Friday, November 4, 2011
हम मच्छर नहीं इंसान के बुरे कर्म हैं--
पिछले कुछ वर्षों से दीवाली के आस पास एक अजीबोग़रीब नज़ारा देखने को मिल रहा है । दशहरे और दीवाली के मध्य काल में दिल्ली में लाखों करोड़ों महीन मच्छर लाईट के सामने आ जाते हैं और सुबह सब के सब ज़मीन पर बिखरे नज़र आते हैं । हमारी लिफ्ट के सामने से कम से कम एक डोंगा भर ये मच्छर हम रोज उठाकर फेंकते हैं ।
लेकिन आश्चर्यज़नक रूप से दीवाली के बाद पूर्ण रूप से गायब हो जाते हैं ।
इसी पर हमने एक अनुमानित शोध कार्य किया जो प्रस्तुत है एक कविता के रूप में :
१)
एक दिन कामवाली बाई
घर आते ही बड़बड़ाई ।
बाबूजी , ये द्वार पर कौन मेहमान खड़े हैं ,
हैं तो लाखों करोड़ों , पर सब बेज़ान पड़े हैं ।
ये कहाँ से और क्यों आते हैं
हम तो समझ नहीं पाते हैं ।
ऊपर से इनका नाज़ुक मिजाज़ देखिये ,
रोज सेंसेक्स की तरह लुढ़क जाते हैं ।
मैंने कहा बेटा , ये बिन बुलाये मेहमान
जो बेज़ान हो गए हैं ,
ये स्वतंत्र भारत के वो नागरिक हैं
जो अपनी पहचान खो गए हैं ।
इनका जन्म लेना भी
कुदरत की बड़ी माया है ।
इनके लघु जीवन पर पड़ी
ग्लोबल वार्मिंग की छाया है ।
ग्लोबल वार्मिंग से इनके जींस में
परिवर्तन हो गया है ।
इसीलिए कुछ नेताओं की तरह इनका भी
अस्तित्त्व ही खो गया है ।
२)
उस दिन शाम रंगीन होते ही
वो फिर आ गए ।
दीवाने परवाने से
हर विद्धुत शमा पर छा गए ।
मैंने पूछा --आप कौन हैं
कहाँ से आए हैं , क्यों आए हैं ?
उनमे से एक जो ज्यादा ख़बरदार था
शायद उस झुण्ड का सरदार था ।
बोला --हम उत्तर भारत से आए हैं
रोजी रोटी की तलाश में, दिल्ली के आसरे ।
हमने कहा --आइये, आपका स्वागत है
अरे हम नहीं हैं बेरहम बेशर्म बावरे ।
हम दिल्लीवाले दिल वाले हैं
मेहमान नवाज़ी के साये में पाले हैं ।
तभी तो दिल्ली के द्वार
सभी के लिए खुले हैं ।
लेकिन यह तो बताईये
आप रोज क्यों चले आते हैं ?
वो बोला --हम तो इंसानी सभ्यता की
चकाचौंध से खिंचे चले आते हैं ।
लेकिन इस रौशन दुनिया को
इतना असभ्य और मतलबपरस्त पाते हैं ।
कि कहीं राख न हो जाये जलकर
अपनी ही लौ में शमा ,
इसीलिए पतंगा बन
खुद ही पस्त हो जाते हैं ।
देखिये ये जो हमारी खेप
अभी उड़कर आई है ।
ये मच्छर नहीं,
देश में बढती महंगाई है ।
सामने वाली लाईट पर
जो इनकी भरमार है ।
वह दरअसल देश में
फैला भ्रष्टाचार है ।
और जो ज़मीं पर बिखरा
इनका सामान है ।
वो असल में इंसान का
गिरा हुआ ईमान है ।
हमें मच्छर समझना
आपका भ्रम है ।
क्योंकि हम मच्छर नहीं
इंसान के बुरे कर्म हैं ।
नोट : यह रचना तब लिखी थी जब मुंबई में उत्तर भारतीयों पर हमले हो रहे थे ।
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गहरा अर्थ लिए बेहतरीन रचना ...
ReplyDeleteसहिष्णुता गायब होती जा रही है भाई जी !
आभार आपका !
काश,यह भ्रष्टाचार और मँहगाई भी मच्छर की तरह होते,
ReplyDeleteतो यूँ आज हम सब इस तरह न रोते !!
और जो ज़मीं पर बिखरा
ReplyDeleteइनका सामान है ।
वो असल में इंसान का
गिरा हुआ ईमान है ।
हमें मच्छर समझना
आपका भ्रम है ।
क्योंकि हम मच्छर नहीं
इंसान के बुरे कर्म हैं ।
वाह ...
हास्य-व्यंग्य की धार इन कविताओं में और पैनी हुई है।
ReplyDeleteआज के आनंद की जय।
मैंने कहा बेटा , ये बिन बुलाये मेहमान
ReplyDeleteजो बेज़ान हो गए हैं ,
ये स्वतंत्र भारत के वो नागरिक हैं
जो अपनी पहचान खो गए हैं ।
इनका जन्म लेना भी
कुदरत की बड़ी माया है ।
इनके लघु जीवन पर पड़ी
ग्लोबल वार्मिंग की छाया है ।
Ha-ha-ha-ha Gr8 Sir, Really a great poem !!
एक छोटे से कुदरती आब्जर्वेशन ने एक जबरदस्त कविता को जन्म दे दिया -सशक्त अभिव्यक्ति !
ReplyDeleteइनका जन्म लेना भी
ReplyDeleteकुदरत की बड़ी माया है ।
इनके लघु जीवन पर पड़ी
ग्लोबल वार्मिंग की छाया है ।
ग्लोबल वार्मिंग से इनके जींस में
परिवर्तन हो गया है ।
इसीलिए कुछ नेताओं की तरह इनका भी
अस्तित्त्व ही खो गया है ।
.....एक मच्छर ने क्या कमाल की सोच दी है
कविता में गहरी बात। सच कहा आपने। वैसे मुझे याद है कि सहारनपुर में एक समय में मच्छर इसी प्रकार सुबह को एक मोटी परत के रूप में मिलते थे।
ReplyDeleteसुन्दर और गहन भाव लिए हुए अच्छी प्रस्तुति
ReplyDeleteवाह! डॉ.साहब वाह!
ReplyDeleteआप के मरीज तो आपकी कविता सुन कर हे ठीक हो जायेगें!
खुश रहिये और ऐसे ही खुश रखिये ..हा हा हा .
शुभकामनाएँ!
और चमत्कार यह है कि
ReplyDeleteमच्छर और मानव को
राम और रावण को
सभी को
बनाने वाला निराकार है :)
बेहतरीन कविता के माध्यम से गहरा कटाक्ष किया है……………शानदार प्रस्तुति।
ReplyDeleteपतंगों पर अब तक शेर सुने थे, उन पर कविता भी रची जा सकती है वो भी इतनी अच्छी सोचा न था।
ReplyDeleteज़बरदस्त सर जी!
ReplyDeleteदेखिये ये जो हमारी खेप
ReplyDeleteअभी उड़कर आई है ।
ये मच्छर नहीं,
देश में बढती महंगाई है ।
सामने वाली लाईट पर
जो इनकी भरमार है ।
वह दरअसल देश में
फैला भ्रष्टाचार है ।
और जो ज़मीं पर बिखरा
इनका सामान है ।
वो असल में इंसान का
गिरा हुआ ईमान है ।
वाह , मच्छरों से उपजी इतनी सार्थक सच्चाई ... गज़ब की ही सोच है .. सुन्दर प्रस्तुति
आह ...वाह....जबर्दस्त्त..क्या बोलूं ..एक एक पंक्ति इतनी वजनदार है कि मेरे शब्द हलके ही पढेंगे.
ReplyDeleteऔर जो ज़मीं पर बिखरा
ReplyDeleteइनका सामान है ।
वो असल में इंसान का
गिरा हुआ ईमान है ।
क्या बात कही है....
ऊपर से इनका नाजुक मिजाज देखिये
ReplyDeleteरोज सेंसेक्स की तरह लुढ़क जाते है !
वाह क्या बात है बहुत बढ़िया !
लिखने में कलम तोड़ दी आज तो डॉ दराल ने .राज ठाकरे को समर्पित कीजिये ये उदगार और मनमोहन को दीजिए दिवाली का यह अप्रतिम उपहार आज फिर पड़ी है पेट्रोल की मार .साथ ही दिल्ली में बढा है कारों का बाज़ार अब बच्चे अस्पताल में नहीं कारों में पैदा होतें हैं . जी .ऐसे ही नहीं कहा गया है .बेहद उत्कृष्ट स्तर के रचना लिखी गई है प्रजातंत्र में आदमी की यही नियति है शर्म उनको फिर भी नहीं आती "जी डी पी "और बी पी एल जो समझा रहें हैं दिन रात
ReplyDeleteकल के चर्चा मंच पर, लिंको की है धूम।
ReplyDeleteअपने चिट्ठे के लिए, उपवन में लो घूम।।
मित्रो, पिछले कुछ वर्षों से वास्तव में ही यह फिनोमिना देखने को मिल रहा है । लाईट जलते ही जाने कहाँ से करोड़ों मच्छर आ जाते हैं फिर सुबह सब मरे मिलते हैं । इनकी एक दिन की जिंदगी का रहस्य सचमुच समझ नहीं आया ।
ReplyDeleteशायद कोई entomologist बता सके ।
वीरुभाई जी , रचना में किसी का नाम लेना मैं उचित नहीं समझता । लेकिन मज़ा तो तभी है जब आप स्वयं ही सही अर्थ निकाल लें ।
ReplyDeleteहमें मच्छर समझना
ReplyDeleteआपका भ्रम है ।
क्योंकि हम मच्छर नहीं
इंसान के बुरे कर्म हैं ।
सही कहा डॉ साहेब --हमारे बुरे कर्मो का ही ये फल हैं --ये तो बेचारे सुबह होते ही मर मिटते हैं ,पर जो बेहद बेशर्म हैं वो तो न दिन के उजाले में मरते हैं न रात के अंधकार में --उनका क्या ?
वैसे ये नई प्रकार की प्रजातियाँ हमारे बाम्बे में भी बहुतयात में पाई जाती हैं -- जिन्हें हम सुबह उठकर फैंक भी नहीं सकते ??
जहां तक त्रेता युग का प्रश्न है, माना जाता है कि दशहरे के दिन राक्षश राज रावण पर राम विजय पा बीस दिन बाद, दिवाली के दिन अयोध्या पहुंचे, और अयोध्यावासियों ने दिवाली मनाई, जिसे हम भी परम्परानुसार मनाते आ रहे हैं...
ReplyDeleteऔर उसके बाद, द्वापर युग वर्तमान अर्थात कलियुग से पहले आया था, जब (यम की बहन) यमुना के एक पार हस्तिनापुर में कौरवों का राज था और दूसरी ओर इन्द्रप्रस्थ में पांडवों का राज, जिसे भी हेराफेरी से कौरवों ने हथिया लिया था...
और युग के अंत आने से पहले कुरुक्षेत्र के मैदान में दोनों के बीच लड़ाई हुई, और न मालूम कितने राक्षश (स्वार्थी कौरव) मरे और भूत बन, और शायद विषैले राक्षसों की आत्माएं, फिर मच्छर का शरीर पा, यमुना के विषैले जल में बार बार आते हों... और उसी नाटक को आपके मनोरंजन हेतु दोहराते हों! (क्यूंकि, अब हो सकता है कि कलियुग का अंत निकट हो, कृष्ण कि यमुना विषैली हो तो कोई आश्चर्य नहीं, किन्तु अब तो राम कि गंगा भी मैली हो गयी है)...:)
kavita bhi manoranjak hai uttam sandesh hai,samaaj ko aaina dikhati hui rachna.bahut achchi.
ReplyDeleteहमें मच्छर समझना
ReplyDeleteआपका भ्रम है ।
क्योंकि हम मच्छर नहीं
इंसान के बुरे कर्म हैं ।
बहुत बढिया ..
ReplyDelete♥
आदरणीय डॉ.दराल भाईजी
सस्नेहाभिवादन !
हम मच्छर नहीं
इंसान के बुरे कर्म हैं
आपका कवि खुल कर उभरा है इस पोस्ट में
वाह वाऽऽह और वाऽऽऽह्… :)
बधाई और मंगलकामनाओं सहित…
- राजेन्द्र स्वर्णकार
दाराल साहब इस मच्छर पुराण में भी बड़ी गहरी बात कह दी आपने. इंसान तो मच्छर से भी गए बीते हो गए है. यहाँ से भागे वहाँ जले , वहा से यहाँ गोया बेगाना हो गया हो देश. कास मच्छरदानियां कम हो जाये या फाड़ दी जाये
ReplyDeletebahut kuch samjhati hai apki ye rachan...
ReplyDeletegahan bhav..
jai hind jai bharat
bahut sarthak rachna hasy ke sath-sath behtar sandesh...
ReplyDeleteदीवाली के बाद शायद सात अरबवां मच्छर भी मर जाता है :)
ReplyDeleteइसमें तो गहन दर्शन छुपा है।
ReplyDeleteजो दिखा सो तो आपने लिखा ही है
किन्तु जो नहीं दिखता वह भी लिखा है!
औषधियों और वनस्पति तक की शांति और सह-अस्तित्व तथा सर्वसमावेशी मॉडल की बात करते-करते कहां आ पहुंचे हम!
ReplyDeleteशेख जी, हालात कैसे बदलने लगे,
ReplyDeleteपरवाने बिन शमा अलविदा करने लगे...
जय हिंद...
बहुत ही सुन्दर व्यंग !
ReplyDeleteचौतरफा वार!
दिवाली तक ही क्यूँ आते हैं परवाने दशहरे के बाद?
ReplyDeleteएक तुक्का - क्यूंकि परवाने जलने आते हैं, और उनकी इच्छा दिवाली में दीये ही पूरी कर सकते है, जिसे लट्टू और ट्यूब पूरी नहीं कर पाते हैं और कुछ किसानों की तरह वो निराश हो आत्म-ह्त्या कर लेते हैं :(...कहीं पढ़ा था कि महाराष्ट्र में ही पिछले १३ वर्षों में दो लाख किसान आत्म हत्या कर चुके हैं... और सब जानते हैं कि इतिहास भूत की झूटी-सच्ची कहानियों से ही बनता है और दोहराता भी है, जबकि भविष्य का केवल अनुमान ही लगाया जा सकता है) :?:(
बेहद गंभीर विषय को एक व्यंग के माध्यम से कह जाना आपकी विशेषता है. परवानो की संतति पर अफ़सोस के सिवा और क्या दे सकते हैं.
ReplyDeleteजैसे कर्म करेगा , वैसे फल देगा भगवान
ReplyDeleteसटीक ,धारदार
मच्छर घूं करेंदा ...शावा ..
ReplyDeleteमच्छर घूं करेंदा ...शावा
मच्छर राजेन्द्र तों वी ना डरेया
मच्छर खुशदीप तों वी ना डरेया
मच्छर डॉ दराल कोलों डरेया ....
शावा ......मच्छर घूं करेंदा
हरकीरत जी , वाव्हा वाव्हा !
ReplyDeleteआपको आज खुश मिजाज़ देखकर अच्छा लगा ।
खुशदीप जी , जे सी जी --परवानों का तो काम ही जल जाना होता है ।
लेकिन ये बेचारे तो बिना शमा के ही जल जाते हैं ।
हमें तो ये कुछ साल से ही दिखने लगे हैं ।
शायद वातावरण में बदलाव आ रहा है ।
मच्छर घूं करेंदा ...शावा ..
ReplyDeleteमच्छर घूं करेंदा ...शावा
मच्छर राजेन्द्र तों वी ना डरेया
मच्छर खुशदीप तों वी ना डरेया
मच्छर डॉ दराल कोलों डरेया ....
शावा ......मच्छर घूं करेंदा
अय हय हयऽऽऽ…
सुरीली तान कानों विच गूंजण लगदी सी …
*हीर जी *
कदी तो साडी रिक्वेस्ट वी मानलो …
अपणी सुरीली अवाज़ में कोई गीत अपणे ब्लॉग पे साडे वास्ते वी डाल दओ
-राजेन्द्र स्वर्णकार
शुक्रिया डॉ साहब !आपकी ब्लोगिया दस्तक हमारा मार्ग निर्देशन करती है .आदाब !ईद मुबारक .
ReplyDeleteगहरे भाव और अभिव्यक्ति के साथ लाजवाब प्रस्तुती ! बधाई!
ReplyDeleteमेरे नये पोस्ट पर आपका स्वागत है-
http://seawave-babli.blogspot.com/
सबने इतना कुछ कह दिया की अब मेरे बोलने और लिखने के लिए कुछ बचा ही नहीं :-)बहुत ही गहरी और सटीक बातों को बड़ी ही सरलता से कह गए आप, वाह बहुत खूब.... शिखा जी, की बात से सहमत हूँ आपकी इस अभिव्यक्ति पर कुछ भी लिखने के लिए शब्द हल्के और कम पड़ेंगे।
ReplyDelete'हीर' जी, मच्छर मेरे कोल वि न डरिया!
ReplyDeleteमानव मस्तिष्क की कार्यप्रणाली विचित्र है, और उसका नियंत्रक भी !... सन '८० फरवरी में मैं अपने चार अन्य पारिवारिक सदस्यों के साथ गुवाहाटी पहुँच गया...ब्रह्मपुत्र नदी के किनारे बसे होने से बहुत मच्छर थे वहाँ... एक दिन पत्र लिख रहा था तो एक मच्छर हाथ पर बैठ गया... और जैसा आम होता है, मेरा बांया हाथ उठ गया उसे मारने के लिए... किन्तु उस क्षण एक विचार मन में कौंधा, "एक 'वैज्ञानिक' होते हुए भी मैं मच्छर को क्यूँ मारता था, जबकि अपने तत्कालीन ४० + वर्ष की आयु तक मुझे मलेरिया कभी नहीं हुआ था! वो बेचारा तो 'पापी पेट' की खातिर थोडा सा रक्त पीता था!" यह सोच मेरा बांया हाथ नीचे आ गया और मैंने उस से कहा "जितना पीना है पीले! मैं हाथ नहीं हिलाऊंगा, नहीं तो तू डर के उड़ जाएगा"... आश्चर्य हुआ जब वो आराम से अब आगे बढ़ ऊँगली पर पहुँच मेरी कलम को धक्का सा मारने लगा! जब मैंने हाथ से कलम नहीं छोड़ा तो अंगूठे के ऊपर पहुँच गया, और एक स्थान चुन, लगा खून पीने! मैंने सोचा था वो दो चार बूँद पी उड़ जाएगा,,, किन्तु जैसे मुफ्त की शराब काजी को भी हलाल होती है वो टंकी फुल करने लगा :) काफी समय निकल गया... फिर एक बार देखा कि वो नीचे मेज़ पर उतर चुका था और आगे ऐसे बढ़ रहा था जैसे कोई शराबी चलता है :)
मैंने सोचा था मेरा निमंत्रण केवल उस मच्छर के लिए था,,, किन्तु उसके बाद जो भी मच्छर आता उसी अंदाज़ से पीता था जैसे वो मेरा अतिथि था (और, 'अतिथि देवो भव'!)...
बहुत खूब। हम भी भिनभिनाते हुये पहुँच ही गये इस जगह। शुभकामनायें।
ReplyDeleteजब मैंने हाथ से कलम नहीं छोड़ा तो अंगूठे के ऊपर पहुँच गया, और एक स्थान चुन, लगा खून पीने! मैंने सोचा था वो दो चार बूँद पी उड़ जाएगा,,, किन्तु जैसे मुफ्त की शराब काजी को भी हलाल होती है वो टंकी फुल करने लगा :) काफी समय निकल गया... फिर एक बार देखा कि वो नीचे मेज़ पर उतर चुका था और आगे ऐसे बढ़ रहा था जैसे कोई शराबी चलता है :)
ReplyDeleteहा...हा...हा......
आद जे सी जी आपके सब्र की दाद देती हूँ ....
भले ही मलेरिया न होता हो पर एक चुभन ...हलकी दर्द या खुजली तो होती है ....(मुझे तो बहुत होती है )
इतनी टंकी फुल करने देने का भी क्या फायदा हुआ होगा ...वो तो यूँ ही किसी के पैरों तले
दब गया होगा उड़ तो सका नहीं होगा .... :))
पर आप भी न कमाल हैं ....
'हीर' जी, यही तो मानव जीवन का शायद सत्य भी है, जो बुढापा आने, और भगवान् की कृपा से समय भी मिलने पर मन में ऐसे विचार आते हैं!...
ReplyDeleteजिनका काम दो रोटी से चल जाए किन्तु, क्यूंकि उनके पास कुछ या बहुत पैसा है, वो भी टंकी फुल करने में लगे दीखते हैं!
और, जो (मच्छरों समान, भिखारी) रोटी से वंचित हैं और इस कारण भूखे मर रहे हैं, अथवा आत्म-ह्त्या कर रहे हैं, उनके लिए कुछ सांत्वना के शब्द ही केवल हमारे पास हैं!...
दूसरी ओर, अपने सीमित - अनंत पृथ्वी की तुलना में नगण्य - जीवन काल में हमें नहीं पता हम किस लिए आये हुए हैं...
ऐसे विचार हमारे पूर्वज, सभी के अपने अपने विभिन्न विचार, हमारे लिए लिख-बोल गए... कुल मिला कर अनंत शब्दों में...किन्तु वो सभी जवानी में हमको मच्छर की घूं घूं ही लगते हैं :)
मैंने इसी लिए समझा कि मानव मस्तिष्क की रचना ही बड़ी विचित्र है, क्यूंकि सृष्टिकर्ता ही स्वयं विचित्र है, अदृश्य ही केवल नहीं रहस्यवादी है... और मेरा रुझान भी जासूसी कथा कहानियों में अधिक लगता था (डॉक्टर का पेशा भी ऐसा ही है - कुछ सिम्पटम सुन, जासूस के समान, अनुमान लगा दवाई देना... सही अनुमान लगा तो भगवान्)!
हा हा हा ! जे सी जी , बड़े रोचक अंदाज़ में लिखा है मच्छर पुराण .
ReplyDeleteवैसे हमने भी आज तक एक भी मच्छर नहीं मारा . हम तो कॉकरोच भी श्रीमती जी से मरवाते हैं , यदि कोई दिख जाये तो .
लेकिन काम के मामले में स्टाफ के साथ कोई भाई बंधी नहीं करते . क्योंकि काम सर्वोपरि है .
वैसे मानव और मच्छर में शायद यही फर्क है की मानव का पेट कही नहीं भरता जबकि मच्छर बेचारा तो एक बाईट लेकर उड़न छू हो जाता है .
सामयिक,यथार्थपरक व भावपूर्ण रचना !
ReplyDeleteकृपया पधारें ।
http://poetry-kavita.blogspot.com/2011/11/blog-post_06.html
बेहतरीन ... आपके व्यंग की पैनी धार के मुरीद हो गए हम भी डाक्टर साहब ... बहुत ही रोचक है आपका अंदाज़ .... लाजवाब ...
ReplyDeleteडॉक्टर दराल जी, उसके बाद मैंने अपनी छोटी बेटी से कई चपत भी खायीं थीं! क्यूंकि, जब कोई मच्छर मेरे चेहरे पर बैठ रक्त-पान कर रहा होता था और मैं हिल भी नहीं रहा होता था, उस से सहन नहीं होता था कि कोई उसके पिता का खून पिए, वो उसे मार डालती थी और चपत मुझे पड़ती थी :)
ReplyDeleteकोई बात नहीं जे सी जी । कहते हैं रक्त दान , महा दान । :)
ReplyDelete#
♥जे सी जी♥
:)
राजेन्द्र जी, 'हीर' जी, और डॉक्टर दराल जी, कहते हैं बात से बात निकलती है और "बात निकलेगी तो दूर तलक जायेगी" (यह गाने वाला बेचारा अब खुद ही हमसे दूर चला गया)...
ReplyDeleteअब देखिये, रक्त-दान की बात छिड़ी तो याद आया अपना पहला रक्त-दान के लिए लाइन में खड़े होना, और डॉक्टरों द्वारा जातिभेद समान सिस्टर का मेरा आम आदमी में पाए जाने वाला (बी+) खून युनिवार्सल डोनर (ए+) की तुलना में ऐसे लेना कि अब आगये हो तो ले ही लेते हैं :)