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Monday, December 28, 2009

कल फिर दिल के सारे अरमान पिच की भेंट चढ़ गए---बस हम बच गए।

कल फिर दिल्ली में एक क्रिकेट मैच था। कल फिर दिल की सोई हुई तमन्ना जाग उठी---सर्दियों की नर्म सुहानी धूप में दिल्ली के फिरोजशाह कोटला क्रिकेट मैदान में बैठकर भारत और श्रीलंका के बीच पांचवां एक दिवसीय क्रिकेट मैच देखने की। कल फिर दिल के सारे अरमान पिच की भेंट चढ़ गए
बस हम बच गए

हुआ यूँ की इस बार हमने ठान ली थी की दिल्ली वाला मैच देखकर ही रहेंगे। पिछले दस सालों से लगातार नाकामयाब कोशिश करते रहे थे।
इसलिए इस बार एक सप्ताह पहले ही छुट्टी लेकर बैठ गए , पास का जुगाड़ करने के लिए
पास इसलिए , क्योंकि पता चला की कोलकाता में एक भी टिकेट नहीं बेचीं गई। ८४००० सीटों की क्षमता वाले स्टेडियम में महज़ १०००० -२०००० टिकटें ही बेचीं जाती थी। लेकिन इस बार निर्माण कार्य की वज़ह से सिर्फ ४४००० सीटें ही उपलब्ध थी। इसलिए --नो टिकेट , ओनली पास
अब दिल्ली में तो ४०००० सीट्स ही सारी हैं। उसपर जाने कितने पोलितिशीयन्स, ब्यूरोक्रेट्स, वी आई पीज और क्लब मेम्बर्स ---सबको तो पास चाहिए।

फिर भी हिम्मत देखिये , डी डी सी की, टिकटों की बिक्री की घोषणा कर डाली

लेकिन हम भी तो दिल्ली वाले हैंपूरी जान लगा दी ,पास हासिल करने के लिए

सबसे पहले हमने अपने दिल्ली के बड़े बड़े मित्र अफसरों को फोन लगाया।
और जी, कैसे हैं आप ? क्या हाल चाल हैं ?
अब दिल्ली के अफसरान भी ऐसे वैसे थोड़े ही न हैं, अगर आप ६ महीने या साल भर बाद किसी को फोन करेंगे , तो
वो भी समझ जाते हैं की हाल के पीछे क्या चाल है। ज़रूर कोई काम होगा , वर्ना दिल्ली में भला कोई किसी को खामख्वाह फोन करता है।

तो भई, सबने अंगूठा दिखा दिया

अब हमें याद आई, अपने मित्र पत्रकार और मीडियाकर्मी ब्लोगर बंधुओं की।
सब छोटे बड़े पत्रकारों के ब्लोग्स पर दे टिपण्णी पर टिपण्णी। लेकिन खाली टिपण्णी देने से ही पास मिल जाता तो सारा स्टेडियम ब्लोगर्स से ही भरा होता।

मैंने तो खुशदीप भाई को भी बार बार उनके प्रिय टीचर्स से मुलाकात कराने का झांसा दिया। लेकिन खुशदीप ठहरे खुशदीप, वो कहाँ झांसे में आने वाले थे। नव वर्ष पर व्यस्त होने का झांसा देकर खुद पतली गली से निकल लिए

अफ़सोस, अपना कोई चाचा, मामा या फूफा न तो वी आई पी है, न ही क्रिकेट खेलता है। पास मिलता भी तो कैसे।
नज़फगढ़ का नवाब, वीरेंदर सहवाग भले ही हमारे गाँव के पास का हो। लेकिन उसने कोई ठेका थोडा ले रखा था , पूरे नज़फगढ़ विधान सभा क्षेत्र को पास दिलाने का।
ऊपर से विडम्बना ये की अपनी जान पहचान एक तरफ़ा है। यानि खाली मैं ही वीरू को जनता हूँ, वो मुझे कहाँ जानता है ।

खैर पास को भूलकर अब हमने टिकेट खरीदने की सोची। लेकिन सोचते ही रह गए। क्योंकि नेट पर बुकिंग का टाइम रात के बारह बजे तक का ही था। और ५०० वाली दो टिकटें १११० में मिल रही थीफ्री होम डिलीवरी के साथलेकिन हमें लगा की अगर डिलीवरी नहीं हुई तो हम क्या करेंगे। कहाँ घूमते फिरेंगे इमरजेंसी में।

खैर हमें सुरक्षा इसी में लगी की अगले दिन बैंक से टिकेट खरीदी जाये।
दस बजे बैंक पहुंचे तो पता चला की बैंक शिफ्ट हो गया है। फिर जिसने जो बताया , वहां जाकर ढूँढा , लेकिन बैंक कहीं नहीं मिला। थककर जब हम घर को मुड़े तो अचानक बैंक दिखाई दे गया।

लेकिन खाली बैंक ही मिला, टिकटें नहींक्योंकि तब तक सारी बिक चुकी थी
वैसे भी बैंकों में टिकेट आती बाद में हैं, बिक पहले जाती हैं
जाने बैंकों को देते ही क्यों हैं। अरे हमें दे दिया होता, हम ही एक काउंटर खोल कर बैठ जाते और १०००-२००० टिकेट तो अकेले ही बेच देते।

अब तक तो इमरजेंसी डिक्लेयर हो चुकी थी। हमने सब घर वालों को काम पर लगा दिया, की जिसको भी जहाँ से भी टिकेट मिले, बस ले लें। लेकिन सभी तरफ से निराशा ही हाथ लगी।
आखिर में हमें वही करना पड़ा , जो हम नहीं चाहते थे। यानि स्टेडियम जाकर टिकेट का चक्कर चलाने का
स्टेडियम पहुंचे तो हजारों की भीड़ देखकर ही अपने तो सर्दियों में भी पसीने छूट गए। ऊपर से पता चला की एक भी टिकेट नहीं बची है। पब्लिक शोर मचा रही थी। पुलिस वाले डंडे बरसाने को तैयार थे। अचानक कुछ हिलता हुआ सा नज़र आया।
लोग सर पर पैर रखकर भागने लगे, हम भागे सर पर हाथ रखकर , ताकि डंडा पड़े

मैच देखने के सारे अरमान चकनाचूर हो गए।

हार कर यही सोचा --चलो एक बार फिर से टी वी पर ही मैच देखें , हम दोनों

लेकिन देखिये , किस्मत की बात , थोडा सा ही मैच होने के बाद, मैच रद्द करना पड़ा। खराब परिस्थितियों की वज़ह से।
पहले जिन भाई, भतीजों और भांजों से ईर्ष्या हो रही थी, उन्ही पर अब दया रही थी

अब इंतज़ार रहेगा, अगले मैच काफिर कोई तुकदम भिडायेंगे , पास के जुगाड़ के लिए

17 comments:

  1. दराल सर,
    अब तो आपको मेरी दूरदर्शिता की दाद देनी ही होगी...आपको पास या टिकट मिल जाता तो फंस जाते न बेकार ही...बोतलें,चप्पल कोटला पर कल जमकर चले...मैच रद्द होने के बाद जो लोग अंदर थे उनका बाहर आना मुश्किल हो गया, कई घंटे की मशक्कत के बाद बाहर आ पाए...खैर अपने बाबूजी (स्वर्गीय हरिवंश राय बच्चन) ऐसे ही मौकों के लिए फरमा गए हैं...मन का हो तो अच्छा, न हो तो और भी अच्छा...

    जय हिंद...

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  2. यह अत्यंत हर्ष का विषय है कि आप हिंदी में सार्थक लेखन कर रहे हैं।

    हिन्दी के प्रसार एवं प्रचार में आपका योगदान सराहनीय है.

    मेरी शुभकामनाएँ आपके साथ हैं.

    निवेदन है कि नए लोगों को जोड़ें एवं पुरानों को प्रोत्साहित करें - यही हिंदी की सच्ची सेवा है।

    एक नया हिंदी चिट्ठा किसी नए व्यक्ति से भी शुरू करवाएँ और हिंदी चिट्ठों की संख्या बढ़ाने और विविधता प्रदान करने में योगदान करें।

    आपका साधुवाद!!

    शुभकामनाएँ!
    समीर लाल
    उड़न तश्तरी

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  3. डा. दराल साहिब ~ बहुत सुंदर वर्णन! दर्शकों ने नहीं सोचा था कि यह 'मिथ्या जगत' कहलाई गयी धरती ही 'पिच' के रूप में प्राचीन कथन को सार्थक कर दिखाएगी और लंका कि स्वयं ही साक्षात् रूप में पिटाई करेगी :)

    "जो-जो जब-जब होना है / सो-सो तब-तब होता है" ऐसी शिक्षा क्रिकेट के खेल से मिलती है - तेंदुलकर जीरो में भी आउट हो जाता है कभी-कभी, और स्टेडियम में बैठे हजारों - भले ही 'पास' से आये हो, या दूर से किसी भी कीमत का टिकेट खरीद - निराश हो घर नहीं लौट जाते. क्यूंकि 'उम्मीद पर दुनिया कायम है', आशा करते हैं कि कोई और 'तेंदुलकर' शतक मारेगा...शायद ये सीरीस तभी ख़तम हो गयी थी जब भारत ३-१ से आगे हो गए थे, 'धोनी के धुरंधर' क़ी कृपा से नहीं, बल्कि 'नजफगढ़ के नवाब के दरबारियों' के कारण, और ख़ुशी हुई दिल्ली निवासी उसके साथी, गंभीर, को 'सीरिअस' हो खेल अपने नाम को सार्थक करते देख :)

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  4. DDCA की मानें तो इस तरह के प्रसन्नता के मौक़े आते ही रहेंगे

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  5. काजल भाई की बात सच होती लग रही है मेरे को तो. नये साल की रामराम.

    रामराम

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  6. ताऊ (हरयाना और हिंदी ) से मुझे याद आया कि कैसे बहुत वर्ष पहले मैं एक बार डीटीसी की बस से सफ़र कर रहा था और आगे की ओर भीड़ के कारण खड़ा था...गुरुद्वारा रोड के बस स्टॉप तक थोड़ी भीड़ छट गयी थी...तभी मैंने कंडक्टर को कहते सुना "ताऊ, आगे नै होज्जा" मैंने सोचा कोई बूढा हरियाणवी होगा जिसे वो कह रहा था आगे बढ़ने को. किन्तु जब उसने वही वाक्य दोहराया तो मैंने मुडके देखा कि खड़े होने वालों में केवल मैं ही अकेला था :) और मैं आगे बढ़ गया...और किसी दिन टीवी में जब मैंने किसी को यह कहते सुना कि ताऊ देवी लाल एक दिन पी.एमं बनेगा तो मुझे तसल्ली हुई कि कंडक्टर ने मुझे अभद्रता पूर्वक संबोधित नहीं किया था :)

    भूटान में ऐसे ही मुन्ना लाल ने किसी भूटानी से कहा "तेरा बिल नहीं बना अभी" तो वो उसको गर्दन से पकड़ लिया था और मुझे बीच-बचाव करना पड़ा...तब उसने बताया कि कैसे वो तो आप-आप करता है (भारत में आर्मी में ट्रेनिंग ले चुका था) और मुन्ना लाल उसे 'तू' कहता है, जैसे वो कोई जानवर है...

    भारत में तो इतनी भाषाएँ प्रयोग में लाई जाती हैं कि आम आदमी घर से २० किलोमीटर दूर निकल जाए तो संभव है अज्ञानी सा लगे...

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  7. सर आप तो बच गये लेकिन इस वाकये के बाद दिल्ली और हमारे देश की फजीहत हो गयी । जिन नाकाम लोगों को बाहर किया गया है कुछ दिन बाद वही चेहरे वापस आ जायेंगे , जैसे मुम्बई में आर.आर.पाटिल वापस आ गये

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  8. मैं सिर्फ आपकी लाइव क्रिकेट देखने की दीवानगी और न देख पाने की उदासी समझ सकता हूँ.

    वैसे आजकल मुझे क्रिकेट से लगाव नहीं रह गया है. लेकिन मन तो चाहता है की लाइव स्टेडियम दिल्ली में देखूं.

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  9. एक दम सही ! मन की खीज कहीं साफ़ झलक रही है आपके लेख में ! अभी तो दिल्ली के ये ठेकेदार कॉमन वेल्थ पर न जाने क्या गुल खिलाते है ! इन politicians ने बेड़ा गरक करके रख दिया हर चीज का !

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  10. आप अपने बचने की खुशी मनाइए मगर मैं तो टी०वी० में मैच न देख पाने से भी दुःखी हूँ।
    उन पर क्या बीती होगी जो बिचारे टिकट या पास का जुगाड़ कर घंटों तपस्या के बाद मैच देखने आए थे
    और सबसे बड़ी बात कि राष्ट्र की जो छवि धूमिल हुई उसका क्या
    कल का दिन खेल जगत के लिए शर्मनाक था.

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  11. अब देश कि तो फजीहत हो ही गई...... बहुत अच्छा लगा आपका यह लेख....

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  12. क्रिकेट का बुखार ऐसा ही होता है!

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  13. डा.दराल साहिब ~ मैं स्कूल के दिनों में इतिहास और भूगोल में गोल था...सिर्फ याद करने के लिए 'गू खा तसले में' बड़ों से सीखा, यानी खैबर पास से गुलाम वंश से लेकर मुग़ल वंश कौन-कौन सोने की चिड़िया को लूटने आये...हर कसी के लिए लिख देते थे कि उसके समय में सड़कें, सराय,,,, आदि आदि बनीं :) बचपन में इस कारण जब हम फिरोजशाह कोटला में कई मैच देखने आये तो मुझे भय नहीं लगा. यह तो बाद में ही जाना कि निकट में ही वहाँ एक खूनी दरवाज़ा भी है (जब कुछ वर्ष पूर्व उसके निकट स्तिथ मेडिकल कॉलेज समाचार में दुर्भाग्य पूर्ण घटना के कारण आया)...गूगल कर के पता चला कि कैसे काबुली दरवाज़े का नाम खूनी दरवाज़ा पड़ गया था - यह दरवाजा मूक दर्शक रहा है सदियों से आम जनता के कत्ले आम का...

    मैं डराना तो नहीं चाह रहा था, किन्तु इतिहासकार विलियम डेलरिम्पल आदि ने भी दिल्ली के इतिहास, साम्राज्यों के पनपने और फिर ध्वंस होने का कारण प्राचीन मान्यतानुसार जिन्नों को बतलाया. इस दृष्टिकोण से क्या कोई कह सकते हैं कि शायद यह एपिसोड उन जिन्नों कि ही शरारत का नतीजा हो सकता है?

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  14. डंडे का बड़ा ख़ौफ़ रहता है भीड़ में कभी भी कुछ हो सकता है सो आपने बहुत बढ़िया किया जो वहाँ से निकल लिए..बढ़िया व्यंगबोध..सटीक और सुंदर चित्रण यह परेशानी जो अक्सर दिल्ली पिच पर मिलती है..अब देखते है आगे क्या होता है..वैसे एक बार फिर कहूँगा बेहतरीन व्यंग..धन्यवाद स्वीकारें..

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  15. मैंने बचपन में सारे खेल खेले, पर क्रिकेट का मैं दीवाना रहा था और अपने कार्यालय के लिए भी कुछेक मैच खेला...अपने ही नहीं अन्य भारतीयों के हाई ब्लड प्रेसर को भी मैं इसीके कारण मानता था, क्यूंकि हमारी, भारत की, टीम हमेशा जीतते-जीतते भी हार जाती थी. आजकल लेकिन कुछ सुधार हुआ है - टीम स्पिरिट बढ़ी है - और नाम रोशन किया है युवा खिलाडियों ने. पहले कई खिलाडी भूखे मर जाते थे बुढ़ापे में. अब तो कुछ एक की पांचों उंगलियाँ घी में हैं, और ऐसा लगता है कि क्रिकेट का खेल भी उनके सर के सामान कढाई में है! पैसों की अधिकता के कारण, बी सी सी आई के पास भी, जो एक पुरानी कहावत के अनुसार 'सर पर चढ़ कर बोलता है'...
    पहले एक अनपढ़ सा सीताराम नमक आदमी होता था जो पिच तैयार करता था डी ड़ी सी ए के लिए...एक लोकल मैच में, जिसमें प्रसिद्ध खिलाडी सी के नायडू खेल रहे थे उसको भी मौका मिल गया किसी घायल खिलाडी के स्थान पर फील्डिंग करने का. संयोग वश कई गेंद लगातार सीताराम की ही दिशा में गयीं और उसे खूब दौड़ना पड़ा. तब उसकी माँ, जो वहां मौजूद थी, उसको दुःख हुआ कि उसके बेटे को ही लोग दौड़ा रहे थे :)

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  16. कुछ कुछ-कुछ ऐसा ही मौका कहते हैं इंग्लैंड के तेज-गति बोलर लारवुड को भी मिला था क्यूंकि वो भी किसी लोकल मैच में, सीताराम की तरह, सफ़ेद ड्रेस में मौजूद था. वहां सारे बॉलर गेंद डाल चुके थे किन्तु बल्लेबाज आउट नहीं हो रहा था. फिर उससे पूछा गया वो बोल कर सकता है? उसे गेंद दे दी गयी...

    पहली गेंद उसने थोडा ही दौड़ की, और वो एल बी डब्लू आउट था लेकिन बल्लेबाज को आउट नहीं दिया गया...फिर उसने और लम्बा रन लिया और तेज़ गेंद फैंकी, बल्ले का छोटा किनारा लिया, अपील कैच क़ी हुई पर आउट नहीं दिया गया...अब उसने अपने पूरे कदम नापे और तेज़ गेंद फेंक स्टंप को उखाड़ फेंका...और इस तरह वो इंग्लैंड कि टीम में भर्ती किया गया...

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  17. चलो!...पैसे तो बच गए...

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