पिछली पोस्ट में मैंने शादियों में होने वाले फ़िज़ूल खर्चे और दिखावे पर एक सवाल उठाया था। करीब तीस ब्लोगर साथियों ने अपने विचार प्रकट करते हुए अपनी सहमति ज़ाहिर की।
चलिए ११७ करोड़ की आबादी वाले देश में कम से कम तीस परिवारों में तो ये बात पहुंची।
अब इस फ़िज़ूल खर्ची और दिखावे को कैसे रोका जाये , ये तो हम बाद में बात करेंगे। उससे पहले एक और अहम सवाल आपके मनन के लिए :
सवाल : क्या आप अपनी या अपने बच्चों की शादी, बिना दान- दहेज़ के कर सकते हैं ?
ज़वाब: जी नहीं।
मेरा ज़वाब तो पच्चीस साल पहले भी यही था, आज भी है और कल भी रहेगा।
क्यों और कैसे --इसका ज़वाब आप ही की टिप्पणियों में निकलेगा, ऐसा मेरा विश्वास है।
आपके विचार जानने के लिए इंतज़ार रहेगा।
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डा० साहब, सहमत, मेरा मानना यह है कि अगर आप अथवा हममे से कोई भी इमानदारी से दहेज़ के खिलाफ है, तो मेरा उस इंसान को भी यही सजेशन रहेगा कि भले ही अपने बेटे की शादी में तुम कतई भी दहेज़ मत लेना, मगर जब बेटी की शादी करो तो सामर्थ्य के हिसाब से दुनिया दिखावे के लिए कुछ जरूर देना ! आज की यह दुनिया, जग-दिखावे के खातिर मर गई ! दहेज़ विरोधी होने की वजह से आप तो अपने वूसूलो पर अडिग रहे लेकिन जो तुम्हारी बेटी किसी दूसरे के घर जा रही है, वे लोग उसे चैन की साँस नहीं लेने देंगे ! भले ही उनके घर में सब कुछ होगा फिर भी वे कहेंगे, बगल पड़ोसी के लड़के की शादी में तो उसके ससुराल वालो ने फलां-फलां कार दी थी ! यह बात मैं सिर्फ उनके लिए कह रहा हूँ जो थोड़ा पढ़े लिखे है और दहेज़ को दिखावे के लिए हे सही मगर एक सामाजिक बुराई मानते हो, वरना तो हमारे इस समाज में ऐसे दरिंदो की भरमार है जिनका नारा होता है "दहेज़ ही दुल्हन है "!
ReplyDeleteदराल साहब बिना लेन देन के भी विवाह संभव है और मैं इसी में विश्वास रखता हूँ, किन्तु हम सामाजिक और पारिवारिक दबाब में रहकर अपने मन की नहीं कर पाते हैं, मैं अपनी शादी में किसी भी विवाह समारोह न करने के पक्ष में था और शादी के जलसे में होने वाले बड़े खर्च को न करने के पक्ष में था, लेकिन पारिवारिक दबाब के आगे एक न चली यहाँ तक कि ये धमकियाँ भी मिलीं कि हम लोग शादी में शामिल नहीं होंगे, अब मरता क्या न करता, दबाब में आ गये।
ReplyDeleteपरंतु वाकई यह सोचने वाली बात है कि अगर यह बड़ी रकम हम शादी में न खर्च करें तो लेन देन का सवाल ही नहीं उठता है और जब हमारी लेने की इच्छा नहीं होगी तो देने का सवाल ही नहीं है।
किसी ने कहा है कि परायी दौलत को मिट्टी समझना चाहिये परंतु यहाँ तो समाज में सम्मानित भेड़िये हैं जो कि अपने पूरे वेग से कार्य कर रहे हैं।
मेरी शादी बिना दहेज के हुई थी.
ReplyDeleteगौदियाल साहब की बात से सहमत हूँ ......... अगर बेटा है तो आप जिद्द कर के अपनी बात मनवा सकते हैं और मनवाना भी चाहिए ...... पर बेटियों के विवाह के समय ये बात दूसरे पक्ष की तरफ से हो तभी संभव है ........
ReplyDeleteसंजय जी आप पर फख्र है हमको और पूरे ब्लॉगेर जगत को ............
ReplyDeleteचाह कर भी नही कर पाएगें....अभी समाज में इतनें हिम्म्त वाले लोग नही हैं जो ऐसा जोखिम उठा सके......।
ReplyDeleteलेकिन यदि लड़का लड़की दोनों अपने पैरो पर खड़े हैं तो वे आपसी सहमति से यह कदम उठा सकते है.....
@दिगम्बर जी - अगर बेटा भी हो तब भी पारिवारिक दबाब में यह संभव नहीं हो पाता है हाँ अगर सभी पक्ष समझदार हों तो कहने ही कुछ और हैं।
ReplyDeleteसंजय जी वाकई बहुत ही अच्छा लगा यह जानकर कि आपकी शादी बिना दान दहेज के हुई थी।
Iske liye zaroori saahas BAHUT KAM logon men hai.
ReplyDelete--------
अंग्रेज़ी का तिलिस्म तोड़ने की माया।
पुरुषों के श्रेष्ठता के 'जींस' से कैसे निपटे नारी?
संजय जी को सलाम और हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteबाकि विचार विमर्श अभी चलता रहे तो अवश्य किसी निर्णय पर पहुँच जायेंगे।
गोदियाल जी ने वस्तुस्थिति समझाई है. सहमत हूँ.
ReplyDeleteजो लोग महंगे जलसे (सामर्थ से अधिक खर्चे) को वसुलने के लिए दहेज़ में रकम की आशा करते हैं वे इस सामाजिक बीमारी को बढ़ावा देने का काम करते हैं.
जब तक मेरा खुद का घर नहीं हो जाता शादी के बारे में सोच नहीं सकता. भविष्य की कह नहीं सकता शायद बच्चे खुद तय करेंगे
और एक ही शादी में तीन-चार किस्म के महाभोज के सख्त खिलाफ हूँ. दोनों पक्ष के सदस्यों के बीच उपहारों का आदान प्रदान जरुर होना चाहिए.
यह इतना कठिन भी नहीं है। मेरी बिटिया और उसके पति को आडंबर पसंद नहीं, उन्होंने रजिस्टर्ड विवाह किया। दहेज का तो प्रश्न ही नहीं उठता। मेरे अपने विवाह में दहेज नहीं देने दिया गया। विवाह इतना भी आवश्यक नहीं कि सब मूल्यों को ताक पर रखकर किया जाए। यदि दहेज देने की बात होती तो मैं विवाह ही नहीं करती।
ReplyDeleteघुघूती बासूती
मेरी शादी आज से करीब २२ ,२३ साल पहले हुयी, बिना दहेज के, कुछ समय बाद मेरे भाई की शादी हुयी, मेरे दबाब के कारण बिना दहेज के , मेरे दो बेटे है, अगर बेटी भी होती तो शादी बिना दहेज के ही करता, अब बेटो की शादी जब भी हुयी ओर भारतीया लडकी से हुयी तो बिना दहेज के बिना दिखावे के होगी. धन्यवाद
ReplyDelete`जी नहीं’.... गलत कहा आपने। कुछ अपवादों में मुझे भी लें। गर्व से कह सकता हूं कि ४० वर्ष पूर्व मैंने अपनी बिरादरी की लड़की से बिना दहेज शादी की।
ReplyDeleteअपने दो लड़कों के ब्याह में बैंड-बाजा नहीं बजाया और बिना दहेज शादी हुई। अपनी लड़्की की शादी में मुझे दहेज देना नहीं पडा। और आज ये तीनों परिवार सुखी हैं।
सुलभ, आपकी सोच अच्छी है। शुभकामनाएं।
ReplyDeleteमैडम, आपके साहस की दाद देता हूँ। आज इसी की ज़रुरत है।
भाटिया साहब , आपके क्या कहने। आपके ख्यालात काबिले-तारीफ हैं।
आप सबको बधाई।
वाह वाह वाह ! प्रशाद जी, सही पकड़ा आपने।
ReplyDeleteमैं कब से ऐसी बात का इंतज़ार कर रहा था।
पहले तो आप को हार्दिक बधाई, इस साहसिक कार्य के लिए।
लेकिन चर्चा अभी जारी है, और बहुत सार्थक चल रही है।
इसलिए फुल एंड फाइनल विचार अंत में।
शादी के कई वर्ष गुजर गए, मैने हट पूर्वक ससूराल वालों से कुछ भी स्वीकार नहीं किया. पत्नि को तकलिफ होती थी अतः उसे एक सीमा तक लेने की छूट दी, मगर मैं अड़ा रहा. एक दिन सासूजी ने टी-शर्ट आगे बढ़ाते हुए कहा कि मन माने तो ले लो मुझे खुशी होगी. मैने पता नहीं क्यों ले ली. उसी समय सासूजी रो पड़ी. तब मुझे लगा क्या मैं कुछ गलत कर रहा था? आज भी समझ नहीं पाया हूँ.
ReplyDeleteदिल से दी गई भेंट को स्वीकार करना चाहिए, इससे देने वाले को ख़ुशी होती है।
ReplyDeleteमेरी सासू माँ ने जो एक स्वेटर मेरे लिए शादी के बाद पहली सर्दियों में बना कर दिया था, २५ साल पहले, उसे आज और अभी मेरा बेटा पहन कर बैठा है।
उम्मीद है संजय भाई, अब तो समझ में आ गया होगा।
दहेज तो पुरातन परम्परा है।
ReplyDeleteपरन्तु यह स्वेच्छा से होना चाहिए।
क्रिसमस की बधाई!
मेरे बड़े भाई के एक दक्षिण भारतीय दोस्त की याद आती है इस विषय पर...वो बहुत होशियार थे किन्तु आई ए एस का इम्तहान नहीं दे पाए क्यूंकि उस दौरान वो बीमार हो गए...जिस कारण वो भारत सरकार में छोटी पोस्ट में ही रहे थे. उन्होंने विवाह के पूर्व अपने घर वालों को कह दिया था कि वो अपने पैसे से केवल खादी ही पहनते हैं और पहनते रहेंगे. यदि विवाह के दौरान उन पर कोई दबाव डालेगा तो वो उसी समय अपने घर दिल्ली लौट जायेंगे!
ReplyDeleteहमारे पिताजी के समय तो कुमाऊँ के पहाड़ों के ब्राह्मिन समाज में कोई लेन-देन का चलन था ही नहीं. वो कई बार बताते थे कि कैसे १९२४ में रस्म के अनुसार उन्हें एक चांदी कि अंगूठी पहनाई गयी थी - जो बाद में वापिस कर दी गयी थी :) वो दिल्ली के अपने समाज में औरों की देखा-देखी इस प्रथा को अपना लेने से दुखी हो अपने उपरोक्त वैवाहिक रस्म को याद करते थे. यही कारण था शायद जिसने मुझे प्रभावित किया था...
यद्यपि आपको बहुत ऐसे मिलेंगे जिन्होंने दहेज़ नहीं लिया, या ले- दे नहीं रहे हैं, फिर भी वो थोड़े ही हैं जनसँख्या के लिहाज से...
माननीय दराल जी,
ReplyDeleteआज अभी अग्रज नीरज जी से फ़ोन द्वारा ज्ञात हुआ कि आपने ब्लागजगत पर मेरी गुमशुदगी पर पूरी एक पोस्ट १६ दिसंबर को पेश की और तमाम शुभचिंतको नें अपनी त्वरित टिप्पणियां भी दी.
आपकी और सभी शुभचिंतकों की गहन आत्मीयता से में हार्दिक रूप से आप सब का ऋणी हो गया.
हाँ एक बार और बता दूं कि मैं नहीं जानता कि विजय जी के ब्लाग पर मेरी अंतिम टिपण्णी किस तारीख कि है पर यह सच है कि मैं ब्लाग जगत से 'मज़बूरी" पर अपनी अंतिम पोस्ट पेश कर ऊपर वाले के रहमों करम से "मज़बूरी" के ही चलते मुझे ब्लाग जगत से दूर रहना पड़ा और शायद अभी कुछ और महीने दूर रहना पड़े, कारण कि मैंने तभी से "इन्डियन स्टील कारपोरेशन लिमिटेड , गांधीधाम में विधुत विभाग में सहायक महाप्रबंधक के पद पर नैकरी ज्वाइन कर ली है और वहां पर इंटरनेट की अनुपलब्धता के चलते ब्लाग जगत से दूरी एक मज़बूरी बन गयी है. परिवार जयपुर में ही है, सारी व्यवस्थाएं जयपुर में ही हैं, आज यह कमेंट या कहूँ उत्तर जयपुर से ही लिख रहा हूँ. अभी मुझे कंपनी के काम से ग्वालियर के लिए निकलना है, वहां से १ जनवरी को ही गांधीधाम पुनः जयपुर होते हुए वापस पहुँचूँगा.
जो मोबाईल नंबर अग्रज नीरज जी ने दिया है वह मेरा जयपुर का नंबर था, सो रोमिंग के कारण उसे स्विच ऑफ कर के रखा था. अब मेरे पास गांधीधाम का नया मोबाईल नंबर 09725506267 है,
आशा है, मेरी अनुपस्थिति की मज़बूरी पर लगा ग्रहण ज्यों ही ईश्वर के रहमो करम से हटेगा, अप सब के साथ एक नयी ताजगी से मिल कर अभिभूत होऊंगा, आप सब को मिस करने का मुझे भी बेहद अफ़सोस है, पर समय के आगे किसी का बस नहीं चलता.........
अंत में आप सभी का पुनः एक बार हार्दिक आभार.
चन्द्र मोहन गुप्त
चंदर मोहन जी , एक मुद्दत के बाद आपसे रूबरू होकर बहुत अच्छा लग रहा है। वैसे तो नीरज जी से आपकी कुशलता का पता चलने पर सभी को बड़ा अच्छा लगा था। मैंने आपको नीरज जी द्वारा बताये इ-मेल पर लिखा भी था। और ज़वाब न आने पर अनुपस्थिति का कारण समझ नहीं आ रहा था। लेकिन अब कारण जानकार तो और भी अच्छा लग रहा है की कम से कम आप भली भांति सकुशल हैं, और ये कारण तो किसी के भी बस के बाहर है।
ReplyDeleteआशा करता हूँ की जल्दी ही आप अपना काम संभाल लेंगे और फिर से ब्लोगिंग में आ पाएंगे।
जे सी साहब आपकी बात सही है , ऐसे लोग अभी कम हैं। लेकिन जागरूकता फ़ैल रही है।
आज ८०% लोग दिखावे में जी रहे हैं और यही कारण है समाज में दहेज के प्रति बढ़ती प्रेम ..लोग कहते है पर अमल नही करते निश्चित रूप से इसका तिरस्कार करना चाहिए..अब तो हम इक्कीसवीं शताब्दी में आ गये है..कब तक दिखावे और शोहरत की आँधी में बहते रहेंगे..बढ़िया प्रसंग..धन्यवाद
ReplyDeleteदहेज यानी हेज मे दी गई हेज माने प्यार . प्यार मे दी गई वस्तुए . दहेज मांगना पाप है . मुझे तो दहेज मिला था लेकिन मांगा नही था
ReplyDeleteअपने हैसियत के अनुसार उचित खर्चों को करना ठीक है । आखिर एक पारिवारिक खुशी की बात है । त्योहार में भी हम यथाशक्ति उपहार आदि देते ही हैं , ये भी तो एक पारिवारिक त्योहार है । मुश्किल तब होती है जब जोर जबरदस्ती होती है , हैसियत के बाहर चीजों को कर्ज लेकर पूरा किया जाता है ,जिसके मैं सख्त खिलाफ़ हूं ।
ReplyDeleteमेरी अपनी शादी में (४४ साल पहले)भी कोई दहेज नही लिया गया और हमने भी अपने बेटों की शादी में दहेज नही लिया । बेटी थी नही होती तब शायद उसको भी यही सिखाते ।
ReplyDeletena isake baare me sochaa na kabhi vichaar kiyaa,, apni jindagi shaayad isiliye mast chal rahi he.
ReplyDeleteदहेज़ एक अभिशाप है...कल भी था और आज भी है...पैंतीस साल पहले मात्र सवा रुँपये वो भी पंडित के बहुत अनुनय विनय के बाद लिए जाने पर,पर शादी हुई थी हमारी...दोनों बेटों की शादी में जब कुछ भी लेने से मना कर दिया तो वधु पक्ष वाले सन्नाटे में आ गए...बोले बिरादरी में हमारी इज्ज़त क्या रहेगी...बेटी यूँ ही विदा कर दी..लेकिन हम अपनी बात पर अड़े रहे...सिर्फ इक्का दुक्का लोगों के दहेज़ न लेने से ये कुप्रथा समाप्त नहीं होगी...इसे जड़ से निकालना होगा...बच्चों को ही दहेज़ ना लेने की जिद करनी होगी...बेटे का बाप स्वयं मान जायेगा...लेकिन अगर आपका बेटा ही दहेज़ पर आँखें गडाए बैठा हो तो क्या कीजियेगा...तब लड़कियों को ऐसे लड़कों का सार्वजनिक अपमान करना चाहिए...लेकिन ये सब कहना आसान है करना मुश्किल...समाज में इतनी गहरें जड़ें ये कुरीति जमा चुकी है की इसे निकलने में भागीरथी प्रयास करने होंगे...क्या ही अच्चा हो यदि पड़े लिखे लोग इस प्रकार के विवाह का सार्वजनिक बहिष्कार करें...
ReplyDeleteनीरज
दराल सर,
ReplyDeleteआपका सवाल वाज़िब है...लेकिन ज़माने की जिस तरह रफ्तार है, आने वाला वक्त ऐसा भी आ सकता है
बेटी...डैड, आज शाम को मेरी शादी है, आप ज़रूर आइएगा...
डैड... सॉरी बेटा, शाम को तो मैं नहीं आ सकता, आज मेरी भी शादी है...
ये तो रही मज़ाक की बात...दहेज और उपहार में फर्क होता है...बेटी का भी मां-बाप पर उतना ही हक होता है जितना कि बेटे का...अगर मां-बाप खुशी खुशी और अपने सामर्थ्य के अंदर ही कोई उपहार बिटिया को देना चाहते हैं तो उसमें कोई बुराई नहीं है...हां दबाव जहां हो वहां रिश्ता ही नहीं जोड़ना चाहिए...मैंने ऐसे परिवार भी देखे हैं जो पहले कहते हैं हमें बस बिटिया चाहिए और कुछ नहीं...लेकिन दहेज में मोटा माल-पानी न मिले तो शादी के अगले दिन से ही ससुराल में सबके मुंह बन जाते हैं...बहू को कभी बारातियों की खातिर न होने, या घर का कामकाज न आने के ताने देकर प्रताड़ित करना शुरू कर दिया जाता है...और आजकल वो ज़माना भी नहीं रहा जब रिश्तेदारों या जानने वालों को ही बेटे-बेटियों के जवान होने पर शादी की फिक्र रहती थी...अब कोई इस काम में हाथ नहीं डालना चाहता...अखबारों या नेट पर मैट्रिमोनियल एड देखकर रिश्ते होते हैं..,इन एड में अस्सी फीसदी झूठ लिखा जाता है....यही सब शादी के बाद गड़बड़झाला करता है....टिप्पणी कुछ ज़्यादा ही लंबी हो गई लगती है...
आपके टीचर से मिलना बड़े दिन से ड्यू है....लेकिन क्या करूं साल का आखिर होने की वजह से काम की व्यस्तता कुछ ज़्यादा है...खैर उम्मीद पर दुनिया कायम है...
जय हिंद...
खुशदीप भाई, सही लिखा है आपने।
ReplyDeleteशादी का मामला बड़ा कोप्लिकेतद इश्यु है।
अगली पोस्ट में कुछ काम की बातें हैं, पढियेगा ज़रूर।
दहेज ना लेने वालों की लाईन में मैं भी खड़ा हूँ।
ReplyDeleteउम्मीद है बेटे की शादी में दहेज स्वीकार नहीं करूँगा, अपने स्तर पर
बिटिया की शादी का मामला तो वक्त बताएगा।
बी एस पाबला
पाबला जी, आप बधाई के पात्र हैं।
ReplyDeleteबस इसी तरह ज्योत से ज्योत जलती रही तो, इंसानियत रौशन हो सकती है।
इस समय मौजूदा चलन को देखते हुए ये कहना तो मुश्किल ही लग रहा है कि लोग अपने बच्चों की शादी-ब्याह के मौके पर दहेज नहीं लेंगे...लेकिन ये भी सच है कि जागरूकता आहिस्ता-आहिस्ता ही आएगी ...
ReplyDeleteबारिश की पहली बूँद को फनाह होना ही पड़ता है ...इसलिए बिना-दहेज शादी करने वालों की बुराइयां भी की जाएंगी...ताने भी कसे जाएंगे लेकिन उम्मीद है कि एक ना एक दिन सवेरा हो कर ही रहेगा