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Sunday, June 30, 2013

मनुष्य कितनी भी तरक्की क्यों न कर ले, भगवान से ज्यादा बलवान कभी नहीं हो सकता। हर की दून -- ट्रेकिंग, एक संस्मरण।


उत्तराखंड से सभी तीर्थयात्री प्राकृतिक त्रासदी से बचकर अभी लौटे भी नहीं कि अमरनाथ की यात्रा आरम्भ हो गई। ज़ाहिर है कि धार्मिक विश्वास की जड़ें हमारी जनता में बहुत गहराई तक फैली हैं। लेकिन केवल श्रद्धा भावना के बल बूते पर हज़ारों फीट ऊंचे दुर्गम पर्वतीय स्थलों पर यूँ जाना दुस्साहस सा ही लगता है। बच्चे, बूढ़े, शारीरक रूप से असक्षम लोग कठिन रास्तों पर न सिर्फ स्वयं के लिए मुसीबत मोल लेते हैं , बल्कि प्रशासन के लिए भी सर दर्द बन जाते हैं। बेहतर तो यही है कि पहाड़ों के सफ़र से पहले हमें अपनी शारीरिक क्षमता को मांप लेना चाहिए और यदि संभव हो तो पूर्णतया सक्षम होने पर ही यात्रा करनी चाहिए।

बचपन में शहर से बाहर जाने का अवसर कभी मिला ही नहीं। लेकिन ज़वान होने के बाद पहाड़ों से जैसे लगाव सा हो गया। धीरे धीरे पहाड़ों को पैदल नापने का शौक भी पनपने लगा। तभी हमें पता चला कि कुछ संस्थाएं गर्मियों में पहाड़ों में ट्रेकिंग का आयोजन करती हैं। एक दिन अस्पताल में लगे एक पोस्टर ने मन में ट्रेकिंग पर जाने की प्रबल इच्छा जाग्रत कर दी। हमने अपने कई साथियों से जिक्र किया लेकिन कोई चलने को तैयार नहीं हुआ। दो तीन साल तक यह सिलसिला चलता रहा। लेकिन अक्सर लोग जीवन व्यापन में इस कद्र व्यस्त रहते हैं कि इस तरह के शौक दूर दूर तक भी नहीं फटकते। डॉक्टर्स भी पेशे से ज्यादा अतिरिक्त धन कमाने  के लालच में दिन रात लगे रहते हैं।

आखिर जब कोई साथी न मिला तो हमें वह गाना याद आया -- चल अकेला , चल अकेला , चल अकेला। और हमने फैसला कर लिया कि कोई साथ दे या न दे , इस बार ट्रेकिंग पर अवश्य जाना है। सौभाग्य से ट्रेकिंग का आयोजन करने वाली संस्था -- ऐ ऐ पी -- कुशल ट्रेकर्स द्वारा चलाई जा रही थी जो प्रतिदिन एक बस भरकर पहाड़ों में लगाये गए सुनियोजित कैम्पस में ले जाते थे जहाँ से ट्रेकिंग आरम्भ होती थी।

निश्चित दिन रात के दस बजे पहाड़ गंज से बस रवाना हुई उत्तरकाशी क्षेत्र में -- हर की दून घाटी में ट्रेकिंग के लिए। बस में बैठने के एक घंटे के अन्दर ही कई लोगों से परिचय हो गया। शायद यहाँ हमें डॉक्टर होने का बहुत लाभ हुआ। इत्तेफाक से इस यात्रा में शायद हम ही उम्र में सबसे बड़े थे। अधिकतर कॉलेज के लड़के लड़कियां ही थे।

बेस कैम्प : 

बस ने हमें पुरुला से आगे आखिरी गाँव संकरी में उतार दिया जहाँ हमारा बेस कैम्प लगा था। यहाँ से हमें करीब ३६ किलोमीटर पैदल चलकर तीन दिन में हर की दून पहुँचना था।


                           

तैयार हैं ट्रेकिंग शुरू करने के लिए। युवाओं का साथ हो तो चुस्ती स्फूर्ति अपने आप आ जाती है।




मुस्कानें बता रही हैं कि अभी कोई भी नहीं थका है।




सारा ट्रेक टोंक नदी के साथ साथ है। लेकिन यहाँ एक बार नदी को पार करना पड़ता है। ज़रा सोचिये , यदि बाढ़ आ जाये तो कैसे फंस सकते हैं।
  



रास्ते में उस क्षेत्र का आखिरी गाँव पड़ता है --ओस्ला। यहाँ रहने वाले लोग खुद को कौरवों के वंसज मानते हैं। यहाँ अभी तक पौलीएंड्री ( एक से ज्यादा पति )की रिवाज़ है। ट्रेक गेहूं के खेत से होता हुआ।    




अब तक हम काफी ऊँचाई पर पहुँच चुके थे। दूर नदी का सफ़र साफ़ दिखाई दे रहा है।




रास्ते में नदी पार बहुत घना जंगल था। इस झरने तक पहुंचना लगभग असंभव था।
 



बर्फ से ढकी चोटियाँ दिखने का अर्थ था कि अब हम हर की दून घाटी में पहुँचने ही वाले थे।




ये हैं घाटी के चारों ओर बर्फीले पहाड़। सामने जो रास्ता दिखाई दे रहा है वह घाटी को पार कर हिमाचल के किन्नौर क्षेत्र में जाता है।




बर्फ में फिसलने के लिए एक पौलीथीन लेकर बैठ जाना होता है और यही आपकी स्लेज बन जाती है। लेकिन यह थोडा रिस्की भी है। एक साथी के घुटने में ट्विस्ट होने से चोट आ गई। सोचिये , बेचारा कैसे वापस आया होगा।  




बर्फीली चोटियाँ देखकर स्वर्ग जैसा अहसास हो रहा था।




तभी पता चला कि एक लाइन में जो पांच चोटियाँ दिखाई दे रही थीं, कहते हैं , यहीं से होकर पांडव सशरीर स्वर्ग को गए थे। इसलिए इन चोटियों को स्वर्ग रोहिणी भी कहते हैं।
 




अंतिम पड़ाव हर की दून घाटी में टोंक नदी के किनारे लगाया गया था। यह जगह बहुत खूबसूरत थी। बिल्कुल नदी किनारे लगाये गए टेंटों में सोने का इंतजाम था। रात भर नदी का कल कल शोर शायद सोने नहीं देता , लेकिन सब इतने थके होते हैं कि लेटते ही नींद आ जाती है।

लेकिन एक बात निश्चित है कि जैसा सैलाब अभी उत्तराखंड में आया है , वैसा यदि कभी वहां आ जाता तो निश्चित ही एक भी व्यक्ति जीवित नहीं बचता। ज़ाहिर है , ऐसे में सब भगवान भरोसे ही होता है। आखिर मनुष्य कितनी भी तरक्की क्यों न कर ले, भगवान से ज्यादा बलवान कभी नहीं हो सकता।

बेशक प्रकृति हमें जीवन देती है , अपार खुशियाँ देती है, लेकिन यदि हम पर्यावरण का ध्यान नहीं रखेंगे तो प्रकृति भी रुष्ट होकर अपनी ताकत का प्रदर्शन करती हुई मनुष्य को उसके किये की सज़ा अवश्य देती है। इसलिए प्रकृति की गोद में जाकर प्रकृति का सम्मान करना हम सब के लिए अति आवश्यक है।         


Thursday, June 27, 2013

एक बार फिर वो -- जो अब फेसबुकिया बन गए हैं।


अभी ब्लॉग पर अरविन्द मिश्र जी का लेख पढ़कर फिर वही मुद्दा मन में मचलने लगा कि क्यों ब्लॉगर्स ब्लॉगिंग छोड़कर फेसबुक आदि की ओर जा रहे हैं। लेकिन यह चर्चा यहीं जारी रहे। हमें तो कुछ दिन से फेसबुक पर सक्रियता से जो देखने को मिला , वह प्रस्तुत है इस हास्य व्यंग रचना के माध्यम से जिसमे हास्य कम, व्यंग ज्यादा नज़र आएगा लेकिन हालात पर खरा उतरेगा।  

१)

वो
सुबह सवेरे , मूंह अँधेरे
उठती है ,
चाय नाश्ता बनाकर
बच्चों को नहला धुलाकर,
टिफिन लगाती है,
बच्चों के साथ
बच्चों के पिता का।
फिर बिठा आती है, बच्चों को
स्कूल बस में ,
अच्छे नागरिक बनाने की चाह में।
फिर करती है
पति को बाय बाय
और बैठ जाती है खुद
सजने संवरने, नहा धोकर।
आखिर उसे भी तो काम पर लगना है।
९ से ५ तक का
क्या हुआ ग़र काम घर पर है ,
यही तो है कॉर्पोरेट कल्चर !
पढ़ती है, लिखती है, टिपियाती है
आँख बंद कर सैकड़ों
चटके लगाती है,
आखिर यह फेसबुकियाना भी
बड़ा चाटू काम है।
दिन भर के काम के बाद
चलो अब आराम किया जाये !
द्वार पर घंटी बजी है ,
अरे पति देव के आने का समय हो गया !
हे राम , अगले जन्म में पत्नि न बनाना
काम ही काम , एक मिनट का नहीं आराम !


२)

वो
सूट बूट पहन कर
फ्रेंच परफ्यूम लगाकर
बालों में करके तीन बार कंघी ,
बैठ जाता है सरकारी कुर्सी पर।
फ़ाइल से पहले खोलता है प्रोफाइल
फेसबुक पर ,
आखिर , स्टेटस अपडेट को
एक घंटा जो बीत गया है।
जाने कितने अपडेट, न्यूज, व्यूज
मिस हो गए होंगे।
ये मुआ दफ्तर भी इतना दूर क्यों है !
आजकल काम भी बहुत बढ़ गया है।
पी एम किसे बनाना है
कैसे चलेगा देश, दिन रात
सताती है यह चिंता।
अभी तो एक घंटा भी हुआ नहीं
कि बड़े साहब का आ गया बुलावा,
लगता है इन्हें देश की कोई चिंता नहीं।
अभी तो बीस लाइक और
चिपकाई हैं चालीस स्माइली,
कमेन्ट न दिए तो आयेंगे कहाँ से।
आखिर, एक हाथ ले, एक हाथ दे, का सिद्धांत
यहाँ से बेहतर कहाँ लागु होता है।
लेकिन यह सिद्धांत साहब को
जाने क्यों समझ नहीं आता है।
देश भक्तों की राहों में
हमेशा आई है रुकावटें ,
चलो फिर लग जाएँ फेसबुक पर
इस छोटे से मीटिंग ब्रेक के बाद।
सरकारी दफ्तर में, काम का आउट पुट
कहाँ निकल पाता है।
सुबह से लगा पायें हैं बस
बारह अपडेट्स।
उफ़ ये मीटिंग्स, लगता है
देश का विकास नहीं होने देंगी।
अब तो उठने में ही भलाई है ,
सरकार भी कहाँ देती है ओवर टाइम !
पत्नि जाने क्यों द्वार खोलने में
लगा रही है देर,
नादान ये भी नहीं जानती कि
पतिदेव थके हारे घर लौटे हैं।
चलो दफ्तर न सही, घर में ही
निपटाते हैं, काम !
आखिर , कॉपोरेट कल्चर अब
सरकारी काम में भी आ गया है।

 नोट : यह पोस्ट किसी व्यक्ति विशेष पर नहीं है। कृपया व्यक्तिगत रूप में न लिया जाये।


Saturday, June 22, 2013

आधुनिक मनुष्य का पर्वतों पर हल्ला बोल अभियान स्वयं मनुष्य के लिए घातक सिद्ध हो रहा है----


हमारे देश में लोगों की धार्मिक आस्था उनके जीवन में बड़ा महत्त्व रखती है। इसी विश्वास के सहारे सभी उम्र के लोग अपनी मनोकामना पूर्ण करने के लिए दुर्गम स्थानों पर बने मंदिरों और अन्य धार्मिक स्थलों की ओर सदैव अग्रसर रहते हैं। हिन्दुओं में विशेषकर चार धाम यात्रा का विशेष महत्त्व माना गया है। उत्तराखंड राज्य में स्थित यमनोत्री , गंगोत्री , केदारनाथ और बद्रीनाथ मिलकर चार धाम कहलाते हैं।

चारों धाम करीब ११००० फुट से ज्यादा की ऊँचाई पर बर्फ से ढके पहाड़ों के बीच बने हैं। ये स्थान देश की दो मुख्य नदियों के उद्गम स्थल हैं। जहाँ उत्तरकाशी में यमनोत्री से यमुना का उद्गम होता है , वहीँ गंगोत्री से भागीरथी , केदारनाथ से मन्दाकिनी और बद्रीनाथ से अलकनंदा निकलती हैं जो अंतत: देवप्रयाग में मिलकर गंगा बन जाती हैं।

हर वर्ष हजारों लोग इन स्थानों की यात्रा के लिए जाते हैं। हालाँकि अधिकांश प्रौढ़ और बुजुर्ग लोग यहाँ सिर्फ श्रद्धा भावना से प्रेरित होकर तीर्थ यात्रा करने आते हैं, लेकिन युवा वर्ग अक्सर घूमने और एडवेंचर करने के लिए भी जाते हैं। ऊंचे पर्वतों पर कठिन सड़क यात्रा कर यहाँ पहुँचने के लिए बहुत मुश्किलों का सामना करना पड़ता है जो कभी कभी जान लेवा भी हो जाता है। फिर भी भक्तों और सैलानियों के उत्साह में कोई कमी नहीं होती क्योंकि यहाँ आकर जो अलौकिक दृश्य देखने को मिलते हैं और जिस स्वर्गिक अहसास की अनुभूति होती है , वह शब्दों में बयाँ करना असंभव सा है।

अभी हाल में हुई प्राकृतिक त्रासदी को देखकर हमें अपनी १९९० की दो धाम यात्रा याद आ गई जब हम तीन मित्र पौड़ी गढ़वाल से होकर केदारनाथ और बद्रीनाथ की यात्रा कर सकुशल आये थे। दुर्गम रास्तों से होकर यह सड़क यात्रा वास्तव में बहुत रोमांचक लेकिन साहसपूर्ण होती है। सावधानी हटी नहीं कि दुर्घटना घटी। लेकिन कभी कभी पूर्ण सावधानी के बावजूद प्रकृति अपना प्रकोप दिखा देती है और मनुष्य असहाय हो जाता है। आइये देखते हैं , उन स्थानों को जहाँ आज हजारों यात्री या तो फंसे हुए हैं या दबे पड़े हैं :                   




देव प्रयाग :

यात्रा आरम्भ होती है हृषिकेश में मुनि की रेती से जहाँ से आपको यात्रा के लिए बस , टैक्सी या वैन किराये पर मिल जाती है। यहाँ से एक सड़क नरेन्द्र नगर की ओर जाती है जो अंतत : चंबा नामक शहर को जाती है जहाँ टिहरी डैम बना है। दायीं ओर की सड़क गंगा के साथ साथ ऊपर की ओर जाती है। करीब ६० किलोमीटर की दूरी पर है देव प्रयाग जहाँ गंगोत्री से आने वाली भागीरथी ( चित्र में बायीं ओर ) और अलकनंदा मिलकर गंगा बनती हैं। दोनों नदियों के संगम पर खड़े होकर देखें तो पानी का रंग और बहाव बिल्कुल अलग नज़र आता है।

देव प्रयाग के बाद सड़क अलकनंदा के साथ साथ चलती है। अधिकांश रूट पर सड़क पहाड़ को काट कर बनाई गई है और नदी सैकड़ों फुट नीचे बहती हुई बड़ी खतरनाक लगती है। इस रूट पर शाम ७ बजे के बाद गाड़ियों का आना जाना मना है। रास्ते में श्रीनगर नाम का क़स्बा आता है जो एक घाटी में बसा है। लेकिन इसके बाद फिर सड़क बेहद खतरनाक रास्तों से होकर रूद्रप्रयाग पहुंचती है जहाँ केदारनाथ से आने वाली मन्दाकिनी और अलकनंदा का संगम है। यहाँ से मन्दाकिनी के साथ आप पहुँच जायेंगे गौरीकुंड जो केदार के लिए अंतिम मोटरेबल रोड है। यहाँ से १४ किलोमीटर की ट्रेकिंग कर आप पहुंचेगे केदार नाथ मंदिर।



रास्ता यूँ तो काफी चौड़ा था लेकिन पथरीला और ऊबड़ खाबड़ था। बहुत से लोग घोड़े और खच्चर किराये पर लेकर सफ़र करते हैं जो सुविधाजनक कम और कष्टदायक ज्यादा होता है लेकिन पैदल चलने से बचाता है।



रास्ते में उस समय एक ही दुकान मिली थी जहाँ चाय और कुछ खाने का सामान मिला था।



और यह है केदार नाथ मंदिर जो ६ फुट ऊंचे चबूतरे पर बना है जिसकी वज़ह से मंदिर बाढ़ से बच पाया। मंदिर के दायें और बाएं अनेकों धर्मशालाएं बनी थी जो अपने अपने राज्यों या समर्थकों को बुलाकर रहने के लिए जगह देती थी । किराया कोई नहीं था लेकिन दान के लिए मनाही नहीं थी।

एक दिलचस्प बात यह थी कि चित्र में दायीं ओर एक १५ फुट ऊंचा बोर्ड लगा था जिस पर पूजा की विभिन्न किस्में और उनके रेट लिखे थे। सबसे नीचे साधारण पूजा मात्र ५ रूपये की , सबसे ऊपर महाराजा डीलक्स पूजा की थाली का रेट ५०००० रूपये था। बीच में ५ से लेकर ५०००० तक के बीसियों रेट। हमने ५ वाली थाली हाथ में पकड़ी थी।




यह है मंदिर की पिछवाड़े का द्रश्य जो मन्दाकिनी का उद्गम स्थल भी है। चित्र में आप देख सकते हैं कैसे छोटी छोटी धाराओं से मिलकर पूरी नदी बनती है।




देखने में यह पहाड़ ज्यादा ऊंचा नहीं लग रहा। हमें लगा था कि भाग कर चढ़ जाएँ और देखें कि क्या है उस पार। लेकिन इतना आसान नहीं था जितना लग रहा है। शायद इसी के पीछे है वह ताल जिसमे बाढ़ आई होगी, वो बाढ़ जिसने हजारों लोगों को अपनी चपेट में ले लिया होगा। मंदिर के पीछे का पहाड़ एक कटोरे नुमा सा है। यानि तीन ओर पहाड़ और सामने नीचे उतरती घाटी।

मंदिर के दोनों ओर अनेक धर्मशालाएं बनी थी। इन्ही में से किसी एक में हमने एक रात गुजारी थी।
धर्मशाला में साधारण लेकिन आराम का सारा प्रबंध था। कडकडाती ठण्ड में गर्मागर्म चाय का मिलना एक स्वर्गिक अहसास था।

२ ० १ ३ : 




चित्र नेट से


लेकिन अभी अचानक आई बाढ़ ने सब तहस नहस कर दिया। कितने ही मुस्कराते चेहरे सदा के लिए पहाड़ों के मलबे में दफ़न हो गए। पलक झपकते ही यह देवभूमि शमशान में परिवर्तित हो गई। मंदिर के पीछे यही वो जगह है जहाँ हम खड़े थे लेकिन अब वहां बड़े बड़े पत्थर पड़े हैं। हालाँकि इन पत्थरों ने मंदिर को क्षतिग्रस्त होने से बचा लिया लेकिन पानी का बहाव दोनों ओर मुड़ने से सारी धर्मशालाएं ध्वस्त हो गई। चित्र में दायीं ओर की किसी धर्मशाला में हम ठहरे थे।       

यात्रा :

इस खूबसूरत लेकिन खतरनाक यात्रा में सब भगवान भरोसे ही चलता है। कब कोई पत्थर आ गिरे, यह कोई नहीं जानता। बरसात के दिनों में विशेषकर ऐसी घटनाएँ बहुत आम हैं। जहाँ पेड़ पौधे कम होते हैं , वहां बारिस के बाद मिट्टी और पत्थर की पकड़ कम हो जाती है। ऐसे में भूस्खलन होने की सम्भावना बहुत बढ़ जाती है। भूस्खलन से सड़क मार्ग अवरुद्ध हो जाता है।

लेकिन सबसे भयंकर है बादल का फटना , यानि बहुत ही कम समय में मूसलाधार बारिस से पहाड़ों में बाढ़ का आ जाना। ऐसे में बचने के लिए समय ही नहीं मिल पाता। साथ ही पानी का बहाव इतना तेज होता है कि वह अपने साथ हर चीज को बहा ले जाता है। ऐसे में यदि कोई आपको बचाता है तो वह है आपकी किस्मत। इसीलिए यहाँ सब बस भगवान भरोसे ही चलता है।

नोट : इस प्राकृतिक विपदा में अभी भी हजारों की संख्या में तीर्थ यात्री व स्थानीय लोग फंसे पड़े हैं। हम सब से जो भी बन पड़े , हमें अवश्य करना चाहिए।   


Wednesday, June 19, 2013

बिन पकौडे बिन चाय, जीवन नहीं है, क्या करें आज बीबी जो घर पर नहीं है।


कई दिनों से लग रहा था कि कई महीनों से श्रीमती जी मायके क्यों नहीं जा रही। आखिर साल में दो चार दिन तो पतिदेव के भी होने ही चाहिए आज़ादी के। लेकिन अब समझ में आ रहा है कि महिलाओं की मायके जाने की टाइमिंग बड़ी ज़बर्ज़स्त होती है। उनका मायके जाने का अपना ही हिसाब होता है जो हम मर्दों को समझ नहीं आ सकता।

इस सप्ताहं जब पत्नि का प्रोग्राम बन ही गया तो अपनी तो बांछें खिल गई। सोचा एक अरसे बाद होम अलोन का आनंद आएगा। आया भी लेकिन दो दिन तक। उसके बाद घर में ही होम सिकनेस सी होने लगी। लेकिन हमने बड़ी बहादुरी के साथ पत्नि को विश्वास दिलाया था कि हम घर और खुद को भली भांति संभाल लेंगे। फिर भी श्रीमती जी ने ऑफर दिया था कि फ्रिज तो खाने के सामान से भरा पड़ा है , बस रोटियों की ज़रुरत पड़ेगी जो वो भिजवा सकती हैं। लेकिन यह तो हमारे पौरुष को चुनौती थी इसलिए हमने भी बड़ी शान से कहा कि अज़ी हमने अपनी तीन पीढ़ियों को खाना बनाकर खिलाया है। आखिर पूर्णतय: गृह कार्य में दक्ष होने का दम यूँ ही नहीं भरते हैं। फिर रोटियां बनाना कौन मुश्किल काम है।

फिर भी श्रीमती जी ने हिदायत देते हुए समझाया कि आटा गूंधने के लिए मिक्सी में कितना आटा डालना है और कितना पानी। अच्छी तरह से समझकर हमने उन्हें विश्वास दिलाया कि हमें कोई परेशानी नहीं होने वाली , वो बेफिक्र रहें। शाम को उनके बताये मार्ग पर चलते हुए जब हमने कार्यवाही आरंभ की तो कुछ देर चलने के बाद मिक्सी बेकाबू सी होने लगी। कभी तेज होती , कभी सुस्त। हमने सोचा , यह तो श्रीमती जी के सामने भी ऐसे ही व्यवहार करती थी , इसलिए थोड़ी देर में चुप हो जाएगी। लेकिन वो ऐसे चुप हुई कि फिर चलने का नाम ही नहीं लिया। खोलकर देखा तो आटा भी ऐसी हालत में था कि अच्छे से अच्छा कुक या शैफ़ भी उसे काबू में न कर पाए। अब तो हम भी समझ चुके थे कि आज तकनीक के आगे हमारी हार हुई है। क्योंकि हमने आटा गूंधने के लिए मिक्सी में गलत अटेचमेंट लगा दिया था जिससे न सिर्फ काम नहीं हुआ बल्कि मिक्सी की मोटर भी जल गई। 

अंतत: हमें अपने पुराने तरीके से ही काम चलाना पड़ा, आटा गूंधने के लिए। हालाँकि रोटियां बनाने में तो हमारा कोई ज़वाब नहीं लेकिन आधुनिकता के सामने पारम्परिकता की तो हार ही हुई। अब इंतजार है श्रीमती जी के आने का और यह बुरी खबर सुनाने का।

लेकिन रविवार को जब मौसम ने अंगडाई ली और जमकर बारिश होने लगी तब होम अलोन ने नया मोड़ लिया। घर की बालकनी में बैठ , गोद में लैप टॉप रख जो जम कर अकेले पिकनिक मनाई तो आनंद आ गया।आइये इस अवसर पर एक पैरोड़ी जो बनी , उसका मज़ा लेते हैं :


लगी आज बारिश की फिर वो झड़ी है ,
वही चाह पीने की फिर जल पड़ी है। 

बिन पकौडों के चाय स्वादिष्ट नहीं है,
क्या करें आज बीबी भी घर पे नहीं है।----


कभी ऐसे दिन थे के हाथों से अपने 
बना के पिलाई थी गर्म चाय तुमने। 
वहीं तो है डब्बा मगर नहीं पत्ती ,
कटोरी भी चीनी की खाली पड़ी है ! 


पता आज चला जब ढूँढा जो हमने 
कोई चीज़ घर में कहाँ पर पड़ी है।  

बिन पकौडों के चाय स्वादिष्ट नहीं है,
क्या करें आज बीबी भी घर पे नहीं है।-----



कोई काश आकर बना दे पकोड़े 
खा ले भले ही खुद भी वो थोड़े। 
मगर ये हैं  मुश्किल बड़ी हालातें,  
हम तड़पे यहाँ ये किसको पड़ी है। 


बिन घरवाली  मालिक  बना कामवाला 
आज बाई भी बारिश में फंस के खड़ी है।  


बिन पकौडे बिन चाय, जीवन नहीं है,
क्या करें आज बीबी जो घर पर नहीं है।


लगी आज बारिश की फिर वो झड़ी है ,
वही चाह पीने की फिर जल पड़ी है। -------


नोट : जैसे बिन बारिश के सावन नहीं , वैसे ही बिन बीबी के घर घर नहीं होता।             


Saturday, June 15, 2013

कितने पास , कितने दूर -- ट्रेक टू ट्रीउंड ।


यूँ तो हर पर्वतीय पर्यटन स्थल की तरह धर्मशाला में भी कई ट्रेक्स हैं जहाँ आप ट्रेकिंग का शौक पूरा कर सकते हैं। लेकिन एक ट्रेक जो आम सैलानियों में बहुत लोकप्रिय है , वह है  ट्रीउंड का ट्रेक। धर्मशाला से १० किलोमीटर दूर है मैकलॉयड गंज जहाँ से डेढ़ किलोमीटर पर धरमकोट और ३ किलोमीटर आगे गलू मंदिर है जहाँ तक गाड़ी जा सकती है। गलू मंदिर से ट्रीउंड का ट्रेक शुरू होता है जो ७ किलोमीटर लम्बा है। ट्रीउंड से स्नो लाइन शुरू होती है यानि यह बर्फीले पहाड़ों की तलहटी में स्थित है। यहाँ टूरिज्म विभाग का एक रेस्ट हाउस बना है तथा ठहरने के लिए टेंट भी आसानी से किराये पर मिल जाते हैं।


पिछली बार १८ साल पहले जब यहाँ आए थे तब बच्चे छोटे थे। फिर हमने गलू मंदिर तक ही ४ - ५ किलोमीटर पैदल चलकर रास्ता तय किया था। इसलिए ऊपर जाने की सम्भावना ख़त्म हो गई थी। इसलिए हमने यहीं रूककर पिकनिक मनाई। उन दिनों माधुरी दीक्षित की एक फिल्म आई थी -- राजा -- जिसमे एक गाना था -- अँखियाँ मिली , दिल धड़का , मेरी धड़कन ने कहा , लव यु राजा -- इस गाने पर बिटिया ने बढ़िया डांस किया और हमने भी उसे देखकर स्टेप मिलाने की कोशिश की थी। ये सब यादें मन में लिए इस बार हमने ट्रेक पूरा करने का निर्णय लिया।

टूरिज्म विभाग में गए तो कोई नहीं मिला। लेकिन केयरटेकर ने हमें देखकर कहा कि साब आप तो दोनों फिट हैं , ट्रेकिंग पर जा सकते हैं। लेकिन बिना गाइड के मत जाइये। पता चला गाइड का खर्च था ८०० रूपये प्रति व्यक्ति जिसे सुनकर हमें बड़ी हंसी आई। हमने श्रीमती जी से कहा -- चलिए आप ट्रेकर बनिए और हम गाइड। आखिर हमने बड़े बड़ों को घुमाया है।  




हमने एक गाड़ी किराये पर ली और पहुँच गए गलू मंदिर। वहीँ जहाँ से पिछली बार वापस मुड़ लिए थे लेकिन इस बार तैयार थे आगे बढ़ने के लिए।




आरम्भ में रास्ता बड़ा सुगम था। हलकी सी चढ़ाई थी और घने पेड़ों की छाया थी।




लेकिन फिर रास्ता पथरीला होने लगा और धूप भी लगने लगी। ट्रेकिंग पर जाने के लिए आपके कपड़े और जूते हल्के और आरामदायक होने चाहिए। कभी भी नए कपड़ों और जूतों में ट्रेकिंग न करें। साथ ही ज़रूरत का सामान एक रकसक में रख लेना चाहिए, विशेषकर खाना और पानी।  




रकसक को कमर पर बांधने का भी एक विशेष तरीका होता है जिससे चलने में कठिनाई नहीं होती।
इस फोटो में कुछ विशेष दिखाई दिया ? 

करीब सवा घंटा चलने के बाद हम पहुँच गए मिड पॉइंट पर यानि ७ किलोमीटर का आधा रास्ता तय हो गया था। देखा जाए तो यह स्पीड बड़ी अच्छी ही कहलाएगी। लेकिन एक तो हमने ट्रेकिंग शुरू की ११ बजे जबकि हमें बताया गया था कि एक दिन में वापस आना है तो सुबह ७ बजे तक शुरू हो जाना चाहिए। दूसरे हम गाड़ी लेकर आए थे और ड्राइवर को रुकने के लिए कहा था ३ घंटे, यह कहकर कि हम डेढ़ घंटे की ट्रेकिंग के बाद वापस मुड़ लेंगे। ऊपर से अब बादल छाने लगे थे और हल्की हल्की बारिस शुरू हो गई थी। इसलिए सोच में पड़ गए कि क्या करना चाहिए।    



मौसम अब बहुत खुशगवार हो गया था। चाय की इच्छा थी और सामने चाय की सबसे पुरानी दुकान।




२५०० मीटर की ऊँचाई पर बनी दुकान में बैठकर चाय पीने का मज़ा आ गया। चाय वाले ने चाय भी बहुत बढ़िया बनाई और पूरा गिलास भरकर पिलाई। हमारी नज़र कहाँ है ,  आइये अब यह देखते हैं।




जी हाँ , यही वो जगह है जहाँ हमें जाना था -- ट्रीउंड। साढ़े तीन किलोमीटर की दूरी से भी गेस्ट हाउस साफ दिखाई दे रहा था।  इतना पास , फिर भी इतना दूर।




आगे का रास्ता ज्यादा पथरीला दिख रहा था। ऊपर की ओर जाने वाले और लौटने वाले लगभग सभी लोग एक रात रुकने का प्रोग्राम बना कर आये थे जिनमे आधे से ज्यादा फिरंगी थे। हमें लगा कि वापस आने वाले हम अकेले ही रह जायेंगे। फिर शाम और बारिस , दोनों ही विपरीत परिस्थितियां बन रही थी। इसलिए अंतत: यही निर्णय लिया कि इस बार यहीं से मुड़ लिया जाये।

लेकिन मन में तय किया कि अगली बार जल्दी ही लौटेंगे और रात को ट्रीउंड में ही रुकेंगे। इस फैसले के साथ ही हम लौट पड़े वापसी के लिए।            




एक ही फोटो में -- ऊपर बायीं ओर एक मंजिल जो पानी थी , नीचे दायीं ओर मंजिल जो पा सके। फासला साढ़े तीन किलोमीटर का।  




रास्ते में ऊँचाई से बड़े मनमोहक दृश्य दिखाई दे रहे थे। यह वही झरने वाली नदी है जहाँ दो दिन पहले गए थे। दायीं ओर नज़र आ रहा है भाग्सू नाथ मंदिर वाली जगह।



इस फोटो में -- दायीं ओर धरमकोट जहाँ अधिकतर विदेशी पर्यटक महीनों तक पेईंग गेस्ट बन कर रहते हैं। बायीं ओर है भाग्सू मंदिर वाला क्षेत्र , मध्य में  मैकलॉयड गंज और दूर क्षितिज में बायीं ओर धर्मशाला शहर।



और इस तरह पूरा हुआ हमारा ट्रीउंड का अर्ध ट्रेक। लेकिन ३ घंटे में ७ किलोमीटर का पहाड़ी सफ़र तय कर भी हम तरो ताज़ा महसूस कर रहे थे।    


ट्रेकिंग के लिए कुछ टिप्स : 

* ट्रेकिंग पर जाने से पहले कम से कम १५ दिन पहले रोजाना आधे घंटे तक ब्रिस्क वॉक करें ताकि स्टेमिना बन सके।
* एक बार डॉक्टर से जाँच ज़रूर करा लें , विशेषकर जिन्हें शुगर या बी पी का रोग है।
* सामान कम से कम रखें लेकिन खाने पीने का सामान उचित मात्रा में ज़रूर रखना चाहिए।
* धीरे चलें लेकिन स्पीड मेंटेन रखें।
* एक बार में २ - ४ मिनट का ही रेस्ट लें।
* पानी पीते रहें लेकिन एक बार में दो सिप से ज्यादा नहीं।
* ट्रेकिंग के दौरान पर्यावरण का ध्यान रखें। कोई भी प्लास्टिक वस्तु रास्ते में न फेंके, बल्कि अपने बैग में डालकर वापस ले आयें।
*रास्ते में आने वाले द्रश्यों का अवलोकन कर आनंद उठायें।

नोट : ट्रेकिंग पर जाने के लिए फिजिकल फिटनेस का होना अत्यंत आवश्यक है। लेकिन यह भी सच है कि यदि आप पहाड़ों में पैदल घूमने के शौक़ीन हैं तो फिटनेस अपने आप आ जाएगी।   



Wednesday, June 12, 2013

धर्मशाला में मिनी तिब्बत -- मैक्लौड़ गंज -- १८ साल बाद।


धर्मशाला में पर्यटकों के लिए मुख्य आकर्षण मैक्लौड गंज में हैं जहाँ तिब्बत की निष्कासित सरकार का मुख्यालय है और दलाई लामा का निवास स्थान भी। यह स्थान मुख्यतय: तिब्बतियों द्वारा ही आवासित है। यहाँ सैलानी भी ९० % विदेशी ही नज़र आते हैं। लेकिन आस पास के क्षेत्रों की प्राकृतिक सुन्दरता बहुत मनमोहक है। यहाँ घूमने के लिए आपको टैक्सी करनी पड़ेगी जो आपको सभी स्थानों पर घुमा देगी।

भाग्सू नाथ मंदिर : 

चौक से करीब डेढ़ किलोमीटर पर यह बहुत भीड़ भाड़ वाला स्थल है जहाँ पहली बार हम पैदल गए थे लेकिन इस बार गाड़ियों का जमावड़ा देखा। सैलानी भी मंदिर में कम और बाहर का आनंद ज्यादा लेते नज़र आ रहे थे।      



पहाड़ों में खुला स्विमिंग पूल देखकर बड़ा अचम्भा सा लग रहा था।




लेकिन यहाँ का मुख्य आकर्षण था एक झरना जो करीब एक किलोमीटर दूर था। , हालाँकि झरने में पानी बहुत कम था लेकिन ट्रेकिंग का अपना ही मज़ा होता है ।



इसे देख कर मसूरी के कैम्पटी फाल की याद आ रही थी।




पिछली बार यहाँ तक नहीं जा पाए थे , इसलिए हमने भी खूब मस्ती की।




रास्ते में इस विश्रामालय का हमने भी भरपूर उपयोग किया।




पर्वतों की वादियों में इस सफ़ेद मूंछों वाले सारंगी वादक ने भी समां बांध रखा था।

डल लेक :

भाग्सू मंदिर के बाद नंबर आता है डल लेक का। यह शहर से करीब १० किलोमीटर बाहर ऊंचाई पर है। लेकिन यह झील जितनी डल १८ साल पहले थी , अभी भी उतनी ही डल लगी। शायद यह प्रशासन की कमजोरी ही थी जो इतने खूबसूरत स्थल पर कोई सुधार नज़र नहीं आ रहा था। ज़ाहिर था कि हम अपनी प्राकृतिक सम्पदा का कोई लाभ नहीं उठा पा रहे। यदि यहाँ पानी के बहाव को नियंत्रित कर झील में डाला जाये तो शायद यह झील भी साथ के देवदार के पेड़ों जैसी खूबसूरत दिखे।                




नाडी पॉइंट :

डल लेक से थोडा आगे एक स्पॉट था जहाँ से चारों ओर की घाटियाँ बेहद खूबसूरत नज़र आती थी। पिछली बार जब यहाँ आए तब यहाँ दो चार मकान ही बने थे। ऐसा लगा था जैसे पृथ्वी पर स्वर्ग उतर आया हो। लेकिन अब वहां पूरा शहर बस गया था। एक तरह से कंक्रीट जंगल सा लग रहा था। हमारी यादों में एक स्थान बसा था     जहाँ बारिस से बचने के लिए हमारे साथ एक बकरी भी बैठ गई थी। तब वहां बस यही एक ईंटों का बना आशियाना सा था जहाँ से प्राकृतिक द्रश्यों का आनंद लिया जा सकता था।

यादों में डूबे हुए हम उस स्थान को ढूंढते रहे। लेकिन ऐसा लग रहा था जैसे कुम्भ के मेले में किसी खोये हुए बच्चे को ढूंढ रहे हों। परन्तु हम पर भी धुन सवार थी। आखिर हमने उस स्पॉट को ढूंढ ही लिया। और याद भी आ गया कि वह वर्षाश्रालय ही था। लेकिन आज १८ साल बाद भी वैसा का वैसा।          


बस फर्क था तो यह कि अब उसके आस पास कई दुकाने खुल गई थी। लेकिन उसकी हालत में कोई सुधार नहीं था। ठीक वैसे लगा जैसे किसी गाँव के झुम्मन चाचा के ज़र्ज़र चेहरे को वर्षों बाद देखकर लगता है । लेकिन इस जगह आकर बहुत सुकून मिला।




हालाँकि, दूर पहाड़ों की हरियाली और खूबसूरती अभी भी देखने लायक थी।

मैक्लौड़ गंज : 

अंत में इस छोटे से कसबे से होकर वापस आने का एक तरफ़ा रास्ता है। यहाँ बाज़ार में लगभग सारी दुकाने  तिब्बतियों की हैं। यह देख कर हैरानी हो रही थी कि १८ साल पहले भी इन दुकानों पर १८ वर्षीया तिब्बती बालाएं बैठी होती थी और आज भी वहां वही १८ वर्ष की कन्यायें ही दिख रही थी। लगा जैसे वक्त ठहर सा गया हो।  
   



बाज़ार में तिब्बती म्यूजियम / गोम्पा।

तिब्बती मंदिर : 

पिछली बार हम इसके अन्दर नहीं गए थे। लेकिन इस बार मंदिर के दर्शन कर आए। यहाँ दलाई लामा का प्रवचन चल रहा था लेकिन हमारे जाने तक ख़त्म हो चुका था। इसलिए बस देखकर ही संतोष करना पड़ा।




कहते हैं , इन चरखियों को एक बार घुमाने से एक लाख मन्त्रों का फल मिलता है। इसलिए सभी बौद्ध भिक्षु  इन्हें घुमाते हुए नज़र आते हैं। कुछ भी हो , लेकिन एक ही तरह की पोशाक पहने  युवा भिक्षुओं को देखकर थोडा अज़ीब सा लगता है। धर्म हमें जीने का सही रास्ता दिखाता है, लेकिन धर्म ही जीवन है, ऐसा तो नहीं।

नोट:  अगली पोस्ट में ट्रेकिंग का मज़ा आएगा।       




Monday, June 10, 2013

दिल कहे रुक जा रे रुक जा , यहीं पे कहीं -- धर्मशाला रीविजिटेड -- १८ साल के बाद।


दिल्ली से बाहर निकल पहाड़ों की ओर रुख पहली बार मेडिकल कॉलेज के तृतीय बर्ष की छुट्टियों में हुआ था। पहली ही नज़र में जैसे पहाड़ों से प्यार सा हो गया था। शादी के बाद तो गर्मियों में यह नियम सा ही बन गया। दिल्ली जैसे बड़े शहर में बढती जनसँख्या का प्रभाव सबसे ज्यादा पड़ता है। इसलिए कुछ दिनों के लिए स्वच्छ वातावरण में साँस लेना और भी आवश्यक हो जाता है।

इस वर्ष कार्यक्रम बना हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला का , जहाँ पहली और आखिरी बार १८ साल पहले जाना हुआ था। तब एक मित्र की नई नई शादी के बाद हम भी बच्चों समेत यहाँ पधारे थे। उस वर्ष पैदा हुए बच्चे अब व्यस्क होकर और वोट का अधिकार पाकर देश के भाग्य विधाता बनने लायक हो गए हैं। इसी तरह इस बीच धर्मशाला में भी कितना कुछ बदल गया है , इस बारे में अगली पोस्ट में बात करेंगे। फ़िलहाल तो आइये देखते हैं , पहाड़ों की खूबसूरती जो बरबस किसी का भी मन मोह सकती है और मन मयूर नाचने लगता है।

दिल्ली से धर्मशाला जाने के लिए सर्वोत्तम साधन है , वॉल्वो बस यात्रा। शाम ७ बजे चलकर सुबह ६ बजे पहुँच जाती है , हालंकि देर से चलना जैसे इनका नियम सा है। बाहर से अत्यंत सुन्दर दिखने वाली वॉल्वो बस अन्दर से भी उतनी ही सुन्दर और आरामदेह हो , यह कतई आवश्यक नहीं। फिर भी , यह हवाई यात्रा का बढ़िया विकल्प है। यह अलग बात है कि सुबह ६- ७ बजे पहुँच कर होटल में चेक-इन की समस्या हो सकती है।

धर्मशाला शहर की समुद्र तल से ऊँचाई मात्र १२५० मीटर होने से यहाँ आपको गर्मी मिल सकती है लेकिन इतनी नहीं जितनी दिल्ली में। वैसे भी पर्यटकों के लिए यहाँ विशेष कुछ नहीं है। यहाँ का असली आकर्षण है मैक्लौड गंज जो धर्मशाला से करीब १० किलोमीटर दूर १९०० मीटर की ऊँचाई पर होने से अपेक्षाकृत ठंडा महसूस होता है। साथ ही यहीं के आस पास कई खूबसूरत पर्यटन स्थल हैं जो मन को सकूं प्रदान करते हैं।   

ठहरने के लिए हमारा आशियाना था स्टर्लिंग रिजॉर्ट जो धर्मशाला से करीब १ किलोमीटर दूर पालम पुर जाने वाली सड़क से बाएं मुड़कर एक नदी किनारे बहुत ही खूबसूरत वादी के बीच बना है। ढाई किलोमीटर लम्बी सड़क के साथ साथ बहती नदी अंत में एक पहाड़ की तलहटी पर पहुँच कर अपना रुख मोड़ लेती है और सड़क नदी को पार कर दूसरी ओर से वापस मुड़ लेती है। इस तरह नदी के दोनों ओर सड़क के साथ साथ कई गाँव बसे हैं जो अब शहरीकृत हो चुके हैं। अब यहाँ सेवा निवृत लोगों ने सुन्दर बंगले और  कॉटेज बना रखे हैं। देखा जाये तो यह स्थान शांतिपूर्ण सेवा निवृत जीवन व्यतीत करने के लिए सर्वोत्तम प्रतीत होता है।  



स्टर्लिंग रिजॉर्ट की पार्किंग और अधिकारिक निवास अवम कार्यालय। प्रष्ठभूमि में धौलाधार रेंजिज जो कभी बर्फ से ढकी होती थी लेकिन अब बर्फ नाममात्र को दिखाई दे रही थी। दायीं ओर रिजॉर्ट बना है जिसके बाद नदी है।    




यह रिजॉर्ट एक होटल के रूप में है लेकिन रिजॉर्ट की सभी सुविधाएँ यहाँ उपलब्ध हैं। एक तरफ कमरों से धौलाधार चोटियाँ नज़र आती हैं जबकि पीछे की ओर बने कमरों से नदी का शानदार नज़ारा। पहले दिन नदी में पानी ज्यादा नहीं था लेकिन अगले दिन हुई बारिस की वज़ह से अचानक नदी में बहुत सारा पानी एक साथ आ गया। यहाँ पानी में जल क्रीड़ा कर रहे कई पर्यटकों को जान बचाकर भागना पड़ा क्योंकि पानी का बहाव एकदम तेज हो गया था और पानी भी गदला हो गया था।
पहाड़ी नदियों में नहाते समय यह ध्यान अवश्य रखना चाहिए कि बारिस के समय नदी से दूर रहें। ऐसे में कब अचानक पानी का बहाव तेज हो जाये , पता ही नहीं चलेगा और दुर्घटना हो सकती है।    

 
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नदी के उत्तर की ओर का नज़ारा। बारिस के बाद मौसम साफ होने पर पहली बार बर्फीली चोटियाँ नज़र आई।  




रिजॉर्ट के आगे से जाने वाली सड़क करीब १ किलोमीटर तक जाती है जिस के साथ बने हैं अनेकों मकान। फोटो में जो बिल्डिंग नज़र आ रही है वह सरकारी लॉ कॉलेज है जो अभी चालू नहीं हुआ है लेकिन द्रश्य को भव्यता प्रदान कर रहा है।
  



आगे जाकर ऊँचाई से दक्षिण की ओर देखने पर यह नज़ारा मन मोह लेता है।




इसे देख कर हमें कनाडा के क्यूबेक शहर की याद आ गई।




यह सड़क ऊपर की ओर गावों में जाती है। अक्सर शाम को यहाँ गावों के लोग पिकनिक मनाते हुए नज़र आते हैं। कहीं कोई युवक गिटार पर धुन बजाता हुआ, कहीं अबोध बालाएं मासूमियत से खीं खीं करती हुई। प्रोढ़ महिलाएं बोतलों और जरिकेन में नदी से पीने का पानी लाती हुई। कुल मिलाकर यहाँ शाम का समय अद्भुत होता है ।

   



शाम ढलने को है। सूरज की अंतिम किरणें अब बस चोटियों को चूम रही हैं।  





सूर्यास्त का एक नज़ारा। फिर सब चल पड़ते हैं अपने अपने घरों की ओर और हम अपने होटल की ओर।  

इस जगह पर आकर जो शांति और मन को सकून मिला वह बड़े शहरों के आलिशान होटलों और भव्य भवनों में कभी नहीं मिलता। बारिस के बाद तो मन जैसे स्वत: गाने लगा फिल्म -- मन की आँखें -- का धर्मेन्द्र पर फिल्माया और लक्ष्मी कान्त प्यारे लाल का संगीतबध किया यह सुन्दर गीत जिसके बोल किस गीतकार ने लिखे हैं , यह जान नहीं पाया। लेकिन रह रह कर यह याद आता रहा और हमने भी कोशिश की इस माहौल पर एक कविता लिखने की।  लेकिन हम कोई साहित्यकार नहीं , इसलिए लफ़्ज़ों की खूबसूरती को बस तलाशते ही रह गए। आइये सुनते और देखते हैं यह सुरीला तराना , मोहम्मद रफ़ी की आवाज़ में :     


वीडियो नेट से साभार।

नोट : अगली पोस्ट में धर्मशाला के कुछ सुन्दर स्थलों की सैर करना न भूलें।