शादियों के बारे में उठे दो सवाल :
१. क्या शादियों में फिजूलखर्ची और दिखावा जायज़ है ?
२. क्या बिना दान-दहेज़ के शादियाँ हो सकती हैं ?
करीब ५०० से ज्यादा मित्रों ने पढ़ा इन दो पोस्ट्स को और ६० दोस्तों ने अपने विचार खुल कर रखे।
मैं इसे ब्लॉग जगत की एक उपलब्धि समझता हूँ। इस के लिए आप सब बधाई के पात्र हैं।
अब देखते है की निष्कर्ष क्या निकला ---
सभी मित्रों ने एकमत होकर कहा की शादियों में होने वाली फिजूलखर्ची को रोका जाना चाहिए ।
हाँ, ख़ुशी मनाने के लिए और रीति रिवाज़ और सामर्थ्य अनुसार उपहारों का आदान -प्रदान करना कोई अनुचित नहीं है।
जायज़ बात है।
अब रहा दूसरा सवाल :
अधिकाँश मित्रों का विचार था की ---
१) बेटे की शादी में दहेज़ न लेना तो अपने हाथ में है, लेकिन बेटी की शादी में न देना दूसरों पर निर्भर करता है।
२) कभी कभी पारिवारिक दबाव में आकर लेना देना करना पड़ता है।
३) अभी समाज में ऐसे साहसी व्यक्ति बहुत कम हैं, जो बिना दहेज़ के बच्चों की शादी कर सकें।
उपरोक्त तीनों बातें सही हैं। लेकिन यहीं तो हम सब की भूमिका अहम हो जाती है। कैसे इस विचार धारा को बदलें।
मुझे ख़ुशी हुई ये देखकर की आज भी ऐसे लोग हैं, जो दान दहेज़ के विरोधी हैं। आइये उन्हीं की जुबानी सुने :
श्री संजय बेगाणी : मेरी शादी बिना दहेज के हुई थी॥
घुघूती बासूती: मेरे अपने विवाह में दहेज नहीं देने दिया गया। यदि दहेज देने की बात होती तो मैं विवाह ही नहीं करती।
श्री राज भाटिय़ा: मेरी शादी आज से करीब २२ ,२३ साल पहले हुयी, बिना दहेज के,अब बेटो की शादी जब भी हुयी ओर भारतीया लडकी से हुयी तो बिना दहेज के बिना दिखावे के होगी। धन्यवाद
श्री सी ऍम प्रशाद : गर्व से कह सकता हूं कि ४० वर्ष पूर्व मैंने अपनी बिरादरी की लड़की से बिना दहेज शादी की।
श्रीमती आशा जोगलेकर : मेरी अपनी शादी में (४४ साल पहले)भी कोई दहेज नही लिया गया और हमने भी अपने बेटों की शादी में दहेज नही लिया । बेटी थी नही होती तब शायद उसको भी यही सिखाते ।
श्री नीरज गोस्वामी : दहेज़ एक अभिशाप है...कल भी था और आज भी है...पैंतीस साल पहले मात्र सवा रुँपये वो भी पंडित के बहुत अनुनय विनय के बाद लिए जाने पर,पर शादी हुई थी हमारी...दोनों बेटों की शादी में जब कुछ भी लेने से मना कर दिया तो वधु पक्ष वाले सन्नाटे में आ गए...बोले बिरादरी में हमारी इज्ज़त क्या रहेगी...बेटी यूँ ही विदा कर दी..लेकिन हम अपनी बात पर अड़े रहे...
श्री जे सी साहब : मेरे '६५ सन में होने वाले विवाह में मैं केवल ७ सदस्यों कि बारात ले कर गया था, जिसमें मैं और एक पंडितजी भी शामिल थे
श्री सुलभ सतरंगी : इनकी अभी शादी नहीं हुई, लेकिन दहेज़ के विरोधी हैं।
मैं उपरोक्त सभी ब्लोगर मित्रों को बधाई देता हूँ और आभार प्रकट करता हूँ, एक मिसाल कायम करने के लिए।
अब मैं आता हूँ अपने मूल प्रश्न पर।
क्या हम अपनी या अपने बच्चों की शादी बिना दान -दहेज़ के कर सकते हैं ?
मेरा ज़वाब था ---जी नहीं। लेकिन क्यों और कैसे ?
इत्तेफाक से इस क्यों और कैसे की तरफ किसी का ध्यान नहीं गया।
आइये मैं इस बारे में विस्तार से वर्णन करता हूँ।
शादी बेटे के हो या बेटी की --दान भी ज़रूरी है , और दहेज़ भी ।
दान :
भारतीय संस्कृति के अनुसार शादी में बेटी का पिता कन्या दान करता है। हालाँकि कन्या यानि बेटी कोई दान में देने वाली चीज़ नहीं है। लेकिन यह भी सत्य है की शादी के बाद बेटी , पिता का घर छोड़ , हमेशा के लिए दूसरे घर चली जाती है।
दहेज़ : जी हाँ, शादी में दहेज़ भी ज़रूरी है। लेकिन ये दहेज़ होना चाहिए --लड़की की शिक्षा और संस्कार।
सोना, चांदी, कार, बंगला, रुपया -पैसा, ये सब क्षणिक उपलब्धियां है। किसी के दिए से जिंदगी नहीं गुजर सकती।
जिंदगी में वही काम आता है, जो पति पत्नी मिलकर कमाते है और सोच समझ कर मिलकर खर्च करते हैं।
२५ साल पहले १३ अप्रैल १९८४ को हमारी शादी हुई थी। मैंने यही दो मांगे रखी थी :
दान में लड़की का हाथ , और दहेज़ में उच्च शिक्षा और संस्कार।
और कैश के रूप में मात्र एक रुपया -- शगुन के रूप में।
आज मैं जिस भी मुकाम पर हूँ , इन्ही दोनों की वज़ह से।
दुनिया क्या कहेगी ?
दुनिया क्या सोचेगी ?
मेरी कनाडा यात्रा से मैंने यही सीखा की ---दुनिया कुछ नहीं कहती, दुनिया कुछ नहीं सोचती आपके बारे में।
यह आपका अपना ही वहम और विचारों की अनिश्चितताएं होती है , जो आपको विवेकहीन बनाती हैं।
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ऐसा कौन पिता होगा जो अपनी बेटी को अपने सामर्थ्य के अनुसार देना नहीं। मेरे विचार से दहेज देना गलत नहीं है हाँ सौदेबाजी करके दहेज लेना बहुत गलत है।
ReplyDeletebahut khub , kash aap jaise soch har ladko walo ki hoti .
ReplyDeleteअरे ओ साम्बा... दुनिया से जो डर गया समझो वो मर गया :)
ReplyDeleteअवधिया जी की राय से सहमत हूं.
ReplyDeleteरामराम.
दुनिया को कहां फुर्सत है किसी की.
ReplyDeleteदुनिया कुछ नहीं कहती, दुनिया कुछ नहीं सोचती आपके बारे में।
ReplyDeleteयह आपका अपना ही वहम और विचारों की अनिश्चितताएं होती है , जो आपको विवेकहीन बनाती हैं। sachaai hai. अवधिया जी समझा ही दिए हैं.
आप क़र्ज़ लेकर या दहेज़ लेकर करोडो खर्च कर लीजिये, लोग बड़ी तेजी से भूल जाते हैं. जिसको भुगतना है सिर्फ वे ही भुगतते हैं.
अतः शिक्षा संस्कार, रीतिरिवाज़, शहनाई बाजे के साथ आँगन में होने वाले प्रीतिभोज, सामर्थ्यानुसार उपहारों का आदान प्रदान ही सहेजने लायक स्मृतियाँ है. इसी में चिरस्थायी रंग है. मान सम्मान है. ये ही सफल विवाह के सूत्र हैं
दुनिया कुछ नहीं कहती,दुनिया कुछ नहीं सोचती आपके बारे में।
ReplyDeleteयह आपका अपना ही वहम और विचारों की अनिश्चितताएं होती है, जो आपको विवेकहीन बनाती हैं
डाक्टर साहब कितनी अच्छी बात की है आपने...इस के बाद कुछ कहने को नहीं रह जाता...ये ऐसा वाक्य है जिसे हर किसी को कंठस्त कर लेना चाहिए..
नीरज
Bilkul sahi kaha.
ReplyDelete--------
क्या आपने लोहे को तैरते देखा है?
पुरुषों के श्रेष्ठता के 'जींस' से कैसे निपटे नारी?
बिहार में दहेज जैसी कुरीति बहुत अधिक थी .. पैसों के लिए लोग वधू के रूप रंग और संस्कार तक पर ध्यान नहीं देते थे .. पर यहां भी आजकल दान और दहेज में सौदेबाजी समाप्त हो रही है .. इसका कारण यह है कि लडकी के पिता पूरे जीवन में इकट्ठा किया गया अपना सारा फंड भी खाली कर दें तो .. वर के एक वर्ष के पैकेज को ही छुआ सकता है .. भला वर एक वर्ष की कमाई के लिए कन्या के रूप और गुण से समझौता क्यूं करे .. पर इससे उन कन्याओं के विवाह में बाधा आयी हैं .. जो रूपवती या स्मार्ट नहीं है.. समाज की इस समस्या का हल कैसे हो ??
ReplyDeleteदान दहेज़ संस्कार और शिक्षा ये अनिवार्य करदें तो बेहतर है!!
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ReplyDeleteदान दहेज़ में संस्कार और शिक्षा ये अनिवार्य करदें तो बेहतर है!!
ReplyDeleteकल की चर्चा मे शामिल न हो सकी। देहेज का दानव इस देश से कभी जा नहीं सकता रक्त्बीज की तरह बढता ही जा रहा है। मगर फिर भी शायद एक उमीद है कि जैसे जैसे पढे लिखे युवा आगे आयेंगे और दहेज के खिलाफ आवाज़ उठायेंगे कुछ न कुछ बदलाव आयेगा। शुभकामनायें
ReplyDeleteदुनिया की चिंता पहले होती थी हमारे पिताजी के समय...छोटे भाई के ७० के दशक में विवाह के समय जब उसने कहा कि लड़की भले ही माता-पिता पहले देखलें किन्तु उसके साथ विवाह वो इसी शर्त पर करेगा कि विवाह मंदिर में होगा, बिना दान-दहेज़ के... उसकी ओर से मुझे वकालत करनी पड़ी - पिताजी का विचार था कि औरों के बच्चों कि शादी में उनको बुलाया सभी दोस्तों और रिश्तेदारों ने - अब वो कैसे नहीं बुलाएं? उनको सब से अधिक अपने एक दूर के चचेरे भाई से डांट सुनने का भय था...मेरा उस समय यही कहना था कि आपने तो देखा है कि कैसे आप कुछ भी करलें कोई न कोई तो कुछ न कुछ गलती निकालेगा ही. किन्तु मंदिर की शादी में हम सबको सुविधा होगी...पिताजी आख़िरकार तैयार हो गए और उन्होंने उन पहाड़ में रह रहे सज्जन को पत्र लिख दिया कि कैसे बच्चों के दबाव के कारण वो किसी को निमंत्रण नहीं भेज रहे हैं...उनका तुरंत उत्तर आगया कि पिताजी ने उनके सर से बोझ उतार दिया था, और अपने बेटे के विवाह में अब वो भी केवल एक टैक्सी ही लेजायेंगे :)
ReplyDeleteअवधिया जी, आपकी बात सही है। सभी मात-पिता बेटी के लिए सामर्थ्य अनुसार सब कुछ जुटाने की कोशिश करते हैं।
ReplyDeleteहोना भी चाहिए, क्योंकि शादी के बाद वर वधु एक नयी जिंदगी शुरू करते हैं। इसीलिए शादी में उपहार देने की रिवाज़ रही है, दोनों पक्षों से।
लेकिन यहाँ सवाल स्वेच्छा से देने का नहीं है। अपितु वर पक्ष द्वारा मांग करने का है। दहेज़ की मांग करने वाले इंसान ये भूल जाते हैं की वो उसी लड़की पर दबाब बढ़ा रहे हैं, जो उनकी कुलरक्षक बनने वाली है।
दूसरी बात ये की ज़रुरत से ज्यादा देना , वो भी दिखाकर, प्रतिस्पर्धा उत्पन्न करता है। यही प्रतिस्पर्धा किसी की मजबूरी बन जाती है।
इसी को समाप्त करने के लिए सरकार की तरफ से कुछ नियम बनने चाहिए।
देर से ही सही, बदलाव आ सकता है।
Dahej mang kar log apni va apne parivaar ki jindgi ko narak ka rasta dikha dete hain.peeda dekar liya gaya dahej apka budhapa kharaab kar sakta hain. yah bhi ek karan hain ki bujargon ka jeevan ast vyast ho raha hai.khair, jo kisi ke samjhane se nahin manta use vakt samjhata hai. tab tak bahut der ho chuki hoti hai.
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ReplyDeleteअवधिया जी ने बिल्कुल सही लिखा है!
ReplyDeleteदुनिया कुछ नहीं कहती,दुनिया कुछ नहीं सोचती आपके बारे में।
ReplyDeleteयह आपका अपना ही वहम और विचारों की अनिश्चितताएं होती है, जो आपको विवेकहीन बनाती हैं
-यही सत्य है और अवधिया जी भी सहमत हुआ जाता हूँ.
दराल सर,
ReplyDeleteमैं पिछली टिप्पणी को ही रिपीट कर रहा हूं...
दहेज और उपहार में फर्क होता है...बेटी का भी मां-बाप पर उतना ही हक होता है जितना कि बेटे का...अगर मां-बाप खुशी खुशी और अपने सामर्थ्य के अंदर ही कोई उपहार बिटिया को देना चाहते हैं तो उसमें कोई बुराई नहीं है...हां दबाव जहां हो वहां रिश्ता ही नहीं जोड़ना चाहिए...मैंने ऐसे परिवार भी देखे हैं जो पहले कहते हैं हमें बस बिटिया चाहिए और कुछ नहीं...लेकिन दहेज में मोटा माल-पानी न मिले तो शादी के अगले दिन से ही ससुराल में सबके मुंह बन जाते हैं...बहू को कभी बारातियों की खातिर न होने, या घर का कामकाज न आने के ताने देकर प्रताड़ित करना शुरू कर दिया जाता है...और आजकल वो ज़माना भी नहीं रहा जब रिश्तेदारों या जानने वालों को ही बेटे-बेटियों के जवान होने पर शादी की फिक्र रहती थी...अब कोई इस काम में हाथ नहीं डालना चाहता...अखबारों या नेट पर मैट्रिमोनियल एड देखकर रिश्ते होते हैं..,इन एड में अस्सी फीसदी झूठ लिखा जाता है....यही सब शादी के बाद गड़बड़झाला करता है....टिप्पणी कुछ ज़्यादा ही लंबी हो गई लगती है...
जय हिंद...
इस विषय में इतना लिखने को है अपने ही अनुभव के आधार पर क़ि समझ नहीं आता क्या लिखें...
ReplyDeleteजब हम गुवाहाटी में थे तो नीचे एक निजी टायर कंपनी के दिल्ली के ही एक दक्षिण भारतीय दम्पति रहने को आने वाले नव दंपत्ति थे...क्यूंकि उनकी पत्नी अभी नहीं आयी थी, उनके स्टाफ के ही दो लड़के, एक चंडीगढ़ और दूसरा दिल्ली से, भी साथ में रहे पहले...और जैसा वहां का महौल था तब, आये दिन शहर में बन्ध होते थे, जिस कारण उनका खाना तब हमारे साथ ही होता था...हम 'विदेशी' इस प्रकार एक ही परिवार के सदस्य समान हो गए थे...जब उनकी पत्नी आगई तो वे दो एक पास में ही स्तिथ अन्य कालोनी के घर में चले गए - किन्तु मिलते रहते थे सभी...मुझे पत्नी की बिगडती सेहत के कारण '८४ में दिल्ली लौटना पड़ा तो उन्होंने मेरी बहुत सहायता की...फिर हम कई बार मिलते रहे दिल्ली में भी...उनके घरों में भी उनके परिवार से भी मिले...
ऐसा कहा जाता है क़ि विवाह स्वर्ग में निर्धारित होते हैं...और ऐसा लगता है क़ि यह स्वर्ग शायद नारी मस्तिष्क में होता है, जिस कारण उन दो लड़कों में से दिल्ली वाले का विवाह हमारे पडोसी के बेटी से होना उन्ही के सुझाव से संभव हुआ...उनके अब दो सुपुत्र हैं - एक इंजीनियरिंग का विद्यार्थी है - और वह परिवार कुछ समय से अभी गुवाहाटी में ही है :)
सच है ........ दुनिया २ दिन में सब भूल जाती है ........ अपना मान सॉफ रखना चाहिए ......... दिल में ठान लें तो सब कुछ हो सकता है ..... आपका विश्लेषण बहुत अच्छा लगा ........
ReplyDeletemain dahej ke bilkul khilaaf hun... haan har pita kee iksha hoti hai ki wo apni beti ko apni samarthya ke hisaab se de.. to mere khyaal se ye faisla ladki ke pita ka hi hona chahiye ki wo apni beti ko kya dena chahte hai...
ReplyDeleteमेरा भी यही कहना है कि दान दें तो कन्या, का दहेज़ दें तो संस्कार और शिक्षा का
ReplyDeleteआपने बिलकुल सही कहा कि...दुनिया कुछ नहीं कहती, दुनिया कुछ नहीं सोचती आपके बारे में।यह आपका अपना ही वहम और विचारों की अनिश्चितताएं होती है , जो आपको विवेकहीन बनाती हैं"
ReplyDeleteकई बार हम सब कुछ जानने के बावजूद भी दहेज लेने या देने में अपनी सहमति सिर्फ इसलिए जताते हैं कि हमारी जान-पहचान वाले लोग क्या कहेंगे?...हम जिनके ताने सुनने से डरते हैं...वो हमारे अपने ही होते हैं...अगर हम खुद को निर्भीक बना इनकी परवाह करना छोड़ दें तो सब कुछ ठीक हो सकता है