Sunday, December 18, 2011
यादें --१९७१ में हुए भारत पाक युद्ध की और हमारी एक्टिंग की --
जनवरी १९७२ में हमारे स्कूल में इंटर हाउस ड्रामा कॉम्पीटीशन होना था । उस समय मैं दसवीं कक्षा में पढ़ रहा था । अपने हॉउस --गाँधी सदन का अध्यक्ष था । इसलिए प्रबंधन की जिम्मेदारी हम पर ही आ पड़ी ।
हमनेभी देशभक्ति का ज़ज्बा दिखाते हुएजो नाटक तैयार किया , उसका विषय था -भारत पाक युद्ध ।
इस ड्रामे का मैं राईटर , डायरेक्टर , प्रोड्यूसर और एक्टर था , मनोज कुमार की तरह ।
मैं अख़बार बहुत ध्यान से पढता था । इसलिए दिमाग में युद्ध की एक एक खबर ताज़ा थी । बस उसी को लेकर तैयार हो गया नाटक --भारत पाक युद्ध ।
स्कूल में पेंट तो खाकी होती ही थी , कहीं से मांगकर कुछ खाकी कमीज़ों का इंतज़ाम किया गया ।
भारत की फ़ौज के कमांडर का रोल मैंने किया । तगमे बनाने के लिए गत्ते काटकर उस पर रंगों से कारीगरी की गई । और इस तरह तैयार हो गई जनरल की वर्दी ।
कुछ खिलोने वाली पिस्तोलों का इंतज़ाम किया । एक लम्बा चाकू भी ले लिया ताकि जब गोला बारूद ख़त्म हो जाए तो संगीनों से हमला किया जाए ।
हथगोलों की जगह छोटे छोटे गोले जिन्हें हम गंठे कहते थे , खरीद लिए गए । दीवाली जा चुकी थी , इसलिए मुश्किल से ही मिले ।
पाक फोजों के बारे में अख़बार में पढ़ा था कि उनकी वर्दियां फटेहाल थी । उनके पास खाने को कुछ नहीं होता था । कभी कभी बस चने खाकर ही गुजारा करना पड़ता था । पाक फ़ौज को हमने ऐसे ही तैयार किया ।
अब निश्चित दिन दोनों फौजें आमने सामने थी । सबसे पहले भारतीय फ़ौज के कमांडर का जोशीला भाषण हुआ । अख़बार में जितनी भी ख़बरें पढ़ी थी , सब की सब भाषण में डाल दी थी ।
उसके बाद मार्च पास्ट हुआ । सब जोर जोर से तालियाँ बजा रहे थे । सभा का पूरा चक्कर लगाने के बाद हम दुश्मन की फ़ौज के सामने थे ।
फिर शुरू हुआ जंग --भारत माता की जय के नारों के बीच ।
थोड़ी देर में सारे हथगोले ख़त्म हो गए ।
अब हमने चाकू निकाल लिया और हिंदी फिल्मों के तत्कालीन विलेन रंजीत की तरह दुश्मन के कमांडर के साथ द्वंद्ध शुरू कर दिया ।
शुक्र रहा कि चाकू कहीं लगा नहीं वर्ना लेने के देने पड़ जाते ।
असल या नक़ल में , ऐसी लड़ाई हमने फिर कभी नहीं लड़ी ।
आखिर भारतीय फोजों की जीत हुई और सारे पाकिस्तानी सैनिक मारे गए ।
एक बार फिर हमारी फ़ौज ने विक्टरी मार्च किया , जयजयकार के बीच ।
इस नाटक प्रतियोगिता में सर्वश्रेष्ठ अभिनेता पुरुस्कार ( बेस्ट एक्टर अवार्ड ) हमें ही मिला ।
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bahut achcha sansmaran ek bar to esa laga ki taali bajaane vaalon me hum bhi baithe hain.drama ek chalchitr ki bhaanti aankho ke saamne aa gaya.bande mataram!!!jai bhaarat.
ReplyDeleteसलाम इस जज्बे को. सुंदर संस्मरण. जब नकली युद्ध इतना खतरनाक लगता है तो वास्तविक कितना खतरनाक होगा.
ReplyDeletepadhker hi lag gaya ki kaisa zabardast raha hoga drama ... ab to bachche aisa kuch karte hi nahi...jeet ki ek baar phir badhaai
ReplyDeleteआप क्या बने थे मेजर जनरल अरोड़ा या फॉर मानेकशा ? तो आज तक आप भी नहीं उबर पाए उस मंजर से ? नियाजी कहाँ है इन दिनों ?
ReplyDeleteयादों के मोती चुन कर यहां सजाना अच्छा है।
ReplyDeleteजय हिंद ... जय हिंद की सेना ...
ReplyDeleteवाह यादों के झरोखे से अच्छी पिटारी निकालकर लाये आप प्रस्तुति अच्छी लगी. उन दिनों दिलों में देशभक्ति का जज्बा समुद्र बनकर हिलोरे ले रहा था सभी के दिलों में.
ReplyDeleteवाह. क्या बात है.
ReplyDeleteहमें भी स्कूल में खंदके खोदकर उनमें शेल्टर लेने के बारे में कुछ कुछ सिखाया जाता था.. और फ़िल्म डिवीज़न वाले देशभक्ति के गाने दिखाया करते थे स्कूल में प्रोजेक्टर लाकर...
वर्णन और आपका ड्रामा प्रदर्शन का कार्य आपकी राष्ट्र-भक्ति का द्योतक है।
ReplyDeleteसरहनीय वां अनुकरणीय दृष्टांत है।
बहुत सी यादें मानसपटल पर ज्यों की त्यों अंकित होती हैं ..उन दिनों हवामहल कार्यक्रम बहुत पसंद किया जाता था ..
ReplyDeleteअभिनय में भी आप सिद्ध हस्त हैं :)
वल्लाह क्या बात है .अच्छा लगा यह जोशीला सांस्कृतिक अभियान .
ReplyDeleteहम भी स्कूली-दिनों में पोरस बने थे.....आप की एक्टिंग अब भी कुछ कम नहीं है !
ReplyDeleteकुछ नाटक केवल अभिनय के लिए खेले जाते हैं. देशभक्ति का जज्बा औसत कलाकारों में भी वीर-रस भरता है.
ReplyDeleteउस पुरुष्कार को जीतने की बधाई, बहुत खूबसूरती से बचपन की याद ताजा की आपने डा० साहब ! मैं भी तब काफी छोटा था, पिताजी फ़ौज में थे, हालांकि उनकी यूनिट भी युद्ध में भाग ले रही थी मगर ६२ और ६५ की लड़ाइयों में भाग लेने की वजह से उन्हें इस युद्ध के दौरान यूनिट की देखभाल की जिम्मेदारी सौंपी गई थी ! छावनी के बैरिकों, घरबारी लाइंस के रोशनदानो और खिडकियों को गत्तों से ढक दिया गया था ! मुझे याद है कि जैसे ही रात को आकाश में कोई विमान की गडगडाहट होती थी, MES (मिलिट्री इंजीनीयारिंग सर्विस) की और से तुरंत छावनी का में विद्युत सफ्लाई स्विच बंद कर दिया जाता था! पिताजी रात को कल्ब से टुन्न होकर आते थे तो मां अगर पूछती थी कि इतनी क्यों पी ? तो उनका ब्लैकमेल करने के अंदाज में एक ही जबाब होता था कि मेरा भी कल युद्ध में कूच करने का आदेश आ गया है !
ReplyDeleteJC said...
ReplyDeleteडॉक्टर दराल जी, कहते हैं कि आम आदमी बहिर्मुखी ('ब') होता है अथवा अंतर्मुखी ('अ')... 'ब' को बचपन में जीवन नाटक, अर्थात 'सत्य', ही लगता है... दूसरी ओर 'अ' की अक्ल लगता है बचपन से ही शायद 'परम सत्य' को जानने के लिए उत्सुक रहती है...इस कारण शायद उन्हें अपने जीवन में मानव तंत्र से छोटे छोटे पुरूस्कार तो मिलते हैं किन्तु बड़े पुरूस्कार नहीं मिलते! मुझे तो भाई लगता है कि द्वितीय विश्वयुद्ध ('३९-'४५) से पहले पैदा होना उसी प्रकार है जैसे "सर मुंडाते ही ओले पड़े"! स्कूल में एक संस्कृत लघु नाटक के लिए तैय्यारी करी किन्तु स्टेज में जा केवल एक वाक्य बोल, स्टेज फ्राईट के कारण सब भूल गया और स्टेज छोड़ दिया ('रण छोड़' कृष्ण समान:) और ऐसा ही हाल एक ' रेसिटेशन कम्पेटीशन में भी :)
आपको कई इनाम पाने के लिए बधाई!
December 18, 2011 10:52 AM
आपके हथियार पसंद आये ....
ReplyDeleteहथगोले पहले थोड़े ही फेंके जाते हैं , पहले रायफल चलनी चाहिए ! अगली बार मैं भी आपकी फ़ौज में शामिल होना चाहता हूँ ! लंच में समोसे खिला देना .....
इतने में तो पूरे दुश्मन को उड़ा देंगे !
एन सी सी की ड्रिल याद आ गयी ...
शुभकामनायें आपको !
बधाई हो डॉ. मनोज कुमार... देर से ही सही :)
ReplyDeleteतब आपको बधाई नहीं दे सके थे लेकिन अब आपको बधाई।
ReplyDeleteसही कहा रचना जी , युद्ध की वास्तविक भीषणता दिल दहला देने वाली होती है ।
ReplyDeleteअरे मिश्र जी , नाम में क्या रखा है । हम तो बस काम किये हैं । :)
संगीता जी , सारे काम करके छोड़ दिए । एक बार कॉलिज में कव्वाल भी बने थे । टोपी सोपी पहन के और हाथ में रुमाल बांधकर --वो भी क्या नज़ारा था ।
हा हा हा ! त्रिवेदी जी , अब कहाँ एक्टिंग !
गोदियाल जी , आपका यह सुन्दर संस्मरण कई ब्लोगर मित्रों को पसंद आएगा ।
ReplyDeleteहा हा हा ! जे सी जी , आप मैदान छोड़ भाग खड़े हुए ।
मैंने जब पहली बार छठी क्लास में नाटक में भाग लिया तो मुझे लड़की का रोल दिया गया था क्योंकि हमारे स्कूल में लड़कियां नहीं थी । इस बात पर घर में बड़ी डांट पड़ी । उसके बाद हमने बस मर्दों वाले रोल ही किये । :)
सतीश जी , क्या करते --बन्दूक के लिए नकली गोलियां नहीं मिली । और असली चलाने की हिम्मत तो आज तक नहीं हुई ।
डॉ मनोज कुमार --प्रसाद जी --यह भी खूब रही । वैसे फिल्म उपकार उसी दौरान आई थी ।
पंछी, नदिया और पवन के झोंके,
ReplyDeleteकोई सरहद न इनको रोके,
सोचो तो क्या पाया हमने इनसां होके...
उपकार फिल्म 1967 में आई थी लेकिन 1971 में प्रोजेक्टरों पर जगह-जगह खूब दिखाई जाती थी...
जय हिंद...
wow... very interesting anecdote !!
ReplyDeleteEnjoyed
ओह मतलब आप इस कला में भी माहिर हैं...गज़ब का नाटक तैयार किया था तो बेस्ट एक्टर क्या सारे इनाम आपको ही मिलने चाहिए थे.
ReplyDeleteआपके यादों के झरोखे से निकली ये पोस्ट्स बहुत अच्छी लग रही हैं.
तो आप बस लिखने में ही नहीं और भी कई चीजों में माहिर हैं ... छुपे रुस्तम हैं डाक्टर साहब आप तो ... कितना कुछ सिमटा होता है यादों में ... अच्छी लगी आपकी पोस्ट ...
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