दिल्ली के चांदनी चौक की गली बल्लीमारान में दो सौ मीटर जाकर दायें हाथ को आती है गली कासिम जान। इसके बाएं हाथ पर मोड़ से तीसरा या चौथा मकान है--ग़ालिब की हवेली । हालाँकि ग़ालिब यहाँ किराये पर ही रहते थे , लेकिन इस मकान का एक हिस्सा सरकार ने लेकर एक संग्राहलय बना दिया है ।
प्रवेश द्वार से घुसते ही दायें हाथ को एक कमरा है । सामने दो हिस्से हैं । दायाँ प्राइवेट प्रोपर्टी है , बाएं हाथ का हिस्सा ग़ालिब का निवास था ।
छोटा सा ही घर था । बीच में एक आँगन , जिसके बायीं ओर दो कमरे --एक छोटा शायद रसोई या लाइब्रेरी रहा होगा ।
ना कोई देखने वाला था , न दिखाने वाला ।
आँगन की एक दिवार पर यह बोर्ड परिचय देता हुआ ।
सामने वाली दीवार पर एक उर्दू कप्लेट ।
कमरों की दीवारों पर लगे पत्थर ओरिजिनल हैं । ईंटें मरम्मत कर लगाई गई हैं ।
बड़े कमरे से छोटा कमरा मिला हुआ है जिसमे छोटी सी लाइब्रेरी बनी है ।
बड़े कमरे में तीन स्टोर नुमा कमरे से हैं जिनमे संग्रह है । एक में यह मूर्ति -साथ में हम ।
नीचे वाले स्टोर्स के ऊपर भी स्टोर जैसे बने हैं ।
प्रवेश द्वार के पास वाले कमरे में मिर्ज़ा ग़ालिब की मूर्ति की स्थापना की गई है ।
ग़ालिब की मूर्ति ।
मूर्ति के पीछे टंगा है उनका आखिरी फोटो ।
ग़ालिब के लिखे दो लेटर ।
एक दीवार पर उस समय के विशिष्ट लोगों के फोटो लगे हैं । इसके अलावा उनकी मज़ार और अनुवंशाव्ली की भी तस्वीरें लगी हैं ।
परिचय :
आगरा में जन्मे ग़ालिब का परिवार शाही सम्बन्ध रखता था । १३ साल में नवाबी परिवार में शादी हुई । सात बच्चे हुए लेकिन सभी पहले साल में ही गुजर गए ।
ग़ालिब ने कभी कोई काम धंधा नहीं किया । उनकी गुजर बसर शाही अनुदान , दोस्तों की मदद और क़र्ज़ लेकर ही होती थी । शायद इसीलिए लिखा ---
क़र्ज़ की पीते थे लेकर और जानते थे
कि रंग लाएगी हमारी फ़ाकामस्ती एक दिन ।
शराब और जुआ खेलने के भी शौक़ीन थे । जुआ खेलने के चक्कर में जेल भी हो आए ।
उनका कहना था कि जिसने शराब नहीं पी , जुआ नहीं खेला और जेल नहीं गया या फिर माशूक के जूते नहीं खाए --वह शायर हो ही नहीं सकता ।
रोज कहता हूँ न जाऊँगा कभी घर उसके
रोज उस कूचे में इक काम निकल आता है ।
अब पता नहीं कौन से कूचे की बात करते थे । वैसे इस क्षेत्र में तो गलियां ही गलियां हैं , कहीं कहीं तो ऐसी कि स्कूटर भी न जा पाए ।
उनको देखे से जो आ जाती है मूंह पे रौनक
वो समझते हैं , बीमार का हाल अच्छा है ।
वे किस के बीमार थे , इसका ज़िक्र कहीं नहीं आता । बेग़म के तो होने से रहे ।
पहले आती थी हाले दिल पे हंसी
अब किसी बात पर नहीं आती ।
इसमें उनकी निराशा झलक रही है ।
शायद यह वह समय रहा होगा जब मुग़ल साम्राज्य में उथल पुथल हो गई थी ।
ये न थी हमारी किस्मत के बिसाले यार होता
अगर और जीते रहते , यही इंतजार होता ।
पता नहीं किस के लिए लिखा था ।
२७ दिसंबर १७९७ को जन्मे ग़ालिब का आज जन्मदिन है । इस अवसर पर दिल्ली सरकार द्वारा विशेष कार्यक्रम आयोजित किये गए हैं ।
Tuesday, December 27, 2011
मिर्ज़ा ग़ालिब --मुग़लों के ज़माने का एक शायर जिन्हें आज भी याद किया जाता है --
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मिर्ज़ा ग़ालिब की हवेली में संग्राहलय का उद्घाटन आज माननीय मुख्य मंत्री जी द्वारा किया जायेगा ।
ReplyDeleteआप सबसे पहले होंगे इसके दर्शन करने वाले ।
वाह! पहले दर्शकों में हमारा नाम दर्ज किया जाए।
ReplyDeletesarthak prastuti.
ReplyDeleteवाह! मिर्ज़ा ग़ालिब का घर देखने के साथ ही काफी जानकारियाँ भी मिली... अक्सर गली कासिम जान में जाना हुआ है, लेकिन कभी यह घर देख ही नहीं पाए!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति, डा० साहब ! हाँ ग़ालिब निकम्मे नहीं थे, कवि थे! अफ़सोस की हमारी सरकार के पास पूरी हवेली खरीदने का भी पैसा नहीं बचा, और एक हिस्से पर कोयले का डिपो चलता रहा ! खैर उनके लिए श्रधान्जली के तौर पर उन्ही की एक गजल यहाँ लगना चाहूँगा ;
ReplyDeleteरोने से और इश्क में बेबाक हो गये
धोए गए हम ऐसे कि बस पाक हो गये
सर्फे-बहा-ए-मय हुए आलाते-मयकशी
थे ये ही दो हिसाब, यो यूँ पाक हो गये
रुसवा-ए-दह गो हुए आवारगी से तुम
बारे, तबीयतो के तो चालाक हो गये
कहता है कौन नाला-ए-बुलबुल को बेअसर
परदे में गुल के, लाख जिगर चाक हो गये
पूछे है क्या वुजूद-ओ-अदम अहले-शौक का
आप अपनी आग के खस-ओ-खाशाक हो गये
करने गये थे उससे तगाफुल का हम गिला
कि एक ही निगाह, कि बस ख़ाक हो गये
इस रंग से उठाई कल उसने ‘असद’ की नाश
दुश्मन भी जिसको देख के गमनाक हो गये
@जिसने शराब नहीं पी, जुआ नहीं खेला और जेल नहीं गया या फिर माशूक के जूते नहीं खाए --वह शायर हो ही नहीं सकता ।
ReplyDeleteमिर्ज़ा ग़ालिब के जन्मदिन पर उनकी हवेली की विशेष सैर कराने और झलकियाँ दिखाने का आभार। हमें उंका कथन बहुत पसन्द आया। लगता है जैसे कुछ बातें कभी पुरानी नहीं पड़तीं।
WOW ! वाह वाह! अपन को उर्दू जुबां आती नहीं, यद्यपि सुन- सुन के, फिर भी कुछ-कुछ समझ जाते हैं, आइडिया लगा लेते हैं, जैसे डॉक्टर साहिब ने थोड़े से शे'र (?) उद्घृत किये समझ आगये,,, गोदियाल जी ने जो कुछ लिखा वो सर के ऊपर से निकल गया :)
ReplyDeleteसैर और दर्शन कराने केलिए धन्यवाद!
ग़ालिब ने कई भाषों में शायरी की थी । लेकिन उर्दू तब यहाँ भी बोली और समझी जाती थी ।
ReplyDeleteये वो शे'र हैं जो आज भी सभी की जुबान पर हैं ।
गोदियाल जी , उम्दा ग़ज़ल प्रस्तुत करने के लिए शुक्रिया ।
इस महान शायर को याद करने के लिए आभार !
ReplyDeleteबहुत ही खूबसूरत , संग्रहनीय पोस्ट आभार
ReplyDeleteअच्छी रही सोहबत.
ReplyDeleteआपने तो सजीव कर दिया ग़ालिब को आज अपने कैमरे और यादों के सफर से ... उनके जनम दिन पर उनकी याद दिलाने का शुक्रिया ...
ReplyDeleteग़ालिब की यादों को स्थान और पहचान तो मिली , इस दौर में हुए होते तो मकान बिक गया होता !
ReplyDeleteसंग्रहालय की जानकारी के लिए आभार !
वाणी जी , मकान तो अभी भी थोडा सा ही बचा है .
Deleteचाचा ग़ालिब को हमारा आदाब ... आपका बहुत बहुत आभार ... आज के दिन आपने याद दिलाया !
ReplyDelete@जिसने शराब नहीं पी, जुआ नहीं खेला और जेल नहीं गया या फिर माशूक के जूते नहीं खाए --वह शायर हो ही नहीं सकता ।
ReplyDelete-----
जनाब ग़ालिब साहब ने यह कहकर अतिश्योक्ति कर दी।
अल्लामा इक़बाल जैसे लोगों का शुमार अच्छे शायरों में होता है और उन्होंने इनमें से कोई एक भी काम नहीं किया।
आज भी नवाज़ देवबंदी साहब जैसे लोग इन सभी कामों से बचकर शायरी कर रहे हैं।
ग़ालिब एक अच्छे शायर थे। उनके फ़न की महारत उनके लिए आदर का भाव जगाती है।
http://rajputworld.blogspot.com/2011/12/blog-post_27.html
गोदियाल जी के ग़ज़ल से , " करने गये थे उससे तगाफुल का हम गिला
ReplyDeleteकि एक ही निगाह, कि बस ख़ाक हो गये
इस रंग से उठाई कल उसने ‘असद’ की नाश
दुश्मन भी जिसको देख के गमनाक हो गये..." से, माफ़ कीजियेगा, शिव जी, त्रिपुरारी, का कामदेव और भस्मासुर को अपनी 'तीसरी आँख' से (पृथ्वी के वातावरण में - ओजोन ताल पर छिद्र बन, और बड़े होते जाने के कारण - सूर्य की किरणों से अल्ट्रा वायोलेट किरणों की अधिक मात्र में प्रवेश के कारण) जलाना याद आ गया...
संग्रहालय की जानकारी के लिये शुक्रिया
ReplyDeleteबहुत बढिया जानकारी दी …………उसके आस पास से तो हमेशा निकले मगर पता ही नही था कि अगली गली मे गालिब का घर है।
ReplyDeleteचचा ग़ालिब का घर दिखाकर दिल्ली के गली कूचे दिखाकर आपने अच्छा काम किया है .'वो मेरे पास होतें हैं गोया जब कोई दूसरा नहीं होता '
ReplyDeleteGalib ka sachitra khoobsurat parchay padhkar-dekhar bahut achha laga..
ReplyDeleteDELHI aanna-jaana laga rahta hai lekin kabhi Galib ki is haveli tak pahunch n paaye.. utsukta jagi hai dekhen kab tak jaa paate hain..
bahut badiya prastuti hetu aabhar!
बहुत ही खूबसूरत पोस्ट. बहुत तमन्ना थी ग़ालिब की हवेली देखने की.आज आपने दिखा दी.काश उस हवेली में कोई दिखाने बताने वाला भी होता.
ReplyDeleteखूबसूरत चित्र,खूबसूरत पोस्ट और बढिया जानकारी ज़नाब ग़ालिब केबारे में ...
ReplyDeleteशुक्रिया!
वाह! अपने लैपटॉप पर गालिब की हवेली देख मन प्रसन्न हो गया।..आभार इस पोस्ट के लिए।
ReplyDeleteएक कालजयी शायर... जिसने इतने गम देखे कि उसे कहना पडा- जो आंख ही से न टपका वो लहू क्या है!!!!!!
ReplyDeleteमहत्वपूर्ण जानकारी पढ़ने को मिली ।
ReplyDeleteफोटो नंबर दो का प्लास्टिक मोल्डेड स्टूल और उसके बाजू में रखा कप ये अहसास कराता है कि यह आंख मूंदने से पहले का सच हैं जबकि उसके एन बाजू में पसरा अन्धेरा आंख मूंदने से बाद वाला सच ! मुमकिन है ग़ालिब भी इसी बात से मुतास्सिर हुए हों और उन्होंने अपने जीते जी, क़र्ज़,किराया,इश्क,जुएबाजी,हवालात और मयकशी के शौक आंख मूंदने से पहले ही पूरे कर डाले :)
ReplyDeleteकौन कह सकता है कि फोटो नंबर सात का स्टेच्यू आपका नहीं है ज़रा दोनों चेहरे गौर से देखिये ! सिर्फ दाढ़ी का फ़र्क करके आप पहचाने जाने से बच नहीं सकते :)
( ग़ालिब जैसा शायर शताब्दियों की धरोहर होता है उनके व्यक्तिगत जीवन की नाकामियां उनकी शायरी के आगे कुछ भी नहीं हैं उन्हें जितनी बार पढता हूं आश्चर्य होता है )
हा हा हा ! अली सा , शौक तो सभी को पूरे कर ही लेने चाहिए । फिर ग़ालिब तो मंजे हुए शायर थे ।
ReplyDeleteअक्सर नाकामियां ही एक उम्दा शायर को जन्म देती हैं ।
बेशक उनकी शायरी को नमन है ।
फोटो नंबर ७ में कोई स्टेच्यु नहीं है । बस हमारा रिफ्लेक्शन पड़ रहा है। दाढ़ी और टोपी जादुई शीशे का कमाल है ।:)
उनको देखे से जो आ जाती है मूंह पे रौनक
ReplyDeleteवो समझते हैं , बीमार का हाल अच्छा है । ...ग़ालिब के कूचे से गुजरना अच्छा लगा
अच्छी जानकारी देता लेख ..चित्रों के मध्यम से संग्रहालय भी मिल गया देखने को ..आभार
ReplyDeleteरुकिए रुकिए , ई नर्म नर्म धूप का पूरा फ़ायदा उठाते हुए आप भर दिल्ली को कैमरा से ठांय ठांय करते घूम रहे हैं , जल्दीए पकडते हैं आपको रुकिए
ReplyDeleteअभी तो और भी आना बाकि है भाई .
Deleteसच कहा आपने चचा ग़ालिब का अपना कोई मकान न था यह पीड़ा उनके लिखे में कई मर्तबा झलकती भी है .शुक्रिया आपकी ब्लोगिया दस्तक और हौसला अफजाई के लिए .
ReplyDeleteजिस आदमी की सात-सात औलाद पहले ही बरस में चल बसे,वह स्वयं जीते-जी मर जाता है। कोई संत ही इन सबसे अप्रभावित रह,फ़ाकामस्ती में गुज़र-बसर करता है। अल्लाह की मर्ज़ी।
ReplyDeleteगालिबन यह भी खूब रही -
ReplyDeleteयह बहादुर शाह जफ़र का लगता था मुझे ..
ये न थी हमारी किस्मत के बिसाले यार होता
अगर और जीते रहते , यही इंतजार होता ।
राधारमण जी , बेशक बहुत बड़ा ग़म था यह । शायद यही ग़म उन्हें शायरी करने के लिए प्रेरित करता रहा हो ।
ReplyDeleteअरविन्द जी , ग़ालिब शायरी में बहादुर शाह ज़फर के ट्यूटर रहे थे । उन्ही से उन्हें आर्थिक सहायता भी मिलती थी ।
यह तो लाइव टेलीकास्ट से कमतर नहीं है...भाई जी!
ReplyDeleteआपका आभार कि घर बैठे ही ‘ग़ालिब का घर’ दिखा दिया...आपने!
wah kya mast befikree kee zindagee jee unhone......shayad gamo ko chupane ka tareeka tha ......
ReplyDeleteJC said...
ReplyDeleteडॉक्टर साहिब और राधारमण जी, (संयोगवश अथवा डिजाइन ?), सात बच्चे तो वासुदेव-देवकी के भी कंस ने पैदा होते ही जेल में ही मरवा दिए... उस से बड़ा दुःख हम सोच नहीं सकते... किन्तु, उन का भाग्य तो आठवें के पैदा होने के साथ ही जाग गया, जब माँ यशोदा और पिता राजा नन्द के पास पहुँच गए कृष्ण - और यश पा, आज तक, हमें भी ज्ञान के साथ-साथ आनंद दे रहे हैं :)
December 29, 2011 11:47 AM
JC said...
ReplyDelete(संयोगवश अथवा डिजाइन?) कलियुग में ग़ालिब आगरा में पैदा हुए, तो द्वापर युग में (अर्थात बाद में), मथुरा में कृष्ण - दोनों जमुना नदी के किनारे बसे शहरों में ही... और दोनों ही जमुना के किनारे ही बसी दिल्ली अर्थात 'इन्द्रप्रस्थ' से सम्बंधित रहे... (एक शायर तो एक गीतकार?)...:)...
December 29, 2011 6:20 PM
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ReplyDelete
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