top hindi blogs
Showing posts with label मॉल. Show all posts
Showing posts with label मॉल. Show all posts

Monday, March 26, 2018

पति पत्नी इक दूजे से पूरे होते हैं ---



मैसाज कराकर बॉडी का मन में हरियाली हो गई ,
मैसाज के चक्कर में पर म्हारी घरवाली खो गई।

इत् उत् जाने कित कित ना ढूंढा पर हम हार गए,
इंतज़ार में उनके हम तीन कप कॉफी डकार गए।

तन का तनाव किया था जो कम फिर बढ़ने लगा,
अब तन के साथ मन पर भी संताप चढ़ने लगा।

हमने मुनादी करा दी कि एक अनहोनी हो गई है ,
किसी को दिखे तो बताओ हमारी पत्नी खो गई है।

आखिर मिली साड़ी की दुकान पर खड़ी थी उदास ,
क्योंकि फोन उनके पास था और कार्ड़ हमारे पास।

हमारे पास नहीं था मोबाईल तो फोन कैसे करती ,
उनके पास नहीं था कार्ड तो खरीदारी कैसे करती।

इसीलिए पति पत्नी इक दूजे के बगैर अधूरे होते हैं ,
सच तो यही है कि पति पत्नी इक दूजे से पूरे होते हैं।


Friday, May 17, 2013

जन्नत कहीं है तो बस यहीं है , यहीं है -- मॉल कल्चर।


कॉलेज के दिनों में अक्सर शाम को दोस्तों के साथ मार्किट की ओर निकल जाते थे , मटरगश्ती करने। खरीदारी करने की न कोई वज़ह या ज़रुरत होती थी , न हैसियत। जेब में दस रूपये डालकर जाते थे और दस के दस सुरक्षित वापस लाकर रख देते थे। उस पर यह कह कर खुश हो लेते कि ऐसा करने से इच्छा शक्ति बढती है। लेकिन ऐसा करते करते ऐसा लगता है कि इच्छा शक्ति शायद इतनी दृढ हो गई कि अब चाह कर भी पैसे खर्च करने की चाहत नहीं होती। लगता है , जब काम चल ही रहा है तो खर्च कर के भी क्या हासिल कर लेंगे। इसलिए अब भी जब मार्किट जाते हैं तो जो एक पांच सौ का नोट जेब में होता है, वह दिनों दिन सलामत रहता है। यह अलग बात है कि जिस दिन श्रीमती जी के साथ मार्किट जाना होता है , उस दिन न जाने कितने ऐसे बेचारे स्वाहा होकर मार्किट की भेंट चढ़ जाते हैं।


अब एक विशेष अंतर तो यह आ गया है कि अब युवा लोग मटरगश्ती करने मार्किट नहीं जाते बल्कि मॉल्स के एयरकंडीशंड और चमक धमक के वातावरण में इकोनोमिक लिब्रलाइजेशन से आए आर्थिक विकास का मज़ा लेते हुए मस्ती करते नज़र आते हैं। लेकिन मॉल्स में यह देखकर घबराहट सी होने लगती है कि हमारी उम्र के लोग बहुत ही कम नज़र आते हैं। जिधर भी देखिये , बच्चे , युवा और युगल ही दिखाई देते हैं। इक्के दुक्के मियां बीबी छोटे बच्चों के साथ चिल पों करते हुए मिल सकते हैं , लेकिन ५० से ऊपर के परिपक्व लोग न के बराबर नज़र आते हैं।

अचानक आए इस परिवर्तन से विचलित होकर हमने गहन विचार किया तो यह समझ आया कि २०११ में हुई जनसँख्या गणना के अनुसार देश में लगभग ५ ० % लोग २५ वर्ष से कम आयु के हैं और लगभग दो तिहाई ३५ से कम। करीब एक तिहाई १४ से कम , दो तिहाई १५ से ६४ के बीच और केवल ५ % लोग ६५ वर्ष से ज्यादा आयु के हैं। यानि हम तो १० - १५ % लोगों में ही आते हैं। इस से ज़ाहिर होता है कि हमारा देश कैसे दिन दूनी रात चौगुनी वृद्धि कर रहा है।                 




मॉल्स :

देश में आर्थिक विकास हुआ है , यह तो निश्चित है। इसका सबसे ज्यादा फायदा देश का मध्यम वर्ग समाज ही उठा रहा है। आज दिल्ली जैसे शहरों में बने मॉल्स विश्व के किसी भी बड़े और सुन्दर मॉल्स का मुकाबला कर सकते हैं। आम युवक युवतियों को हाथ में हाथ डाले मॉल्स में घूमते देख कर नई पीढ़ी की किस्मत पर रास आता है। एक दशक पहले जो सुविधाएँ सिर्फ विदेशों में कुछ ही भाग्यशाली लोगों को उपलब्ध होती थी , अब हमारे आम नागरिकों को उपलब्ध हैं। इन मॉल्स में दुकाने या शोरूम्स भी विश्व के हर ब्रांड के सामान से भरे मिलेंगे। वास्तव में देसी और विदेशी मॉल्स में शायद ही कोई अंतर नज़र आये। खाने पीने के पदार्थ भी विदेशी ब्रांड्स के मिलते हैं जिन्हें समझना भी पुरानी पीढ़ी के बस का नहीं होता।    




आप शायद अभी भी नुक्कड़ पर बनी पुरानी किसी जान पहचान के टेलर की दुकान से कपड़े सिलवाते हों , लेकिन आप के बच्चे अवश्य ही ऐसे ही किसी शोरूम से शॉपिंग करते होंगे। हमें तो अक्सर इन पुतलों को देखकर धोखा हो जाता है कि असली बन्दे खड़े हैं या पुतले।

लेकिन इन मॉल्स में एक बड़ी समस्या आती है बैठने की। किसी भी शोरूम में बैठने के लिए कोई जगह नहीं होती। जहाँ बच्चे तो दौड़ दौड़ कर एक के बाद एक पोशाक ट्राई कर रहे होते हैं , वहीँ हम जैसे बुजुर्गों को खड़े खड़े बोर होना पड़ता है। कभी किसी कपड़े को हाथ लगाया नहीं कि आ गया / गई एक ३० किलो का / की सेल्समेन / सेल्स गर्ल -- मे आई हेल्प यू । हेल्प करने को तो ऐसे तैयार रहते हैं जैसे मुफ्त में माल मिल रहा हो। अक्सर रेट देखकर अपना तो सारा मूड ही खराब हो जाता है। लेकिन बच्चों को जैसे रेट से कोई मतलब नहीं होता। सबसे महँगी चीज़ पर हाथ रखना अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझते हैं।            

बात जब खाने की आती है तो हम ढूंढते हैं समोसा , पकोड़ा या छोले बठूरे। लेकिन वहां मिलता है -- बस पूछिए मत क्या मिलता है -- बताने में भी शर्म आती है, क्योंकि खुद हमें उनका नाम नहीं पता होता। आखिर में बच्चों को ही आगे करना पड़ता है और वो जितनी भी जेब कटाएँ , सब सहना पड़ता है।   

अंत में यही कहा जा सकता है कि धरती पर अगर जन्नत है तो क्या अलग होगी। लेकिन सब के लिए नहीं , सिर्फ उनके लिए जो इतने समर्थ हैं। वर्ना अभी भी देश में करीब २२ % ( २६ करोड़ ) लोग गरीबी रेखा से नीचे रह रहे हैं जिनके लिए जन्नत का अर्थ बस दो वक्त की रोटी मुहैया होना ही होता है। 


Sunday, July 1, 2012

दुनिया में कंजूस आदमी सबसे दयालु इन्सान होता है -- क्या आप भी हैं




पूर्वी दिल्ली के एक शानदार मॉल की सबसे उपरी मंजिल पर खड़ा मैं देख रहा था नीचे की चहल पहल -- आते जाते , हँसते मुस्कराते , इठलाते चहकते --- युवा नर नारी , कोई हाथों में हाथ डाले , कोई कोने में खड़े होकर चिपियाते, फुसफुसाते ( कड्लिंग ), -- लेकिन सब खुश -- बाहर की दुनिया से बेखबर .

कितनी अजीब बात थी -- बाहर की दुनिया में कहीं पानी नहीं , कहीं बिजली -- पेट्रोल ज्यादा महंगा या सब्जियां -- गर्मी से परेशान काम पर जाते लोग या ट्यूशन के लिए जाते छात्र .
लेकिन यहाँ बस एक ही दृश्य -- सब खुश , मग्न , चिंतारहित, पूर्णतया मित्रवत .

कुछ पल के लिए खो सा गया अतीत की यादों में . याद आने लगा वो समय जब प्री मेडिकल में था -- एक रुपया प्रति सप्ताह जेब खर्च मिलता -- खर्च होता ही नहीं था . कहाँ किसे फुर्सत थी केन्टीन में बैठने की . सभी तो करियर बनाने में लगे रहते थे . लेकिन महीने के अंत में एक फिल्म ज़रूर देखते और पार्टी हो जाती .

फिर मेडिकल कॉलेज में आ गए -- जेब खर्च बढ़कर दस रूपये प्रति सप्ताह हो गया . अब रोज एक चाय और समोसा हो जाता था . कभी कभार शाम को टहलते हुए पास की आई एन ऐ मार्केट में चले जाते , छोले बठूरे खाने . तीन रूपये में बड़े स्वादिष्ट छोले बठूरे मिलते थे . लेकिन अक्सर जेब में दस रूपये डालकर जाते और उस दुकान के सामने दो चक्कर लगाकर बस
चक्षु पान कर ही लौट आते . मन में विचार बना लिया था -- ऐसा करने से दृढ इच्छा शक्ति का विकास होता है .

अब कभी कभी लगता है -- इच्छा शक्ति कुछ ज्यादा ही दृढ हो गई है . खर्च करने का मन ही नहीं करता . बच्चे भी हँसते हैं और कंजूस कहने लगे हैं . सोचता हूँ , शायद सही ही कहते हैं . कहाँ गई वो खर्च करने की आदत ! फिर लगता है इसके लिए जिम्मेदार हालात हैं . वेतन सीधा बैंक में चला जाता है . सारे बिलों का भुगतान ओंनलाइन हो जाता है . श्रीमती जी सारी शौपिंग अपने क्रेडिट कार्ड से कर आती है और फिर उसका बिल हमारे कार्ड से भरने की नाकाम कोशिश करती हैं . अंतत : भुगतान तो चेक से हो ही जाता है .

अब देखा जाए तो कैश खर्च करने का अवसर ही नहीं मिलता . इसलिए अपनी तो आदत ही छूट गई है हाथ से पैसे देने की .
लेकिन यहाँ मॉल में आकर एक अलग ही दुनिया देखने को मिलती है . लोग दुकानों में कम , बाहर घूमते या बैठे ज्यादा नज़र आते हैं . सर्दी हो या गर्मी या आंधी आए या तूफ़ान -- मॉल के अन्दर तो सब ऐ सी ही होता है . इसलिए मौसम की मार नहीं झेलनी पड़ती . कोई यह भी नहीं पूछता --आप यहाँ क्या कर रहे हैं ? या कर क्या रहे हैं ? ऐसा स्वछन्द वातावरण स्वतंत्र भारत में शायद पहली बार मॉल कल्चर आने के बाद ही मिला है .

पिछले दस सालों में दिल्ली और देश की जैसे कायापलट ही हो गई है. एस्केलेटर या इलिवेटर पर खड़े होकर लगता ही नहीं हम भारत में हैं . चमचमाते फर्श और दीवारें , उम्दा साफ सफाई , टॉयलेट्स भी आधुनिक -- लगता है जैसे इम्पोर्टेड शब्द अब शब्दावली से ही हट गया हो .




इस बौलिंग ऐले को देख कर तीन साल पहले कनाडा यात्रा की याद आ गई जब पहली बार हमने वहां बौलिंग की थी . अब यहाँ ही यह सुविधा देख कर अत्यंत रोमांच हो रहा था .




साथ ही विशाल शीशे की खिड़की से बाहर मेट्रो लाइन पर जाती मेट्रो को देख कर तो जैसे स्वर्गिक आनंद की अनुभूति हो रही थी . सोच कर भी अजीब लग रहा था , यह वही क्षेत्र है जहाँ कुछ साल पहले गंदगी ही गंदगी दिखाई देती थी . लेकिन अब मेट्रो ने सब पलट कर रख दिया था .




लेकिन सबसे ज्यादा प्रभावित किया -- फ़ूड कोर्ट ने . इत्तेफ़ाकन इस मॉल में हमारा आना कम ही हुआ है . इसलिए सारा मॉल घूमकर देखने के बाद जब पहुंचे खाने की जगह तो वहां का नज़ारा देखकर हत्प्रध रह गए . पांच बजे भी लगभग सारी टेबल्स भरी थी . ९० % लोग हमारे बच्चों की उम्र के थे . लोग क्या , यूँ समझिये ब़ोय्ज, गर्ल्स , बॉय फ्रेंड , गर्ल फ्रेंड और कुछ खाली फ्रेंड्स -- सब मज़े से बैठे खाते पीते हुए गप्पें हांक रहे थे . कुछ तो होमवर्क और त्युसन भी वहीँ बैठकर पढ़ रहे थे . पति पत्नी तो कम ही दिखाई दिए . फिर भी , कोई किसी की तरफ नहीं देख रहा था --यह देखकर हमें भी अच्छा लगा वर्ना ताका झांकी से तो हमें भी परेशानी होती रही है .




अब बारी आई खाने की . शाम के पांच बजे ज्यादा कुछ तो नहीं खाया जा सकता था . अब हम अंग्रेज़ तो हैं नहीं , जो शाम होते ही रात का खाना खा लें ( सपर ) . काफी खोज बीन करने पर हमें पसंद आये --गोल गप्पे ( पानी पूरी ) . यूँ तो यह आइटम खाए हुए सालों हो चुके थे क्योंकि इन्हें खिलाने का विशेष तरीका हमें नहीं भाता . लेकिन यहाँ की बात कुछ और थी . यहाँ हाथ में ग्लव्ज पहनकर काम किया जा रहा था . हालाँकि जब प्लेट सामने आई तो पता चला -- गोल गप्पे खिलाने वाला भी हम में से ही किसी को बनना पड़ेगा . आखिर श्रीमती जी ने यह काम किया और हमने गोल गप्पे गपने का .

यहाँ आकर यही लगा --जब तक हम रूटीन लाइफ में उलझे रहते हैं , तब तक जीवन की रंगीनियों को भूले रहते हैं . अब जब यहाँ भी सब कुछ उपलब्ध है तो क्यों न इन सुविधाओं का फायदा उठाते हुए जीवन में रस घोलते हुए आनंद लिया जाए . आखिर , ज्यादा पैसा बचा कर भी क्या करना है . आज की युवा पीढ़ी से सीखते हुए कुछ मौज मस्ती पर भी खर्च करना चाहिए . वैसे भी एक दिन सब यहीं रह जाना है .

सारांश : जो व्यक्ति जितना ज्यादा कंजूस होता है , वह उतना ज्यादा दयालु होता है . क्योंकि वह अपना सब कुछ दूसरों के लिए छोड़ जाता है .