उत्तराखंड से सभी तीर्थयात्री प्राकृतिक त्रासदी से बचकर अभी लौटे भी नहीं कि अमरनाथ की यात्रा आरम्भ हो गई। ज़ाहिर है कि धार्मिक विश्वास की जड़ें हमारी जनता में बहुत गहराई तक फैली हैं। लेकिन केवल श्रद्धा भावना के बल बूते पर हज़ारों फीट ऊंचे दुर्गम पर्वतीय स्थलों पर यूँ जाना दुस्साहस सा ही लगता है। बच्चे, बूढ़े, शारीरक रूप से असक्षम लोग कठिन रास्तों पर न सिर्फ स्वयं के लिए मुसीबत मोल लेते हैं , बल्कि प्रशासन के लिए भी सर दर्द बन जाते हैं। बेहतर तो यही है कि पहाड़ों के सफ़र से पहले हमें अपनी शारीरिक क्षमता को मांप लेना चाहिए और यदि संभव हो तो पूर्णतया सक्षम होने पर ही यात्रा करनी चाहिए।
बचपन में शहर से बाहर जाने का अवसर कभी मिला ही नहीं। लेकिन ज़वान होने के बाद पहाड़ों से जैसे लगाव सा हो गया। धीरे धीरे पहाड़ों को पैदल नापने का शौक भी पनपने लगा। तभी हमें पता चला कि कुछ संस्थाएं गर्मियों में पहाड़ों में ट्रेकिंग का आयोजन करती हैं। एक दिन अस्पताल में लगे एक पोस्टर ने मन में ट्रेकिंग पर जाने की प्रबल इच्छा जाग्रत कर दी। हमने अपने कई साथियों से जिक्र किया लेकिन कोई चलने को तैयार नहीं हुआ। दो तीन साल तक यह सिलसिला चलता रहा। लेकिन अक्सर लोग जीवन व्यापन में इस कद्र व्यस्त रहते हैं कि इस तरह के शौक दूर दूर तक भी नहीं फटकते। डॉक्टर्स भी पेशे से ज्यादा अतिरिक्त धन कमाने के लालच में दिन रात लगे रहते हैं।
आखिर जब कोई साथी न मिला तो हमें वह गाना याद आया -- चल अकेला , चल अकेला , चल अकेला। और हमने फैसला कर लिया कि कोई साथ दे या न दे , इस बार ट्रेकिंग पर अवश्य जाना है। सौभाग्य से ट्रेकिंग का आयोजन करने वाली संस्था -- ऐ ऐ पी -- कुशल ट्रेकर्स द्वारा चलाई जा रही थी जो प्रतिदिन एक बस भरकर पहाड़ों में लगाये गए सुनियोजित कैम्पस में ले जाते थे जहाँ से ट्रेकिंग आरम्भ होती थी।
निश्चित दिन रात के दस बजे पहाड़ गंज से बस रवाना हुई उत्तरकाशी क्षेत्र में -- हर की दून घाटी में ट्रेकिंग के लिए। बस में बैठने के एक घंटे के अन्दर ही कई लोगों से परिचय हो गया। शायद यहाँ हमें डॉक्टर होने का बहुत लाभ हुआ। इत्तेफाक से इस यात्रा में शायद हम ही उम्र में सबसे बड़े थे। अधिकतर कॉलेज के लड़के लड़कियां ही थे।
बेस कैम्प :
बस ने हमें पुरुला से आगे आखिरी गाँव संकरी में उतार दिया जहाँ हमारा बेस कैम्प लगा था। यहाँ से हमें करीब ३६ किलोमीटर पैदल चलकर तीन दिन में हर की दून पहुँचना था।
तैयार हैं ट्रेकिंग शुरू करने के लिए। युवाओं का साथ हो तो चुस्ती स्फूर्ति अपने आप आ जाती है।
मुस्कानें बता रही हैं कि अभी कोई भी नहीं थका है।
सारा ट्रेक टोंक नदी के साथ साथ है। लेकिन यहाँ एक बार नदी को पार करना पड़ता है। ज़रा सोचिये , यदि बाढ़ आ जाये तो कैसे फंस सकते हैं।
रास्ते में उस क्षेत्र का आखिरी गाँव पड़ता है --ओस्ला। यहाँ रहने वाले लोग खुद को कौरवों के वंसज मानते हैं। यहाँ अभी तक पौलीएंड्री ( एक से ज्यादा पति )की रिवाज़ है। ट्रेक गेहूं के खेत से होता हुआ।
अब तक हम काफी ऊँचाई पर पहुँच चुके थे। दूर नदी का सफ़र साफ़ दिखाई दे रहा है।
बर्फ से ढकी चोटियाँ दिखने का अर्थ था कि अब हम हर की दून घाटी में पहुँचने ही वाले थे।
ये हैं घाटी के चारों ओर बर्फीले पहाड़। सामने जो रास्ता दिखाई दे रहा है वह घाटी को पार कर हिमाचल के किन्नौर क्षेत्र में जाता है।
बर्फ में फिसलने के लिए एक पौलीथीन लेकर बैठ जाना होता है और यही आपकी स्लेज बन जाती है। लेकिन यह थोडा रिस्की भी है। एक साथी के घुटने में ट्विस्ट होने से चोट आ गई। सोचिये , बेचारा कैसे वापस आया होगा।
बर्फीली चोटियाँ देखकर स्वर्ग जैसा अहसास हो रहा था।
तभी पता चला कि एक लाइन में जो पांच चोटियाँ दिखाई दे रही थीं, कहते हैं , यहीं से होकर पांडव सशरीर स्वर्ग को गए थे। इसलिए इन चोटियों को स्वर्ग रोहिणी भी कहते हैं।
लेकिन एक बात निश्चित है कि जैसा सैलाब अभी उत्तराखंड में आया है , वैसा यदि कभी वहां आ जाता तो निश्चित ही एक भी व्यक्ति जीवित नहीं बचता। ज़ाहिर है , ऐसे में सब भगवान भरोसे ही होता है। आखिर मनुष्य कितनी भी तरक्की क्यों न कर ले, भगवान से ज्यादा बलवान कभी नहीं हो सकता।
बेशक प्रकृति हमें जीवन देती है , अपार खुशियाँ देती है, लेकिन यदि हम पर्यावरण का ध्यान नहीं रखेंगे तो प्रकृति भी रुष्ट होकर अपनी ताकत का प्रदर्शन करती हुई मनुष्य को उसके किये की सज़ा अवश्य देती है। इसलिए प्रकृति की गोद में जाकर प्रकृति का सम्मान करना हम सब के लिए अति आवश्यक है।