सबसे आसान और लोकप्रिय तरीका है , हाथ जोड़कर संबोधन करना जैसे --नमस्ते , नमस्कार , गुड मोर्निंग , राम राम या जय राम जी की । साथ में यदि सम्बन्ध का विशेषण भी लगा दें जैसे --दादाजी , पिताजी , चाचा जी , या फिर आंटी जी --तो सोने पे सुहागा हो जाता है ।
लेकिन एक और भी तरीका है --पैर छूना । बड़ों के पैर छूकर आशीर्वाद प्राप्त करना न सिर्फ एक अच्छा आचरण माना जाता है बल्कि पारस्परिक पारिवारिक प्यार बनाये रखने में भी सहायक सिद्ध होता है ।
आम तौर पर झुककर पैरों या जूतों को हाथ लगाकर सम्मान दिया जाता है । लेकिन बस थोडा सा झुककर हाथ नीचे ले जाकर भी यह रस्म पूरी हो जाती है । विशेष रूप से पंजाबी परिवारों में यह नज़ारा अक्सर देखा जाता है कि मुंडा ज़रा सा झुककर बोलता है --पैयाँ पैना । और हो गया काम । लेकिन यह भी न किया जाए तो बुजुर्ग अवश्य बुरा मान जाते हैं ।
लेकिन पुराने ज़माने में जब हम बच्चे थे , तब की बात याद आती है । उन दिनों में जब कोई नई नवेली दुल्हन आती तो घर की सभी बड़ी औरतों जैसे दादी , ताई , चाची आदि के पैर दबाकर आशीर्वाद प्राप्त करती ।
अब शायद ये रिवाजें वहां भी ख़त्म हो चुकी हैं । लेकिन अभी भी गाँव में बुजुर्ग महिलाएं सर पर हाथ रखकर आशीर्वाद ज़रूर देती हैं । और सच मानिये , यह अनुभव मन को बहुत शांति प्रदान करता है । ठीक उसी तरह जैसे किसी धार्मिक समारोह में पंडित जी जब हमारे माथे पर टीका लगाते हैं तो एक परम आनंद की अनुभूति होती है ।
इसका कारण है माथे पर जहाँ टीका लगाया जाता है , वह हमारी चेतना का केंद्र बिंदु होता है । इसी बिंदु के पीछे मष्तिष्क में पीनियल बॉडी नाम का एक छोटा सा अंग होता है । यह एक एंडोकराइन ग्लैंड होती है जिससे मेलाटोनिन नाम का हॉर्मोन उत्पन्न होता है । मेलाटोनिन का रोल मनुष्य में ज्यादा नहीं है लेकिन पशुओं में यह सिर्कार्दियन रिदम को कंट्रोल करता है जो प्रजनन से सम्बंधित होता है ।
पीनियल ग्लैंड हमारे मष्तिष्क के ठीक मध्य में ब्रेन के दोनों हिस्सों के बीच मौजूद होती है । यह ब्रेन का अकेला ही ऐसा हिस्सा है जो एक ही होता है जबकि बाकि सारे हिस्से डबल होते हैं ।
पीनियल बॉडी को थर्ड आई ( तीसरी आँख ) भी कहा जाता है । धार्मिक रूप से यह विश्वास माना जाता है कि हमारे शरीर में हमारी आत्मा का निवास पीनियल बॉडी में ही होता है ।
इसीलिए केरल के आयुर्वेदिक मेसाज में तेल की धार माथे के मध्य छोड़ी जाती है ।
मेडिटेशन करने के लिए भी हमें अपना ध्यान इसी बिंदु पर केन्द्रित करना होता है ।
पंडित लोग भी इसी बिंदु पर टीका लगाते हैं ।
महिलाएं भी बिंदी इसीलिए इसी बिंदु पर लगाती हैं !
महिलाएं भी बिंदी इसीलिए इसी बिंदु पर लगाती हैं !
देशी लोगों के यहाँ तो आज भी यह परम्परा जीवित है, जो लोग थोडा अंग्रेजीपने पर आ गये है वहाँ तो माँ-बापू तो छोडो, मम्मी-पापा की जगह भी मोम- डैड ने ले ली है। माथे के मध्य में बिन्दु यूँ ही नहीं लगायी जाती, इसके पीछे भी वैज्ञानिक कारण ही है। जैसा आपने बताया है।
ReplyDeleteबचपन में ही पढ़ा था,"अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः ,चत्वारि तस्य वर्धन्ते,आयुर्विद्या यशोबलम "!हाँ ,आज इसका स्वार्थ में उपयोग हो रहा है,वह गलत है
ReplyDeleteआपने कुछ नई जानकारी भी दी है.
राम राम सा !
आपकी बताई परम्पराओं के विभिन्न रूप मैने भी देखे हैं। कभी साष्टांग दंडवत करने से लेकर समाज आज पैयाँ पैना कहने तक पहुँच ही गया है। आगे भी तरक्की के चिन्ह स्पष्ट दिखाई दे रहे हैं।
ReplyDeleteडॉक्टर साहिब, धन्यवाद जानकारी के लिए!
ReplyDeleteजैसे-जैसे 'आधुनिक वैज्ञानिक' - अज्ञानता के अन्धकार को दूर करते ज्ञान के प्रकाश की ओर बढ़ते - कुछ 'नूतन' ज्ञान अर्जित करते हैं, हम 'हिन्दुओं' का ध्यान अपने भूत में चला जाता है और अपने पूर्वजों के संभावित आध्यात्मिक गहन ज्ञान प्राप्ति की ओर चला जाता है... किन्तु 'मेंटल बैरियर' लगा होने समान अधिकतर 'आधुनिक भारतीय' पश्चिम की ओर ही देखते रह जाते हैं... जैसे जब लोगों ने मान लिया था कि चार मिनट से कम में कोई भी धावक एक मील नहीं दौड़ सकता, फिर एक चिकित्सक, डॉक्टर रौजर बैनिस्टर, ने उस बाधा को तोड़ दिया था तो अन्य धावकों का विश्वास भी जग गया! और, उस के तुरंत बाद कई औरों ने भी चार मिनट से कम में एक मील दौड़ के दिखा दिया :)
हमारे पूर्वज भी इस कारण सबसे पहले 'विश्वास' पर जोर दिए...विश्वास सबसे पहले स्वयं पर, अर्थात अपने भीतर ही विद्यमान आत्मा/ परमात्मा पर...
जोगियों ने 'तीसरी आँख' को 'अजना चक्र' और त्रिनेत्रधारी को बार-बार साधना में चले जाने को उनको तीसरी आँख को अधिकतर बंद जाना (खुली तो कामदेव और भस्मासुर भस्म हो गए, अर्थात और उनके प्रतिरूप मानव में अज्ञान के कारण काम, क्रोध, मोह, लोभ, अहंकार रुपी नरक के द्वारों का बंद हो जाना और शिव को पा लेना :) ...
आधुनिक वैज्ञानिकों ने यह भी पाया है कि हमारे मस्तिष्क में अरबों सेल हैं, किन्तु 'सबसे विद्वान्' व्यक्ति भी आज अपने को केवल नगण्य का ही उपयोग करने में समर्थ पाता है... और हमारे पूर्वज इसे काल, अर्थात कलियुग, का प्रभाव मानते हैं, जब सिद्ध पुरुषों के अनुसार मानव की क्षमता केवल २५% से (शून्य) ०% ही रह जाती है ...
गीता में 'कृष्ण' भी अर्जुन समान शक्तिशाली किन्तु अज्ञानी 'अप्स्मरा पुरुष' के हित में कह गए कि उनके विराट रूप चतुर्भुज विष्णु (निराकार 'नादबिन्दू', अथवा साकार त्रिलोकीनाथ अमृत भूतनाथ शिव) तक पहुँचने के लिए उन पर आत्म समर्पण आवश्यक है :)
[स्त्री के माथे पर बिंदु, अथवा रेखा, सांकेतिक भाषा में विष्णु / शिव के द्योतक हैं, जबकि तुलनात्मक रूप में शारीरिक रूप से शक्तिशाली पुरुष के माथे पर आदित्य/ अदिति यानि 'आकाश' के राजा सूर्य (विष्णु के वाहन गरुड़) अर्थात ब्रह्मा के... अदि आदि...]
स्त्री के माथे पर बिंदु, अथवा रेखा, सांकेतिक भाषा में विष्णु / शिव के द्योतक हैं, जबकि तुलनात्मक रूप में शारीरिक रूप से शक्तिशाली पुरुष के माथे पर आदित्य/ अदिति अर्थात ब्रह्मा के...
रोचक !
ReplyDeleteतीसरे नेत्र का उल्लेख हो और भगवान् शंकर का जिक्र न आये तो चर्चा अधूरी रह जायेगी ...शंकर के त्रिनेत्र मिथक में जरुर ऐसे ही एक तीसरे नेत्र की अनुभूति रही होगी -आज भी जिन लोगों की इन्द्रियाँ बहुत सजग होती हैं उनके बारे में कह दिया जाता है कि इस आदमी को लगता है एक आँख और है .....पीनियल बाडी का उल्लेख और इसके तीसरे नेत्र की उपमा सचमुच बहुत रोचक है !
राजस्थान में भी महिलाओं के पैर दबा कर अभिवादन करने का रिवाज़ है , आजकल कम जरुर हो गया है . सम्मान अभिवादन के तरीके से ज्यादा मन में होना मायने रखता है .
ReplyDeleteतीसरी आँख को जानना रोचक रहा !
पीनियल बॉडी को थर्ड आई ( तीसरी आँख ) भी कहा जाता है । धार्मिक रूप से यह विश्वास माना जाता है कि हमारे शरीर में हमारी आत्मा का निवास पीनियल बॉडी में ही होता है
ReplyDeleteआत्मा का ज्ञान वास्तव में एक आश्चर्य ही है. भगवद्गीता (अध्याय २ श्लोक २९) में इसका निरूपण निम्न प्रकार से किया गया है.
"कोई एक महापुरुष ही इस आत्मा को आश्चर्य की भांति देखता है
और वैसे ही दूसरा कोई महापुरुष ही इसके तत्व का आश्चर्य की भांति वर्णन करता है तथा दूसरा कोई अधिकारी पुरुष ही इसे आश्चर्य की भांति सुनता है और कोई कोई तो सुनकर भी इसे नहीं जानता "
आपका आलेख अच्छा लगा पढकर.यह आपके नास्तिकता से आस्तिकता की ओर गमन का संकेत है.
डॉ दराल
ReplyDeleteमुझे ये सब पोस्ट पढ़ कर लगता हैं { थर्ड आई वाला हिस्सा छोड़ कर } की ये सब किसके लिये लिखा जाता हैं . हिंदी ब्लॉग में जितने सक्रिय ब्लॉगर हैं वो सब अब बुजुर्ग की क्षेणी में ही आयेगे . अमूमन सबके पुत्र पुत्री विवाह योग्य हो ही चुके . ५० वर्ष की उम्र तक इतनी परिपक्वता सब में होती हैं . क्या ये सब आने वाली / नयी पीढ़ी के लिये हैं तो वो हमको आप को ना तो पढते हैं ना पढ़ेगे . अभी वो सब अपनी रोजी रोटी में इतने व्यस्त हैं की शायद ही ब्लॉग पढने का समय निकालते हो ,
क्या ये सब परम्पराए हम बुजुर्गो ने निभायी हैं , जिन्होने निभायी हैं उनके बच्चे स्वत इनका महत्व जानते हैं जिन्होने नहीं निभाई उन होने पहले ही अपने बच्चो को संस्कारो से विहीन रखा हैं और उनकी अपने बच्चो से ऐसी क़ोई आपेक्षा होनी नहीं चाहिये .
आप के ब्लॉग की नियमित पाठक हूँ और व्यक्तिगत रूप से ये मानती हूँ की ब्लॉग लिखना मन की बाटे बाँटना ही होता हैं पर इन सब विषयों से क़ोई जुड़ाव नहीं होता हैं ख़ास कर जब क़ोई डॉक्टर लिखता हैं
एक डॉक्टर होने के नाते बजाये ये प्रश्न करने के की औरते बिंदी एक ही जगह क्यूँ लगाती हैं आप को शायद औरतो को आगाह करना चाहिये था की एक ही जगह बिंदी लगाने से उस जगह की स्किन ख़राब हो जाती हैं और सफ़ेद पड़ जाती हैं . कई बार चिपकाने वाली बिंदी से अलेर्जी भी हो जाती हैं .
ReplyDeleteऔरते केवल और केवल आस्था की वजह से ये करती हैं और सदियों के संस्कार हैं , इस के पीछे सुहागिन को ये करना चाहिये जैसी परम्परा हैं .
७० के ऊपर की विवाहित महिला की स्किन देखिये बिंदी के नीचे एक दम सफ़द होगी और मेडिकल में इसको गलत ही माना जाता हैं शायद पर आप इस के ऊपर ज्यादा बेहतर प्रकाश डाल सकते थे जो जरुरी भी था
मुझे तो ये लगता है कि नई पीढ़ी ज्यादा पैर छूती है उनके हाथ हमारे घुटनों तक तो अवश्य जाते है मेने तो ये भी देखा है कि यदि किसी लड़के से परिचय कराया जाता है तो वो तुरंत हमारे पैर छू लेते है.
ReplyDeleteJC said --
ReplyDeleteडॉक्टर साहिब, धन्यवाद जानकारी के लिए!
जैसे-जैसे 'आधुनिक वैज्ञानिक' - अज्ञानता के अन्धकार को दूर करते ज्ञान के प्रकाश की ओर बढ़ते - कुछ 'नूतन' ज्ञान अर्जित करते हैं, हम 'हिन्दुओं' का ध्यान अपने भूत में चला जाता है और अपने पूर्वजों के संभावित आध्यात्मिक गहन ज्ञान प्राप्ति की ओर चला जाता है... किन्तु 'मेंटल बैरियर' लगा होने समान अधिकतर 'आधुनिक भारतीय' पश्चिम की ओर ही देखते रह जाते हैं... जैसे जब लोगों ने मान लिया था कि चार मिनट से कम में कोई भी धावक एक मील नहीं दौड़ सकता, फिर एक चिकित्सक, डॉक्टर रौजर बैनिस्टर, ने उस बाधा को तोड़ दिया था तो अन्य धावकों का विश्वास भी जग गया! और, उस के तुरंत बाद कई औरों ने भी चार मिनट से कम में एक मील दौड़ के दिखा दिया :)
हमारे पूर्वज भी इस कारण सबसे पहले 'विश्वास' पर जोर दिए...विश्वास सबसे पहले स्वयं पर, अर्थात अपने भीतर ही विद्यमान आत्मा/ परमात्मा पर...
जोगियों ने 'तीसरी आँख' को 'अजना चक्र' और त्रिनेत्रधारी को बार-बार साधना में चले जाने को उनको तीसरी आँख को अधिकतर बंद जाना (खुली तो कामदेव और भस्मासुर भस्म हो गए, अर्थात और उनके प्रतिरूप मानव में अज्ञान के कारण काम, क्रोध, मोह, लोभ, अहंकार रुपी नरक के द्वारों का बंद हो जाना और शिव को पा लेना :) ...
आधुनिक वैज्ञानिकों ने यह भी पाया है कि हमारे मस्तिष्क में अरबों सेल हैं, किन्तु 'सबसे विद्वान्' व्यक्ति भी आज अपने को केवल नगण्य का ही उपयोग करने में समर्थ पाता है... और हमारे पूर्वज इसे काल, अर्थात कलियुग, का प्रभाव मानते हैं, जब सिद्ध पुरुषों के अनुसार मानव की क्षमता केवल २५% से (शून्य) ०% ही रह जाती है ...
गीता में 'कृष्ण' भी अर्जुन समान शक्तिशाली किन्तु अज्ञानी 'अप्स्मरा पुरुष' के हित में कह गए कि उनके विराट रूप चतुर्भुज विष्णु (निराकार 'नादबिन्दू', अथवा साकार त्रिलोकीनाथ अमृत भूतनाथ शिव) तक पहुँचने के लिए उन पर आत्म समर्पण आवश्यक है :)
[स्त्री के माथे पर बिंदु, अथवा रेखा, सांकेतिक भाषा में विष्णु / शिव के द्योतक हैं, जबकि तुलनात्मक रूप में शारीरिक रूप से शक्तिशाली पुरुष के माथे पर आदित्य/ अदिति यानि 'आकाश' के राजा सूर्य (विष्णु के वाहन गरुड़) अर्थात ब्रह्मा के... अदि आदि...]
स्त्री के माथे पर बिंदु, अथवा रेखा, सांकेतिक भाषा में विष्णु / शिव के द्योतक हैं, जबकि तुलनात्मक रूप में शारीरिक रूप से शक्तिशाली पुरुष के माथे पर आदित्य/ अदिति अर्थात ब्रह्मा के...
kisi khaas sthaan per bindi .... mayne to hain hi
ReplyDeleteसमय के साथ सब बदल रहा है, पैर छुने की बात तो बहुत दूर अगर कोई झुक ही गया तो बड़ी बात है। पैर दाबने की परम्परा तो पुराने लोगों में ही चल रही है। नए जमाने के लोग इससे इत्तेफ़ाक नहीं रखते। बड़े बुजुर्गों का सिर पुचकार कर आशीर्वाद देना मनोबल बढाता है।
ReplyDeleteबकौल ब्रम्हाकुमारीज़ भ्रूमध्य ही वह स्थान है जहां आत्मा का वास है .इस बिंदु पर ध्यान लगाया जाता है .सांगीतिक ध्वनी के बीच .अच्छा आलेख संक्षिप्त और सुन्दर .
ReplyDeleteलेख मे बहुत ही अच्छी जानकारी मिली सर!
ReplyDelete----
कल 02/12/2011को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
धन्यवाद!
आत्मा'=FLUID है और यह समस्त शरीर मे व्याप्त होता है ,एक स्थान पर आत्मा की कल्पना भ्रामक है।
ReplyDelete'बिंदी' पहले कुमकुम और सिंदूर से लगाई जाती थीं वे तो ठीक थीं परंतु आजकल की वेल्वेट बिंदियाँ 'चर्म' के लिए घातक हैं। पहले तो हरिश्रिंगार के फूल की पीली वाली डंडी से भी बनती थीं जो शीतलता और सुगंध प्रदान करती थी। आजकल की घातक बिंदी लगाना स्वास्थ्य को खराब करना है। उसी स्थान पर पुरुष पहले चन्दन का टीका लगाते थे जो शीतलता प्रदान करता था। आजकल के पुरुष 'रोली' का टीका लगते हैं जो स्वास्थ्य के लिए घातक है।
चरण स्पर्श स्त्री हो या पुरुष अपने से ज्ञानी लोगों का इसलिए करते थे कि,उनसे कुछ ज्ञान अर्जित किया जा सके। नाखून ऊर्जा/एनर्जी को संप्रेषित भी करते हैं और अर्जन भी उनही द्वारा होता है। इसलिए विद्वान/ज्ञानी स्त्री/पुरुष के चरणों के नाखूनों पर हाथ के नाखूनों को इस प्रकार स्पर्श करते थे=हथेलियाँ ऊपर याचना रूप मे रख कर दाहिना हाथ उस पुरुष/स्त्री के दाहिने पैर पर और बायाँ हाथ बाएँ पैर पर जिससे कि अंगूठे का नाखून पैर के अंगूठे पर और इसी प्रकार क्रमशः उँगलियाँ रहती थी। स्पष्टत : ज्ञानी के पैरों से निकलनी वाली ऊर्जा याचक के हाथों के माध्यम से उसके शरीर मे प्रविष्ट होती थी।
लेकिन आजकल का पैर या जूता छूना या घुटने का स्पर्श आदि कोरा दिखावा/आडंबर है और इसे तत्काल समाप्त किया जाना चाहिए।
बिंदी और टिके का रहस्य समझ में आया.
ReplyDeleteऔर ये पैर दबा कर छूने वाले तरीके ने शुरू में हमें भी बहुत परेशां किया था :)
यूँ पश्चिमी सभ्यता में अभिवादन के जो तरीके हैं कभी उनपर भी शोध करने का मन हो तो जरुर बताइयेगा...कुछ लोजिक तो वहां भी होंगे.
बेशक आपकी लिखी हुई हर एक बात से सहमत हूँ। खास कर इस बात से जो पढ़कर मुझे बहुत अच्छा लगा वो यह "बुजुर्ग महिलाएं सर पर हाथ रखकर आशीर्वाद ज़रूर देती हैं । और सच मानिये , यह अनुभव मन को बहुत शांति प्रदान करता है । ठीक उसी तरह जैसे किसी धार्मिक समारोह में पंडित जी जब हमारे माथे पर टीका लगाते हैं तो एक परम आनंद की अनुभूति होती है"और जहां तक रही पैर दबाकर चुने कि बात तो यह बात भले ही पंजाब या हरियाणा मे न देखने को मिलती हो मगर यदि आप रजिस्थान जाएँ तो वहाँ आपको आज भी गाँव से लेकर स्भय घरों कि बहू बेटियाँ तक सभी ठीक इसी प्रकार पऔं दबाकर ही आशीर्वाद लिया करती हैं यह मैं इसलिए कह रही हूँ क्यूंकि मेरे बहुत से रिश्तेदार वहाँ हैं और मैंने इस बात का खूब अनुभव किया है।
ReplyDeleteराकेश जी , नास्तिक तो हम मंदिर जाने के मामले में ही हैं । वर्ना ईश्वर में पूर्ण आस्था है ।
ReplyDeleteअनुराग जी , आदतें बदल तो रही हैं धीरे धीरे । लेकिन सम्मान बना रहे तो गनीमत है ।
शोभा जी , पैर छूएं या न छूएं , यहाँ मनसा सम्मान देने की ही होती है । यह परंपरा चलती रहे तो अच्छा है ।
रचना जी , इस पोस्ट में मैंने कोई नसीहत नहीं दी है , न बच्चों के लिए , न बड़ों के लिए । बल्कि बुजुर्गों को सम्मान देने की जो परम्पराएँ चली आ रही हैं , उन्हें बस उजागर किया है, जानकारी के साथ । यह सच है कि हरियाणा जैसे प्रदेश में पैर छूने की रिवाज़ नहीं है जबकि पंजाब में इसके बगैर कोई सम्मान होता ही नहीं ।
ReplyDeleteपैर छूएं या नहीं , यह व्यक्तिगत मामला है । लेकिन बड़ों का सम्मान करना , छोटों का कर्तव्य है । इस बात को बार बार कहने में शर्म कैसी ।
जहाँ तक महिलाओं की बिंदी का सवाल है , हमने इसका कोई ज़िक्र नहीं किया किया कि क्यों लगाती हैं ।बस यही कहा है कि बिंदी भी उसी बिंदु पर लगाई जाती हैं । क्यों को भी हटा दिया है ।
एलर्जी किसी को किसी भी चीज़ से हो सकती है । हालाँकि इसकी इन्सिडेन्स बहुत कम होती है ।
माथुर जी , यह सही है कि आजकल ये रीति रिवाजें नाम मात्र को रह गई हैं , विधिवत रूप से नहीं की जाती ।
ReplyDeleteफिर भी बड़ों के सम्मान का एक तरीका तो है । जब हम नमस्ते करते हैं , तब भी सर को हल्का सा झुकाते हैं । यह सम्मान का सूचक है । इसी को नतमस्तक होना कहते हैं ।
कई बार यह बस दिखावा भी होता है । लेकिन न होने से तो बहतर ही है ।
शिखा जी , पश्चिमी सभ्यता के बारे में यदि आप ही लिखें तो बेहतर होगा । :)
'सिद्धों' के दृष्टिकोण से, सबसे पहले यह जानना होगा कि हम वास्तव में आत्माएं हैं, शून्य काल और स्थान से सम्बंधित अजन्मे और अनंत परमात्मा शिव, महाकाल अथवा भूतनाथ के शक्ति रुपी अंश हैं... जो वास्तव में न तो 'पुरुष' है न 'नारी' और न 'किन्नर', किन्तु माया से तीन में से किसी रूप में दीखते हैं थोड़े से समय के लिए (तुलनात्मक रूप से सौ-मंडल के अरबों वर्ष के जीवन काल में मात्र १००+/- वर्ष ही)... 'हम' शक्ति (ॐ) के तीन साकार रूप ब्रह्मा, विष्णु, महेश, तीनों के मिले-जुले अंश हैं जिनको बनाने में पांच तत्व, 'आकाश' अर्थात अंतरिक्ष रुपी शून्य; 'पृथ्वी अर्थात मिटटी'; 'अग्नि' अर्थात ऊर्जा; 'जल'; और 'वायु'; आवश्यक हैं...
ReplyDeleteमानव शरीर नौ ग्रहों, सूर्य से शनि तक, के सार से बना हुआ जाना गया है... और इस कारण 'मिटटी का पुतला' भी कहा जाता है - जैसे अर्जुन को कृष्ण ने बताया कि वो एक माध्यम भर है...
और नाटक के स्क्रिप्ट के अनुरूप सब, सीढ़ीनुमा विभिन्न स्तर पर प्रतीत होते अस्थायी जीव, अंततोगत्वा अपनी मिटटी अथवा राख यहीं छोड़ जाते हैं, (From dust to dust, and ashes to ashes )... और तत्पश्चात आत्मा फिर एक नए काल-चक्र में, अपने पिछले चक्र तक प्राप्त किये गए स्तर से या तो ऊपर अथवा नीचे चल पड़ती है... किन्तु, हर आत्मा का गंतव्य कैलाश पर्वत के शिखर पर बैठे, शिव-पार्वती के तथाकथित परिवार समान, परमज्ञानी परमात्मा को मन में ही पाना है - जिसे आत्मा को परमात्मा में मिलाना भी कहा जाता है... और जो केवल मानव रूप में ही संभव जाना गया...
और, जहां तक ऊर्जा के एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक जाने का प्रश्न है, महात्मा/ गुरु के निकट जाने से ही शिष्य का स्तर ऊंचा हो जाता है - जैसे ठंडा बर्तन गर्म बर्तन के निकट रखें तो उनके बीच शक्ति का आदान प्रदान हो दोनों बर्तन एक ही स्तर पर आजाते हैं... अब शिष्य पर निर्भर करेगा कि उस का गुरु ईश्वर के निकट पहुंची हुई परोपकारी आत्मा है या नहीं...
सर प्रणाम ,
ReplyDeleteहमारे यहाँ मैनपुरी में हम चतुर्वेदी लोग एक दुसरे को 'पालागन' कह कर संबोधित करते है ... बाकी लोगो से आम तरीके से नमस्कार या प्रणाम ही कहा जाता है ... वैसे देखा जा रहा है कि पैर छूने की प्रथा अब घुटने तक रह गई है ... कभी कभी तो घुटने तक भी नहीं जाया जाता ... ;-)
चलिए अब आप भी हमारी 'थर्ड आई' जल्दी से खोल ही दीजिये !
शिवम् जी , अलग अलग भाषाओँ में संबोधन का उद्देश्य एक ही होता है । अब इसे पालागन कहें, पैया पैना या पाँ लागूं । मतलब तो सम्मान करने से है ।
ReplyDeleteआपके ब्लॉग पर जाते ही साईट क्रेश हो जाता है । यह समस्या काफी समय से चल रही है । कृपया ध्यान दीजिये ।
JC said...
ReplyDelete'सिद्धों' के दृष्टिकोण से, सबसे पहले यह जानना होगा कि हम वास्तव में आत्माएं हैं, शून्य काल और स्थान से सम्बंधित अजन्मे और अनंत परमात्मा शिव, महाकाल अथवा भूतनाथ के शक्ति रुपी अंश हैं... जो वास्तव में न तो 'पुरुष' है न 'नारी' और न 'किन्नर', किन्तु माया से तीन में से किसी रूप में दीखते हैं थोड़े से समय के लिए (तुलनात्मक रूप से सौ-मंडल के अरबों वर्ष के जीवन काल में मात्र १००+/- वर्ष ही)... 'हम' शक्ति (ॐ) के तीन साकार रूप ब्रह्मा, विष्णु, महेश, तीनों के मिले-जुले अंश हैं जिनको बनाने में पांच तत्व, 'आकाश' अर्थात अंतरिक्ष रुपी शून्य; 'पृथ्वी अर्थात मिटटी'; 'अग्नि' अर्थात ऊर्जा; 'जल'; और 'वायु'; आवश्यक हैं...
मानव शरीर नौ ग्रहों, सूर्य से शनि तक, के सार से बना हुआ जाना गया है... और इस कारण 'मिटटी का पुतला' भी कहा जाता है - जैसे अर्जुन को कृष्ण ने बताया कि वो एक माध्यम भर है...
और नाटक के स्क्रिप्ट के अनुरूप सब, सीढ़ीनुमा विभिन्न स्तर पर प्रतीत होते अस्थायी जीव, अंततोगत्वा अपनी मिटटी अथवा राख यहीं छोड़ जाते हैं, (From dust to dust, and ashes to ashes )... और तत्पश्चात आत्मा फिर एक नए काल-चक्र में, अपने पिछले चक्र तक प्राप्त किये गए स्तर से या तो ऊपर अथवा नीचे चल पड़ती है... किन्तु, हर आत्मा का गंतव्य कैलाश पर्वत के शिखर पर बैठे, शिव-पार्वती के तथाकथित परिवार समान, परमज्ञानी परमात्मा को मन में ही पाना है - जिसे आत्मा को परमात्मा में मिलाना भी कहा जाता है... और जो केवल मानव रूप में ही संभव जाना गया...
और, जहां तक ऊर्जा के एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक जाने का प्रश्न है, महात्मा/ गुरु के निकट जाने से ही शिष्य का स्तर ऊंचा हो जाता है - जैसे ठंडा बर्तन गर्म बर्तन के निकट रखें तो उनके बीच शक्ति का आदान प्रदान हो दोनों बर्तन एक ही स्तर पर आजाते हैं... अब शिष्य पर निर्भर करेगा कि उस का गुरु ईश्वर के निकट पहुंची हुई परोपकारी आत्मा है या नहीं...
December 1, 2011 7:08 PM
तीसरी आंख का जो स्थान बताया गया है,वही आद्या चक्र है। ध्यान में,आद्याचक्र तक हममें से अधिकतर लोग पहुंच सकते हैं। आद्या चक्र के ऊपर सहस्त्रार चक्र है,जहां परम समाधिस्थ व्यक्ति ही अपनी ऊर्जा को ले जा सकता है। आद्याचक्र पर जिस व्यक्ति की ऊर्जा सघन होती है,उसकी ललाट के मध्य भाग की त्वचा जल जाती है/काली पड़ जाती है;चंदन का लेप लगाने की परम्परा इसी कारण शुरू हुई थी। माना जाता है कि जब व्यक्ति की ऊर्जा सहस्त्रार पर होती है,तब उसके मुख से जो कुछ भी निकलता है,वह फलित होता है।
ReplyDeleteबड़ों के पांव छूना अत्यन्त शुभकर होता है,मगर एडवांस लोग यह समझ नहीं पाते। पांव छूना भी सबको नसीब नहीं होता। सभी संत पैर नहीं छुआते क्योंकि पैर छूने की भी पात्रता होती है। किसी दिन प्रत्येक मिलने वाले व्यक्ति के पैर छूने का प्रयोग करें;अपनी दुनिया उसी दिन बदली नजर आने लगेगी।
हे भगवान.
ReplyDelete@वीरुभाई बहुत सावधान रहे नहीं तो अर्थ अनर्थ हो गया होता ..मैंने पहले पढ़ा भूमध्य -फिर देखा तो वीरुभाई भ्रूमध्य लिखे पाए गए... अन्यथा बिंदी कहीं की कहीं पहुच गयी होती .. :)
ReplyDeletewah baat kahan se kahan pahunch gayi....pair chhoone aur naman karne se shuru hui aur teeka lagate lagate vaigyanik star par karte karte doctry line par laa chhodi....aakhir kavi dr. apni doctry kaise chhod sakte hain...ha.ha.ha.(bura mat maniyega pls.).
ReplyDeletesach kaha aapne ye sab ek bar suna tha lekin scientifically complete details aaj jaan payi hun.
shukriya.
राधारमण जी , तीसरी आँख के बारे में ज्ञान में और विस्तार देने के लिए आभार ।
ReplyDeleteलेकिन पैर छूने के बारे में सबकी अपनी अपनी मान्यताएं हैं ।
काजल कुमार जी , लगता है आज ज्ञान गोष्ठी कुछ ज्यादा ही जटिल हो गई है । :)
हा हा हा ! सही कहा अनामिका जी , बात कहाँ से कहाँ पहुँच गई । लेकिन क्या करें, डॉक्टर हैं तो डॉक्टरी अपने आप खिसक आती है । लेकिन सोचा जाए तो यही तो ब्लोगिंग की खूबसूरती है ।
हम तो किसी श्रेष्ठ के चरण छूने का मतलब उनकी चरण धूलि को अपने मस्तक से लगाना मानते रहे।
ReplyDeleteपर हमारे बच्चे या उनकी पीढ़ी को जब झुके बिना घुटने छू कर काम चलाते देखता हूं, तो कह देता हूं, हलो ही बोल लो ना, इसकी क्या ज़रूरत है?
एल और चीज़ शेयर करना है ...
हमारी तरफ़ रिवाज़ है कि नई नवेली से मिलने मानों कोई महिला पहुंचती है, और पहले से चार महिलाएं हैं, तो वह आने वाली के साथ-साथ पहले से उपस्थित महिलाओं का पैर फिर से छूती है। दोनों हाथों में आंचल लेकर, कम से कम तीन बार।
बड़ी प्यारी पोस्ट लिखी है भाई जी !
ReplyDeleteभारतीय संस्कृति की आधारभूत मान्यताओं का दुहराना कहीं न कहीं आवश्यक होता जा रहा है अन्यथा शायद हम अपना इतिहास ही न भूल जाएँ !
शुभकामनायें आपको !
कुछ युवा लोग अब भी, पैर छूने की रस्मे निभाते हैं...और सुनकर आश्चर्य होगा...मेरी एक रिश्ते की भाभी जो मुंबई में रहती है...और जिसके पति टी.वी. एक्टर हैं { अब नाम नहीं बता सकती :)}..वो अब भी पैर दबाकर ही पैर छूने की रस्म निभाती है..वो भी तीन बार....ये जरूर है..हमें बड़ा संकोच होता है...हम मना करते हैं...पर अब आदत सी पड़ गयी है...:)
ReplyDeleteबात कहाँ से कहाँ पहुँच गई ............
ReplyDeleteखूबसूरत ब्लोगिंग...........!!
कई टिप्पणी पढ़कर लगा अजीब लगता है। अगर इन टिप्पणियों की मानूं तो मानना पड़ेगा की दिल्ली अब भी पुराने जमाने की है। दिल्ली में हर दूसरा या तीसरा बच्चा पैर छूते ही दिखता है अपने से बड़े का। हां भले ही पड़ोस के बड़ो को सिर्फ सिर झुका कर ही नमस्ते की जाती हो पर आज भी हर परिवार में बड़ो को पैर छूकर ही सम्मान देते नई पीढ़ी को देखा है। इसलिए ये कह देना पूरी तरह से गलत है कि पैर छूने की परंपरा पूराने जमाने की है।
ReplyDeleteएक अहम बात और....पैर छुने का तरीका एक ही होता है..कि हाथ बड़ों के पैर को छुकर छाती पर लगाएं...इसे मस्तक पर लगाने की परंपरा नहीं थी। क्योंकि मस्तक में बह्म का वास होता है....और कोई भी नाशवान प्राणी बह्म से बड़ा नहीं होता.....दूसरे इसका मतलब ये होता था कि ''''मैं'''''..यानि कि मेरा '''अहम;; अपने से बड़े के आगे हमेशा नतमस्तक होता था..जिससे घमंड जैसी बुराई लोगो में कम होती है..आपने देखा होगा कि जब भी कोई व्यक्ति '''मैं'''' पर जोर देता है तो उसका हाथ उसकी छाती पर होता है न कि सिर पर....इसलिए ''''मैं''''नाम की बुराई भी पैर छूने की इस परंपरा को निभाने से लोगो से दूर रहती है।
'हिन्दुओं' ने सत्य उसे माना जो काल के परे है, अर्थात जैसे 'आधुनिक वैज्ञानिकों' के अनुसार भी सोने की भौतिक प्रकृति सदैव एक सी ही रहती है... किन्तु यह भी सब जानते हैं कि सोने का असर हर व्यक्ति के मन पर एक सा ही नहीं होता, यद्यपि अधिकतर नारी के मन में अनादिकाल से सोने के लिए प्राकृतिक कमजोरी है... जैसे त्रेतायुग में सीता के हरण तक का यह मुख्य कारण बनी, जहां दूसरी ओर आज्ञाकारी राजकुमार राम ने अपने गुरु लोगों की इच्छा पूर्ती हेतु सोने के सिंहासन को त्याग बनवास के लिए हठपूर्वक प्रस्थान किया था... और दूसरी ओर, उसी प्रकार कलियुग में भी, राजकुमार गौतम ने सोने को, अपने मन से त्याग (संभवतः 'रामलीला' से प्रभावित हो ?), बनवास ग्रहण किया...
ReplyDeleteऔर सब शायद जानते हैं कि उनके साथ उन्ही समान मानसिक रुझान वाले कई अन्य शिष्य भी जुड़ गए... और इस प्रकार बौद्ध धर्म का जन्म हो गया,,, जिसके अनुयायी बढ़ते ही चले गए हैं भारत ही नहीं कई अन्य देशों में भी...
किन्तु प्रकृति के नियम समान यह भी सत्य है कि कोई भी व्यवस्था स्थायी नहीं रह सकती - शान्ति सदा नहीं रह सकती... 'सनातन धर्म' को मानने वाले भारतीयों के मन में व्यवस्था में उत्पन्न बुराई को समाप्त करने की इच्छा से धनुर्धर राम फिर से छा गए - जैसे आज भ्रष्टाचार को मूल से ही समाप्त करने के उद्देश्य से अन्ना के महाराष्ट्र से आरम्भ कर जन आन्दोलन अब देश भर में छा गया है... दूसरी ओर, रावण के पुतले को हर वर्ष जलाने की परम्परा सदियों से चली आ रही है... जो दर्शाता है कि यद्यपि अच्छाई (+) भली लगती हो, बुराई (-) भी मानव जीवन का सत्य है...
इस कारण 'बुद्ध का मध्य मार्ग' ('०') अपनाने का सुझाव ही सही है, भले ही इसे कोई लाचारी कह ले :)
बढ़िया लेख उससे बढ़िया बहस
ReplyDeleteभारत में बुजुर्ग पूजनीय होते हैं, इसलिए हम इनके चरण-स्पर्श करते हैं। लेकिन बदले में हमें आशीर्वाद भी मिलता है इसलिए आज जिन लोगों ने भी इस प्रथा को बन्द किया है, वे आशीवार्द से वंचित रह जाते है। महिलाएं पहले कुंकुम का टीका लगाती थी लेकिन आज कुंकुम का स्थान बिन्दी ने ले लिया है। यदि कुंकुम का प्रयोग करें तो त्वचा पर कोई हानि नहीं होती। बिन्दी आदि साजसज्जा के चिन्ह थे धीरे-धीरे यह सुहाग से जुड़ गए, इसी कारण विवाद का कारण भी कुछ लोगों ने बना दिया। मनुष्य की मूल प्रकृति में ही सजना संवरना है इसलिए जहां भी आभूषण पहन सकते थे उन्हें पहना गया क्योंकि यह व्यक्ति के सौंदर्य में वृद्धि करते हैं। इसी सौंदर्य के कारण यह सुहाग की निशानी बन गए और विधवा होने पर परहेज का कारण भी। लेकिन आज इन्हें केवल सुहाग से ही जोड लिया गया है और महिलाओं में होड लगी है कि हम कोई भी सौंदर्य का प्रतीक नहीं धारण करेंगी।
ReplyDeleteसांस्कृतिक धरोहर को समेटती ज्ञानपरक पोस्ट .शुक्रिया डॉ साहब ब्लॉग दर्शन के लिए .
ReplyDeleteपंजाबी परिवारों में बेटियों को पैर नहीं छूने दिया जाता...लेकिन बेचारी बहुओं की ये काम करते करते कमर टूट जाती है...खास कर नई ब्याही आई बहुओं की...होना तो यही चाहिए कि बहुओं के साथ भी वैसा ही व्यवहार किया जाए जैसे बेटियों के साथ किया जाता है...ये भेदभाव मेरी समझ से बाहर है...
ReplyDeleteजय हिंद...
प्रिय डॉ. दराल जी, नमस्कार।
ReplyDeleteआपके ब्लॉग की पोस्ट आज जनवाणी दैनिक में प्रकाशित हुई है। लिंक भेज रहा हूं
http://www.janwani.in/Details.aspx?id=12726&boxid=123833511&eddate=12/2/2011
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सादर/सस्नेह
अविनाश वाचस्पति/Avinash Vachaspati
हमारे परिवार में ये परंपरा आज भी बनी हुई है .... हमारी ताई सास की मॄत्यु पर हमारे ससुरजी ने ये कहते हुए उनके पाँ व छुए थे "अब तो मुझे आशिर्वाद देने वाला कोई नही बचा "......
ReplyDeleteआप की इस पोस्ट को पढ कर बहुत कुछ याद आ गया .....
शील सपूती सदा सुहागन
ReplyDeleteयह आशिर्वाद तो हमेशा दिया जाता रहेगा, बहुओं को बडी, बूढियों द्वारा
मैं आज भी जिस व्यक्तित्व के सामने भीतर से झुक जाता हूँ, उसके पैर जरुर छूता हूँ।
प्रणाम
मेरी टिप्पणी स्पैम में गयी !
ReplyDeleteबहुत सुन्दर और जानकारी से भरी हुई उम्दा लेख लिखा है आपने! बधाई!
ReplyDeleteरोहित जी , जानकारी में इज़ाफा करने के लिए आभार ।
ReplyDeleteपंजाबी परिवारों में बेटियों को पैर नहीं छूने दिया जाता... खुशदीप जी , यह जानकारी भी नई लगी । ब्लोगिंग का एक और फायदा ।
शुक्रिया अविनाश जी । पढ़ लिया , ज्यों का त्यों छाप दिया है जनवाणी ने ।
निवेदिता जी , अपने बड़ों से स्नेह मिलना भी एक वरदान सा होता है ।
वाणी जी , क्या करें , गूगल अपना कमाल दिखा रहा है ।
लो..वाणी के साथ मेरी टिप्पणी भी गायब...:(
ReplyDeleteगूगल रावण के सीता-हरण समान टिप्पणी हरण कर रहा है :D
ReplyDeleteशायद समझाने की कोशिश कर रहा है कि शिव के माथे में चन्द्रमा वास्तव में नारी के मस्तक पर लगी छोटी-छोटी, गोल-गोल बिंदी द्वारा सांकेतिक (ग्राफिक) भाषा में दर्शाया गया था - 'सीता' का अर्थ ठंडा होता है, और योगियों द्वारा सर्वोच्च स्थान चन्द्रमा को दिया जाता है (सहस्रारा चक्र में),,, और चंद्रमा को पतित पावन माँ गंगा का स्रोत भी माना गया है, जबकि 'अजना चक्र' पृथ्वी (गंगाधर शिव) के सार का स्थान तीसरा नेत्र... आदि, आदि...
डॉक्टर साहिब, जब मेरी कई टिप्पणियाँ आपके ब्लॉग में प्रकाशित होने के पश्चात गायब हो गयीं तो मैंने भी पहले सोचा था कि आपने डिलीट कर दी थी :D
और तब मैंने निर्णय ले लिया था मैं आपके पोस्ट पर टिप्पणी नहीं करूंगा...
लेकिन कछुवे समान शनि देवता भी धीरे-धीरे, शनै शनै, तीस वर्ष में सूर्य की प्रदक्षिणा करते हैं, जबकि सूर्य रुपी शक्ति के निकटतम बुद्ध ग्रह सबसे तेज चल परिक्रमा मात्र ८८ दिन में ही कर लेते हैं... इस लिए आप को इ-मेल भेज कर अच्छा किया जो शंका समाधान कर लिया...
जय गूगल देवता!
j
बेहतरीन निष्कर्ष निकाले हैं आपने भाई साहब .
ReplyDelete@ वीरुभाई जी, यह तो अपने पूर्वजों के कथन के ऊपर विश्वास का काम है... (कि नटखट नंदलाल, 'कृष्ण', हरेक के भीतर विद्यमान हैं,,, और मानव शरीर सूर्य से शनि तक नौ ग्रहों के सार से बना है - कछुवे और खरगोश की कहानी तो सभी पढ़ते सुनते आये है :)
ReplyDeleteसंस्कारों के साथ साथ विज्ञान ,वाह डाक्टर साहब बेहतरीन ,आपके लेखों का जवाब नहीं
ReplyDeleteपैर छूना एक ऐसी परंपरा है जिससे व्यक्ति नम्र होता है। ऐसा नहीं है कि पैर छूने से कोई कमतर हो जाता है बल्कि उसमें अहमभाव नहीं आता। अब अहम भाव अच्छा है या बुरा, इस पर चर्चा हो सकती है:)
ReplyDeleteअहम्, अर्थात 'मैं' अथवा 'अहंकार' पर, (काम, क्रोध, लोभ, मद आदि नरक के द्वारों में से एक द्वार पर), हमारे 'पहुंचे हुए' पूर्वज गहराई में जा कह गए, "शिवोहम"! अर्थात में शिव हूँ... और साथ साथ यह भी कह गए, "तट त्वम् असी"! अर्थात आप भी शिव हो,,, !
ReplyDeleteयानि 'हम' सभी शिव हैं! और 'वसुधैव कुटुम्बकम' हम कहते तो हैं पर मानते नहीं/ मानने दिए नहीं जाते!
वास्तव में हम सभी पृथ्वी के ही परिवार के सदस्य हैं,,, और गीता में 'कृष्ण' भी कह गए कि हम सभी अमृत आत्माएं हैं - केवल 'माया' के प्रभाह्व से जनित द्वैतवाद के (अर्थात ग्रैंड डिजाइन) के कारण हम अपने आप को अलग-अलग रूप दिखाई पड़ने से ऊंचा-नीचा समझ रहे हैं - एक, अथवा अनेक, सीढ़ी नुमा प्रतीत होते तंत्र / तंत्रों में...
यह मान लिया तो 'अहम्' कहाँ रह पायेगा :)
अहम्, अर्थात 'मैं' अथवा 'अहंकार' पर, (काम, क्रोध, लोभ, मद आदि नरक के द्वारों में से एक द्वार पर), हमारे 'पहुंचे हुए' पूर्वज गहराई में जा कह गए, "शिवोहम"! अर्थात में शिव हूँ... और साथ साथ यह भी कह गए, "तट त्वम् असी"! अर्थात आप भी शिव हो,,, !
ReplyDeleteयानि 'हम' सभी शिव हैं! और 'वसुधैव कुटुम्बकम' हम कहते तो हैं पर मानते नहीं/ मानने दिए नहीं जाते!
वास्तव में हम सभी पृथ्वी के ही परिवार के सदस्य हैं,,, और गीता में 'कृष्ण' भी कह गए कि हम सभी अमृत आत्माएं हैं - केवल 'माया' के प्रभाह्व से जनित द्वैतवाद के (अर्थात ग्रैंड डिजाइन) के कारण हम अपने आप को अलग-अलग रूप दिखाई पड़ने से ऊंचा-नीचा समझ रहे हैं - एक, अथवा अनेक, सीढ़ी नुमा प्रतीत होते तंत्र / तंत्रों में...
यह मान लिया तो 'अहम्' कहाँ रह पायेगा :)
केवल पंजाब ही नहीं लगभग पूरे मध्यप्रदेश में महिला बेटी होने के रिश्ते से अपने से किसी भी बड़े के पैर नहीं छूती है। पर जैसा कि खुशदीप जी ने कहा बहू होने के नाते उसकी कमर पैर छूते-छूते टूटने लगती है।
ReplyDeleteसुंदर लेख , हमारी परंपरा हमारी विरासत पर ।
ReplyDeleteपोस्ट से लेकर अब तक की कई टिप्पणियों में कई नई जानकारी मिली..खासकर "पालागन" बिलकुल नया शब्द....आभार
ReplyDeleteकुमाउनी (उत्तराखंड की एक बोली) में स्त्रियों द्वारा पैर छूने को शब्दों में "पैलागा" कहा जाता है,,, जबकि पुरुषों के लिए इसे 'नमस्कार ' कहा जता है...
ReplyDeleteयह ऐसा ही जैसे स्वामी विवेकानंद ने अमरीकनों को - (भारतीयों की मान्याता, 'वसुधैव कुटुम्बकम' को) - उसी एक 'पानी' के विभिन्न नाम द्वारा दर्शाया था,,, और उस 'सत्य' को आज भी दोहराया जाता है... शेक्सपियर ने भी गुलाब के बारे में कहा था "What is there in a name?" :)
JC said...
ReplyDeleteकुमाउनी (उत्तराखंड की एक बोली) में स्त्रियों द्वारा पैर छूने को शब्दों में "पैलागा" कहा जाता है,,, जबकि पुरुषों के लिए इसे 'नमस्कार ' कहा जता है...
यह ऐसा ही जैसे स्वामी विवेकानंद ने अमरीकनों को - (भारतीयों की मान्याता, 'वसुधैव कुटुम्बकम' को) - उसी एक 'पानी' के विभिन्न नाम द्वारा दर्शाया था,,, और उस 'सत्य' को आज भी दोहराया जाता है... शेक्सपियर ने भी गुलाब के बारे में कहा था "What is there in a name?" :)
December 5, 2011 9:49 AM
बुजुर्गों के बनाए रीति रिवाज़ बहुत सोच समझ के बनाए गए थे ... आज उनका मतलब समझ नहीं आता इसलिए ये रिवाज़ छूटते जा रहे हैं .. आवश्यकता है शोध की ...
ReplyDeleteराजेश उत्साही जी , रीति रिवाजें सभी जगह मिलती जुलती ही होती हैं । बस क्षेत्रीय भिन्नता ज़रूर देखने को मिलती है ।
ReplyDeleteभारतीय परम्पराओं को मेडिकल साइंस से जोड़कर आपने नई पीढ़ी पर बहुत बड़ा उपकार किया है । कारण जानने के बाद मैं भी दूसरों को समझा सकती हूँ। शुक्रिया ।
ReplyDeleteसुधा भार्गव
शुक्रिया सुधा जी . आपने इतने दिनों बाद भी लेख को ढूंढ कर पढ़ा . यह वास्तव में सराहनीय है .
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