प्रस्तुत है , ऐसे ही एक जाम में फंसे होकर उत्तपन हुई एक हास्य कविता :
भाग १ :
बैरिकेड गड़े थे ,
ट्रैफिक जाम में फंसे
हम बेचैन खड़े थे ।
मैंने एक पुलिसवाले से पूछा,
भई कितने आतंकवादी पकड़े ?
वो बोला -एक भी नहीं ,
सुबह से ख़ाली खड़े हैं ठण्ड में अकड़े ।
मैंने कहा तो फिर इसे हटाओ,
क्यों बेकार समय की बर्बादी करते हो ।
वो बोला -चलो थाने,
मुझे तो तुम्ही कोई आतंकवादी लगते हो ।
मैंने कहा --थाने क्यों चलूँ ,मैंने क्या जुर्म किया है ?
वो बोला -नहीं किया तो करो,मैंने कब मना किया है ।
पर जुर्माना तो देना पड़ेगा ,
तुमने इक पुलिसवाले का वक्त घणा लिया है ।
अरे यदि तुमने मुझे
बातों में ना जकड लिया होता ,
तो अब तक मैंने एक आध
आतंकवादी तो ज़रूर पकड़ लिया होता ।
अब कैसे करूँगा मैं
परिवार का भरण पोषण
जब आतंकवादी ही न मिला
तो कैसे मिलेगा आउट ऑफ़ टर्न प्रोमोशन ।
अच्छा मोबाईल पर बात करने का
निकालो एक हज़ार रूपये जुर्माना ।
मैंने कहा -मेरे पास तो मोबाईल है ही नहीं
मैं तो ऍफ़ एम् पर गुनगुना रहा था गाना ।
तो फिर आपने गाड़ी
पचास के ऊपर क्यों चलाई ?
मैंने कहा -ये खटारा ८६ मोडल
चालीस के ऊपर चलती ही कहाँ है भाई ।
रेडलाईट के १०० मीटर के अन्दर
हॉर्न तो ज़रूर बजाया होगा ।
मैंने कहा -हॉर्न तो तब बजाता
जब हॉर्न कभी लगवाया होता ।
फिर तो चलान कटेगा
गाड़ी में हॉर्न ही नहीं है ,
मैंने कहा --सामने से हट जाओ
इसमें ब्रेक भी नहीं है ।
फिर बोला - आपकी गाड़ी के शीशे
ज़रुरत से ज्यादा काले हैं ।
मैंने उस कॉन्स्टेबल से कहा ज़नाब
आप भी इन्स्पेक्टर बड़े निराले हैं ।
ज़रा आँखों से काला चश्मा हटाओ
और आसमान की ओर नज़र घुमाओ।
अरे यह तो कुदरत की माया है
काले शीशे नहीं , शीशे में काले बादलों की छाया है ।
थक हार कर वो बोला
अच्छा कम्प्रोमाइज कर लेते हैं ।
चलो सौ रूपये निकालो
जुर्माना डाउनसाइज कर देते हैं ।
पर सौ रूपये किस बात के
यह बात समझ नहीं आई ?
वो बोला दिवाली का दिन है
अब कुछ तो शर्म करो भाई ।
अरे घर से बार बार
फोन करती है घरवाली।
दो दिन से यहाँ पड़े हैं
हमें भी तो मनानी है दिवाली ।
मैंने कहा -यह बात थी तो
हमारे अस्पताल चले आते ।
और हम से दो चार दिन का
नकली मेडिकल ले जाते ।
यह कह कर तो मैंने उसका
गुस्सा और जगा दिया ।
वो बोला मैं गया था
लेकिन आपके सी एम् ओ ने भगा दिया ।
और अब जो खाई है कसम
वो कसम नहीं तोडूंगा।
और मां कसम उस अस्पताल के
डॉक्टर को नहीं छोडूंगा ।
डॉक्टर को नहीं छोडूंगा ।
और जब मुक्ति की
कोई युक्ति समझ न आई ।
तो अगले साल का प्रोमिस
देकर ही जान छुड़ाई ।
देकर ही जान छुड़ाई ।
भाग -२ :
अगले दिन मैं घर से
बिना सीट बेल्ट बांधे ही निकल पड़ा था ।
वो पुलिसवाला उसी जगह
उसी चौराहे पर मुस्तैद खड़ा था ।
पर उस दिन वो पस्त था
अपनी धुन में मस्त था ।
उसने मुझे न टोका
न सामने आकर रोका ।
क्योंकि भले ही कोई
आतंकवादी न मिला हो
इस वर्ष दिवाली पर
कोई बम नहीं फूटा ।
हमारे पुलिस वाले कितनी विषम
परिस्थितियों में काम करते हैं ।
इसके लिए हम इनको
कोटि कोटि सलाम करते हैं ।
दराल साहिब, पुलिस पुराण पढ़ कर मज़ा आ गया.
ReplyDeleteकिसी पुलिसवाले ने पढ़ा ?
ReplyDeleteपहले तो पुलिसवाले की उतार ली और अन्त में सलाम भी ठोक दी। वाह भाई वाह।
ReplyDeleteआप का भी जबाब नही डॉक्टर साहब.
ReplyDeleteवाह! वाह!
ReplyDeleteखड़े खड़े ही घणा घुमा दिया!
जीवन का सत्य दर्शा दिया!
:) ) बेचारा पुलिसवाला, पाला भी पडा तो किससे :)
ReplyDeleteकाश कि कोई इन पुलिस वालों की मजबूरी भी समझता ...
ReplyDeletevaah ....maja aa gaya padhkar.police ki vaastvikta ko bade achche haasya ka rang chadakar prastut kiya hai.vese police vaalon se pange nahi lene chahiye.
ReplyDeleteNice post.
ReplyDeleteलाजवाब पोस्ट्स का संकलन और सब रोगों के लिए संजीवनी
ब्लॉगर्स मीट वीकली (15) One Planet One People
http://hbfint.blogspot.com/2011/10/15-one-planet-one-people.html
वाह ....बहुत बढि़या ।
ReplyDeleteट्रेफिक जाम में फंस अच्छी हास्य रचना लिखी गयी ... पुलिस वालों की मजबूरी को खूब लिखा है ..
ReplyDeleteहास्य के बहाने कई बातें कह जाती है यह प्रस्तुति!
ReplyDeleteवाह!
वाह !!!!आप तो बच गए. हम तो कल रात को ही फंस गए अपने ही घर के बाहर.सब कागज दिखा दिए तो बोला सिग्नल होने के पहले गाडी मोड दी. ५०० रुपये मांगे बड़ी मुश्किल से ३०० पर जान बची.
ReplyDeleteयथार्थपरक व रोचकतापूर्ण रचना,बधाई !
ReplyDeleteवाह डॉ साहब,जबरदस्त.
ReplyDeleteहमारे पुलिस वाले कितनी विषम
ReplyDeleteपरिस्थितियों में काम करते हैं ।
सचमुच बहुत कम लोगो की नज़र इस तरफ जाती है.
बढ़िया रही हास्य कविता
बेचारे पुलिस वालों को भी अपना घर चलाना है:) बहुत ही मजेदार और सटीक कविता.
ReplyDeleteइतनी मेहनत पर उस पुलिस वाले के सौ-पचास तो बनते ही थे.
ReplyDeleteअगर कोई पुलसिया पढ़ लेता तो आपकी खेर नहीं थी डॉ साहेब ...बाल-बाल बचे !
ReplyDeleteवाह बहुत अच्छी कविता पढ़कर मज़ा आगया सच ही तो है पुलिस वालों को भी तो आखिर दिवाली मानना है.... :-)
ReplyDeleteसमय मिले कभी तो आयेगा मेरी पोस्ट पर आपका स्वागत है जहां आलेख बड़ा ज़रूर है किंतु आपकी राय चाहिए। धन्यवाद
दराल साहब आज तो वाह-वाह-वाह कर दिया है आपने, एक बात और आपने बतायी है कि नकली मेडिकल का भी जुगाड करवा देते हो तो फ़िर मैं आ रहा हूँ?????????
ReplyDeleteमेरा छोटा भाई पुलिस में है आपकी कविता देख बहुत जोर से हँसा और बोला कि कुछ जन्म से कंगाल ऐसे भी इस विभाग में है। जिन्हे सिर्फ़ पैसा दिखता है कोई और नहीं।
पुलिस की मज़बूरी और आदत का फायदा उठा लिया आपने :)
ReplyDeleteपहली रचना में भी सलाम और दूसरी में भी बस अंदाजे बया अलग अलग !
ReplyDeleteजबरदस्त रचना !
अउर उसकी दिवाली जो खाली गई उसका क्या ? ई ठीक नहीं किया डॉ. साहब !
ReplyDeleteजिन दिनों में पान खाता था तो, दुकान पर आये दो व्यक्तियों को गले मिलते देखा, और एक को कहते सुना, "मैंने यहाँ के ही थाणे में ज्वाइन कर लिया है / अब तू किसी का मर्डर कर आ, बाकि मैं देख लुंगा!"
ReplyDeleteऔर ऐसे भी हैं - http://www.youtube.com/watch?v=4S20Zi7tsIA&sns=em
मेरा भारत महान! (ऐसे ही नहीं है!)...
बहुत खूब ....
ReplyDeleteपुलिस वाला आगे से आपके रस्ते में नहीं आएगा ...
कैसे कैसे गाडी चलाने वाले हैं ???
शुभकामनायें आपको !
बहनों भाईयों , इस रचना में पुलिस तो बस एक बहाना है । दरअसल इसमें ध्यान दिलाया गया है दिल्ली के ट्रैफिक पर और ड्राइवरों पर जो नियम तोडना अपना जन्म सिद्ध अधिकार मानते हैं । ऐसे लोग बहुत ही कम होंगे जो अवसर मिलते ही कोई न कोई कानून तोड़ न देते होंगे ।
ReplyDeleteयदि हमारी पुलिस अमेरिका कनाडा की तरह काम करे तो तो रोज लाखों चलान कट जाएँ ।
लेकिन पुलिस वाले भी बेचारे क्या करें , किसी को भी पकड़ते ही वह सबसे पहले फोन मिलाता है किसी वी आई पी को और धमकी देने लगता है देख लेने की ।
इसीलिए दिल्ली की सड़कों आजकल गुंडाराज है ।
आज दिन भर व्यस्त रहा , इसलिए अभी समय मिल पाया है आपके ज़वाब देने का ।
ReplyDeleteरश्मि जी , पढ़ा या नहीं , यह तो बाद में पता चलेगा । :)
गोदियाल जी , हम पुलिस वालों की बहुत इज्ज़त करते हैं , इसलिए वे हमारी इज्ज़त करते हैं ।
और यह पारस्परिक फायदे की बात है ।
सही कहा राजेश जी । लेकिन यह बात बस शरीफों पर लागु होती है ।
संगीता जी , सच उनकी भी मजबूरी होती है । बहुत सख्त ड्यूटी होती है ।
सॉरी रचना जी । अब आगे से ध्यान रखियेगा । दूसरे की गलती से ज्यादा प्रोब्लम होती है ।
सही कहा सुशील जी , मेहनत का फल मीठा होता है । लेकिन हम डॉक्टर्स तो जो दवा देते हैं वह कडवी ही होती है । :)
ReplyDeleteसंदीप जी , यह कंगाली की वज़ह से नहीं होता । अन्ना साहब यूँ ही नहीं माथा पच्ची कर रहे देश में ।
शुक्रिया अरविन्द जी ।
संतोष जी , कुछ देकर ही आए हम भी , अगले साल का प्रोमिस ही सही । वो कहते हैं भागते चोर की लंगोटी ही सही ।
सतीश जी रास्ते में तो आते हैं , लेकिन शुक्र है , फिर रास्ता छोड़ देते हैं ।
वैसे कभी कभार गलती हम से भी हो जाती है लेकिन वह गलती गलती से ही होती है ।
वाह!
ReplyDeleteबच गए, बिना दीवाली खर्चा दिए :)
ReplyDeleteअब दिल्ली की ही नही हर शहर की गलियां [हर सड़क अब गली ही लगती है] कोती होती जा रही है मानो वो वहां के बाशिंदों के दिल का प्रतीक बनी हुई हैं :)
ReplyDeleteaap jaise dr. ho to mareez hi na rahen.
ReplyDeletemazedar abhivyakti.
बहुत खूब...
ReplyDeleteहास्य-व्यंग्य का सुन्दर सामंजस्य...
Bahut khub!
ReplyDeleteवातावरण प्रधान अच्छी व्यंग्य विनोद पूर्ण रचना .बधाई .
ReplyDeleteट्रैफिक वाले जिस तरह घात लगाए खड़े मिलते हैं,उससे जाहिर है कि ज़ोर व्यवस्था सुधारने पर न होकर वसूली पर है। कविता सुनाने पर भी नहीं छोड़ते!
ReplyDeleteइस कविता में व्यंग्य के साथ साथ सन्देश भी है.. अच्छा खाका खींचा है.....लेकिन हर सुरक्षित त्यौहार के पीछे उनकी मुस्तैदी की अनदेखी नहीं की जा सकती.. पुलिस को तो संवेदनशील होने की जरुरत तो है ही.... लेकिन.... पुलिस के प्रति भी हमें संवेदनशील होने की भी आवश्यकता है...
ReplyDeleteसही कहा अरुण रॉय जी । पुलिस का काम बेशक बड़ा पेचीदा है । जनता को भी अपना फ़र्ज़ निभाना चाहिए ।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर कविता...व्यंगात्मक भी और ड्यूटी के प्रति मुश्तेदी का भी
ReplyDeleteआप रुको!!!! हम अभी पुलिस में रपट लिखवा कर आते हैं
ReplyDeleteपुलिसवालों के 'कष्टों' का बढ़िया बखान कर दिया है आपने. सुंदर.
ReplyDelete'महाभारत' में कृष्ण के मित्र 'धनुर्धर अर्जुन' को ही केवल 'महारथियों' द्वारा रचित 'चक्रव्यूह' तोड़ पाने में सक्षम होना दर्शाया गया है... और दूसरी ओर, उसके साहसी किन्तु अज्ञानी पुत्र अभिमन्यु को भीतर तो पहुँच पाना संभव, किन्तु बाहर भी उसी प्रकार सम्पूर्ण ज्ञान के आभाव में सरलता पूर्वक निकल नहीं पाना, और मारा जाना, हर कोई पढता तो है, किन्तु इसे मानव जीवन का सत्य केवल योगी ही कह गए, और उसे योगी ही समझ सकते हैं :)
ReplyDelete(कलियुग में 'पैसा' ही आम आदमी के लिए माध्यम है चक्रव्यूह को तोड़ सकने में..."Money makes the mare to go" :?!)
ha ha ha ..maja aa gaya padhkar...
ReplyDeleteyah 3 rachna hai blog par jo mujhe sabse achi lagi.....
jai hind jai bharat
दाराल साहब हास्य व्यंग के भी आप महारथी निकले खूब रंग जमा पुलिसिया परिभाषा में बधाई
ReplyDeleteवातावरण रचती है यह रचना पुलिसये की नौकरी से रिश्ता दवाब मुखर हुआ है रचना में व्यंग्य विनोद बनके .आपकी टिपण्णी सदैव ही प्रेरक और कुछ नया देकर जाती है .आभार .
ReplyDeleteवाह, बहुत बढ़िया!
ReplyDeleteशुक्रिया बालियान जी और कुश्वंश जी ।
ReplyDeleteवाह वाह ... दिल्ली की सड़कों का साक्षात नज़ारा दिखा दिया आपने ... ऐसा ही होता है रोज सुबह ... मज़ा आ गया डाक्टर साहब ...
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