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Friday, May 17, 2013

जन्नत कहीं है तो बस यहीं है , यहीं है -- मॉल कल्चर।


कॉलेज के दिनों में अक्सर शाम को दोस्तों के साथ मार्किट की ओर निकल जाते थे , मटरगश्ती करने। खरीदारी करने की न कोई वज़ह या ज़रुरत होती थी , न हैसियत। जेब में दस रूपये डालकर जाते थे और दस के दस सुरक्षित वापस लाकर रख देते थे। उस पर यह कह कर खुश हो लेते कि ऐसा करने से इच्छा शक्ति बढती है। लेकिन ऐसा करते करते ऐसा लगता है कि इच्छा शक्ति शायद इतनी दृढ हो गई कि अब चाह कर भी पैसे खर्च करने की चाहत नहीं होती। लगता है , जब काम चल ही रहा है तो खर्च कर के भी क्या हासिल कर लेंगे। इसलिए अब भी जब मार्किट जाते हैं तो जो एक पांच सौ का नोट जेब में होता है, वह दिनों दिन सलामत रहता है। यह अलग बात है कि जिस दिन श्रीमती जी के साथ मार्किट जाना होता है , उस दिन न जाने कितने ऐसे बेचारे स्वाहा होकर मार्किट की भेंट चढ़ जाते हैं।


अब एक विशेष अंतर तो यह आ गया है कि अब युवा लोग मटरगश्ती करने मार्किट नहीं जाते बल्कि मॉल्स के एयरकंडीशंड और चमक धमक के वातावरण में इकोनोमिक लिब्रलाइजेशन से आए आर्थिक विकास का मज़ा लेते हुए मस्ती करते नज़र आते हैं। लेकिन मॉल्स में यह देखकर घबराहट सी होने लगती है कि हमारी उम्र के लोग बहुत ही कम नज़र आते हैं। जिधर भी देखिये , बच्चे , युवा और युगल ही दिखाई देते हैं। इक्के दुक्के मियां बीबी छोटे बच्चों के साथ चिल पों करते हुए मिल सकते हैं , लेकिन ५० से ऊपर के परिपक्व लोग न के बराबर नज़र आते हैं।

अचानक आए इस परिवर्तन से विचलित होकर हमने गहन विचार किया तो यह समझ आया कि २०११ में हुई जनसँख्या गणना के अनुसार देश में लगभग ५ ० % लोग २५ वर्ष से कम आयु के हैं और लगभग दो तिहाई ३५ से कम। करीब एक तिहाई १४ से कम , दो तिहाई १५ से ६४ के बीच और केवल ५ % लोग ६५ वर्ष से ज्यादा आयु के हैं। यानि हम तो १० - १५ % लोगों में ही आते हैं। इस से ज़ाहिर होता है कि हमारा देश कैसे दिन दूनी रात चौगुनी वृद्धि कर रहा है।                 




मॉल्स :

देश में आर्थिक विकास हुआ है , यह तो निश्चित है। इसका सबसे ज्यादा फायदा देश का मध्यम वर्ग समाज ही उठा रहा है। आज दिल्ली जैसे शहरों में बने मॉल्स विश्व के किसी भी बड़े और सुन्दर मॉल्स का मुकाबला कर सकते हैं। आम युवक युवतियों को हाथ में हाथ डाले मॉल्स में घूमते देख कर नई पीढ़ी की किस्मत पर रास आता है। एक दशक पहले जो सुविधाएँ सिर्फ विदेशों में कुछ ही भाग्यशाली लोगों को उपलब्ध होती थी , अब हमारे आम नागरिकों को उपलब्ध हैं। इन मॉल्स में दुकाने या शोरूम्स भी विश्व के हर ब्रांड के सामान से भरे मिलेंगे। वास्तव में देसी और विदेशी मॉल्स में शायद ही कोई अंतर नज़र आये। खाने पीने के पदार्थ भी विदेशी ब्रांड्स के मिलते हैं जिन्हें समझना भी पुरानी पीढ़ी के बस का नहीं होता।    




आप शायद अभी भी नुक्कड़ पर बनी पुरानी किसी जान पहचान के टेलर की दुकान से कपड़े सिलवाते हों , लेकिन आप के बच्चे अवश्य ही ऐसे ही किसी शोरूम से शॉपिंग करते होंगे। हमें तो अक्सर इन पुतलों को देखकर धोखा हो जाता है कि असली बन्दे खड़े हैं या पुतले।

लेकिन इन मॉल्स में एक बड़ी समस्या आती है बैठने की। किसी भी शोरूम में बैठने के लिए कोई जगह नहीं होती। जहाँ बच्चे तो दौड़ दौड़ कर एक के बाद एक पोशाक ट्राई कर रहे होते हैं , वहीँ हम जैसे बुजुर्गों को खड़े खड़े बोर होना पड़ता है। कभी किसी कपड़े को हाथ लगाया नहीं कि आ गया / गई एक ३० किलो का / की सेल्समेन / सेल्स गर्ल -- मे आई हेल्प यू । हेल्प करने को तो ऐसे तैयार रहते हैं जैसे मुफ्त में माल मिल रहा हो। अक्सर रेट देखकर अपना तो सारा मूड ही खराब हो जाता है। लेकिन बच्चों को जैसे रेट से कोई मतलब नहीं होता। सबसे महँगी चीज़ पर हाथ रखना अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझते हैं।            

बात जब खाने की आती है तो हम ढूंढते हैं समोसा , पकोड़ा या छोले बठूरे। लेकिन वहां मिलता है -- बस पूछिए मत क्या मिलता है -- बताने में भी शर्म आती है, क्योंकि खुद हमें उनका नाम नहीं पता होता। आखिर में बच्चों को ही आगे करना पड़ता है और वो जितनी भी जेब कटाएँ , सब सहना पड़ता है।   

अंत में यही कहा जा सकता है कि धरती पर अगर जन्नत है तो क्या अलग होगी। लेकिन सब के लिए नहीं , सिर्फ उनके लिए जो इतने समर्थ हैं। वर्ना अभी भी देश में करीब २२ % ( २६ करोड़ ) लोग गरीबी रेखा से नीचे रह रहे हैं जिनके लिए जन्नत का अर्थ बस दो वक्त की रोटी मुहैया होना ही होता है। 


47 comments:

  1. ji sabsse sasti ice cream 65/- rupaye mein.. reliance mall mein....

    aam market mein jo purse 5,000/- ki ho wo yahan 55,000/- ki naa mile to dhikkar hai...

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    1. मेरे साथ डेल्ही के एक मॉल में यही वाकया हुआ. बाहर १५ रु में मिलने वाली आइसक्रीम ५५ रु की बेच रहा था. मैंने कहा इतनी महँगी क्यों????
      उसने कहा - "मैडम कहाँ से आई हो ? ये मॉल है". और आइस क्रीम वापस रख ली :(.

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    2. जवाब दिया होता बेटा लंदन से आई हूँ ... ;)

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  2. इसीलिये हमें मॉल में जाना पसंद नहीं है..

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    1. विवेक भाई , मॉल्स में खरीदारी करने वाले लोग बस १० या १५ % होते हैं। मुफ्त में ऐ सी में घूमने में क्या जाता है। :)

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  3. मॉल है तो ताल है बाकी सब बेकार है :)

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    1. माल है तो मॉल है , वर्ना सब कंगाल है ! :)

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  4. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन एक रोटी की कहानी - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  5. सबसे ज्यादा काया पलट तो काफी में हो गया है. पहले तो बस फिल्टर कॉफी या एस्प्रेसो कॉफी मिलती थी वहां अब उन दोनों के सिवा ना जाने क्या क्या बिकता है और दाम भी इतना ज्यादा. अब माल घूमना शाम के पार्क में बच्चों के खेलने का विकल्प हो गया है क्योंकि गर्मी में पार्क में कोई जाना ही नहीं चाहता.

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    1. जी हाँ , कॉफ़ी की किस्में तो समझ नहीं आती। अक्सर धोखा हो जाता है।

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  6. हमारा मैनपुरी फिलहाल तो बचा हुआ है इस मॉल कल्चर से ... पर हाँ यहाँ के युवा इस के शिकार है ... खास कर जो भी दिल्ली हो आए है !

    वैसे यहाँ मॉल नहीं है तो मैनपुरी को शहर भी कितने कहते है ??? गिने चुने ही न ... बाकी सब के लिए गाँव है मैनपुरी !

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    1. फिर तो जब आप दिल्ली आयेंगे और मॉल गए तो आँखें चुंधिया जाएँगी।

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    2. आँखें तो खैर साहब नहीं चुंधियाने की ... जन्म कोलकाता मे हुआ था वहाँ यह 'सुपर मार्केट' कल्चर बहुत पहले ही आ गया था तो इस का एक मिलता जुलता रूप देखा हुआ है ! वैसे भी दिल्ली काफी बार आना हुआ है और मॉल मे भी गया हूँ ... अब इतना भी 'देहाती' न समझिए ... ;)

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  7. हम भी यदाकदा बिलासपुर, रायगढ़ और रायपुर के माल में अपना जेब खाली करके आते हैं आपने आइना रख दिया

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  8. जो मज़ा बाज़ार में घूम-घूमकर खरीददारी करने में है वह भला माल्स में
    कहाँ .....

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  9. आपकी बात सत्य है पर माल में सिर्फ़ माल ही माल है. पर अपनी जेब में भी होना चाहिये.:)

    रामराम.

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  10. आप चाहे जो भी कहें पर हमें तो कभी कभी माल में खरीददारी करना अच्छा भी लगता है. बैठने के लिये माल में बहुत सारे रेस्टोरंट्स भी तो हैं.:)

    रामराम

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    1. मज़ा तो आता है , बस अपने जैसे बहुत कम देखकर अपने बुजुर्ग होने का अहसास होता है। :)

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  11. पिछले साल गुडगांव में भाई के आपरेशन के दौरान एक सप्ताह (पारस हास्पीटल में) रहना पडा था. अस्पताल का माहोल और रिश्तेदारों द्वारा लाया गया हैवी खाना खा खा कर बोरियत सी हो गयी थी.

    तीन चार दिन बाद भाई की रिकवरी हो गयी तो कुछ साऊठ इंदियन खाना खाने के लिहाज से DLF के किसी सेक्टर में रिक्शे वाले ने छोड दिया वहां पर भगवान जाने कौन सा सितारा होटल था अब तो नाम भी याद नही. हरी हाफ़ कुर्ते पहने चाईनीज जैसी लडकियां सर्व कर रही थी.

    हम दो लोग थे, एक एक डोसा और एक एक इडली खाई, बाद में चाय भी पी ली, बिल आया 1340 ऋपये का. इतने पैसे तो जेब में लेकर भी नही निकले थे सो क्रेडिट कार्ड से पेमेंट किया और आईंदा ऐसा साऊथ इंडियन खाने से तौबा की.:)

    रामराम.

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    1. यही तो ! जो चीज़ एक जगह एक दाम में मिलती है, वही जब दूसरी जगह दो या तीन गुना दाम में मिले तो स्वाद ही खराब हो जाता है।

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  12. mall ke bahaane bahut kuch keh diyaa hain aapne.
    khaaskar, last line (do roti kaafi hain) mein.
    aankadon ko 123 jaise number mein likhte to behtar hotaa kyonki hindi chaahe sabko aati ho par numbers sabko 1234 waale hi samajh aate hain.
    thanks.
    CHANDER KUMAR SONI
    WWW.CHANDERKSONI.COM

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  13. अपन तो मॉल में पिक्चर देखने जाते हैं।

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    1. ये सही कही। हम साथ में परांठा भी खाते हैं।

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  14. आजकल की भयंकर गर्मी में माल में जाने का आनंद ही कुछ और है ..

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    1. सिर्फ गर्मी ही नहीं -- सर्दी , गर्मी , बरसात -- सब में मज़ा है , मॉल का -- बस दाम छोड़कर। :)

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    2. इसीलिये कहा है भाईयो,

      माल है तो ताल है
      वर्ना सब कंगाल है
      इसलिये मौका मिलते ही जमकर माल कूटो
      जो भी आए सामने, उसे जी भर कर लूटो


      रामराम.

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  15. अब तो युवा भी इस से विमुख हो रहे हैं..

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  16. हम्म्म..बुराई तो कोई नहीं...

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  17. माल में जाओ, खडे-खडे माल खर्च करो और यदि वहाँ पिक्चर देखने का मन हो जावे तो जेब की तलाशी भी देकर ही जाओ । भई अपने राम भी शेष 5% में ही आते हैं और अपने लिये तो नुक्कड की दुकाने और एकल सिनेमा थिएटर ही भले.

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  18. सही कहा आपने डा० साहब , खासकर गर्मियों में तो जन्नत ही है, आराम से २-४ घंटे बिताओ वाताकुलन और आइसक्रीम के लुत्फ़ संग ! बशर्ते कि इतनी फुर्सत हो

    ऐ मॉल, हालाँकि तेरी राह इतनी भी आसां नहीं है,
    किन्तु फिर भी आयेंगे, हम इतने भी परेशां नहीं है।
    पार्किंग का खर्चा ही तो हमें अलग से उठाना होगा,
    चक्षु-सीलन सुखा लेंगे, खरीदना कोई सामां नहीं है।

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  19. मॉल जा कर विंडो शॉपिंग करिए .... और ए सी का आनंद लीजिये .....ख़रीदारी के लिए बिना माल के मॉल का कोई मज़ा नहीं ।

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  20. जी असली जन्नत के फोटू तो आपने अपने ब्लॉग हेडर में लगा रखा है. :) हमारे लिए तो बस वही जन्नत है.

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    1. बेशक , प्रकृति की खूबसूरती का तो कोई मुकाबला नहीं।

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  21. माल खर्च करके माल पटाने के लिये मॉल बने लगते हैं हमें तो
    लडके कहते हैं माल पटाया
    लडकियां कहती हैं माल फंसाया
    3-4 बार गया हूं मॉल में, लेकिन खुद को असहज ही महसूस किया है

    प्रणाम

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  22. बढ़िया ..सही कहा

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  23. हम जाते हैं तो बच्चे बनकर, थोड़ा सा मनोरंजन करने। वहाँ पर चिन्तन कर लेने से निराशा होने लगती है।

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  24. आप सच कह रहे हैं, परसों हम भी एक मॉल में गए थे, वहां की चकाचौंध देखकर खुद चुंघिया गए। सही है कि वहां कुछ खाना हो तो बच्‍चों को आगे करना पड़ता है।

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  25. पैसा कैश हो तो खर्च करते हुए दर्द होता है...लेकिन डेबिट कार्ड-क्रेडिट कार्ड जैसी प्लास्टिक मनी वैलेट में हो जेब कितनी कटी पता भी नहीं चलता...मॉल्स में सस्ते और ऑफर्स के चक्कर में कूंडा होता जाता है...ज़रूरत हो या ना हो साम से ट्रॉली भर ली जाती हैं...अभी वॉलमार्ट को पूरे रंग में आनें दीजिए फिर देखिएगा क्या हाल होगा...

    जय हिंद...

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  26. मॉल्स में बैठने की जगह न होने के चलते मुझे मॉल्स सबसे वाहियात जगह लगते हैं। पिक्चर के अलावा मुझे मॉल्स जाना पसन्द नहीं। :)

    हम कह भी चुके हैं:

    व्यक्तिगत तौर पर मुझे शापिंग मॉल जैसी जगहें शहर में स्थित सबसे वाहियात जगहों में से लगती है। उसमें से कुछ कारण ये हैं:

    १.जो चाय बाहर तीन रुपये की मिलती है उससे कई गुना घटिया चाय शापिंग मॉल में तीस रुपये में मिलती है।
    २.मॉल में सिवाय सफ़ाई, रोशनी और एअरकंडीशनिंग के बाकी सब स्थितियां अमानवीय लगती हैं। न ग्राहक और न सेल्सस्टाफ़ किसी के बैठने का कोई जुगाड़ नहीं होता।
    ३.एक ही चीज के दाम जिस तरह वहां बदलते हैं उस तरह तो जनप्रतिनिधियों के बयान भी नहीं बदलते।

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    1. सही फ़रमाया।
      इसलिए हम भी कभी कभी चमक धमक का मज़ा लेने ही जाते हैं। :)

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  27. जय हो इस माल कल्चर की ... अब हम तो कुछ कह नहीं सकते दुबई तो भरा पड़ा है इस कल्चर से ...
    ये बात सच है की माल में रेट दुगने मिलते हैं ... और वहां अधिकतर देसी चीजें नहीं मिलतीं जिसकी हम आप को तलाश रहती है ...
    पर क्या करें आज का दौर युवा पीड़ी का है ...

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  28. हमारे दौर का यही विरोधाभास है .मुंबई जैसे नगरों में भी देश की पहचान समझे जाने वाले गेट वे आफ इंडिया की फुटपाथ पर भी परिवार के परिवार अति दयनीय अवस्था में मिल जाते हैं प्रात : सोते .हम वहां नियमित जाते हैं सुबह ब्रह्माकुमारीज़ विश्वविद्यालय की ७ :३ ० की क्लास से पूर्व आधा घंटा की सैर रेडिओ क्लब से गेटवे आफ इंडिया से नियमित होती है .वहीँ ताज और वहीँ बेबस ज़िन्दगी .यही है माल संस्कृति और अर्थ व्यवस्था की असलियत .कथित विकास रिसकर नीचे नहीं आ रहा है .

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