखने वाला कवि मंच पर माईक के सामने आते ही जब दहाड़ने लगता है तब उसके ओजस्वी होने का अहसास होता है। इसी तरह साधारण सा इन्सान दिखने वाला बंदा जब हर वाक्य पर हास्य की फुलझड़ियाँ छोड़ता है तब उसकी असाधारण प्रतिभा का बोध होता है। किसी को हँसाना बड़ा मुश्किल काम है। वास्तव में यह एक गंभीर काम है। हम तो पहले से ही मानते आए है कि जब लोग हँसते हैं तब वे अपना तनाव हटाते हैं। और जो लोग हंसाते हैं, वे दूसरों के तनाव मिटाते हैं। इस तरह हँसाना वास्तव में एक परोपकार का कार्य है। और एक कला भी है जो सब के पास नहीं होती ।

ज्यादातर कवि सम्मेलन अक्सर रात में ही आयोजित किये जाते हैं। समाप्त होते होते आधी रात से भी ज्यादा गुजर जाती है। फिर खाना और अक्सर 3-4 बजे प्रस्थान। ज़ाहिर है, कवियों की जिंदगी खतरों और मुश्किलों से भरी होती है। रात में सडकों पर ड्राईव करना खतरे से खाली नहीं होता, विशेषकर दूर दराज़ के क्षेत्रों में। 2009 में हुए एक सड़क हादसे में श्री ओम प्रकाश आदित्य समेत कई जाने माने प्रसिद्द कवियों को जान से हाथ धोना पड़ा था। जिन कवियों की डिमांड ज्यादा रहती है , वे विशेष अवसरों पर लगभग रोज़ाना कवि सम्मेलनों में हिस्सा लेते हैं। ऐसे में नींद भी पूरी नहीं हो पाती होगी। बेशक, इनसे होने वाली कमाई ज्यादातर कवियों के लिए बहुत अहमियत रखती है। कई कवियों की तो रोजी रोटी ही कवि सम्मेलनों से चलती है। लेकिन निसंदेह , समाज में कवियों का योगदान न सिर्फ मनोरंजन के लिहाज़ से बल्कि सामाजिक चेतना जागरूक करने में भी महत्त्वपूर्ण होता है।   





आजकल सभी कवि सम्मेलन हास्य कवि सम्मेलन ही कहलाते हैं। हालाँकि सभी कार्यक्रमों में कविगण मिश्रित रस के ही होते हैं। लेकिन सभी कवि अपनी विधा की कविता के साथ हंसाने में भी सफल रहते हैं। इसी से पता चलता है कि लगभग सभी कवि विनोदी स्वाभाव के होते हैं। दूसरे शब्दों में यदि आप विनोदी स्वाभाव के हैं तो आप भी कवि हो सकते हैं। एक तरह से कवि हमें जिंदगी को सही मायने में जीना सिखाते हैं। अक्सर कवियों की हाज़िरज़वाबी तो कमाल की होती है। मंच पर भी एक दूसरे पर फब्तियां कसते रहते हैं। लेकिन सब इसे हास परिहास के रूप में ही लेते हैं। हालाँकि कभी कभार मामला हद से गुजर जाता है।




सांपला हास्य कवि सम्मेलन में सभी कवियों से मिलकर बहुत अच्छा लगा। हमारे लिए तो यह एक नया अनुभव था। मंजे हुए कवियों के बीच बैठकर बिना हूट हुए कविता आदि सुनाकर हमने भी अपना निशुल्क योगदान दिया। वापसी में कई अन्य कवियों को दिल्ली बस अड्डा छोड़कर हम सुबह साढ़े पांच बजे जब घर पहुंचे तो घर में एंट्री मुश्किल से ही मिली। आखिर यह भी कोई वक्त होता है घर आने का !   

अंत में एक सवाल : यदि कवि सम्मेलनों का आयोजन दिन में किया जाये तो क्या बुराई है। इससे सभी को सुविधा रहेगी, विशेषकर कवियों की मुश्किलें कम हो सकती हैं। या शायद बढ़ भी सकती हैं। 

नोट :  हमें सुनने के लिए कृपया यहाँ चटका लगायें।   
कवि सम्मेलन के मुख्य आयोजक भाई अंतर सोहिल का आभार प्रकट करते हुए, उन्हें एक अत्यंत सफल आयोजन पर बधाई देता हूँ।    



Friday, October 9, 2009

अजी देर किस बात की, आज से ही शुरू कीजिये ---


बचपन में एक कहानी सुनी थी ---
एक शरीफ आदमी रास्ते पर चला जा रहा था। अचानक उसके पैर में शूल घुस गई. बेचारा पैर पकड़ कर बैठ गया और रोने लगा. तभी वहां से एक दुष्ट किस्म का व्यक्ति गुज़रा, जो बड़ा खुश नज़र आ रहा था. पूछने पर पता चला की खुश इसलिए था क्योंकि उसे २००० रूपये का खजाना मिला था. इतने में एक साधू वहां से गुज़रा. उसने शरीफ आदमी से पूछा-- भाई क्यों रो रहे हो?


आदमी बोला-- मैं सारी जिंदगी अच्छे कर्म करता रहा, फिर भी मुझे ये मोटी सूल(शूल) गड़ गई, और ये पापात्मा, सारी जिंदगी कुकर्म करता रहा है, फिर भी इसे खजाना मिल गया. ये कैसा इन्साफ है?


इस पर साधू ने कहा-- भले आदमी, ये पुराने जन्म के कर्मों का फल है।

तेरे पिछले जन्म के कर्म इतने ख़राब थे की तुझे तो आज सूली टूटनी थी। लेकिन तेरे इस जन्म के कर्म इतने अच्छे हैं की तेरी सजा घट कर सिर्फ सूल रह गयी है.


और ये जो मूर्ख २००० पाकर खुश हुआ जा रहा है, इसे तो अपने पिछले अच्छे कर्मों की वज़ह से आज दो लाख मिलने थे, लेकिन इसने इस जन्म में इतने बुरे कर्म किये की इसका इनाम घटकर सिर्फ २००० ही रह गया.
इसलिए बच्चा, दुखी मत हो.
आदमी ने कहा, ये बात है और फ़ौरन खींचकर कांटे को निकाल दिया।


पिछली पोस्ट से क्रमश:


यूँ तो लोदी गार्डन घर से ज्यादा दूर नहीं है, और अक्सर पास से आना जाना होता रहता है. लेकिन पार्क में घुसते ही अहसास हुआ की पिछली बार हम वहां १५ साल पहले गए थे , अपने चुन मुन के साथ. इस बीच बच्चे भी बड़े हो गए और पार्क में भी बहुत बदलाव आ चुका था. बांस के पुराने पेड़ अभी भी हैं, लेकिन छोटे बड़े नयी नयी किस्म के सजावटी पेडों की बहुतायत आ गयी है ।


सुबह शाम, बुजुर्गों के दर्शन अभी भी हो जाते है टहलते हुए।


लेकिन जहाँ पहले झाडियों से कबूतर कबूतरी की घूटरघुन की आवाजें आती थी, आजकल खुले आम चोंच से चोंच टकराते नज़र आते हैं।


खैर, हम उस स्पॉट पर खड़े थे जहाँ ३० साल पहले काला पत्थर के गाने की शूटिंग हुई थी। एक पल के लिए हम अतीत में पहुँच गए. आँखों के आगे धुंद सी छाने लगी. अपनी नंदनी, जीवन संगिनी, अर्धांगनी हमें प्रवीण बेबी सी नज़र आने लगी. मन में आया की चलो आज बाथरूम से निकल कर पार्क में गाना गाया जाये अपनी सपना के साथ. अभी गला वला दुरस्त कर ही रहे थे की तभी --


उस स्पॉट पर ये मेहमान आ कर बैठ गए।





शेर जैसा ये कुत्ता, शायद मादा थी. इसके लिए कोई और शब्द मैं इस्तेमाल नहीं करना चाहता. अपने बच्चे के साथ आई थी, ज़ाहिर है मादा ही होगी. अब कुत्ते इंसान जैसे सोफिस्तिकेतेड तो हो नहीं सकते, की पहले शादी करें फिर बच्चे, फिर कुछ साल बाद तलाक का केस लड़ें और बच्चे भी आधे आधे।


इन्हें देखते ही रोमांस तो रफूचक्कर हो गया, उसकी जगह रोमांच हो आया.
अनायास ही मैंने उनकी तस्वीर ली, लेकिन दिल नहीं माना और सोचा की पास से ली जाये. लेकिन उसका डील डोल देखकर हिम्मत नहीं पड़ी।


पास बैठे कुछ लोग ताश खेल रहे थे, शायद पार्क के कर्मचारी थे. उनसे इनके मालिक के बारे में पूछा तो देखकर दंग रह गया. वहां मालिक नहीं, दो नौकर बैठे थे जो उनको घुमाने लाये थे।

मौसम सुहाना था , फिर भी कुत्ता छाँव में बैठा जीभ निकालकर हांफ रहा था। ज़ाहिर है , उसे गर्मी लग रही थी. भई, किसी अंग्रेज़ का चहेता था, ऐ सी में रहने की आदत होगी.


सारी हालात जानकार अब शुरू हुआ --अंतर्मंथन---मन में विचारों की उठक पटक।


इस कुत्ते ने क्या किस्मत पाई है. जहाँ हम १५ साल बाद आये हैं, ये वहां रोज़ आता होगा. ज़रूर पिछले जन्म में अच्छे कर्म किये होंगे।


अगर अच्छे कर्म किये होते तो कुत्ते का जन्म क्यों मिलता।


बात तो ये भी सही है. पर हुआ यूँ होगा की पहले तो कर्म बुरे रहे होंगे, लेकिन देह त्यागने से पहले यानी वानप्रस्थ अवस्था में कर्म सुधार लिए होंगे. इसलिए विधाता ने कहा होगा ---जा तेरे अच्छे कर्मों की वज़ह से तू इंसानों से भी ज्यादा सुख भोगेगा।


अगर कर्म इतने ही अच्छे हो गए थे तो जन्म भी इंसान का ही मिलना चाहिए था.

विधाता ने कहा होगा, बेटा अच्छे कर्म करने में तुमने थोडी देर कर दी, क्योंकि तब तक तुम्हारा जन्म अलोट हो चूका था. अब जन्म तो तुम्हे कुत्ते का ही लेना पड़ेगा, लेकिन तुम्हारे अच्छे कर्मों की वज़ह से तुम इंसानों से भी बेहतर जिंदगी जीयोगे।


मोरल ऑफ़ स्टोरी :


अच्छे कर्म करने के लिए किसी मुहूर्त की ज़रुरत नहीं है. आज से ही शुरू करें.
इट इज नेवर तू लेट।


और अब --एक सवाल :

इस कुत्ते की नस्ल क्या है?

ज़वाब:

भई, हमें तो पता नहीं, क्या आप बता सकते है?