सर्दियों का मौसम , यानि शादियों का मौसम ।
शादियों का मौसम यानि परेशानियों का मौसम।
जी हाँ, दिल्ली की पौने दो करोड़ जनता और शादियों के लिए महज़ कुछ गिने चुने दिन।
क्या करें भाई, हम दिल्ली वाले हैं ही ऐसे की बिना पंडित की आज्ञा के शादी की तिथि निश्चित कर ही नहीं सकते।
नतीजा --एक एक दिन में सैकड़ों , हजारों शादियाँ।
कभी कभी तो एक ही दिन में दो या तीन निमंत्रण --कहाँ जाएँ कहाँ न जाएँ।
जाएँ भी तो कैसे --सभी तो जा रहे होते हैं शादियों में । अब सड़क कोई हमारे अकेले की थोड़े न है।
फिर सड़कों पर क्या शादियों में जाने वालों का ही अधिकार है ?
हमारे तो शौक भी ऐसे की शादी करेंगे तो सिर्फ फार्म हाउस में, फिर चाहे शहर से ३० किलोमीटर बाहर ही क्यों न हो। और अगर शादी में कोई वी आई पी नहीं आया तो क्या शादी हुई। ट्रैफिक जाम लगे तो लगे , क्या फर्क पड़ता है। वैसे भी दिल्ली वालों के लिए जाम तो आम बात है।
उफ़ ! शुक्र है, इस बार शादियों का सीजन जल्दी ख़त्म हो गया। लिफाफों का जो पैकेट पहले पूरे साल चलता था, इस बार एक महीने में ही ख़त्म हो गया। ऊपर से दालों के रेट क्या बढे , लिफाफों के वेट भी बढ़ाने पड़ गए।
अपने तो सर पर दो बाल और कम हो गए।
वैसे भी श्रीमती जी का कहना है --सर पे चार बाल तो सारे हैं।
देखिये ज़माना कैसे बदल रहा है।
पहले शादी का निमंत्रण आता था , आपस के मेल से।
आजकल आता है, पोस्ट ऑफिस या कुरियर की मेल से।
जल्दी ही वो दिन भी आएगा, जब निमंत्रण आएगा
एस ऍम एस या इ-मेल से।
हमारे यहाँ तो आ भी चुका है, अलबत्ता अभी ये काम बच्चे ही कर रहे हैं।
निमंत्रण :
इसके भी अपने अपने तरीके हैं।
जो करीबी दोस्त या सम्बन्धी हैं, वो तो व्यक्तिगत तौर पर निमंत्रण देने आते हैं।
यहाँ करीब होने का अर्थ दिल से करीब नहीं, घर के करीब होना है।
अब क्या करें , दिल्ली में आना जाना क्या आसान काम है। इसलिए अक्सर तो लोग कार्ड भिजवाकर फोन कर देते हैं की भैया आना ज़रूर।
कुछ ऐसे भी होते हैं जो फोन भी नहीं करते --उनके लिए कार्ड भेजना , शादी का एलान करने जैसा होता है। अब आना हो तो आइये , वर्ना क्या फर्क पड़ता है।
लेकिन सबसे भ्रामक निमंत्रण होता है --किसी वी आई पी यानि ऍम एल ए या काउंसलर का ।
आप तो बड़े खुश होकर जायेंगे --भैया आज तो हम भी वी आई पी बन गए।
शादी में जाकर पता चलता है की वहां तो पूरी कोन्स्तिचुएन्सि के वोटर पहुंचे हुए हैं-- ये , वो , यहाँ तक की आपका दूध वाला , अखबार वाला भी ।
उस वक्त सहसा आपको अपने वी ओ पी होने का अहसास होता है।
दिल्ली वालों का एक और शौक है --शादी के कार्ड ऐसे होने चाहिए की देखने वाला देखता ही रह जाये।
जी हाँ, एक एक कार्ड १००-५०० रूपये का। जितने पैसे लोग कार्डों पर खर्च करने लगे हैं, उतने में तो किसी स्वीकार के बच्चे की पूरी शादी ही हो जाये।
एक कार्ड हमें मिला --जो कम से कम २५० ग्राम वज़न का होगा, सिल्क के कवर में बना , ६ परतों वाला ये कार्ड कम से कम ५०० रूपये का होगा। मिठाई के डब्बे के साथ ऐसे बांटा गया जैसे चुनावों के वक्त नेता लोग नोट बांटते हैं।
अब ये भी समझ में नहीं आता की बाद में ऐसे कार्ड का किया क्या जाये।
दूसरी बेकद्री होती है , खाने की। --- १००-१५० आइटम्स खाने के --पांच पांच तरह के पुलाव, सैंकड़ों किस्म के अचार और सलाद --मिठाई की पूरी की पूरी दूकान। --- समझ में नहीं आता क्या खाओ क्या न खाओ ।
खाने वाला कोई होता भी नहीं ---शहर में सभी तो वेल-फेड होते हैं।
प्रस्तुत है, मेरी नयी कविता की कुछ अंतिम पंक्तियाँ :
इस भीड़ भाड़ में , कौन है अपना कौन पराया
किसने निमंत्रण स्वीकारा , कौन नहीं आया ।
दूल्हा कैसा दिखता है, दुल्हन की कैसी सूरत है
ये न कोई देखता है, न देखने की ज़रुरत है।
आजकल मेहमानों को वर-वधु से प्यारा , होता है खाना ,
और मेजबानों को , सम्बन्धियों से ज्यादा , लिफाफों का आना ।
इसी आवागमन की शिकार, प्रेम- संबंधों की ख्वाइश बन गयी है,
और शादियाँ आजकल काले धन की बेख़ौफ़, नुमाइश बन गयी हैं।
नोट : अगली पोस्ट में एक और अहम् सवाल , शादियों के बारे में, ज़वाब देना मत भूलियेगा।
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1. दिन के अलग अलग पहरों में भोज होने चाहिए.
ReplyDelete2. शादी कार्ड - झूटी शान के पीछे सब परेशान
3. कविता में सब ब्यान कर दिया अपने.
bahut hi badiya
ReplyDeleteप्रतिदिन दिल्ली की इतनी शादी कैसे अटैण्ड करें,कैसे संभाले .. इसके लिए आप दिल्लीवाले ही जानकारी दे सकते हैं .. महंगे कार्डों को खूबसूरती से अटैच कर अपने ड्राइंग रूम के किसी कोने को सजाने के लिए इस्तेमाल करें .. 500 या 1000 रूपए के कार्ड सजाने के लिए ही तो हो सकते हैं .. भला निमंत्रण देने में इतने की क्या आवश्यकता ??
ReplyDeleteसही परेशानी है शादियों के मौसम में परेशानी तो होती ही है ! आज गए कल फिर जाना न ठीक तरह से aaraam naa khaan paan !!!
ReplyDelete"जल्दी ही वो दिन भी आएगा, जब निमंत्रण आएगा
ReplyDeleteएस ऍम एस या इ-मेल से।"
वो दिन बहुत जल्दी आयेगा!
सही कहते हैं आप शादियाँ फिजूलखर्ची और अभिजात्य का बेशर्म प्रदर्शन बन के रह गयी हैं !
ReplyDelete"अपने तो सर पर दो बाल और कम हो गए।
ReplyDeleteवैसे भी श्रीमती जी का कहना है --सर पे चार बाल तो सारे हैं।"
हा-हा-हा-हा..... धनवान सेठ बनने के "लक्षण" दीख रहे है, डा० साहब !
दोनों ही बाते है, एक तो यह कि आप इतने खुशकिस्मत हो कि आपके इतने जानने-पहचानने वाले लोग दिल्ली में है, दूसरी बात यह कि अगर इन परेशानियों से दिल्ली में निजात पानी है तो जान-पहचान ही सीमित राखी जाए ( जोकि कुछ मामलों में संभव नहीं ) इस लिए मैं तो यही कह सकता हूँ कि भुगतो ! :)
हा हा हा ! सही कहा गोदियाल जी। लेकिन क्या करें अपुन तो ठेठ दिल्ली वाले हैं, यहीं पैदा हुए, पले बढे , और पढ़े लिखे । अब इस चक्रव्यूह से निकलना तो संभव नहीं।
ReplyDeleteइसलिए सभी को परिवार नियोजन की सलाह देते हैं।
सर
ReplyDeleteआने वाले दिनों में शायद ऐसा भी सुनने को मिले- ’उस शादी में कौन जायेगा , पुराने ख्याल के लोग हैं , अपने लड़के की शादी लड़की से ही करा रहे हैं ।’
आज कल ये आडंबर बढ़ते ही जा रहे हैं ....... होड़ सी लगी रहती है लोगों के बीच .......... भला हमारी कमीज़ उनकी कमीज़ से कम सफेद कैसे ........ पता नही कोई सरकारी क़ानून है की नही ...... पर अगर नही तो ज़रूर बन जाना चाहिए ..... पर अगर क़ानून बन गया तो फिर ये फॅंडयेमेंटल राइट वालों का मामला बन जाएगा ...... अपनी मर्ज़ी से, जहाँ मर्ज़ी हो वहां खर्च करना भी तो हमारा राइट है ....
ReplyDeleteअजय कुमार जी, एलिजिबल बेचलर्स के पेरेंट्स को तो अभी से चिंता सताने लगी है । सुना है आजकल माँ बेटे से कहती है, बेटा ---बहू तो लड़की ही लाना।
ReplyDeleteनासवा साहब, सरकार को कानून तो बनाना चाहिए, क्योंकि इस तरह की शादियों में दो नंबर का ही पैसा लगता है।
आज भी गाँव में पंचायत के फैसले का पालन किया जाता है ।
कहीं तो रोक लगानी ही पड़ेगी।
बहुत सुंदर लिखा, हमारे यहां दिखावा हद से ज्यादा है
ReplyDeleteआजकल मेहमानों को वर-वधु से प्यारा , होता है खाना ,
ReplyDeleteऔर मेजबानों को , सम्बन्धियों से ज्यादा , लिफाफों का आना ।
इसी आवागमन की शिकार, प्रेम- संबंधों की ख्वाइश बन गयी है,
और शादियाँ आजकल काले धन की बेख़ौफ़, नुमाइश बन गयी हैं।
आपने इन पंक्तियों में शादियों का कच्चा चिठ्ठा खोल कर रख दिया है...दिल्ली के पंजाबी जितना होते नहीं उस से ज्यादा दिखाने में विश्वाश रखते हैं...बहुत सही मजेदार पोस्ट...
नीरज
दराल साब मन्ने ई मेल करो थारा मेल आई डी नही दि्ख्या, मै थमने हेडर भेज दुंगा। shilpkarr@gmail.com
ReplyDeleteबहुत ही सही लिखा है यह एक व्यंग्य है दिखावे, पर क्या करे इसी दिन सभी अपने अरमान निकालते है ।एेसे ही लिखते रहे हल्के ढंग से गहरी बातें आपका शैली बहुत अच्छी है.....
ReplyDeleteडा. दराल साहिब ~ कहने को सब कहते हैं कि शादी में आडम्बर अधिक है, किन्तु अधिकतर पानी के तेज़ बहाव के जैसे काल के प्रभाव के कारण मजबूरी में समाज कि नक़ल करते है...रॉबर्ट ब्राउनिंग के शब्दों में "आदमी अपने दैनिक जीवन में अपने चारों ऑर कागज़ कि दीवार बना लेता है/ और उसे तोड़ने से डरता है..."
ReplyDeleteमेरे '६५ सन में होने वाले विवाह में मैं केवल ७ सदस्यों कि बारात ले कर गया था, जिसमें मैं और एक पंडितजी भी शामिल थे - दिसम्बर का माह जान कर छांटा था, जब छुट्टियाँ खाते में शेष नहीं रहती, और दूरी होने से कई लोगों ने माफ़ी मांग ली! मेरी पत्नी अपने परिवार क़ी चार बहनों और एक भाई में सबसे छोटी थी और में उन पर बोझ नहीं डालना चाहता था...मुझे देख '७३ में मेरे सबसे छोटे भाई ने मंदिर में शादी क़ी और बाराती के रूप में केवल हम ८ सदस्य ही थे...हमको देख उस समय कुछेक विवाह ऐसे ही बिना अधिक खर्च के हमारी कम्युनिटी में हुए...किन्तु कहावत है कि एक चना भाड़ नहीं फोड़ सकता!
३१ दिसंबर को मेरे एक मित्र ने मुंबई से मुझे ईमेल से निमंत्रण भेज आमंत्रित किया है अपनी बेटी के विवाह में...यदि संभव हुआ तो मेरी पुत्री और दामाद अपने ढाई वर्षीय पुत्र के साथ उस में समिलित होंगे...में अभी हाल में ही उनसे लगभग ३० वर्ष बाद आई आई टी कैम्पस में मिला - उनकी पत्नी से पहली बार...
हमारे पास तो कई निमंत्रण स्कैन कर के ईमेल से आये हैं..... ..शायद वो ज़माना आ चुका है....
ReplyDeleteअच्छा प्रश्न उछाला है!
ReplyDeleteसमाज को दर्पण दिखाने का प्रयास किया है आपने!
आजकल मेहमानों को वर-वधु से प्यारा , होता है खाना ,
ReplyDeleteऔर मेजबानों को , सम्बन्धियों से ज्यादा , लिफाफों का आना ।
बात तो एकदम सही है :-)
बी एस पाबला
राज भाटिया जी और बी एस पाबला जी, आप दोनों का प्रथम आगमन पर स्वागत है।
ReplyDeleteलगता है अब हमें भी पढ़ा जाने लगा है।
नीरज जी, ये बात सही है की पंजाबी लोग मौज मस्ती और दिखावे में ज्यादा विश्वास रखते हैं। लेकिन अब तो उन्हें देखकर बाकी सब भी ऐसा ही करने लगे हैं। मुझे इस नक़ल की ज्यादा चिंता है।
सुनीता जी, अरमान वाली बात आदमी की राजसी प्रवर्ती को दर्शाती है। गीता में लिखा है --मनुष्य को ख़ुशी में ज्यादा खुश और गम में ज्यादा दुखी नहीं होना चाहिए। सात्विक मनुष्य के लिए सुख- दुःख एक समान होते हैं।
जे सी साहब, आपका जीवन तो एक उदहारण है, आज की युवा पीढ़ी के लिए। काश की सभी ऐसा सोच सकें।
मेरी अगली पोस्ट इसी विषय पर रहेगी। आपका अनुभव और योगदान बहुत काम आएगा। आभार।
क्या कहें शादी भी एक दिखावा हो गया है इस व्यापारीकरण के युग में.
ReplyDeleteभूख लगी हो या नहीं कुछ तो खाना पड़ता है
अरे हाँ आपने कार्डों का पूछा था . वैसे तो इन्हे विसरजित किया जाना चाहिए क्योंकि इनमे देवी देवताओं की तस्वीर होती है
ReplyDeleteवाकई, सोचना पड़ता है कि इन कार्डों का क्या करें..यूँ ही फेका भी नहीं जाता,
ReplyDeleteकविता एकदम यथार्थ बयानी है जी!! बहुत उम्दा!
दराल सर,
ReplyDeleteशादियों पर ये दिखावे की बीमारी पंजाबियों में सबसे ज़्यादा है...चाहे कर्ज़ लेकर सही लेकिन घर फूंक तमाशा बड़ी
शान से किया जाता है....
ये वही बात है....आशिक का जनाजा है ज़रा धूमधाम से निकलना चाहिए...
जय हिंद...
सही कहा खुशदीप भाई।
ReplyDeleteएक धूम धाम का तो हमें भी इंतज़ार है।
कब आ रहे हो टीचर्स से मिलने ?
फिर वो दिन भी आयेगा जब पूरी शादी का काम नेट पर ही हो जायेगा। बधाई और शगुन् आदि भी। शायद खाने के पैकेट भी नेट पर आर्डर दे कर सब के घरों मे पैक हो कर आ जायें। शगुन भेजिये और खाना घर बैठे खाईये तेन्ट का बिजली का खर्च भी बचेगा। नेट पर दोनो को जयमाला डालते देख लो अब भी कौन सा सभी जै माला देखने जाते हैं खाना खाने ही तो जाते हैं। धन्यवाद्
ReplyDeleteजैसे ही इस पोस्ट पर नज़र पड़ी...सबसे पहले पढने चली आई...क्यूंकि मैं भी बहुत परेशान हूँ कि शादी के इन कार्ड्स का क्या किया जाए...घर पर सुना है,इन्हें फाड़ना अशुभ होता है...एक कार्ड तो ऐसा है कि शादी के एक साल बाद ही तलाक हो गया,उनका और एक शादी, कार्ड छपने और मुहूर्त के बीच में ही टूट गयी...ये कार्ड नष्ट किये जा सकते हैं...पर उस ढेर में से ढूंढ कर कैसे निकाला जाए.
ReplyDeleteउत्तर भारतीय शादियों में बहुत दिखावा होता है...उन्हें महाराष्ट्रीअन्स से सीखना चाहिए...इनके यहाँ लड़की और लड़के वाले मिल कर खर्च वहन करते हैं....लेन-देन का रिवाज़ भी नहीं...वैसे चेतन भगत की "टू स्टेट्स'...जरूर पढ़िए...दोनों तरह की शादियों का वर्णन है..और बहुत ही रोचक ढंग से.
डाक्टर साहब ये दिल्ली की ही नही सारे भारत की तस्वीर है. और इससे निजात मिलने के भी आसार नही दिखते.:)
ReplyDeleteरामराम.
रश्मि जी, सही कहा आपने। आजकल शादियाँ मात्र दो घंटे का तमाशा होती हैं। उसके बाद तो पति पत्नी में कैसी जमती है, इसी बात पर सब निर्भर करता है।
ReplyDeleteइसलिए जितनी सादगी से किया जाये उतना ही अच्छा है।
शुक्र है, कुछ लोग तो ऐसा सोच रहे हैं।
धन्यवाद निर्मला जी और रामपुरिया जी। आशा है, ये समां बदलेगा ज़रूर।
दराल साहब,
ReplyDeleteहम तो कोई शिकायत नहीं करेंगे..... ऐसी शादियाँ देखने तो तरस गए हैं हम....
यहाँ तो बस शादी के नाम पर भाषण सुन कर आजाते हैं...
न बाजा न गाता न ढोल न ताशे...न बारात न बग्घी....
शादी न हुई.....म्यूजियम का शो हुआ...
बाजे के नाम पर गाड़ियों के होर्न ही बजते हैं....
हमसे तो चाहिए खूब सारा शोर ...और ढेर सारे ताम-झाम...बस
अब ये फिजूल खर्ची है तो होवे.....
यहाँ तो शादी और मय्यत में ज्यादा फर्क नहीं है...बस कपड़ों का रंग अलग होता है...एक सफ़ेद दूसरा काला...
हाँ नहीं तो...:)
"एक कार्ड हमें मिला --जो कम से कम २५० ग्राम वज़न का होगा, सिल्क के कवर में बना , ६ परतों वाला ये कार्ड कम से कम ५०० रूपये का होगा। मिठाई के डब्बे के साथ ऐसे बांटा गया जैसे चुनावों के वक्त नेता लोग नोट बांटते हैं।"
ReplyDeleteमिठाई के डब्बा का तो स्वागत है पर ढाई सौ ग्राम कूडे का क्या करें जो फेंकते बनता है न रखते :)
'अदा' जी ~ "दूर के ढोल सुहावने होते हैं " :)
ReplyDeleteप्रसाद जी ~ आज आदमी की हालत ऐसी हो गई है जिसे सांप-छछूंदर जैसी कही जा सकती है...न खाते बनता है न छोड़ते :) "मिठाई का डब्बा" देख मुंह में पानी आ जाता है, किन्तु दूसरे ही क्षण किसी डा. दराल जैसे चिकित्सक का चेहरा दीखता है जिसने १४ वर्ष पहले सिर्फ जामुन, सिंघाड़ा, और एक संतरा खाने के अतिरिक्त अन्य सब मिष्टान्न पर रोक लगादी थी :)
किन्तु क्या कोई 'भारतीय' भीतर छुपे कृष्ण, 'माखनचोर' नटखट नन्दलाल (या 'मोदक-प्रिय' गणेश को), को भूल सकता है? और उनके सामान चोरी-चोरी 'मक्खन' नहीं खायेगा? कहावत भी है कि चोरी का फल मीठा होता है :) मीरा बाई भी कह गयी कि हर रोगी के अन्दर 'वैद' रहता है/ और वो ही (सही) दवाई जानता है...कृष्ण स्वयं गीता में कह गए कि मैं हर प्राणी के भीतर हूँ और उसे अर्जुन समान अपने जीवन रुपी रथ की बागडोर मेरे हाथ में है जाने...जैसे मीरा बाई ने माना और विष पी कर भी नहीं मरी :)
सब जानते हैं की अंततोगत्वा, हर प्राणी की मृत्यु तो निश्चित है ही - कैसे आएगी इस पर पर्दा पड़ा है, जो केवल योगी ही जान सकते हैं...आजकल टीवी में भी आप प्रोग्राम तो कम देख पाते हैं क्यूंकि मानव जीवन का सत्य, 'भागम भाग', की ओर इशारा करते दौड़ते-दौड़ते शब्द केवल भय ही पैदा करते हैं: कहाँ 'नीली रेखा' बस ने - नीलकंठ शिव अथवा नीलाम्बर कृष्ण की याद दिलाते - किसी को कुचल दिया, या कहाँ पटड़ी से रेल उतर गयी और कितने स्वर्ग सिधार गए आदि, आदि...
और डा. दराल जैसे चिकत्सिक अपने ब्लॉग में भी हमें समय समय पर क्या सावधानी बरतनी है उससे अवगत करा रहे हैं हँसते-हंसाते जिससे सफ़र आनंद पूर्वक कट जाए :)
"ज़िन्दगी इक सफ़र है सुहाना/ यहाँ कल क्या हो किसने जाना?"
अपने तो सर पर दो बाल और कम हो गए।
ReplyDeleteवैसे भी श्रीमती जी का कहना है --सर पे चार बाल तो सारे हैं।"
आपकी तस्वीर से तो नहीं लगता .....वैसे भी देश के सभी महान पुरुष गंजे थे .....हा...हा...हा.....!!
जी पिछले दिनों शादी के कार्ड देख मैं भी यही सोच रही थी लोगों के पास इतनी मंहगाई में भी कितना पैसा है लुटाने के लिए ....यहाँ भी कुछ कार्ड के साथ ड्राई फ्रूट के डिब्बे आये थे ...अब तो गुवाहाटी भी दिल्ली बनता जा रहा है ....ट्राफिक देख तो कहीं जाने का मन ही नहीं करता ....!!
आपकी तस्वीर से तो नहीं लगता .....
ReplyDeleteहा हा हा ! हरकीरत जी, लेकिन हमारी श्रीमती जी को ऐसा लगता है।
कार्ड के साथ ड्राई फ्रूट के डिब्बे--
एक अच्छा बदलाव है। कम से कम मिठाई से तो पीछा छूटा, जो न जाने कैसे तेल या घी में बनती है।
मेरे ख्याल से शादियों की वजह से लगने वाले जामों से और शादी में हो रहे भोजन के अपव्यय से बचने के लिए कार्ड बांटते समय ही मेहमानों को किसी अच्छे रेस्टोरेंट या स्वीट शाप के गिफ्ट कूपन दे दिए जाने चाहिए ...जिन्हें वो अपनी साहूलियत के अनुसार एक बार में या एक से अधिक बार में खर्च कर के विवाह को सैलीब्रेट कर सकें...इसससे मेहमानों में विवाह की यादें भी लंबे समय तक रह जाएंगी और ना ही भीड़-भड़क्के से आम जनता को दो-चार होना पड़ेगा और ना ही खाना बेकार जाएगा
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