छुट्टियाँ हों और दिल्ली की गर्मी और भीड़ भाड़ से दूर किसी पर्वतीय स्थल पर कुछ दिन के लिए निकल जाएँ तो तन और मन दोनों तरो ताज़ा हो जाते हैं , भले ही कुछ धन की कुर्बानी देनी पड़े। पेड़, पर्वत , नदिया और बादल मिलकर ऐसा समां बांधते हैं कि मन कविता करने को स्वत: आतुर हो उठता है।
पर्वत, नदिया और शाम का धूआं ,
ऐसे में कवि मन रहे बस में कहाँ।
शहर की भागमभाग से कहीं दूर,
कितना रोमांटिक है ये सारा जहाँ।
प्रेमासक्त हो नागिन सी लहराई सी,
किसी षोडशी ने ली ज्यों अंगडाई सी।
कुलांचें भरती हिरनी सी कूदती फांदती,
जैसे मचलते अरमानों की दिखलाई सी।
कल कल बहता पानी देख के जी मचलाये,
इसकी निर्मलता देख मन भीगा भीगा जाये।
नहीं है वजूद नदी का बगैर स्थिर पत्थरों के,
कलाकार सा तराशने में सदियाँ बीत जाये।
यहाँ मौसम जाने कब ले जाये अंगडाई ,
सूरज हो मध्यम और काली घटा छाई।
रूप बदल कर भी कुदरत देती है सकून,
कभी कभी बेताबी जब हद से गुजर जाये ,
तपते बादल जब शीतल वायु से टकराएँ।
द्रोपती सा रोद्र रूप धारण कर नदिया तब,
बाढ़ बन पापियों के पाप संग बहा ले जाये।
पत्थरों से टकरा कर भी प्रवाह अपना खोती नहीं,
ये नदी वो औरत है जो दुखी होकर भी रोती नहीं।
एक कहानी है पर्यावरण पर इन्सां के प्रभाव की,
हम चैन से सो सकें इसलिए स्वयं कभी सोती नहीं।
नोट : इस रचना में अनायास ही जिनका योगदान है , वे हैं क्रम से --सर्वश्री संजय कुमार सिंघला , राज भाटिया ,अविनाश वाचस्पति , शिखा वार्ष्णेय जी , देवेन्द्र पाण्डेय और डॉ अरविन्द मिश्र जी। आप सब का आभार।
bahut hi khubsurat ...
ReplyDeleteएक सुन्दर और अपने ढंग के अनूठे प्रयोग से उपजी कविता !
ReplyDeleteबहुत सुंदर
ReplyDeleteकवि मन कब स्थिर होता है भला
तरो-ताज़ा जैसे गर्मी में ठंडी हवा का झोंका ....
ReplyDeleteबधाई !
कविता सुंदर और सहज है, शायद ब्यास नदी के किनारे बैठकर लिखी गई है?
ReplyDeleteरामराम.
पत्थरों से टकरा कर भी प्रवाह अपना खोती नहीं,
ReplyDeleteये नदी वो औरत है जो दुखी होकर भी रोती नहीं।
एक कहानी है पर्यावरण पर इन्सां के प्रभाव की,
हम चैन से सो सकें इसलिए स्वयं कभी सोती नहीं।
वाह, शानदार बिंब है, नमन आपको.
रामराम.
प्रेमासक्त हो नागिन सी लहराई सी,
ReplyDeleteकिसी षोडशी ने ली ज्यों अंगडाई सी।
कुलांचें भरती हिरनी सी कूदती फांदती,
जैसे मचलते अरमानों की दिखलाई सी।
प्रकृति का मानवीकरण और आपके क्रमशः प्रकृति के अद्भुत रूप का वर्णन बहुत खूब संयोजन
प्रकृति का सानिध्य हो तो सुंदर कविता का स्फुटित होना स्वाभाविक है. बहुत जानदार, शानदार और अदभुत.
ReplyDeleteबहुत सुंदर चित्र और कविता ....इस बार कहा सैर की .
ReplyDeleteयह अगली पोस्ट में। अभी बस अनुमान ही।
Deleteवाह वाह अद्भुत प्रयोग.
ReplyDeleteमजा आ गया .
जय हो !
ReplyDeleteप्रकृति आपके अन्दर और बड़ा कवि निकाल कर लाये।
ReplyDeleteपत्थरों से टकरा कर भी प्रवाह अपना खोती नहीं,
ReplyDeleteये नदी वो औरत है जो दुखी होकर भी रोती नहीं।
एक कहानी है पर्यावरण पर इन्सां के प्रभाव की,
हम चैन से सो सकें इसलिए स्वयं कभी सोती नहीं।
...वैसे तो सभी बंद अच्छे बन पड़े हैं मगर यह तो बेहतरीन है!
बढ़िया प्रयोग ..
ReplyDeleteलगे रहे प्रभो ! बधाई !
Waah wa Waah wa Waah wa
ReplyDeleteवाह वाह क्या बात है, वाह वाह क्या बात है...
ReplyDeleteजय हिंद...
बहुत खूब!
ReplyDeleteमौसम खुशगवार हो,समय की भरमार हो उस पर
प्रकृति के नज़ारे लुभावने हों तो कविता अपने आप बनने लगती है.
वाह वाह ! अल्पना जी , बस इतना और जोड़ दीजिये -- और दिलों में प्यार हो।
ReplyDeleteयह पहेली भी खूब रही कि नदी ने पत्थर को तराशा या पत्थरों ने किनारों में बाँधा !!
ReplyDeleteबढिया है जी।
ReplyDeleteबहुत खूब,शानदार,उम्दा प्रस्तुति,,,
ReplyDeleteRECENT POST: हमने गजल पढी, (150 वीं पोस्ट )
खूबसूरत....
ReplyDeleteवाह.....
ReplyDeleteबहुत सुन्दर....
कलकल बहती.......
सादर
अनु
बहुत ही खूबसूरत आंदज...
ReplyDeleteप्रेमासक्त हो नागिन सी लहराई सी,
ReplyDeleteकिसी षोडशी ने ली ज्यों अंगडाई सी।
कुलांचें भरती हिरनी सी कूदती फांदती,
जैसे मचलते अरमानों की दिखलाई सी..
वाह ... छलक रहा है प्रेम रस ... प्राकृति की ताकत आपकी कलम और भावों मिएँ नज़र आ रही है ...