टिकेट बूथ पर तो ज्यादा समय नहीं लगा क्योंकि लेडिज की लाइन छोटी थी लेकिन प्रवेश द्वार पर लम्बी लाइन में लग कर ही एंट्री मार पाए ।
सुरक्षा सम्बन्धी औपचारिकताओं के बाद हम पहुँच गए गेट नंबर दो के अन्दर जिसके सामने है हॉल नंबर ६ ।
हॉल नंबर ६ के लिए जाते हुए ।
रेड कारपेट वेलकम भला किसको अच्छा नहीं लगेगा ।
इसी रास्ते बाएं ओर हैं हॉल नंबर २-५ ।
हॉल नंबर ६ के अन्दर घुसते ही । सच मानिये , हमने बिल्कुल नहीं छुआ , बस देखा , खींचा और चल दिए ।
पिछली बार तो हमने श्रीमती जी को ९०० रूपये में नौलखा हार दिलवा दिया था । लेकिन इस बार सख्त हिदायत थी कि बस घूमने आए हैं । अब हम तो पूर्णतय: तृप्त और संतृप्त महसूस करते हैं लेकिन महिलाओं की इच्छापूर्ती कभी नहीं होती । हर स्टाल पर हर कपडे या वस्तु को छूकर देखे बिना उन्हें चैन नहीं आता ।
लेकिन यहाँ ये तिलपट्टी देखकर तो अपना भी दिल कर आया खरीदने का ।
यहाँ हमने राहुल सिंह जी को बहुत ढूँढा लेकिन वे कहीं नहीं दिखे ।
इसलिए फोटो खींचकर ही संतुष्टि करनी पड़ी ।
हॉल ५ से निकलकर चौक में आए तो यह मानसरोवर झील नज़र आई ।
सरस पेवेलियन ।
साथ वाले हॉल में यह डाक्टर की दुकान देखकर हम सोचने लग गए कि इनमे से कोई बीमारी हमें तो नहीं ताकि इलाज़ करवाया जा सके ।
अब शुरू हुई सैर विभिन्न राज्यों के पेवेलियंस की ।
हरियाणा पेवेलियन के बाहर ।
दिल्ली वाले दिल्ली पेवेलियन में न घुसें , यह कैसे हो सकता था । लेकिन सभी ऐसा सोच रहे थे । इसलिए अन्दर दिल्ली वाले ही दिखे और कुछ भी नहीं देख सके ।
पंजाब पेवेलियन के बाहर ।
यू पी पेवेलियन --या माया नगरी । हाथी यहाँ भी विराजमान थे ।
हेंडीक्राफ्ट्स हाउस के अन्दर का नज़ारा ।
केरल का पेवेलियन बाहर से सबसे ऊंचा और बड़ा था ।
घूम घूम कर जब थक गए तो इन पेड़ों की ठंडी छाया में सामूहिक विश्राम का नज़ारा ।
टेकमार्ट ।
टेकमार्ट के अन्दर का दृश्य ।
छूकर करेंट खाना था क्या ?
अंतर्राष्ट्रीय पेवेलियंस हॉल के अन्दर ।
एक और दृश्य ।
डिफेंस पेवेलियन के बाहर ।
घूमते हुए चार घंटे हो गए थे । अब सबको घर की याद आने लगी थी । एक और मेला पूर्ण हुआ ।
बाहर गेट पर एंट्री बंद कर दी गई थी क्योंकि अन्दर एक लाख से ज्यादा लोग पहुँच चुके थे । अभी भी सैंकड़ों लोग उम्मीद लगाये खड़े थे । लेकिन पुलिस वाले भी क्या करते --सबको कल आने की दावत दे रहे थे ।
और इस तरह हमने इस उम्र में भी चार घंटे में सारा मेला घूमकर देख लिया , अलबत्ता बाहर से ही । किसी भी पेवेलियन में अन्दर जाने की हिम्मत जल्दी ही ख़त्म हो गई थी , भीड़ के कारण ।
लेकिन हमारे जैसे फोटोग्राफी का शौक रखने वाले को भला क्या ग़म । जो आनंद बाहर आया , वह अन्दर कहाँ आ सकता था ।
यह मेला अभी दो दिन और चलेगा . खरीदारी करने के लिए ये दिन सबसे बढ़िया रहते हैं क्योंकि सभी स्टाल्स इन दिनों में खूब डिस्काउंट देते हैं .
ReplyDeleteजो नहीं आ सकते उनके लिए हमने प्रबंध कर ही दिया है , विस्तार से मेला देखने का .
ReplyDelete@ हमने श्रीमती जी को ९०० रूपये में नौलखा हार दिलवा दिया था...
भाभी जी ( श्री मती दराल ) को प्रणाम कर उनसे निवेदन है कि क्यां दिलदार से पला पड़ा है ९०० रूपये में नौलखा ...वह भी पिछले साल :-(
कैसे झेलती हैं आप इन प्राचीन वस्तुओं को ?? ( खुशदीप भाई कि नक़ल कर रहा हूँ )
सादर
ReplyDelete@ हमने श्रीमती जी को ९०० रूपये में नौलखा हार दिलवा दिया था
भाभी जी ( श्री मती दराल ) को प्रणाम कर उनसे निवेदन है कि क्यां दिलदार से पला पड़ा है ९०० रूपये में नौलखा ...वह भी पिछले साल :-(
कैसे झेलती हैं आप इन प्राचीन वस्तुओं को ( खुशदीप भाई की नक़ल कर रहा हूँ )
सादर
घर बैठे, बिना टिकट, बिना इंतज़ार मेला दिखाने का आभार! कई बार सोचता हूँ कि सही ब्लॉग चुने जायें तो कुर्सी से हिले बिना ही कितना कुछ जानने को मिलता है और मन प्रसन्न भी हो जाता है। शुक्रिया!
ReplyDeleteहाँ मैं भी सोच ही रहा था जाने के बारे में लेकिन अब यहाँ ही सैर कर ली तो निर्णय बदल दिया ......वैसे ज्यादा भीड़ बाद मुझे पसंद नहीं है .......!
ReplyDeleteवाह दाराल साहब मज़ा आ गया हम तो बिना जाये ही मेला देख आये. आपकी फोटो कॉपी पेस्ट कर रहा हूँ छमा याचना के साथ. आप ऐसे ही फोटो खीचते रहे और हम रसास्वादन करते रहेंगे .अभिवादन सहित
ReplyDelete"हॉल नंबर ६ के अन्दर घुसते ही । सच मानिये , हमने बिल्कुल नहीं छुआ , बस देखा , खींचा और चल दिए ।"
ReplyDelete:):)
वाह डॉ, साहब आपने तो यहाँ विदेश में बैठे-बैठे ही पूरा दिल्ली मेला घूमा दिया बहुत ही अच्छे चित्रों से सजी खूबसूरत पोस्ट आभार ...समय मिले क अभी तो आयेगा ज़रूर मेरी पोस्ट पर आपका स्वागत है।
ReplyDeletehttp://mhare-anubhav.blogspot.com/
"९०० रूपये में नौलखा हार"
ReplyDeleteइस हिसाब से एक लाख १०० रूपये का हुआ
haa ji hamne bhi aapki nazar se ye mela ghum liya....aabhar
ReplyDeleteसुन्दर तस्वीरें...बढ़िया सैर करवाई मेले की
ReplyDeleteइस मेले में सबसे अच्छा होता है उस जगह का खाना/ मिठाई जो यहाँ आसानी से नहीं मिलती है। जैसे उतरांचल की बाल मिठाई, जो यहाँ अगर कही मिलती हो तो बता देना मुझे ये बहुत पसंद है
ReplyDeleteहाल नम्बर ६ में किसको नही छुआ आपने डॉ. साहिब ? तिलपट्टी कैसी लगी जी.
ReplyDeleteआपने बहुत ही अच्छा प्रबंध किया है मेला देखने का.
बहुत बहुत आभार आपका.
वाह आँखें और मन दोनों को सुकून आ गया.बहुत आभार घुमाने का.
ReplyDelete1972 मे 'एशिया 72' तो हम भी देख आए थे क्योंकि बीमार मौसी को देखने माँ के साथ गए थे इसलिए। अब आप के माध्यम से आराम से देख रहे हैं।
ReplyDeleteभव्य आयोजन रहा... सुंदर चित्र... पर आम आदमी को इसका लाभ?
ReplyDeleteकुश्वंश जी , क्षमा याचना किस लिए । सब आपका ही है ।
ReplyDeleteशोभा जी , या यूँ कहिये कि प्यार का एक सौ रुपया एक लाख के बराबर होता है ।
संदीप जी , भीड़ भाड़ में खाना थोड़ा रिस्की होता है । क्योंकि स्वच्छता नहीं मिलती ।
ध्यान से देखिये राकेश कुमार जी । सब फोटो में ही छुपा है ।
पर आम आदमी को क्या लाभ --
ReplyDeleteप्रसाद जी , वहां सब आम आदमी ही जाते हैं । खास आदमी तो बिजनेस क्लास की ४०० रूपये की टिकेट लेकर भीड़ से बच जाते हैं ।
लेकिन ९० % लोग बस सैर सपाटे के लिए जाते हैं । सबके लिए एक अच्छी पिकनिक हो जाती है । सच, लोगों के चेहरे पर ख़ुशी देखकर हमें तो बड़ी ख़ुशी होती है ।
वर्ना जिंदगी में तो सभी को कोई न कोई ग़म लगा ही रहता है ।
@ टीप ,
ReplyDeleteबड़ी सुन्दर प्रविष्टि है !
@ अटीप,
तौबा , आप और परचेत साहब हाल नंबर छै पे आशीष का हाथ बढ़ाने के बजाये मुंह फेर कर आ गये :)
राहुल सिंह जी को सुबह के प्रवचनों की तैयारी करना होती है इसलिए वहां से निकल लिए होंगे :)
हाथियों वाले राज्य से डाक्टर अरविन्द मिश्रा जी आते तो कोई बात बनती :)
भाभी के लिए १००० वाले ९०० नोट खर्च किये होंगे आपने :)
लीजिए, अब यहां हाजिर हो गया हूं. आपका डाक पता/फोन नं. होता तो आपसे अवश्य संपर्क करता.
ReplyDeleteअद्भुत ,परीलोक सरीखा ..जानते हैं आपके इन्ही दिलकश फोटुओं से हम आपके ब्लॉग के हो के रह गए ...
ReplyDeleteलेकिन महिलाओं की इच्छापूर्ती कभी नहीं होती ।-शत प्रतिशत सहमत ..आदरणीय मैडम से क्षमा याचना सहित ...
अली सा , अक्सर हम स्माल प्रिंट में लिखा हुआ नहीं देख पाते और भ्रमित हो जाते हैं । :)
ReplyDeleteवैसे इस बार हम तो अपना पर्स घर ही छोड़ आए थे ताकि न रहे बांस न बजे बांसुरी ।
राहुल जी , पता ( इ मेल ) तो प्रोफाइल में है भाई ।
अरविन्द जी , शॉपिंग के मामले में महिलाएं सभी एक जैसी होती हैं ।
आपके कैमरे की आंखे बोलती हैं।
ReplyDeleteकई तस्वीरें व्यूकार्ड होने का भ्रम देती हैं। कभी टीपेंगे आपके ही ब्लॉग से किसी संगत पोस्ट के लिए। हमेशा की तरह, बिना रेफरेंस दिए!
ReplyDeleteआपका कैमरा सचमुच कमाल का है!
ReplyDeleteहमने पहला भारतीय अंतर्राष्ट्रीय व्यापार मेला शायद पचास के दशक में देखा था... उसके कारण एशियन फ्लू भी प्रचलित हुआ और उस का शिकार भी बना था... उस के बाद भी कई वर्ष इसी स्थान पर मेले देखते चले गए...
मैट्रो की सुविधा के कारण कुछ वर्ष पहले भीड़ का नज़ारा और थोड़े से हौल जहां भीड़ अधिक नहीं थी वे भी देख आये... अब तो हिम्मत ही नहीं होती... आप के ब्लॉग की सहायता से जायजा मिल जाता है - धन्यवाद!
अच्छा हुआ नहीं गए,आपने बैठे-बिठाये ,बिना कुछ खर्च किये ,दर्शन जो करा दिए !
ReplyDeleteवाह!..लगता है दिल्ली दूर नहीं है।
ReplyDeleteबहुत अच्छी फोटोज खेंच लाए आप तो। 72 में मेला हमने भी देखा था और कैसे देखा था, आश्चर्य करेंगे आप। भाई की बारात लेकर सहारनपुर गए थे, तो पिताजी ने बस मेले की तरफ मोड़ दी कि पहले मेला देखेंगे बाद में शादी में जाएंगे।
ReplyDeleteJC said...
ReplyDeleteआपका कैमरा सचमुच कमाल का है!
हमने पहला भारतीय अंतर्राष्ट्रीय व्यापार मेला शायद पचास के दशक में देखा था... उसके कारण एशियन फ्लू भी प्रचलित हुआ और उस का शिकार भी बना था... उस के बाद भी कई वर्ष इसी स्थान पर मेले देखते चले गए...
मैट्रो की सुविधा के कारण कुछ वर्ष पहले भीड़ का नज़ारा और थोड़े से हौल जहां भीड़ अधिक नहीं थी वे भी देख आये... अब तो हिम्मत ही नहीं होती... आप के ब्लॉग की सहायता से जायजा मिल जाता है - धन्यवाद!
November 26, 2011 5:01 AM
अफ़सोस है कि दुबारा दिया गया मेरा कमेन्ट भी गायब हो गया ....
ReplyDelete@ श्रीमती दराल ,
९०० रूपये में नौलखा हार...
पता नहीं किस ज़माने के एंटीक आईटम हैं, आपके पतिदेव ...
और डॉ दराल से जलन हो रही है क्या किस्मत पायी है कि भाभी जी इस कंजूसी के बाद भी झेल रही हैं ...
:-))
.
ReplyDeleteआदरणीय डॉ.दराल भाई साहब
सादर नमस्कार !
वैसे तो इन दो दिनों हम भी दिल्ली में ही होते …
3rd राष्ट्रीय कवि संगम में भागीदारी का आमंत्रण था … लेकिन परिस्थितियां एक बार फिर हावी रहीं । नहीं आ पाया …
कोई बात नहीं आपने दिल्ली दर्शन तो करा ही दिया …
बहुत रोचक सजीव पोस्ट के लिए आभार !
मेला घुमाने के लिए शुक्रिया ! शुक्रिया ! शुक्रिया !
- राजेन्द्र स्वर्णकार
राधारमण जी , कुछ फोटो , फोटो की फोटो ही हैं । :)
ReplyDeleteटीपने के लिए कोई बंधन नहीं है ।
त्रिवेदी जी , कल हो ही आइये , बहुत बार्गेन वाली सेल मिलेगी ।
जे सी जी , पहला मेला १९७२ में हुआ था । अब वास्तव में जाना बड़ा मुश्किल काम है ।
राजेन्द्र भई , कवि संगम में आते तो हम भी आ जाते । वैसे तो जाने का दिल नहीं करता । खैर फिर सही ।
@ दराल जी ,
ReplyDeleteआपको नहीं लगता कि हम हिन्दुस्तानी लोग हमेशा लिखे हुए के खिलाफ काम करते हैं ! मसलन जहां लिखा हो थूकना माना है वहीं ...:)
उन्होंने छूने के लिए मना किया और आप मान गये बस इसीलिये तौबा की थी :)
हा हा हा ! अली भाई , छूने के लिए कुछ होना भी तो चाहिए !!!
ReplyDeleteवाह!! आभार आपका...हम भी मेला घूम लिए...
ReplyDeleteदराल सर,
ReplyDeleteपर्चेसिंग पर बैन लगाकर भाभी जी के साथ बड़ी नाइंसाफ़ी की, अगली बार एकसाथ चलेंगे बिजनेस डे पर...लेडीज़ डिपार्टमेंट खरीदारी करेगा...आप और मैं पंडालों को छानेंगे...
अभी हिंदुस्तान टाइम्स ने अपने एक अंक में जानकारी दी है कि प्रगति मैदान का निर्माण १९८२ एशियाड के दौरान हुआ...लेकिन मुझे याद है मैं बहुत छोटा था और एशिया ७२ प्रदर्शनी देखने प्रगति मैदान गया था...वहां संजय गांधी ने पहली बार मारूति कार का प्रोटोटाइप पेश किया था...तो क्या १९७२ तक प्रगति मैदान का नाम कुछ और था...अगर प्रगति मैदान ही था तो हिंदुस्तान टाइम्स ने गलत जानकारी दी है...
जय हिंद...
खुशदीप भाई , मेले की शुरुआत तो १९७२ में ही हुई थी । लेकिन तब ज्यादातर पेवेलियंस अस्थायी रूप से निर्मित हुए थे , कुछ को छोड़कर । शुरू में मेला भी हर साल नहीं होता था । बाद में सभी पेवेलियंस को स्थायी रूप से बनाकर वहां और भी प्रदर्शनियां लगाई जाने लगी । प्रगति मैदान नाम तो बाद में ही पड़ा था ।
ReplyDeleteबहुत मज़ा आया मेले की तस्वीरे देखकर......दिल्ली से दूर हूँ परन्तु तस्वीरों से लगा जैसे दिल्ली में ही हूँ !!!
ReplyDelete@ खुशदीप और डॉक्टर दराल जी
ReplyDeleteविकिपेडिया 'आई टी पी ओ' के गठन को १९८२ में दर्शाता है...
इसी स्थान पर किन्तु उस से पहले पचास के दशक में पहले मेला हुआ था... अब याद नहीं किस नाम से...
जैसा मैंने पहले भी कहा उसके बाद एशियन फ्लू फैला... विकिपीडिया में इसे वर्ष १९५७ में दर्शाया गया है -
"The 1957 pandemic started in China before spreading worldwide, killing an estimated two million or more people. It was triggered by the hybridisation of human H1 flu with flu viruses from birds which carried another surface protein, H2. It was more lethal than the then-circulating H1 strains because no human had ever encountered the H2 protein before, and so lacked any immunity to the new स्ट्रें..."
किन्तु बाद में, शायद साठ के दशक के आरम्भ में, उस समय बने अस्थायी पैवेलियनों में सरकारी कार्यालयों के रूप में उपयोग होने लगा... 'अमेरिकन' और 'रशियन' पवेलियन में, मेरी निजि जानकारी के आधार पर, मैं कह सकता हूँ कि जब तक राम कृष्ण पुरम में स्थायी कार्यालय नहीं बने तब तक कुछ कार्यालय वहाँ थे...
जे सी जी , कहीं कुछ गड़बड़ है विकिपीडिया में . मुझे अच्छी तरह याद है १९७२ में हम 10th क्लास में थे . तब पहली बार इसका आयोजन हुआ था . हालाँकि यह याद नहीं की बाद में हर साल हुआ या नहीं . यह हो सकता है की १९८२ से हर साल शुरू हुआ हो .
ReplyDelete१९७२ में मेले के बाद जो पक्के पेवेलियंस थे उनकी सुरक्षा के लिए सिक्युरिटी गार्ड्स भी रखे गए थे . बाद में सभी पेवेलियंस का स्थायी निर्माण हुआ . इससे पहले जापान में १९६२ में अंतर्राष्ट्रीय मेला आयोजित हुआ था .
खुशदीप जी , प्रगति मैदान में मेला तो १९७२ में ही हुआ था पहली बार . लेकिन यह संभव है की इस जगह का नाम प्रगति मैदान १९८२ में रखा गया . उन दिनों एसिया ८२ खेलों का प्रबंध भारत ने किया था . इस अवसर पर दिल्ली में बहुत सुधार किये गए थे जिनमे फ्लाई ओवर्स और स्टेडियम्स पर विशेष ध्यान दिया गया था . मुझे अच्छी तरह याद है दिल्ली में फूलों की बहार सी आ गई थी और रंगीन टी वी भी तभी आया था .
ReplyDelete४सी ,अनुराधा ,नेवल ऑफिसर्स फेमिली रेज़िदेंशियल एरिया (NOFRA),कोलाबा ,मुंबई -४००-००५ . हम तो यहाँ मुंबई में हैं आपने हमें भी सैर करवा दी मेले की .हम तो यही कह सकतें हैं बम्बई शहर की तुझको चल सैर करा दूं ....बढ़िया कवरेज मेले का साफ़ सुथरा व्यापक .
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