रोज सुबह
जब अस्पताल जाता हूँ ,
पाता हूँ
रोज वही भीड़ भाड़ ।
झाड़ से चेहरे, एक जैसे
कैसे कैसे
अरमान लिए आते हैं ,
क्या सबके पूरे हो पाते हैं !
देखता हूँ रोज , मैले कुचैले
एक साँस खांसते ,
पीले पड़े ज़र्द चेहरे ।
देखता हूँ बुढ़िया को डांट मारते
ज़र्ज़र बूढ़े को ,
नन्हे मासूम को चांट मारते
मायूस मां को ,
लाइन में खड़े भुनभुनाते
ग़रीब मजदूर को ,
बूढी मां को कंधे पर उठाते
आँखों के नूर को ,
और देखता हूँ
ट्रौली का इंतजार करते
प्लास्टर में लिपटे ,
दुर्घटना के शिकार मज़बूर को ।
हर जगह लाइन , हर जगह भीड़
कहीं बिना लाइन के भीड़ ।
धक्का मुक्की , शोर शराबा
लड़ाई झगडे , कभी मार पीट ।
कभी रोगी पर चिल्लाते डॉक्टर
डॉक्टर को धिक्कारते कहीं रोगी ।
कहीं रोगी को खून बेचते दलाल ,
माल चुराते भीड़ में जेब कतरे ,
कतरे खून के गिरे कहीं फर्श पर ।
कहीं फर्श पर पड़ा लावारिश ,
कहीं वारिश पर दुखों की बारिश ।
कोई पास से , कोई दूर से आता है
फिर खाली हाथ घर जाता है ।
न मिली दवाई ,
न टेस्ट की बारी आई ।
सुबह से कुछ नहीं खाया है ,
डॉक्टर ने कल फिर बुलाया है ।
देखता हूँ चेहरे , तनाव भरे
दर्द , तकलीफ , घबराहट ,
कभी यूँ ही झुंझलाहट भरे ।
टेंशन , हाइपरटेंशन
कोई फ्रस्ट्रेशन लेकर आता है ,
हमारे पास ।
अहसास, होता है हमें ऐसा
जैसा, हुआ था सिद्धार्थ को
रोगी , वृद्ध व मृत को देखकर ।
लेकिन हम इक्कीसवीं सदी के इंसान
बुद्धू से बुद्ध कैसे हो सकते हैं ।
बस कर सकते हैं , प्रयास
आंसू पोंछने का
बोलकर प्यार के दो शब्द
सुनकर उनकी व्यथा ।
यह अस्पताल है सरकारी
सूटेड बूटेड या खद्दर धारी ,
यहाँ कोई नहीं आता ।
नहीं भाता उनको यह अस्पताल
मालामाल लोगों का इलाज
फाइव स्टार हॉस्पिटल में होने लगा है ।
सुना है आजकल देश में ,
मेडिकल टूरिज्म बहुत बढ़ने लगा है ।
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excellent............
ReplyDeleteऔर हमे लगता था कि डॉक्टर्स immune होते हैं मरीजों की भावनाओं से...
i was wrong...very nice writing sir.
regards.
जी , आप भी गलत नहीं हैं । पांचों उँगलियाँ बराबर नहीं होती ।
DeleteJCMar 19, 2012 04:53 PM
Deleteसही कहा! पाँचों अंगुलियाँ बराबर नहीं होती, और पाँचों में से एक - अनूठा होने के कारण, शक्ति का प्रतीक, 'अंगूठा' कहलाता है.. ('गरीब'/ 'कमजोर' को सभी इसे दिखाते हैं .:) और केवल यही खुले हाथ की अन्य चार अँगुलियों को आराम से छू सकता है, यदि यह अकड़ न दिखाए :)
किन्तु, अनुलियाँ इसको - अकेले या एक साथ - तभी छू सकते हैं जब यह झुका हो, यानि अपने आधार पर विष्णु समान लेटा हो (अर्थात मुट्ठी आधी बंद हो)...
यह अकड़ ही आदमी को आदमी से मिलने नहीं देती, जैसे कहावत हैं कि 'फल से लदा पेड़ ही झुकता है'!
यदि कोई १७ वें आदि अध्याय को सत्य मान, उसी को न पढ़े, तो पायेगा कि गीता में भी ज्ञानी- ध्यानी कह गए कि मानव उल्टा पेड़ है, क्यूंकि उसकी जडें आकाश में हैं... और 'कृष्ण' कहते हैं फल उनके हाथ में है और वो ही निर्णय करते हैं कि किस- किस को, उनके जीवन के लम्बे सफ़र में, क्या- क्या कड़वे/ मीठे फल, किस माध्यम से कब- कब देने है - बैक्टीरिया के रूप में हों अथवा वाइरस के; अमीर हो अथवा गरीब; आदि आदि...:) ...
अस्पताल जाना आजकल युद्ध में जाने सरीखा हो गया है।
ReplyDeleteअच्छी कविता। :)
अनूप जी , सरकारी अस्पताल बोलिए ।
Deleteआपकी संवेदनशीलता को सलाम भाई जी ...
ReplyDeleteजहाँ अस्पताल ही बीमार हों,वहाँ मरीजों का हाल क्या होगा,
ReplyDeleteवहाँ एक के बदले कई बीमारियाँ मिलती हैं हमें !
संतोष जी , जहाँ बेड एक और मरीज़ चार होंगे , वो अस्पताल तो बीमार लगेंगे ही ।
Deleteजटिल है समस्या ...
ReplyDeleteसोलह आने सच बात ....
और हमारे बंधे हाथ ...
बहुत सुंदर कविता लिखी है आपने ...!
विचारमग्न विषणण करती पोस्ट!
ReplyDeleteशानदार अभिव्यक्ति ! हर चीज बारीकी से वर्णित की डा० साहब !
ReplyDeleteसुना है आजकल देश में ,
मेडिकल टूरिज्म बहुत बढ़ने लगा है ।
बिलकुल सही बात कही ! सारे घोटाले और दुराचार करने के बाद इन सूटेड-बूटेड और खद्दरधारियों तक जब कभी क़ानून पहुचने की कोशिश करता है तो ये लोग इसी टूर पर निकल जाते है !
JCMar 16, 2012 09:46 PM
ReplyDeleteएकदम सही चित्रण! कम से कम आप को 'सत्य' का बोध तो हुआ...वो दूसरी बात है कि बुद्ध स्वयं 'सत्य' के ऊपर 'परम सत्य' तक उठ पाए हो सकते हैं... भले ही अन्य अनंत को अपने साथ उठा नहीं पाए हों...
वैदिक काल में किन्तु योगी/ सिद्ध आदि "शिवोहम" कह, प्रत्येक व्यक्ति को 'माया' से ऊपर उठने का उपदेश दे गए...
उनके अमुसार सत्य वो है जो काल के साथ बदलता नहीं है... और "परिवर्तन प्रकृति का नियम है" कहावत ही इस प्रकार प्रकृति को ही असत्य, "मिथ्या जगत" दर्शाती हैं...इत्यादि, इत्यादि...
बुद्ध तो राजपाट छोड़ वैराग ले पाए, असफल होते तो कोई उनकी आज बात न कर रहा होता :)
दूसरी ओर, अनपढ़ रामकृष्ण परमहंस के पढ़े लिखे शिष्य विवेकानंद ने अपना सांसारिक कार्य करते रहना संभव है (जैसे गीता में भी लिखा है कि अपना काम, बाहरी संसार को अनदेखा कर, हर हालात में करते रहो)... यद्यपि कहना आसान किन्तु करना कठिन है, फिर भी यदाकदा कहानियाँ सुन ने को मिल जाती हैं जहाँ राजाओं ने मकड़ी से भी सीख ली...
जे सी जी , हमारी भी विडंबना यह है कि हम सत्य की खोज में संसार का त्याग नहीं कर सकते । हमें तो यहीं रहकर अपना कर्म करते रहना है ।
Deleteडॉक्टर साहिब, 'सरकारी नौकरी' में कार्यरत व्यक्तियों की यही मजबूरी है! जो मेरे देखने में आया, अधिकतर कर्मचारी तुलनात्मक रूप से लक्ष्मी का आभाव महसूस करते करते अवकाश प्राप्ति के पश्चात, अनुभव तो काफी मिले होने के कारण, किसी निजी कार्यालय / अस्पताल में काम करने लगते हैं (उनका लक्ष्य यही हो जाता है, और पहले से ही वो इस खोज में लग जाते हैं)...
Deleteजे सी जी , पैसा आदमी की ज़रुरत तो होती है , लेकिन मज़बूरी नहीं । इसे मज़बूरी -लालच बना देता है ।
Deleteहालाँकि सेवा निवृत होने के बाद काम करने में कोई बुराई नहीं यदि अनुभव का सदुपयोग हो ।
यदि सरकार और सरकारी कार्य की मजबूरियाँ हैं - जिनके कारण 'आप' परेशान हो - तो दूसरी ओर निजी क्षेत्र की भी अपनी अपनी मजबूरियाँ हैं, और उनसे कर्मचारी अछूता नहीं रह सकता - जैसे आपने पांच सितारा अस्पताल का स्वभाव दर्शाया... अर्थात 'गरीब' सभी अस्पतालों में 'अछूत' ही रह जाता है...
Deleteजो बड़ी संख्या में आत्महत्या कर रहे हैं, इस देश के किसानों की दुर्दशा तो किसी से छिपी नहीं है, क्यूंकि सरकारी तंत्र केवल कुछ सीमित संख्या को ही सम्हाल सकता है... आदि, आदि...
इस कारण यदि आप 'गरीब' का भला करना चाहते हैं , अंततोगत्वा, आपको सस्ता विकल्प ढूंढना पडेगा...
और आप भी कहते हो, "इलाज से अच्छा बिमारी से बचाव है"...
किन्तु, यदि बचाव के बारे में सोचें तो जब सम्पूर्ण ज्ञान है ही नहीं, कारण ही नहीं मालूम है किसी बिमारी विशेष का, तो आप क्या सुझाव दोगे???
जितना मेरे देखने में आया, आप जब सदियों के बाद किसी क्षण विशेष पर किसी बीमारी का इलाज पा जाते हैं तो आपके अनुसार कोई नयी 'असाध्य बिमारी' आ खड़ी होती है जनता के सामने - ऐसे ही जैसे कोई अदृश्य शक्ति आपकी परिक्षा ले रही हो, और जिसे भगवान् कहते आये हैं, अप शुतुर्मुख समान गढ़े में सर डाल विश्वास करें या नहीं, मानव समाज इस प्रकार - छोटे से छोटे विषय पर भी - अधिकतर तीन भाग में बंटता दिखता नजर आता है)...
पुनश्च - 'भाग्य' का भी रोल कभी कभी देखने को मिल जाता है -
Deleteमेरे एक सहकर्मी के भाई को कई वर्ष पहले मद्रास एपोलो हस्पताल में ऑपरेशन के लिए चार माह का समय दिया गया था क्यूंकि उस के ह्रदय के चारों वोल्व में अत्यधिक रुकावट पायी गयी थी... उस बीच दिल्ली अपने भाई के पास आया हुआ था तो तिब्बती पद्दति के माध्यम से इस बीच, अस्पताल की दवा न खा, उनकी दवा खा जब चार माह पूरे होने पर एपोलो गया तो उन्होंने कहा आपको ऑपरेशन की आवश्यकता नहीं है - आप हमारी दवा से ही ठीक हो गए...:)... शायद वो भाग्यशाली रहा होगा...
बड़ी सच्चाई से .....सच्चाई बयाँ कर दी आपने|
ReplyDeleteबधाई!
आपके अहसासों को सलाम !
अहसास, होता है हमें ऐसा
ReplyDeleteजैसा, हुआ था सिद्धार्थ को
रोगी , वृद्ध व मृत को देखकर ।
लेकिन हम इक्कीसवीं सदी के इंसान
बुद्धू से बुद्ध कैसे हो सकते हैं ।
बस कर सकते हैं , प्रयास
आंसू पोंछने का
बोलकर प्यार के दो शब्द
सुनकर उनकी व्यथा । .... बहुत सही विश्लेषण किया है
डॉ दराल साहब ,.मैं आपकी बात से पूर्ण तय : सहमत हूँ.विज्ञान संभावनाओं के क्षितिज सदैव ही खुले रखता है यहाँ अन्वेषण आग्रह मूलक नहीं हैं ,देश काल के अनुरूप हैं .
ReplyDelete.
.
यह अस्पताल है सरकारी
ReplyDeleteसूटेड बूटेड या खद्दर धारी ,
यहाँ कोई नहीं आता ।
नहीं भाता उनको यह अस्पताल
मालामाल लोगों का इलाज
फाइव स्टार हॉस्पिटल में होने लगा है ।
सुना है आजकल देश में ,
मेडिकल टूरिज्म बहुत बढ़ने लगा है ।
बहुत खूब.
यह खैराती अस्पताल है ,इलाज़ कराना है तो फाइव स्टार में जाओ ,लेकिन वहां भी लाइन में आओ .
.
.
जब तक समाज मे पैसे वालों को महत्व देना बंद नहीं होगा सब कुछ गड़बड़ ही रहेगा।
ReplyDeleteमेडिकल टूरिस्म भी देश की जरूरत हो सकता है ... पर असली सेवा वो है जो आप कर रहे हैं ...
ReplyDeleteनासवा जी , मेडिकल टूरिज्म से दो तरह के लोगों को फायदा हो रहा है --एक दूसरे देशों के मरीज़ , दूसरे हमारे देश के धनाढ्य अस्पतालों के मालिक ।
Deleteइन अस्पतालों को सरकार से कौडियो के भाव ज़मीन मिली है और उन्हें कम से कम २५ % ग़रीब लोगों का मुफ्त इलाज करना होता है । लेकिन करते एक का भी नहीं ।
ग़रीब जनता के लिए तो ये सरकारी अस्पताल ही हैं ।
रोया करेंगे आप भी पहरों इसी तरह,
ReplyDeleteअटका कहीं जो आप का दिल भी मेरी तरह
बहुत खूब .माशा अल्लाह .
ये फ़ाइव स्टार अस्पताल, अस्पताल कहे ही नहीं जा सकते ये फ़क़त इलाज़ के बाज़ार हैं. हर चीज़ के लिए नोट छापते हैं ये. काउंटर से आगे ही नहीं जाने देते ये जब तक अच्छा खासा एडवांस न ले लें, एक्सीडेंट तक के मरीज़ को इनकी एमरजेंसी में यूं ही नहीं ले जाया जा सकता. वहां पहुंचते ही सबसे पहले वे ये पता लगाते हैं कि मरीज़ के रिश्तेदार क्या बिल चुका पाएंगे ! यदि नहीं तो वहीं से कुछ मरहम पट्टी करके टालने की हर कोशिश की जाती है. सरकारी अस्पतालों के मुख्यद्वारों पर जहां एमरजेंसी वार्ड होता है, इन अस्पतालों में कैश काउंटर होता है (इमरजेंसी वार्ड कहीं दूसरी तरफ साइड में होता है)
ReplyDeleteइनके यहां भी हर सुविधा के लिए डाक्टरों-कर्मचारियों के गैंग हैं जो अपना-अपना कमीशन देखते हैं चाहे वो एंबुलेंस हो या कोई महंगा सा दूसरी प्राइवेट लैब में टेस्ट या फिर किसी इक्विपमेंट की ख़रीददारी...
बहुत से डाक्टर तो मिल कर यहां के कुछ कमरे ही किराए पर ले लेते हैं जहां वे अपने-अपने मरीजों को दाखिल करते हैं, इन कमरों का अस्पताल के बाकी लोगों से कुछ लेना देना नहीं होता. यहां आमतौर से स्पेश्लिस्ट डाक्टर आउटसोर्स ही होते हैं. जो बस अस्पतालों की सुविधाएं कमीशन/किराए पर लेते हैं, यहां इलाज कराना चावड़ी बाज़ार में शादी के समय ख़रीददारी करने जाना जैसा है यानि, जैसे वहां एक ही बाज़ार में सब कुछ मिल जाता है बस दुकानें अलग-अलग होती हैं, ठीक वैसा ही इन अस्पतालों का हाल है-- मरीज को सभी सुविधाएं एक ही जगह मिल जाती हैं लेकिन जिसके लिए कोई भी समुचित रूप से उत्तरदायी नहीं होता. इसलिए अगली बार किसी बड़े अस्पताल जाने से पहले इन बातों को याद रखना चाहिये.
यहां जाने के लिए आपके पास नोट नहीं, नोटों की गड्डियां होनी चाहिये.
सही कहा काजल जी ।
Deleteये अस्पताल नही , मॉल होते हैं जहाँ एक ही छत के नीचे सारे इलाज एक साथ हो जाते हैं फिर चाहे ज़रुरत हो या न हो । हाँ , नोटों की गड्डियां तो होनी चाहिए ।
लेकिन ऐसे भी बहुत हैं जो नोटों की गड्डियों पर ही सोते हैं । :)
विस्तार से सच्चाई खोलने का आभार!
Deleteडाक्टर साहब ,
ReplyDeleteअसल फ़र्क है बीमार की अंटी में पैसा होने नहीं होने का !
या फिर ...
कमजोर लोकतंत्र का जो जनहितैषी साबित नहीं हो पा रहा है !
अली जी , सबसे पहली समस्या है --१) आबादी । अगले १५ सालों में हम विश्व के नंबर एक देश होने वाले हैं ।
Delete२) गरीबी --करीब ४० % लोग जो गरीबी रेखा के नीचे हैं ।
३) भ्रष्टाचार -जिसके रहते सब कुछ होते हुए भी कुछ इफेक्टिव नहीं है ।
४) इच्छा शक्ति --जिसकी कमी नज़र आती है ।
यदि हम इन पर काबू पा लें तो ही कुछ सुधार की उम्मीद की जा सकती है ।
सही कहा!
Deleteडॉ साहब आप ही ऐसे कहेंगे तो सुधारेगा कौन हालत ? वैसे मैंने सुना है एम्स जैसे सरकारी अस्पतालों में वी वी आई पी की ही लाइन लगी रहती है.बेचारे आम आदमी का नंबर तो वहाँ भी नहीं आता.
ReplyDeleteशिखा जी , हम इसलिए कह रहे हैं , क्योंकि रोज देखते हैं । यह फस्ट हेंड रिपोर्ट है ।
Deleteकाश कि सुधार करना हमारे हाथ में होता !
जहाँ ३० वर्ष में ओ पी डी में मरीजों की संख्या ६०० से बढ़कर ६००० प्रतिदिन हो जाए और सुविधाएँ उतनी ही रहें , वहां क्या सुधार की उम्मीद की जा सकती है ।
फिर भी हमारा प्रयास तो यही रहता है कि मरीजों को ज्यादा से ज्यादा लाभ पहुँचाया जा सके ।
लेकिन सचमुच हालात देखकर बड़ा दुःख होता है ।
पुलिस प्रशासन , सरकारी चिकित्सा और शिक्षा से जुड़े लोगों पर अंगुली उठाने का काम आसान है , मगर जिन कठिन परिस्थितियों में ये लोंग काम करते हैं , उनके व्यवहार में परिवर्तन आता जाता है ...फिर भी कुछ लोंग अपनी संवेदनशीलता बचाए रखने में कामयाब हो जाते हैं , जो इस कविता में नजर आ रही है !
ReplyDeleteनमन !
शुक्रिया वाणी जी । सही कहा ।
Deleteमार्मिक रचना, दुखद परिस्थिति!
ReplyDeleteमार्मिक व्यंग्य।
ReplyDeleteसभी समस्याओं की जड़ में जनसंख्या वृद्धि है।
JCMar 17, 2012 09:54 PM
ReplyDeleteयद्यपि समय के साथ सभी स्थान पर बढना संभव है, जनसंख्या पहाड़ में कम होती है... किन्तु साधन और अन्य सुविधायें भी प्राकृतिक कारणों से कम होते हैं...डिजाइन समान, शत प्रतिशत मानव कभी भी और कहीं भी सदैव खुश नहीं रह सकता है - किसी फकीर को छोड़ कर :)... इस में शायद किसी अदृश्य शक्ति का ही हाथ हो जो मान्यतानुसार सभी के भीतर भी सुप्तप्राय है उर कुण्डलिनी जगाने की आवश्यकता है !!!
बहुत अच्छी प्रस्तुति.....सही विश्लेषण......
ReplyDeleteअति-सुन्दर व सटीक वर्णन------
ReplyDelete--- ५ स्टार ..अस्पतालों में भी रोगी भुनभुनाते रहते हैं एवं इतने पैसे लेकर भी सुविधा न होने का रोना रोते देखे गये हैं...
--सच में ही...बढती जनसन्ख्या एवं इच्छा-शक्ति की कमी और धन की अति-महत्ता ...इस सब का कारण है।
शुक्रिया डॉ गुप्ता ।
Deleteसमस्याओं की जड़ बढ़ती आबादी. सरकारी हो या गैर सरकारी-काम करने के इच्छुक लोग बहुत कम. जो हैं उन्हें भी नाजायज दबावों को झेलना पड़ता है. सभी जगह गिद्ध बैठे हैं. अपवाद हर जगह. अच्छे लोग भी हर जगह लेकिन कम. सरकार हर जगह अपना नफा देखे या गरीबों को. गरीब इलाज के लिए हैं या वोट देने के लिए.
ReplyDeleteयह भी शायद 'ग्रैंड डिजाइन' का ही अंश हो कि पृथ्वी पर पशुओं में सबसे बुद्धिमान माने जाने वाले प्राणी - 'मानव' - को पैदाइश के समय शून्य ज्ञान से आरम्भ कर ज्ञान वृद्धि के लिए, आम तौर पर, पांच भौतिक इन्द्रियाँ और, इनके माध्यम से प्राप्त सूचना के सही विश्लेषण हेतु, एक मस्तिष्क रुपी कंप्यूटर दिया हुआ है... किन्तु, इन्हें, विशेषकर मस्तिष्क को अधिकतर 'हम' - कुली समान - केवल सर पर ढोए फिरते हैं :( क्यूंकि उसका सही उपयोग कैसे करना है इस बात पर निर्भर करता है कि, व्यक्ति-विशेष के जीवन की राह पर, उसे कैसे- कैसे 'गुरु' मिलते हैं ... और शायद यह काल का ही प्रभाव हो कि आज अधिकतर 'गुरु' उसे भटकाते ही हैं...:(...
ReplyDeleteबहुत ही बढ़िया विश्लेषण किया है आपने डॉ सहाब वाकई सच ही लिखा है आपने
ReplyDeleteलेकिन हम इक्कीसवीं सदी के इंसान
बुद्धू से बुद्ध कैसे हो सकते हैं ।
बस कर सकते हैं,प्रयास
आंसू पोंछने का
बोलकर प्यार के दो शब्द
सुनकर उनकी व्यथा।
मगर अफसोस को पांचों की उँगलियाँ एक सी नहीं होती
यथार्थ का आईना दिखाती पोस्ट.....
इलाज़ एक ही है कि सरकारी अस्पताल उन्हें टक्कर दें। केवल एक एम्स न रहे। बिल्कुल संभव है यह सब और इसकी शुरूआत गरीब,असभ्य मरीज़ों पर दोषारोपण करने की बजाए,अस्पतालों की गंदगी समाप्त करने से हो।
ReplyDeleteराधारमण जी , एम्स की हालत भी ज्यादा अलग नहीं है . वहां-- बेड खाली नहीं है --यह स्टेम्प लगाकर मरीजों को भगा दिया जाता है दूसरे अस्पतालों की ओर .
Deleteअस्पताल में गंदगी सारी मरीज़ ही फैलाते हैं .जगह जगह थूकते हैं , पान की पीक मारते हैं .
यहाँ दोषार्पण नहीं किया गया है बल्कि हालात का आँखों देखा हाल लिखा है जो हम रोज देखते हैं .
5 स्टार अस्पतालों में इंसान आराम तथा इलाज करवाने जाते हैं , और सरकारी अस्पतालों में तकलीफ उठाने .
ReplyDeleteबहुत अच्छी पोस्ट ,बधाई .
तकलीफ तो होती है लेकिन इलाज भी हो जाता है .
DeleteNever saw medical tourism from this perspective.. though its good, but given the dire condition on millions of people in our own country it does give the feeling of partiality.
ReplyDeleteIf only the implementation of numerous policies was as good as the objectives and clauses of policies itself... things might change.
One of the finest post I've read in a very long time :)
Thanks Jyoti .
Deleteझिंझोड डाला ...
ReplyDeleteचलिए हंसने का इंतजाम कर देते हैं वर्मा जी .
Delete