top hindi blogs

Thursday, December 22, 2011

ज़माना बदल गया है --आँखों देखी ---


ऋषि
कपूर और नीतू सिंह पर फिल्माया गया एक गाना था --

खुल्लम खुल्ला प्यार करेंगे हम दोनों ,
इस
दुनिया से नहीं डरेंगे हम दोनों

लेकिन तब न तो हकीकत में , न ही हिंदी फिल्मों में खुल्लम खुल्ला प्यार का प्रदर्शन होता था । बल्कि इसी गाने के अंतरा जैसा ही माहौल होता था --

हे देख वो , इश्क छुप छुप के फरमा रहे हैं,
है क्या मज़ा , दिल ही दिल में तो घबरा रहे हैं

और घबराने की वज़ह भी होती थी ।

लगता है दोनों पडोसी हैं वो,
रिश्ता ही ऐसा है जाने भी दो

लेकिन लगता है आजकल ज़माना इतना बदल गया है कि इस गाने की अगली पंक्तियाँ चरितार्थ होने लगी हैं --

हम वो करेंगे दिल जो कहे , हमको ज़माने से क्या --
खुल्लम
खुल्ला प्यार करेंगे हम दोनों

जी हाँ , कुछ ऐसा ही नज़ारा देखकर हम अचंभित रह गए । कुछ दिन पहले हम दिल्ली की एक पौश कॉलोनी में मार्केट के सामने मेन रोड पर कार में बैठे किसी का इंतजार कर रहे थे । तभी सामने एक गाड़ी आकर खड़ी हुई । गाड़ी में से एक लड़का उतरकर सामने दारू की दुकान से बियर लेने चला गया । गाड़ी में ड्राइवर बैठा था । तभी उस गाड़ी के बिल्कुल आगे एक लड़का लड़की आकर खड़े हो गए । दोनों टीनेजर थे । लड़का लम्बा और लड़की छोटे कद की थी ।
दोनों बड़े प्यार से बातों में मशगूल हो गए ।

पूरा दृश्य ऐसा था जैसा फिल्म बरसात में राजकपूर और नर्गिस पर फिल्माया गया था , यह गाना गाते हुए -

प्यार हुआ , इकरार हुआ ,
प्यार
से फिर क्यों डरता है दिल

बातें करते करते लड़के ने लड़की का सर ऊपर किया , अपना सर झुकाया और अपने होंठ लड़की के होंठों पर रख दिए ।
सब कुछ इतना स्वाभाविक रूप से हुआ , जैसे कोई देख ही न रहा हो । हालाँकि देखने वालों में सामने वाली गाड़ी का ड्राइवर और पीछे हम थे ।

यह नज़ारा देखकर मैं स्तब्ध रह गया

और बड़े भैया का यह गाना गाते हुए हम तो वहां से खिसक लिए --

ये ज़वानी , है दीवानी ---

बाद में जाते समय देखा कि वो दोनों फुटपाथ पर बैठे गप्पें मार रहे थे । और साथ में एक लड़की और थी ।

यह देखकर यही लगा कि सचमुच ज़माना बदल गया है । या फिर शायद हम अब पुराने हो गए हैं

लेकिन सवाल उठता है कि क्या इस तरह का पी डी ( सार्वजनिक प्रेम प्रदर्शन ) हमारी संकृति के लिए एक ख़तरा नहीं है !
या फिर समय के साथ संस्कृति को भी बदलना ही पड़ेगा ?


49 comments:

  1. दराल सर,
    फिल्में समाज का ही आईना होती हैं...
    सत्तर के दशक के खुल्लम-खुल्ला प्यार से बढ़ कर बात अब ऐसे गानों तक आ पहुंची है...,

    भीगे होठ तेरे, प्यासा दिल मेरा,
    कभी मेरे साथ, रात गुज़ार...

    अब आगे से ऐसे दृश्य देखते रहने की आदत डाल लीजिए, पश्चिमी देशों की ही तरह...

    जय हिंद...

    ReplyDelete
  2. बहुत सुन्दर, सार्थक प्रस्तुति, आभार.

    कृपया मेरे ब्लॉग पर भी पधारें, प्रतीक्षा रहेगी .

    ReplyDelete
  3. http://mypoeticresponse.blogspot.com/2009/06/pda-pda_01.html
    i wrote a similar post long back and your post reminded me of my own post hence the link

    ReplyDelete
  4. ...और चाबी खो जाये ...|अब ताले की भी जरूरत नही :-)

    ReplyDelete
  5. "यह देखकर यही लगा कि सचमुच ज़माना बदल गया है । या फिर शायद हम अब पुराने हो गए हैं ।"

    हा-हा-हा.... ! डा० साहब , सच कहूँ ? मैं आपके ब्लॉग को पढ़ रहा हूँ और मेरी नजरें आपके ब्लॉग पर मौजूद आपकी फोटुओं पर है ! मुझे आपकी शक्ल पृथ्वीराज कपूर से मिलती-जुलती सी नजर आ रही है, जो इस वक्त सम्राट अकबर की वेशभूषा में है, शहजादा सलीम आपके ठीक सामने खडा है और अनारकली नाच रही है और गाना गा रही है " जब प्यार किया तो डरना क्या...." और आप गुस्से में बार बार अपना हाथ म्यान में रखी तलवार खींचने के लिए ले जा रहे है.......... ! सच में, बड़े क्रूर नजर आ रहे हैं आप ! :):)

    ReplyDelete
  6. खुशदीप की बातों में दम है.जब भाषा, वेशभूषा सभी कुछ पाश्चात्य ही अपना लिया है तो यह संस्कृति भी सही.

    ReplyDelete
  7. हर पीढ़ी को यही लगता है कि ज़माना बदल रहा है ... और सच बदलाव तो होता ही रहता है ...

    ReplyDelete
  8. निश्चित रूप से सस्कृति पर पाश्चात्य का मुलम्मा चढ़ गया है. पश्चिम हमारी तरफ भाग रहा है (देखे भगवत गीता का व्यापक प्रभाव) और हम सड़ी गली पश्चिमी सभ्यता की और. खुशदीप जी के बकौल गंदा सिनेमा (डर्टी पिक्चर) समाज का आइना ही तो है. डाक्टर साहब आते हुए नववर्ष की शुभकामनाएँ.

    ReplyDelete
  9. वक़्त के मुताबिक सब कुछ बदल रहा है ..सब दायरे टूट रहे है .....दिल्ली की सडको पर ये नज़ारा अब आम देखने को मिलता है ....

    ReplyDelete
  10. वक्त के साथ सब बदल रहा है।

    ReplyDelete
  11. सचमुच ज़माना बदल गया है और बदलना भी चाहिए समयानुसार

    ReplyDelete
  12. Badlaav achchhai ki or ho to achchha hai aur buraai ki or ho to bura hai...

    Baat itni si hai ki kisko kya achchha aur kya bura lagta hai...

    Mere vichar se yeh badlaav buraai ki or hai...

    ReplyDelete
  13. JC said...
    अरे! डॉक्टर दराल जी, आप लगता है भूल गए 'आनंद' फिल्म के एक आपके समान गंभीर डॉक्टर और उसके एक मनमौजी कैंसर (कार्सिनोमा शब्द मैंने तभी सूना था) से पीड़ित मरीज़ के रिश्ते को! और उसके द्वारा, लगभग शेक्सपियर समान, मानव जीवन को रंगमंच की कठपुतलियों से हिन्दू विचार को ध्यान में रख,तुलना करना, जिसकी डोर 'ऊपर वाले' के हाथ में होना दर्शाया गया... शायद 'प्राचीन हिन्दू मान्यता', वर्तमान का (विषैला) 'कलियुग' होने के ये संकेत हों, जिन्हें 'आम आदमी' अपने को कर्ता मान समझने में कठिनाई महसूस कर रहा है (गीता का ज्ञान को नकार, कृष्ण को नहीं)...

    December 22, 2011 5:45 PM

    ReplyDelete
  14. डॉक्टर साहिब ! ई प्यार-व्यार ना है,वासना का भूत है,जल्द ही ख़त्म भी हो जाता है !

    ReplyDelete
  15. इस प्यार को क्या नाम दूँ ....

    ReplyDelete
  16. vaqt badal raha hai paashchatya sabhyta badi teji se humari nai peedhi ko apni giraft me leti ja rahi hai kai jagah opration majnu bhi chal raha hai par kis kis ko rokenge.bahti hava ke saath bahte rahiye usime fayda hai.

    ReplyDelete
  17. सब कुछ बदल रहा नहीं,बदल गया है सर.... मेरा बेटा जो अभी केवल 7 साल का है। टीवी पर किसी भी ऐसे scean को देखकर कहता है awsome अब आप इसे क्या कहंगे:-) खैर मैं भारत से बाहर हूँ शायद इसलिए ऐसा है मगर, भारतीय संस्कृति को ध्यान में रखते हुए ज़रूर लगता है, कि वाकई ज़माना बदल गया है। जब रहन-सहन पढ़ाई लिखाई सब कुछ ही बदल रहा है, तो फिर संस्कृति कब तक बची रह सकती है।

    ReplyDelete
  18. नज़र फ़रियाद करती है, निगाहें मुस्कुराती हैं |
    मोहब्बत है वो अफसाना, जिसे आँखें सुनाती हैं ||

    ReplyDelete
  19. खुशदीप जी , पता नहीं फ़िल्में आइना हैं , या फिल्मों का प्रभाव जिंदगी पर पड़ता है । वैसे तो हिंदी फ़िल्में भी हॉलीवुड से ही प्रभावित होती हैं ।

    हा हा हा ! अरे गोदियाल जी , भला हमें क्या शिकायत ! जिसे जो करना है , वह तो करेगा ही । अब आप देखें या नज़रें घुमा लें , यह आप पर निर्भर करता है । :)

    नहीं शिखा जी , यह सही नहीं । कुश्वंश जी की बात सही लगती है ।
    फर्क बस इतना है की हम पश्चिम के पीछे एक सर्कल में चल रहे हैं । जो वहां चालीस साल पहले शुरू हुआ होगा , वह यहाँ अब हो रहा है ।

    ReplyDelete
  20. अपना चेहरा अपमान से लाल हो जाता है ... युवा क्या , अब तो मध्यस्थ लोग इस श्रेणी में हैं -

    ReplyDelete
  21. सशक्त और प्रभावशाली प्रस्तुती....

    ReplyDelete
  22. जे सी जी , यह कलियुग कुछ साल पहले ही आया लगता है । :)
    त्रिवेदी जी , यह न प्यार होता है , न वासना । आजकल की पीढ़ी में यह सब बस एक फैशन सा बन गया है , मौज मस्ती के लिए ।
    राजेश जी , लगता है ओपरेशन मजनू भी चीप पब्लिसिटी के लिए ही होता है ।
    सही कहा पल्लवी जी । कब तक बचेंगे ।
    वाह वाह अनवर जी , बहुत खोब शे'र कहा है ।

    ReplyDelete
  23. खुशदीप जी की बातो से सहमत हूँ मैं डॉ साहेब ..अब जमाना बहुत बदल गया हैं ..यह सब हम रोज ही देखते हैं ..पिछले दिनों जब मैं इंदौर से मुंबई आ रही थी तो मैंने ट्रेन के सेकंड क्लास डिब्बे में जो देखा रात को; वो बता नहीं सकती ..सिर्फ करवट बदलकर सोती रही और वो आज की पीढ़ी इसे 'आजादी' का नाम देकर खुश होती रही...

    ReplyDelete
  24. लड़के ने लड़की के होठों पे होंठ रख दिए तो आपको बुरा लगा , मान लीजिए लड़की लंबी और लड़का ठिगना होता तो होंठों पे होंठ रखने का मामला बिल्कुल उलट जाता फिर क्या आपको बुरा नहीं लगता :)

    अब वे बेचारे करें भी तो क्या ? जब आप हर तरह से बुरा मानने को तैयार बैठे हों तो :)

    मुझे लगता है इस सुन्दर , सशक्त और प्रभावपूर्ण प्रस्तुति की एक वज़ह निकटस्थ दुकान से आ रही मादक गंध भी हो सकती है ! जो कमसिन बंदे खुले में खड़े थे उनपे ज़्यादा असर हुआ और जो सीजंड बंदे कार में बैठे थे वो संभल कर निकल लिये :)

    [ बहरहाल संस्कृति का भौतिक हिस्सा यूंहीं बदलता रहता है ! मान लेने के सिवा हमारे पास कोई और विकल्प नहीं है ]

    ReplyDelete
  25. है कहीं पर शादमानी और कहीं नाशादियां.... कहीं चुम्मा-चाटी और कहीं आनर किलिंग :(

    ReplyDelete
  26. JC said...
    डॉक्टर साहिब, सैट से कलि युग आदि के बारे में हमारे पूर्वजों के विचार शायद आपने अभी पढ़े-सुने नहीं...
    हिन्दू मान्यतानुसार, 'ब्रह्मा' के लगभग साढ़े चार अरब वर्षों में, अनंत काल-चक्र के अंतर्गत, एक महायुग (सतयुग-त्रेता-द्वापर-कलि युग, चार युगों से बना), ब्रह्मा के एक दिन में १००० + बार, बार बार आता है... और उसके बाद ब्रह्मा की उतनी ही लम्बी रात आ जाती है... जब तक फिर एक नया दिन आरम्भ नहीं हो जाता... और आदमी को ब्रह्माण्ड का प्रतिरुप / प्रतिबिम्ब माना जाता है...और जैसे प्रकृति में विविधता है, वैसी ही विवधता मानव जाति में भी पाया जाना प्राकृतिक है...

    December 22, 2011 8:42 PM

    ReplyDelete
  27. गालिब ने एक शेर बड़ा मस्त लिखा है...

    चोर आये जो था उठाकर ले गये
    कर ही क्या सकता था बुढ्ढा खांस लेने के सिवा
    :-) :-):-):-):-):-):-):-):-):-):-)

    ReplyDelete
  28. अली जी , आप मुस्करा रहे हैं यानि आप जानते हैं कि ऐसे में बुरा क्यों लगता है ।
    मामला बिल्कुल उलट जाता तो फिर --शायद इतना बुरा नहीं लगता । :)

    वैसे आप एक एक शब्द को बहुत ध्यान से पढ़ते हैं, यह बहुत काबिले तारीफ़ है ।

    देवेन्द्र जी , आज ही ग़ालिब की हवेली होकर आया हूँ ।

    ReplyDelete
  29. मुझे लगता है कि एक हमारी पीढ़ी थी जो बाबूजी की उंगली पकड़ कर चली और सुबह शाम उनकी कठोर निगेहबानी में बड़ी हुई। एक यह पीढ़ी है जिसने चलना तो उंगली पकड़ कर ही सीखा मगर जाने कब हाथ छुड़ा कर दौड़ने लगी। देखते ही देखते दूर चली गई.. दूरसंचार के माध्यम से संपर्क में है। हम एक तरफ तो उनकी तेज रफ्तार से खुश होते हैं दूसरी तरफ उनकी उन्मुक्तता से घबड़ाकर हांफने लगते हैं। न पकड़ना हम चाहते थे, न रूकना वे चाहते थे। हम खुश थे कि वे सात सुमुंदर पार पाश्चात्य सभ्यता से हो़ड़ ले रहे हैं हम घबड़ा गये जब उन्होने उनकी संस्कृति भी अपना ली। अब हम अगर ये कहते हैं कि यह गलत है तो वे हम पर हंसते हैं..कुछ है कि डपट कर चुप नहीं कराते। इसी से खुश हुआ जाये और मस्त रहा जाय।

    ReplyDelete
  30. लड़का और लड़की राज़ी
    फिर क्यों न माने ग़ाज़ी?

    ज़माना भी बदला है, हम पुराने भी हुए हैं और चचा ग़ालिब की आवाज़ आज भी दिल्ली में गूंजती है।

    ReplyDelete
  31. पहली बार, बंबई में लड़के लड़कियों को एक दूसरे का हाथ पकड़े सरे आम चलते देखने का मेरा अनुभव वैसा ही था जैसा आपका ये अनुभव. ज़माना वाक़ई तेज़ी से आगे बढ़ रहा है.

    ReplyDelete
  32. JC said...
    "जमाना तेज़ी से आगे बढ़ रहा है", सुन याद आई कि कैसे पत्थर अथवा गेंद ऊपर फेंको तो वो ऊंचाई पर पहुँच ऊँट समान करवट बदल नीचे आने लगता है और जैसे जैसे धरा के निकट आता है उसकी गति अधिक होती जाती है...
    जिसने क्रिकेट खेली है, वो जानता है कैसे धोनी जैसे बल्लेबाज की गेंद जब सीमा पर खड़े रक्षकदल के खिलाड़ी के हाथ में सुर्र्र घूमते, आग के गोले समान, चिपक गयी तो उसकी टीम के लिए ठीक, नहीं तो यदि हाथ में लग उछल गयी तो करोड़ों देखने वालों को खुश कर देती है, और करोड़ों को दुखी...:) (दुःख और सुख साथ साथ चलते हैं, सिक्के के दो पहलू समान...तभी तो कृष्ण कहते हैं, हर स्थिति में स्थित्प्रग्य रहिये, (वैसे ही जैसे आप फिल्म देखते हैं... :)...

    December 23, 2011 7:02 AM

    ReplyDelete
  33. JC said...
    कॉलेज के दिनों में जब संयुक्त परिवार होता था और छोटे से घर में माँ-बाप के अतिरिक्त ६-८ भाई बहन साथ साथ रहते थे, तो एक बंगाली दोस्त ने - उन दिनों की मानसिक स्थिति को दर्शाते - कहा था कि पति-पत्नी, अथवा मित्र, यदि क़ुतुब मीनार की पांचवीं मंजिल पर भी अकेले हों, तो पत्नी/ लड़की कहती है 'क्या कर रहे हो!, सारी दिल्ली देख लेगी!'
    किन्तु आज काल के प्रभाव से (?) कुछ 'आधुनिक' युवक-युवती, सभी स्थान पर भीड़ से तंग आ, जनता को 'जी टी एच' कहते हैं... (आज भी, पुराने विचार वाले, इसे घोर कलियुग के कारण मानते हैं!)...

    December 23, 2011 9:02 AM

    ReplyDelete
  34. कमेंट बाक्‍स टिप्‍पणी स्‍वीकार नहीं कर रहा है, शायद मेरे सिस्‍टम की कुछ समस्‍या है, सो यहां-
    ''और, प्‍यार किया तो डरना क्‍या''.

    --
    राहुल कुमार सिंह
    छत्‍तीसगढ

    ReplyDelete
  35. रोचक प्रस्‍तुति।

    ReplyDelete
  36. pahale soch badalati hai fir badlav aata hai.....
    ye sab soch ka hi asar hai...
    sarthak lekh....

    ReplyDelete
  37. हमारी संस्कृति का तो चरम बिंदु ही यही है कि दूसरों के "सुख" में भी "आनंदित" रहो! आपने गौर किया होगा,अक्सर,दिल्ली मेट्रो की बेंच पर भी एक ही किताब को दो-दो लोग पढ़ रहे होते हैं!

    ReplyDelete
  38. This comment has been removed by the author.

    ReplyDelete
  39. waqt kee kasauti par nit naye prayog hote hain..jo shashwat hote hain wahi sadaiv hote hain..nayi peedhi ne ek premi ke roop me ek pryaog kiya hai..ek pita maata..dada dadi..nana nani ka anubhav hona shesh hai ..yadi yowan ke 20-25 barshon me kiye gaye prayog jeewan ke antim barshon tak bhate rahe to samajhiyega prayog ka parinaam shaswat hai.abhi kuch kahna galat hoga bemaani hoga...jo premi yugal aaj isme sharik hai wo bhi apni bahan ko pure libas me aaur dusron kee bahno ko nagna dekhna chahte hain..abhi to prem pash me bandhe yogal tak dubidha me hain....mere blog par bhee aapka swagat hai

    ReplyDelete
  40. सही कहा डॉ आशुतोष जी । एक फिल में अनुपम खेर का डायलोग था --ये खून भी बड़ी कुत्ती चीज़ है । अपना निकले तो दर्द होता है , किसी दूसरे का निकले तो मज़ा आता है ।

    यदि बात सिर्फ प्यार तक ही सीमित होती तो भी देखा जाता , लेकिन ये जो वन नाईट स्टेंड की तरह रवैया बदल रहा है , यह शायद हज्म होना मुश्किल है ।

    ReplyDelete
  41. apne aap me gum rahne ki isse badi aur kya misal hogi...jahan ham hai to sirf ham hai aur koi nahi...aaj ki yuva peedhi aur kisi ke bare me sochti hi kahan hai...
    ajkal itane chhote chhote bachche pyar boy friend girl friend sab samjhte hai ,inki baten karte hai ki samjh nahi aata ye peedhi kahan ja rahi hai.

    ReplyDelete
  42. भाई साहब संस्कृति की दुहाई आप कबतक देते रहिएगा ?क्या संस्कृति कोई थिर जड़ प्रज्ञा है एंटिटी है ?आप खुद ही सत्य से वाकिफ हैं :ज़माना बदल गया है वक्त के साथ तलछट नीचे बैठ जाएगा .सार तत्व रह जाएगा .तब तक :खुल्लम खुल्ला प्यार करंगे हम दोनों .

    ReplyDelete
  43. विकास यात्रा -
    आ गुपचुप गुपचुप प्यार करें.......
    छुपा लो यूँ दिल में प्यार मेरा कि जैसे मंदिर में लौ दिये की...
    प्यार किया तो डरना क्या.......
    रूप तेरा मस्ताना, प्यार मेरा दीवाना, भूल कोई हमसे न हो जाये...
    खुल्लम खुल्ला प्यार करेंगे हम दोनों........
    चुमा चुम्मा दे दे...............
    कब तक जवानी छुपाओगी रानी....

    ReplyDelete
  44. फिल्मों में प्यार की विकास यात्रा --बहुत बढ़िया अरुण जी । शक्रिया ।

    ReplyDelete
  45. हमें भी बुरा आखिर लगे क्यों ....जब मियाँ बीबी राजी तो क्या करेगा काजी....हो न हो वे भावी मियाँ बीबी हों!

    ReplyDelete
  46. हा...हा...हा......
    जी..... मुझे भी पहले पहल हैरानी हुई थी प्यार के इस रूप को देख
    यहाँ अरुणाचल-प्रदेश में तो लड़के लडकियां इतने ज्यादा फ्री हैं शादी से पहले एक साथ रहने पर भी माता पिता को कोई आपत्ति नहीं होती इनसे ....असम अरुणाचल से सटा हुआ है ...संयोग से हमारे गेस्ट हॉउस में अक्सर ऐसे प्यार करने वाले आकर रहते हैं ....
    मैं इसे प्यार नहीं मानती ....प्यार तो लगभग अब खत्म हो चूका है दिलों से ...ऐसे दृश्य महज कुछ दिनों का आकर्षण होते हैं ...टिक नहीं पाते ऐसे रिश्ते .....
    पर आप उस दृश्य को देख जितने रोमांचित हुए मैं तो उस स्थिति को सोच-सोच कर मुस्कुरा रही हूँ ......:))

    हाँ आपके सवाल का जवाब जौहर जी ने ब्लॉग पे दिया है .....

    ReplyDelete
  47. दिलचस्प एवं शानदार पोस्ट ! ज़बरदस्त प्रस्तुती!
    क्रिसमस की हार्दिक शुभकामनायें !
    मेरे नये पोस्ट पर आपका स्वागत है-
    http://ek-jhalak-urmi-ki-kavitayen.blogspot.com/
    http://seawave-babli.blogspot.com/

    ReplyDelete
  48. पर आप उस दृश्य को देख जितने रोमांचित हुए मैं तो उस स्थिति को सोच-सोच कर मुस्कुरा रही हूँ ......:))
    अज़ी हीर जी , रोमांचित कहाँ , हम तो शर्म से पानी पानी हुए जा रहे थे जी । :)
    बस उन्हें ही शर्म नहीं आ रही थी ।
    जौहर जी का ज़वाब पढ़ लिया है ।
    कुछ नया जानने को मिला । आभार ।

    ReplyDelete