हर वर्ष के आरंभ में हम डॉक्टर्स अपनी संस्था , दिल्ली मेडिकल एसोसिएशन के पदाधिकारियों के चुनाव कराते हैं . मार्च अंत तक जहाँ एक तरफ वित्तीय वर्ष का अंत होता है , वहीँ हमारे भी चुनावों की प्रक्रिया समाप्त हो जाती है . इस दौरान चुनावों की सरगर्मी में जो देखने को मिलता है , वही प्रस्तुत है एक हास्य कविता के रूप में :
ड़ी एम् ऐ का जब, चुनाव पास आता है .
कभी लंच, कभी डिनर, कभी दोनों
खाने पीने का रोज, जुगाड़ हो जाता है .
मिलते हैं सब गले जैसे बिछड़े बरसों के
साल भर का सारा, प्यार उमड़ आता है .
करते हैं बेसब्री से , इंतज़ार फ़रवरी का
एक महीना बिना खर्चे निकल जाता है .
उड़ाते हैं सब चिकन मटन व फिश टिक्का
बोतल कोई दारू की, आधी निगल जाता है .
मचता है शोर तब मयखाने में
जब दीवाना कोई होश खो जाता है .
नेता लोग देते हैं भाषण जोशीले
अपना काम तो कविता से चल जाता है .
लड़ें वो जिनके पास है ज्यादा पैसा
बंदा तो बस मुफ्त में मौज उडाता है .
टल जाएँ चुनाव ग़र सर्वसम्मति से
चीटिंग सी लगती है , लॉस हो जाता है .
रहता है यही एक अफ़सोस 'तारीफ'
चुनाव साल में बस एक बार आता है .
डेल्ही में नगर निगम के चुनाव आ रहे है.. कविता पड़कर सोच रहा हूँ की मैं भी चुनाव लड़ ही लूँ....ब्लॉगर झंडा लेकर..खोने को कुछ है नहीं...पाने का लालच नहीं...आप आयेंगे न चुनाव प्रचार करने?
ReplyDeleteखाने पीने के बगैर चुनाव लड़ेंगे ! जमानत ज़ब्त करनी है क्या ! :)
Deleteवृन्दावन लाल वर्मा ने अपनी कहानी 'मूंग की दाल'मे कवि महोदय के मुफ्त मे चुनाव जीत कर मंत्री बनने का उल्लेख किया है। आप भी मंत्री बनेंगे हमे बेहद इंतजार है।
ReplyDeleteमंत्री से संत्री ज्यादा टिकाऊ होता है । :)
Deleteनोट : यह ग़ज़ल पढ़कर हो सकता है , शायद हमें कभी चुनाव का टिकेट न मिले .
ReplyDeleteशायद????? आपको उम्मीद ही नहीं रखनी चाहिए :-)
लड़ें वो जिनके पास है ज्यादा पैसा
बंदा तो बस मुफ्त में मौज उडाता है ......fair enough..........
:-)
regards
anu
जी हम तो नहीं रखते लेकिन पार्टी वाले लड़ा देते हैं ।
Deleteअब खुद ही सोचिये आप की जब एक अपनी संस्था(डीएम्ए) के चुनाव के अन्दर इतना रस है तो दिल्ली विधानसभा और लोकसभा के चुनाव के अन्दर कितना रस नहीं होगा ? :) :)
ReplyDeleteजी बिल्कुल , रस तो बरसता है वहां । :)
Deleteपिछले कुछ दिनों से अधिक व्यस्त रहा इसलिए आपके ब्लॉग पर आने में देरी के लिए क्षमा चाहता हूँ...
ReplyDeleteइस ग़ज़ल को पढ़ कर कौन आपको टिकट नहीं देगा...जबरदस्त ग़ज़ल डाक्टर साहब अब आप हमारी बिरादरी में शामिल हो गए हैं...बधाई
नीरज
शुक्रिया नीरज जी । आप शायद होली में व्यस्त थे । :)
Deleteकई मोर्चों पर आप डाक्टर भी हम आम लोगों जैसे ही लगते हैं। आखिर,दिल है हिंदुस्तानी!
ReplyDeleteभई दिल से तो आम आदमी ही होते हैं ।
Deleteसारा चक्कर पापी पेट का है, और कहावत भी है, "मुफ्त की शराब तो क़ाज़ी को भी हलाल होती है", और साथ में चिकन, फिश, और मटन टिक्का भी हो जाएँ तो 'सोने में सुहागा'!!! अब हर लड़ाई में थोड़े बहुत सैनिक धराशायी होना तो लाजमी है!!!
ReplyDeleteसही कहा ! जो मज़ा मुफ्त में है वह और कहाँ ।
Deletebahut achchi haasya rachna.
ReplyDeleteचुनाव आखिर चुनाव ही हैं कहीं के भी हों :).
ReplyDeleteJCMar 21, 2012 05:21 AM
ReplyDeleteसारा चक्कर पापी पेट का है, और कहावत भी है, "मुफ्त की शराब तो क़ाज़ी को भी हलाल होती है", और साथ में चिकन, फिश, और मटन टिक्का भी हो जाएँ तो 'सोने में सुहागा'!!! अब हर लड़ाई में थोड़े बहुत सैनिक धराशायी होना तो लाजमी है!!!
बहुत सुन्दर.
ReplyDeleteहोने वाला है या हो गया ?
ReplyDeleteहो भी चुका और होने वाला भी है ।
Deleteलेकिन बहुत पौलिटिक्स है भाई ।
भारत में चुनाव इसी कायदे के होने लगे हैं। येन केन प्रकरेण किसी पद पर कब्जा किया जाए।
ReplyDeleteभारत में चुनाव इसी कायदे के होने लगे हैं। येन केन प्रकरेण किसी पद पर कब्जा किया जाए।
ReplyDeleteद्विवेदी जी , चुनाव लड़ने के लिए कोई तो रणनीति बनानी ही पड़ती है ।
Deleteनेता लोग देते हैं भाषण जोशीले
ReplyDeleteअपना काम तो कविता से चल जाता है
सही है सर, बहुत सही रचना लिखी है . दो लाइन मेरी तरफ से
वो नोटों से वोट हथियाते और कमाते हैं
हम मुफ्त में कविता सुना घर चले जाते हैं .
आभार
मुफ्त में सुनाने वाले जीत भी नहीं पाते हैं । :)
Deletebahut badhiyaa
ReplyDeleteहकीकत बयान करती हैं यह तीखी रचनाएं भाई जान !
ReplyDeleteवाह!!!बहुत बढ़िया कविता सही है सर....चुनाव आखिर चुनाव ही हैं कहीं के भी हो :)
ReplyDeleteहमको तो लगता है कि ई सब आपकी कबिताई सुनने का प्रोग्राम ज़्यादा है.चुनावों का क्या है,आये दिन होते ही रहते हैं !
ReplyDeleteलड़वाने में जो लुत्फ़ है , लड़ने में कहाँ !
ReplyDeleteडॉ.साहब ,
ReplyDeleteचुनाव लड़ कर आप क्या करेंगे .
जब काम,चुनाव लड़ा कर चल जाता है :-))
जय हो !
सही कहा अशोक जी . इसलिए हमने छोड़ दिया है चुनाव लड़ना .
Deleteवाह बेहतरीन ....
Deleteये अफ़सोस कर रहे हैं की चुनाव साल में एक बार आता है ... बार बार आये तो कम से कम माल पूआ तो मिल जाता है ..
ReplyDeleteसही कहा आपका टिकट कट ....
डीएमए के चुनाव में ये आलम, खुदाया!
ReplyDeleteआम चुनावों में क्या नहीं होता होगा!!
आपने तो अच्छी खबर ले ली सर....
सादर।
लड़ें वो जिनके पास है ज्यादा पैसा
ReplyDeleteबंदा तो बस मुफ्त में मौज उडाता है .
मजा, चुन ने में है ,चुन वाने में नहीं ,
खाने में है खिलाने में नहीं ,
कृपया यहाँ भी पधारें -
ram ram bhai
बुधवार, 21 मार्च 2012
गेस्ट आइटम : छंदोबद्ध रचना :दिल्ली के दंगल में अब तो कुश्ती अंतिम होनी है .