बचपन में गाँव में कभी बैलगाड़ी में बैठने का अवसर मिलता तो बड़ी ख़ुशी होती । थोड़े बड़े हुए और साईकल चलाना सीखा तो मज़ा आ गया । दादाजी साईकल हमेशा नई रखते थे । ट्रेन भी तभी दिखाई देती जब अपने फौजी ताऊ जी को छुट्टियाँ काटने के बाद स्टेशन छोड़ने जाते ।
फिर शहर में आ गए और डी टी सी की बसों में सफ़र करने लगे । उन दिनों कारें तो बहुत कम ही होती थी, बस एम्बेसडर और फिएट । या फिर स्कूटर- लम्ब्रेटा ।
वक्त बदल गया । हम भी बदल गए । आज सोचता हूँ तो पाता हूँ कि ट्रेन में सफ़र क़रीब दस साल पहले किया था । और बस में तो पंद्रह साल पहले ।
अब दिल्ली से बाहर कहीं जाना होता है तो या तो अपनी कार से जाते हैं या फिर हवाई ज़हाज़ से ।
शायद बड़े हो गए हैं ।
बहुत दिल करता है कि बस में बैठकर खेतों के नज़ारे देखते हुए दूर कहीं जाया जाए ।
लेकिन अभी दिल्ली के एक बहुत व्यस्त बस अड्डे पर जाना हुआ तो वहां की हालत देखकर मन खिन्न हो गया ।
यह अंतर्राजीय बस अड्डा रोज लाखों लोगों के पद चिन्हों का साक्षी रहता है । इसमें प्रवेश एक बहुत चौड़ी सड़क से होकर होता है । लेकिन प्रवेश द्वार के बाहर सड़क पर कुछ ऐसा नज़ारा दिखता है :-
यहाँ न तो बारिस हुई है , न ही कोई नल फटा है । यह शहर का सबसे बड़ा खुली हवा वाला मूत्रालय ( ओपन एयर यूरिनल) है ।
प्रवेश द्वार से अन्दर जाने के लिए सुन्दर पगडण्डी बनी है । लेकिन पूरे रास्ते यही दृश्य देखने को मिलेगा ।
इसे देखकर यही लगता है कि लोग कैसे खुले में , आम रास्ते में खड़े होकर या बैठकर या कोई और तरीके से मूत्र वित्सर्जन करते होंगे ।
शर्म न देखने वाले को आती होगी , न दिखाने वाले को ।
खैर किसी तरह आप बस अड्डे के अन्दर पहुँच भी जाएँ तो आपके स्वागत में कुछ ऐसा नज़ारा मिलेगा ।
आखिर सर्वजन हिताय बस सेवा है भाई । सब को पूरी छूट है यहाँ । जहाँ चाहो , वहीँ कुछ भी डाल दो ।
अब सवाल पैदा होता है कि कौन है जिम्मेदार इस हालत के लिए ।
ज़ाहिर है दिल्ली वाले तो नहीं ।
क्योंकि यहाँ पर आवागमन तो दिल्ली से बाहर वालों का ही होता है ।
ज़रा सोचिये , जब आप दिल्ली में आकर बस ही गए हैं , और अपनी रोज़ी रोटी कमा रहे हैं , तो इसे स्वच्छ रखना क्या आपका नैतिक धर्म नहीं है !
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बाकी दिल्ली का हाल इससे कितना अलग होता है, (कुछ खास इलाकों को छोड़कर), दिल्ली वाले (कहलाने वाले) ही बेहतर बता सकते हैं.
ReplyDeleteराहुल जी , थोडा सा इंतजार कीजिये । बाकि दिल्ली का हाल देखकर आप दिल्ली वालों से ईर्ष्या करने लगेंगे ।
ReplyDeleteदुखद दृश्य ....खराब लगता है सोच कर की हम development की किस stage पर हैं...
ReplyDeleteसमस्या यही है कि जो इस अव्यवस्था को सुधार करने के लिए सुविधाएँ बनवा सकते है वे तो यहाँ आते नहीं और जो थोड़ी बहुत सुविधाएँ बनी भी हुई है वे भी अंदर से खराब रखरखाव के चलते प्रयोग लायक नहीं रहती अत: लोगों को मजबूरी वश इस तरह दीवारों के पास ये सब करना पड़ता है|
ReplyDeleteइसलिए इन सबके लिए सिर्फ यहाँ आने वाले यात्री ही जिम्मेदार नहीं बल्कि दिल्ली का प्रशासन ज्यादा जिम्मेदार है|
हाँ बसों के पास जो कूड़ा फैला हुआ है उसके लिए यात्रियों को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है जो उन्हें नहीं करना चाहिए पर ये भी कितने दिन का है यह सोचने वाली बात है?
सराय कालेखां बस अड्डे पर मैंने देखा है वाहन आने वाली हर बस से बस अड्डे में घुसने का शुल्क लिया जाता है जो यात्रियों की जेब से ही आता है फिर उनके सुविधाएँ क्यों नहीं ??
दिल्ली वाले हो या बहार वाले जिम्मेदारी तो हमारी है
ReplyDeleteहर बात के परशासन को दोष नहीं दिया जा सकता
आख़िर दिल्ली, दिल वालों की जो दिल में आएगा वह करेंगे :):)
ReplyDeleteपता नहीं लोगों में सिविक सेन्स कब आएगी।
ReplyDeletesharm aati hai yeh sab dekh kar kuch din pahle hi ye najaare dekh chuki hoon.meri raay me inke bade bade poster banvaakar mantralaye ke baahar lagvaa diye jaayen.prashasan ko kuch to sharm aayegi.is mamle me kam se kam ladies kuch samajhdar hain is tarah khule me nahi karti.yeh dilli me hi nahi har jagah ye najaare mil jayenge.
ReplyDeleteरतन सिंह जी , बस अड्डे के शुरू में ही पब्लिक टॉयलेट बनी हुई है । हालाँकि उसकी हालत के बारे में नहीं पता । इस तरह की हरकतें गैर कानूनी हैं । लेकिन कानून का पालन यहाँ कौन करता है ।
ReplyDeleteदीपक जी ने सही कहा --हमारी भी जिम्मेदारी है । लेकिन प्रशासन को भी ठोस कदम उठाने चाहिए ।
सुनील कुमार जी, ये दिल्ली वाले तो नहीं हैं भाई । सब बाहर से आने या जाने वाले ही होते हैं ।
आप ने दिल्ली वालों को बख्श दिया। दिल्ली वाले बाहर वालों को न जाने कब से बख्श रहे हैं। लगता है सार देश बख़्शी हो गया है। सारे देश में .यही हालत है। सिवा हमारे पुराने महल्ले को छोड़ कर वहाँ के 75 बाशिंदों ने एक सोसायटी बनाई थी। नगर निगम से सफाई की कोई व्यवस्था नहीं थी। शिकायत करने पर 15 दिन में सफाई के लिए गेंग आया करती थी। इलाका किसी हरिजन की सफाई जागीर था। उस ने ठेके पर एक सफाईवाली को उठा रखा था। दूसरा कोई इलाके में सफाई करने न आता था। कुछ लोग अपने घर के सामने की सड़क बुहारने का 20-25-30 रुपया देते थे। हम ने सोसायटी में 25 रुपए घर लेना शुरु किया। सफाईवाली को पूरे मुहल्ले की सड़क बुहारने और हर घर से कचरा उठाने का काम दे दिया। मैं सोसायटी के अध्यक्ष से सफाई जमादार हो गया। साथ दिया रामधन जी मीणा ने। उन्हें कहीं यदि कचरे की थैली भी नजर आ जाती तो उसे खोलते उस के अंदर के कचरे से तफ्तीश करते कि यह किस घर से निकली होगी। फिर उस घर वालों को जा कर समझाते कि एक कचरे का डब्बा रखो। 24 घंटे उस में कचरा रखो और फिर रोज सुबह कचरेवाली को सौंप दो। सवा साल यह प्रयोग चला। महल्ला काँच की तरह साफ रहने लगा।
ReplyDeleteजो लोग 20-25-30 रुपया देते थे वे कचरे वाली को डाँटते डपटते रहते थे। कचरे वाली को अब कोई कुछ कहता तो वह कहती - सोसायटी वालों को बोलो, मैं तो वे कहते हैं वैसे काम करती हूँ। उस 20-05-30 रुपए की जागीर का छिन जाना लोगों को बुरा लगा। सवा साल बाद यह व्यवस्था छिन गई। पर इस सवा साल में लोग साफ रहना सीख गए। अब दो दिन में नगर निगम की सफाई गेंग आ कर सफाई कर जाती है। लोग कचरा स्वयं मुहल्ले के सार्वजनिक कचरा डब्बे में डालते हैं। मुहल्ला अब भी साफ रहता है।
यदि दिल्ली वाले खुद दिल्ली को गंदा न रखें और साफ रखना सीख लें तो बाहर वाले क्या हिम्मत है जो सड़क पर पीक तो थूक दे।
अब न वो दिल्ली न दिल्ली की गलियां रहीं :(
ReplyDeleteसिविक सेंस एक दिन में आ जाने वाली चीज़ नहीं है...ये बचपन से ही सीखा या सिखाया जा सकता है...गांवों में शौचालयों की कमी की समस्या आज भी है...खुले में निवृत्त होना शौक नहीं कहीं कहीं मज़बूरी भी होता है...दिल्ली में पेड टायलेट्स की सुविधा कई जगह हैं...जहां हलके होने का पैसा लिया जाता है...अपेक्षाकृत वहां सफ़ाई रहती है लेकिन चकाचक वाली बात वहां भी नही होती...दिल्ली में अंर्तराज्यीय बस अड्डे अब कई हो गए हैं...पहले सिर्फ कश्मीरी गेट ही हुआ करता था..आज भी ये बस अड्डा दिल्ली का सबसे बड़ा अड्डा है...अब इस अड्डे के पास मेट्रो है...आसपास ऊंचे ऊंचे फ्लाईओवर हैं...मैक्डॉनल्ड, डोमीनोज़ जैसे बहुराष्ट्रीय इटिंग प्वाइंट्स भी हैं...लेकिन बस अड्डे के अंदर की हालत बहुत शोचनीय है...इसका पता अड्डे में घुसते ही चल जाता है....असंख्य लोगों के आवागमन वाली जगह पर जो थोड़े बहुत टायलेट्स हैं भी वो इतने गंदे रहते हैं कि शायद ही कोई वहां जाना पसंद करे...शुल्क वाले टायलेट्स में सफाई पर कम वहां बैठे लोगों का पैसे वसूलने पर ध्यान ज़्यादा रहता है...ऐसे में लोग बाहर ही दीवारों को गंदा करते नज़र आते हैं...सौ बातों की एक बात पढ़ाई लिखाई का स्तर देश में जैसे जैसे ऊंचा होगा, लोग सार्वजनिक जगहों की अहमियत भी अपने घरों जैसी ही समझेंगे तभी स्थिति में सुधार हो सकेगा...साथ ही प्रशासनिक स्तर पर सख्ती और जनमुहिमों का चलाए जाना भी ज़रूरी है...मैं हूं अण्णा कहने वाले इस ओर भी ध्यान दें...मैं क्लीन, मेरी दिल्ली क्लीन जैसा आंदोलन खड़ा किया जाए....सब कुछ सरकार के ज़िम्मे ही नहीं डाला जा सकता...हमें सिर्फ अपने हक़ की ही बात नहीं करनी चाहिए...देश के नागरिक के नाते अपने फर्ज़ों को भी हर वक्त याद रखना चाहिए...
ReplyDeleteजय हिंद...
ये क्या ले बैठे डॉ साहब..ये हाल तो लगभग सारे देश का ही है.
ReplyDeleteमै सोच रहा हूं कि इसके लिए जिम्मेदार कौन है ? संघ, अन्ना, बाबा, कांग्रेस , सोनीया या राहुल बाबा !
ReplyDeleteभारतीय जनता ! नही जी, वो तो ग़रीब ,मासूम है जी। वो ऐसे असामाजिक, अनैतिक कार्य कैसे करेगी! हो सकता है कि इसके पिछे आई एस आई का हाथ हो!
हम मांग करते है कि एक आयोग बिठाया जाये, उसके जांच रिपोर्ट आने के बाद संसद से एक कानून पास किया जाये और सार्वजनिक मुत्रकचरायुक्त की नियुक्ति हो!
दिल्ली तो दिल है हिन्दुस्तान का... और डॉक्टर साहिब शायद यह इस लिए है कि जो बाहर है वो ही मानव शरीर के अन्दर भी अनंत ब्रह्माण्ड के सार के रूप मरीं प्रतिबिंबित होता है ऐसी, मान्यता परम्परा वश कही जाती आ रही है...
ReplyDeleteऔर मुझे आपको यह कहते अजीब लग रहा है कि दिल से साफ़ सुथरा रक्त बाहर जाता है (विदेश को?) और इस में बाहर से (अन्य राज्यों से?) मैल लिए खून सफाई के लिए आता है...
प्राचीन 'भारत' ने शून्य (शक्ति रुपी निराकार?) से ले कर १,२,३,४,५,६,७,८,९ (साकार, सौर-मंडल के सदस्य रुपी देवताओं, सूर्य से शनि तक?) संख्या अरबों के माध्यम से पश्चिम को, और उन्होंने संसार को ही नहीं अपितु हम हिन्दुस्तानियों को भी दे काल-चक्र पूरा कर लिया और हम वर्तमान कलियुग में पश्चिम के गुलाम बन गए हैं...:)
जय हिंद!
पुनश्च - शायद यह कहना आवश्यक नहीं होगा कि दिल के चार वौल्व (ब्रह्मा के चार मुख, महानगर - मुंबई, कलकत्ता, चेन्नई, राजधानी दिल्ली ?)...
ReplyDeleteअभी कोई दो सप्ताह पहले मुझे भी यहां जाने का अबसर मिला था... पूरा का पूरा बस अड्डा ही मूत्रालय है. बल्कि यह विश्व का सबसे बड़ा मूत्रालय होने का गौरव प्राप्त कर सकता है बस गिन्नीज़ बुक वालों को कोई बता भर तो दे... लानत है सरकार पर जिसे कुछ दिखाई नहीं देता. दूसरी तरफ इसी दिल्ली में मेट्रो रेल चलती है, क्या मजाल कि कोई वहां थूक भी दे...
ReplyDeleteअभी भी बस परिवहन मुझे सबसे सुगम लगता है.गाँव में बस की खिड़की से खेतों की हरियाली मन मोहती है तो दिल्ली में खूबसूरत
ReplyDeleteचेहरे :-) हाँ,बस-अड्डों के पास जो नज़ारा है उसके लिए हम और सरकार दोनों दोषी हैं !
ओह हद है ..कोई जिम्मेदार अधिकारी आपके इस रपट को देख ले तो शायद कुछ कर्यवाही हो जाय ..
ReplyDeleteबाकी तो राम ही मालिक हैं!
zimmedaar to ham Delhi waley bhi kam nahi hain... Aamtaur par Indians kanoon ko mazaak samajhte hain...
ReplyDeleteपुरानी दिल्ली वाले आयएसबीटी से काफ़ी यात्रायें की हैं। सरकारी प्रबन्धन का हाल तब भी बेहाल था आज भी वैसा ही है।
ReplyDeleteगंदगी की समस्या दिल्ली और गैर दिल्लीवालों के विभाजन से समाप्त नहीं होगी। हम सब भारतवासी हैं और हमारे अन्दर एक सी ही मानसिकता है। आज जो दिल्ली में रह रहे हैं वे भी कल कहीं और से ही आए थे। इसलिए हमारी मानसिकता को ही ठीक करने की आवश्यकता है।
ReplyDeleteबात सिर्फ दिल्ली की नहीं है ,सारे देश मे सब ही जगह एक ही आलम है और इसके लिए चल रहा आधुनिक विकास का माडल है जिसमे केवल कोरी भौतिकता पर ध्यान दिया गया है और नैतिकता तथा आत्म-ज्ञान को बलाय ताक पर रख दिया गया है। 'समष्टिवाद' के स्थान पर 'व्यष्टिवाद' को बढ़ावा देंगे तो ऐसे ही होता रहेगा। पढे-लिखे लोग भी जब ढोंगियों-पाखंडियों के दीवाने बने रहेंगे तो ज्ञान से वंचित रहना लाजिमी ही है।
ReplyDeleteaatm anushaasan kee kamee hai
ReplyDeleteबड़े शहर में बड़े स्थानों पर किसी एक की जिम्मेदारी निर्धारित नहीं की जा सकती, इस तरह की अव्यवस्था या अस्वच्छता का कारण समझा जा सकता है , मगर उन सरकारी दफ्तरों का क्या , जहाँ सीमित संख्या में लोंग आते हैं , उनकी पान या गुटके की पीक से रंगी दीवारें हमारे नागरिकों के सिविक सेन्स की कहानी खुद ही बयान करते हैं !
ReplyDeleteआपकी किसी पोस्ट की चर्चा है कल शनिवार (12-11-2011)को नयी-पुरानी हलचल पर .....कृपया अवश्य पधारें और समय निकल कर अपने अमूल्य विचारों से हमें अवगत कराएँ.धन्यवाद|
ReplyDeleteयथार्थपरक विषय,बहुत सही बात कही है आपने ।
ReplyDeleteइस तरह से प्रत्येक व्यक्ति यदि सार्वजनिक संपत्ति के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी समझे तो समस्याएँ निश्चित कम होंगी ।
हालाँकि प्रशासन की अपनी ज़िम्मेदारी बनती है परन्तु नागरिक की भी ।
अपने विचारों से अवगत कराएँ !
अच्छा ठीक है -2
द्विवेदी जी , आपने सही कहा है । यदि समाज में हम अपनी जिम्मेदारी समझते हुएइस ओर एक छोटा सा कदम उठायें तो कई समस्याएँ सुलझ सकती हैं । हमारी सोसायटी में भी आजकल सफाई का विशेष ध्यान रखा जा रहा है , ऐसे ही कुछ लोगों के प्रयास से ।
ReplyDeleteदिल्ली वालों में भी ऐसे लोग हैं जो बिलकुल ध्यान नहीं रखते । बड़ी बड़ी कारों में बैठे सेठों के बच्चे और सेठानियाँ अक्सर ऐसी गलती करती देखी गई हैं ।
लेकिन सबसे ज्यादा जागरूकता कि कमी तो बाहर से आए अशिक्षित लोगों में ही है ।
खुशदीप भाई , कश्मीरी गेट अड्डे पर फिर भी टॉयलेट्स बनी हैं । लेकिन यहाँ ( आनंद विहार ) एक छोटी सी ही दिखाई दी । बेशक सुविधाओं का होना ज़रूरी है । लेकिन यदि हम जो उपलब्ध है उसका भी इस्तेमाल नहीं करेंगे तो यही होगा ।
ReplyDeleteइसी अड्डे के आगे से होकर वह सड़क जाती है जहाँ से कॉमनवेल्थ गेम्स के लिए यातायात का प्रबंध किया गया था । बहुत खूबसूरत बनी है यह सड़क । १०० मीटर के अन्दर दो ओवरब्रिज भी बने हैं । फिर भी लोग या तो रेलिंग तोड़कर या ६ फुट ऊंची रेलिंग को फांदकर सड़क पार करते हैं ।
जान की परवाह भी नहीं करते । क्या हम कभी विकसित हो पाएंगे ?
अजित जी , विजय माथुर जी , दिल्ली देश की राजधानी है । मुझे तो यह सब शहरों में सबसे ज्यादा खूबसूरत लगता है । लेकिन कुछ ऐसे इलाके भी हैं जहाँ सरकार का ध्यान भी कम रहता है और रहने वाले भी ( ज्यादातर बाहर वाले ) अपनी जिम्मेदारी नहीं समझते ।
ReplyDeleteकहीं भी पेशाब कर देना , थूक देना , कूड़ा करकट डाल देना --ये ऐसे काम हैं जिनकी कोई परवाह नहीं करता ।
वाणी जी , पान की आदत से कुछ विशेष किस्म के लोग ही पीड़ित होते हैं । लेकिन सब जगह इनकी छाप नज़र आती है । हम भी अस्पताल में इस आदत से परेशान हैं ।
दराल साहब यह तो आपने एकदम शीला दीक्षित स्टाइल में बाहर वालों को पकड़ लिया. मौका देखते ही कूड़ा घर के बाहर फेकने में दिल्ली वालों का भी जवाब नहीं विशेषकर उन कोलोनीस में जो फ्लैट टाइप नहीं हैं.
ReplyDeleteवैसे शहर को साफ़ रखने में सभी का योगदान आवश्यक है और ऐसा कराया भी जा सकता है जैसे कि मेट्रो रेल में बिना किसी टोइलेट के भी सफाई इस का उदाहरण है.
आपकी पोस्ट का शीर्षक पढ़कर मुखे फिल्म no once kill jasika का वो गीत याद आगया द...द....द.... दिल्ली-दिल्ली....खैर मैं भी रही हूँ 4-5 साल दिल्ली मेन इसलिए बहुत अच्छे से जानती हूँ यह सब कुछ जो आपने बताया, लेकिन शिखा जी कि बात से सहमत हूँ यह क्या विषय ले बैठे आप,लगभग सारे देश का यही हाल है।
ReplyDeleteसमय मिले कभी तो आयेगा मेरी पोस्ट पर आपका स्वागत है
अपनी दिल्ली तो ऐसी ही है
ReplyDeleteऔर फिर हम नहीं सुधरेंगे
सही कहा रचना जी । ज़रुरत है तो बस अनुशासन की और नियमों को पालन कराने की । लेकिन साथ ही सुविधाएँ भी मुहैया करानी चाहिए ।
ReplyDeleteपल्लवी जी , सारे देश और दिल्ली में फर्क है । दिल्ली देश का दिल है ।
हरेक शहर की एक आत्मा होती है... दिल्ली की अपनी निजी ऐतिहासिक प्रकृति यह है कि यह किसी एक की कभी भी नहीं रही है, और बार बार, अलग अलग नाम ले, पनपी है और काल-चक्र में फंसी हुई आत्माओं समान, मानव आदि प्राणियों / प्राचीन इमारतों आदि समान काल के प्रभाव से ध्वंस हो गयी है - फिर से एक नये नाम से, 'इन्द्रप्रस्थ', 'तुगलकाबाद', 'शाहजहानाबाद', आदि आदि नामों से जैसे अस्तित्व में आती रही है... इस लिए निराश होने कि आवश्यकता नहीं है! (प्राचीन योगियों ने इसे और स्वयं को भी 'कृष्ण' पर छोड़ दिया था :)
ReplyDeleteसिर्फ सिविल सेंस को कोसने से नहीं होगा। सुविधाएं मुहैय्या कराना भी जरूरी है। शौच एक अनिवार्य क्रिया है..शौचालय जरूरी है। दूर से आये बस यात्री क्या करें..सुविधा हो तभी न उपयोग करें। शौचालय कहाँ है इसकी भी जानकारी देनी चाहिए।
ReplyDeleteअफ़सोस है कि जिनकी सोच इतनी बढ़िया है, वे क्यूँ नहीं इलेक्शन लड़ते... और, यदि आ भी जाते हैं मंत्री आदि बन (बिना लड़े, प्रभू की कृपा से?) वे क्यूँ लाचार प्रतीत होते हैं (काल के प्रभाव से?) और कहते हैं, "मेरे हाथ में जादुई छड़ी नहीं है" :(
ReplyDeleteबहुत अच्छी सार्थक और चिंतनीय पोस्ट.
ReplyDeleteजनता और सरकार सभी को मिलकर सफाई की
ओर ध्यान देना होगा.आपस के आरोपों प्रत्यारोपों
से तो काम चलने वाला नही है.
एक सही विषय पर अच्छा चिंतन कराती पोस्ट!
ReplyDeleteसादर
हमने अपनी विरासतों को बहुत प्यार किया है?शायद यही कारण है ये आज भी हमारे साथ हैं.
ReplyDeleteसमय आ गया है,कुछ से निजात पाली जाय.
अधिकार से पहले कर्तव्य की बात सोचें तो बहुत कुछ बदला जा सकता है .. ज़रुरी सुविधाएँ प्रशासन को मुहैया करानी चाहिए ..
ReplyDeleteदिल्ली की दीवारों पर कई स्थानों पर लिखा मिलता है भी, "देखो गधा पिशाब कर रहा है"!
ReplyDeleteफिर भी गधे तो पेशाब करते नहीं दीखते वहाँ, हाँ बेशर्म अथवा मजबूर आदमी, बस में लम्बी यात्रा कर रहे जैसे, अवश्य दिख जाते हैं यदाकदा......
और, जैसा परवाने का दीपक की लौ से सम्बन्ध अथवा प्रेम है, या संदर्भित विषय पर, कुत्तों का पेड़ों अथवा खम्भों से, वैसे ही मानव का प्राचीन काल से प्राकृतिक सम्बन्ध शायद अपने प्रिय मित्र और वफादार सेवक कुत्तों से है :)
एक जोक में पडा था कि कैसे एक सर्जन ने एक व्यक्ति के टूटे पटेला के स्थान पर कुत्ते का ही तुरंत मिलने के कारण लगा दिया था... कुछ दिनों के बाद पूछने पर उसने कहा कि वैसे तो सब ठीक था, किन्तु पेड़ अथव खम्भे के निकट उसकी टांग ऊपर उठ जाती थी :)
देश का दिल है कितना सुन्दर....
ReplyDeleteदिल्ली वाले भी कम नही हैं । बस से उतरे फेका टिकिट । मूंगफली खाई फेंके छिलके भी और ठोगा भी सरकार कहां तक पूरी पडे । जुर्माना लगा देना चाहिये या तो पैसे भरो ना तो सफाई करो ।
ReplyDeleteधन्यवाद डॉक्टर साहिब! "सत्य कटु होता है" कहा जाता है...
ReplyDeleteऔर वर्तमान का देखा हुआ सत्य भी यह है कि कोई भी प्रशासन की मानवी व्यवस्था, कहीं भी, ऐसी होना संभव ही नहीं है जिसमें अवगुण न हों - कहीं कम तो कहीं अधिक!
केवल प्रकृति ही ऐसी संरचना है जो परिवर्तनशील रह दोष मुक्त है, अर्थात अवगुण रहते भी तीनों के, सद्गुणों और निर्गुण के मेल जोल के कारण अनंत ॐ है - युगों युगों से चली आ रही है (+ * -)! ...
आशा जी , गंदगी फ़ैलाने के विरुद्ध कानून तो है लेकिन पालन नहीं होता । इस की वजह हमारी ज्यादा आबादी ही है । ऐसे में पुलिस भी कुछ नहीं कर पाती ।
ReplyDeleteजे सी जी , कनाडा में हमने देखा , पुलिस और कानून व्यवस्था का समुचित प्रबंध । लेकिन वहां जनता भी जागरूक है , भले ही सजा के डर से ही हो ।
आपके अनुसार कनेडा में सारी व्यवस्थाएं सही हैं और उनमें कोई परिवर्तन की आवश्यकता नहीं है???
ReplyDeleteमुझे बताया गया था कि वहाँ की व्यवस्था की कमी के कारण बाहर - भारत चीन आदि - से आये 'विदेशियों' को क्या क्या पापड बेलने पड़ते हैं... समाचार पात्र में भी पढ़ा था कि एक चीनी रोकेट वैज्ञानिक केक बना अपना पेट पाल रही थी, क्यूंकि वो प्राथमिकता अपने लोकल लोगों को देते हैं भले ही विदेशी उनकी तुलना में कितने ही अधिक पढ़े-लिखे और बुद्धिमान ही क्यूँ न हों... (वैसे ही जैसे अपने देश में सदियों से 'विदेशियों' को प्राथमिकता देने के कारण लोकल 'हिन्दुओं' की है, कसब जैसे को भी पालना पड़ता है हमारे कानूनी व्यवस्था की कमजोरी के कारण, भले ही लोकल किसान भूख के कारण आत्म-ह्त्या ही क्यूँ न करलें :(...
मेरा भारत महान है :) (भगवान् 'हिन्दू' कि परीक्षा अधिक लेता है :)
जे सी जी , जहाँ तक मुझे मालूम पड़ा --कनाडा में नेटिव तो बहुत कम हैं जिन्हें रेड इन्डियन कहा जाता है ।
ReplyDeleteकनाडा ही एक ऐसा देश है जहाँ सारे विश्व के लोग शांतिपूर्वक रहते हैं । विश्व में सबसे ज्यादा लिवेबल देश यही है ।
टोरोंटो में तो चाइना टाउन और बाज़ार भी है ।
ट्रैफिक का अनुशासन और स्वच्छता तो देखने लायक है । यह अलग बात है कि वहां इतनी आबादी नहीं है ।
कनेडा की अर्थ व्यवस्था अमेरिका पर निर्भर है, और अब उसकी नज़र भारत पर है, अपने 'मित्र' पाकिस्तान को त्रिशंकु समान अधर पर छोड़ क्यूंकि डूबते जहाज से सबसे पहले चूहे भागते हैं... वर्तमान युग में अंग्रेजों ने सारे संसार में कौलोनी बना 'नेटिव' का तो सभी देशों में भट्टा बैठा दिया... वैसे ही प्राचीन भारत में जब यूरोप में जंगली रहते थे तथाकथित आर्यों ने अनपढ़ नेटिव को 'दलित' बना के रख दिया था... यह तो काल-चक्र की प्रकृति मानी गयी है - साईकिल के पेडल समान कभी दांयाँ वाला ऊपर हो तो बांया वाला नीचे होता है, और बांया वाला ऊपर आजाये तो दांये वाला नीचे, क्यूंकि मतलब तो साईकिल का आगे बढ़ने से है, और वैसे ही पृथ्वी अर्थात गंगाधर शिव/ कृष्ण भी काल-चक्र घुमा रहे हैं... और उनकी भी अपनी अपनी मजबूरियाँ हैं...
ReplyDeleteCommon sense is something very rare.
ReplyDeleteजी दिल्ली का असली चेहरा
ReplyDeleteमुझे लगता है कि इसके लिए जिम्मेदार भी हमसब हैं।
दिल्ली की सड़क का एक वाकया मेरे ब्लाग पर भी देखें..
http://aadhasachonline.blogspot.com/
आपकी पोस्ट सोमबार १४/११/११ को ब्लोगर्स मीट वीकली (१७)के मंच पर प्रस्तुत की गई है /आप आइये और अपने विचारों से हमें अवगत करिए /आप इसी तरह हिंदी भाषा की सेवा अपनी रचनाओं के द्वारा करते रहें यही कामना है /आपका "ब्लोगर्स मीट वीकली (१७) के मंच पर स्वागत है /जरुर पधारें /आभार /
ReplyDeleteबहुत शोचनीय स्तिथि..
ReplyDeleteबिलकुल सभी का धर्म है दिल्ली को दिलवाली दिल्ली बनाने का ...
ReplyDeleteआपके चित्र बताते अहिं की किस लेदर संवेदनहीन हैं हम अपनी दिलवाली दिल्ली के लिए ...
Dilli ko sach men kuchh logo ne kachara ban diya hai. Aise logo par karwahi ki jani chahiye...
ReplyDeleteLatest Hindi News by Yuva Press India